भाग 80
सब सामान संजो कर रखने के बाद अशोक भी आराम करने लेट गए। पर पुरवा की कर आराम करने की बजाय गुड़िया के पास चली गई।
गुड़िया मुन्ना को गोद में लिए पुरवा से बातें कर रही थी तभी अमन आ गया और गुड़िया की गोद से मुन्ने को लेते हुए उससे बोला,
"गुड़िया मैं मुन्ना को संभालता हूं, जाओ तुम मेरे लिए एक गिलास पानी लेते आओ। प्यास लगी है।"
"अभी लाई भाई जान।"
कह कर पुरवा पानी लाने चली गई।
अमन पुरवा की जो उपन्यास लाया था, उसे ले कर आया और उसे पकड़ाते हुए बोला,
"पुरु..! लो अपनी किताबे रख लो। अपने इस शौख को हमेशा जिंदा रखना। पढ़ना कभी मत छोड़ना।"
पुरवा उदास स्वर में अपने हाथ के कंगन को उंगलियों से हिलाती हुई बोली,
"अमन..! मेरे पास तो तुम्हारी निशानी के रूप में ये कंगन है, जो हमेशा तुमको मेरे पास महसूस कराता रहेगा। पर … पर.. मेरे पास तो कुछ भी नही है निशानी के रूप में तुमको देने को। मैं किसी काबिल नही कि तुम्हें कुछ अपनी निशानी के रूप में भी दे सकूं। बस यही किताबें ही हैं। इन्हें रख लो। मेरी निशानी.… मेरी अमानत समझ कर।"
अमन ने उन्हें वापस अपने रख लिया और बोला,
"ऐसा क्यों सोचती हो पुरु…! तुम किसी काबिल नही हो। जो कुछ तुमने महसूस करवाया है, जो अनमोल सौगात मुझे तुमसे मिला है उसके आगे दुनिया की कोई भी बेशकीमती चीज फीकी है। इन्हें अपनी जान से भी ज्यादा संभाल कर रखूंगा। जब भी मुलाकात हो हमारी तुम इन्हें मेरे पास ही पाओगी।"
अमन वापस उन किताबों को अपने कमरे में रखने चला गया।
आठ बजे गुड़िया सब को खाने के लिए बुलाने आ गई। आज आखिरी बार सब साथ में खा रहे थे। सलमा और उर्मिला दोनों ही उदास थी कि अब बस कुछ पल का साथ है। फिर जाने कब मिलना होगा..! जितना सब कुछ बनवा सकती सलमा खाने में सब कुछ बनवाया था। अशोक के लिए खास जलेबी और रबड़ी खाने के साथ साथ ले जाने को भी बंधवा दिया था।
सस्ते के लिए खाना और पानी की सुराही भी याद करके रखवा दिया।
रात साढ़े ग्यारह बजे गाड़ी का समय था। साजिद ने सब को दस बजे ही तैयार रहने को बोल दिया था। जिससे समय के पहले ही पहुंच जाएं। भागा भागी ना मचे गाड़ी छूटने की।
साजिद समय से पहले ही सब को अपने मोटर से ले कर मंदरा रेलवे स्टेशन पहुंच गए। वही गाड़ी आने की जगह सामान रख कर बातें करते हुए गाड़ी आने का इंतजार करने लगे।
अमन ने एक छोटा सा बैग अपनी पीठ पर टांगा हुआ था जिसमे उसके कुछ जरूरी सामान थे।
साजिद बोले,
"अमन..! बेटा तुम उर्मिला बहन और पुरवा के बाद चढ़ना। मैं और अशोक भाई सामान थमा देंगे, फिर अशोक भाई भी चढ़ जायेंगे। रुकने का समय तो तुम सब देख ही चुके हो कितना है।"
अमन बोला,
"आप परेशान ना होइए अब्बू..! सब हो जायेगा।"
तभी सलमा ने पूछा,
"वैसे तुम कब वापस आओगे…? कल शाम तक तो आ जाओगे ना।"
अमन ने जवाब दिया,
"अब देखिए अम्मी.! अगर समय से पहुंच गया.. काम हो गया तो.. तभी तो आऊंगा। वैसे मुझे लगता है दो चार दिन तो लग ही जायेगा।"
सलमा को कुछ याद आ गया। वो बोली,
"या अल्लाह..! तू और तेरी पढ़ाई तो सब से जुदा है। क्यों..? चमन ने भी तो इम्तहान पास किया था। उसका अंक पत्र तो वहीं चकवाल में ही मिल गया था। अब तेरा क्यों लाहौर में मिल रहा है..?"
अमन को इस सवाल जवाब की अम्मी से बिल्कुल भी आशा नही थी। वो घबरा गया और बोला,
"अम्मी..! वो… वो… नियम हमेशा बदलते रहते हैं ना … इस लिए। चमन भाई जान को तो चार बरस हो गए पास हुए। अभी इसी साल से तो नया नियम आया है। फिर जब मुझे ही आज पता लगा.. स्कूल जा कर, तो आपको भला कैसे पता होगा..!"
सलमा झल्लाते हुए बोली,
"ये लोग भी ना… बच्चों को परेशान करने को रोज नए नए नियम कानून लगाते रहते हैं। अब यही देते थे अंक पत्र तो जाने क्या तकलीफ होती थी इन्हें जो अब लाहौर में बुला कर दे रहे हैं।"
अशोक बोले,
"सही बात सलमा.. बहन..! बच्चों को परेशान कर के जाने क्या हासिल होगा इनको।"
तभी गाड़ी आने का एलान हो गया। दूर से गाड़ी आने की आवाज सुनाई देने लगी।
सलमा को पता था कि अब बस दो मिनट में गाड़ी आ जायेगी। वो पहले पुरवा को गले लगाते हुए बोली,
"तुम अपनी शादी में अपनी मौसी को जरूर बुलाना बिटिया।"
फिर उर्मिला को गले लगा कर दोनो की आंखो से आंसू झरने लगे। दोस्ती का रिश्ता हर रिश्ते से ऊंचा और हर नाते से पाक होता है। जिसमे धर्म और मजहब का कोई स्थान नहीं होता..। अगर कुछ महसूस होता है तो सिर्फ और सिर्फ अथाह लगाव और अपनापन। सिर्फ उसके भले रहने और कामयाबी की कामना। जहां भी रहे खुश रहे।
तेजी से चीखती हुई गाड़ी आई और एक झटके से खड़ी हो गई।
उर्मिला, पुरवा और अमन तेजी से चढ़ गए। साजिद और अशोक जल्दी जल्दी सामान अमन को थमाने लगे।
और गाड़ी के हॉर्न देते तक सब कुछ चढ़ा कर अशोक भी ऊपर हत्था थामे खड़े थे।
गाड़ी सरकने लगी.. सलमा और साजिद नीचे खड़े हाथ हिला रहे थे और अशोक और उर्मिला गाड़ी के अंदर से। साजिद और सलमा तब तक उनके डिब्बे के साथ चलते रहे जब तक गाड़ी ने रफ्तार पकड़ कर उनको पीछे नहीं छोड़ दिया।
उदास सी सलमा गाड़ी के आखों से ओझल होते ही वापस लौट पड़ी। साजिद ने सलमा के कंधे पर हाथ रख कर दिलासा देते हुए बाहर निकल आए।
मोटर में आ कर बैठे और साजिद ने स्टार्ट कर आगे बढ़ा दