भाग 83
अशोक अपने दोनों हाथों से सिर को ढकते हुए उनके वार से बचाने की नाकाम कोशिश कर रहे थे।
तभी एक ने तलवार की नोक को उनके पेट में सटा दिया और उस पर दबाव बना कर चुभाते हुए बोला,
"बोलता क्यों नही हरामजदे..! तेरा नाम क्या है..? घुसेड़ दूं पूरा पेट में…?"
तलवार की नोक चुभने से खून निकल कर कुर्ते पर लगने लगा।
अशोक दर्द से बिलबिला गए और कराहते हुए बोले,
"अशोक… अशोक नाम है।"
वो जोर से बोला,
"काफिर है साला.. मार दूं..?"
अपने मुखिया से पूछा,
मुखिया उसे रोकते हुए बोला,
"नही… रुको अभी।"
फिर अशोक के पास आ कर पूछा,
"कहां जा रहा है..?"
अशोक बोले,
"बिहार…सिवान.. के सिधौली।"
"और कोई है साथ में..?"
अशोक को लगा कि अगर बता देंगे तो ये लोग पुरवा और उर्मिला को भी मार देंगे। इसलिए बोले,
"नही..नही . अकेला ही हूं।"
पर मुखिया को संदेह था कि शायद ये अकेला नही है झूठ बोल रहा है। अपनी शंका मिटाने को बोला,
"अकेला है, अकेला है तो.. तेरा सामान कहां है..? ले चल मुझे वहां।"
अशोक सहम गए। सामान के पास कैसे ले जाएं..! वहां तो पुरवा और उर्मिला भी होंगी। अब क्या करूं..? कुछ नही सूझा तो साफ मना कर देना ही ठीक लगा। वो बोले,
"सामान ….! सामान.. नही है..। अकेला हूं सामान क्या करूंगा..?"
वो मुखिया जोर से हंसा और बोला,
"देख रहे हो तुम लोग…! ये मुझे निरा गधा ही समझता है। इतनी दूर का सफर कर रहा है। और कहता है सामान नहीं है।क्यों बे..! मेरे चेहरे पर गधा… मूर्ख लिखा हुआ है क्या..?"
फिर से तलवार वाले को तलवार चुभाने को बोला और पूछा,
"जल्दी बता ..! वरना इतना समय नहीं है हमारे पास। ढूंढ तो हम लेंगे ही। पर उसके बाद क्या हश्र करेंगे तेरा और तेरे साथ वालों का कि तेरी सात पुश्तें कांप जाएगी। जल्दी से ले चल।"
फिर अशोक को आगे कर पीठ में तलवार लगा कर धकेलते हुए चलाने लगे।
अशोक दर्द से तड़पते हुए चलने को मजबूर थे।
ना चाहते हुए भी उनको वहां तक जाना था जहां पुरवा और उर्मिला अमन के साथ बैठी हुई थीं।
अमन से पूछ ताछ कर के वो दोनो जा ही रहे थे कि अशोक को साथ लिए पीछे पीछे मुखिया और बाकी लोग आ गए। अशोक को इस हालत में देख उर्मिला तड़प उठी और खुद को रोक नहीं सकी। जल्दी से उठ कर अशोक के पास आ गई और पेट में जहां खून बह रहा था उसे छू कर तड़प कर बोली,
"ये क्या हुआ मालिक आपको…?"
जो दो आदमी जा रहे थे अशोक के साथ अपने साथियों को देख वापस लौट लिए और मुखिया से बोले,
"बड़े भाई जान..! ये अपनी ही जमात के हैं इन्हें छोड़ दीजिए।"
मुखिया विद्रूप सी हंसी हंस कर उसकी आंखों में झांकते हुए बोला,
"अच्छा..! अपनी जमात के हैं..?"
पहले वाला आदमी बोला हां भाई जान..! ये अमन साजिद खान है और ये इसकी बीवी है और ये इसकी सास है। सिवान जा रहे हैं, शमशाद हुसैन के खानदान से हैं।"
मुखिया अमन की ओर इशारा करके बोला,
"इस बित्ते भर के छोकरे ने तुम दोनो को पढ़ा दिया और तुम दोनो वही पढ़ लिए..! ये .. इसका नाम अशोक है, ये भी सिवान ही जा रहा है। ये इसकी बीवी लग रही है, तभी इसके चोटिल होने पर तड़प रही है, मालिक बुला रही है और तुम कह रहे हो अपनी ही जमात के हैं।"
अमन से कुछ भी बोलते नही बन रहा था। ये क्या हो गया..? अशोक चच्चा अगर ना आते तो उसने आई मुसीबत को बड़े ही अक्लमंदी से विदा कर दिया था। पर अब क्या करे कुछ समझ नही आ रहा था। कैसे बात को संभाले..! अब उर्मिला मौसी और अशोक चच्चा का रिश्ता तो उनकी जानकारी में आ चुका था। इस में तो वो कुछ नही कर सकता है।
पर अब किसी तरह पुरवा को बचा ले। उसकी यही कोशिश थी। वरना ये लोग जवान लड़कियों के साथ कैसा सलूक करते हैं ये उसे पता था। दूसरे धर्म की लड़कियों की आबरू की धज्जियां उड़ाने में उन्हे। बड़ा मजा आता था। पुरवा का बाल भी बांका अगर उसके रहते हो गया तो फिर धिक्कार है उसकी जिंदगी पर। इससे तो बेहतर है वो मर ही जाए।
चारों ओर चीख पुकार मची हुई थी। हर चीख के साथ अल्लाह हो अकबर का नारा बुलंद आवाज में गूंज जाता। सामने खड़े गन्ने के खेतों में कुछ जवान लड़के और मर्द लड़कियों, औरतों को भेड़ बकरियों की तरह घसीट कर ले जा रहे थे। उन लड़कियों औरतों का करुण क्रंदन, चीखना, विनती करना, हाथ जोड़ना कुछ भी उन दरिंदों पर असर नहीं कर रहा था। जैसे वो इंसान ना हो कर, इंसान के वेश में हैवान हों। दिल, भावना, संवेदना उनके अंदर बची ही ना हो। वो इस समय एक खूंखार जानवर से भी ज्यादा वहशी हो गए थे। अमन को किसी तरह कर के पुरवा को सुरक्षित रखना था।
मुखिया ने अमन को एक जोर का झापड़ उसके गाल पर पूरी ताकत से मारा और बोला,
"अबे… हराम की औलाद..! जल्दी से अपना नाम बोल दे। वरना एक मिनट से सबका सिर धड़ से अलग कर दूंगा। तू उसका बेटा है ना, और ये इसकी बेटी..?"
अशोक ने हाथ जोड़े कातर दृष्टि से अमन की ओर देखा। जैसे कह रहे हो… बेटा..! किसी भी तरह पुरवा को बचा लो.. उसकी इज्जत मत उछलने दो। कलंक का काला दाग उसके माथे पर मत लगने दो।
अमन दर्द से कराह उठा,
"मुखिया के पैरो पर गिर गया और बोला,
"भाई… जान..! अल्लाह कसम सच कहता हूं। मेरा नाम अमन साजिद खान ही है। मेरे अब्बू साजिद खान चकवाल के बड़े कारोबारी हैं। ये मेरी बीवी है। इसका मायका सिवान में है। और ये दोनो लोग भी वहीं जा रहे थे। (अशोक और उर्मिला की ओर इशारा कर के अमन बोला) रास्ते में तार्रुफ (परिचय) हुआ था। इन्होंने मुझसे अपनी मदद करने की इल्तज़ा की थी। इस लिए मैं तैयार हो गया था।"
मुखिया बोला,
"ये लोग हमारे भाई बंधुओं के साथ क्या कर रहें हैं तुझे नही पता..? तू इनकी मदद कर रहा था..? हमारा उसूल है जंग के बदले जंग, हाथ के बदले हाथ, आंख के बदले आंख और आबरू के बदले आबरू।"
बड़ी ही गंदी नजर से उर्मिला को घूरते हुए बोला।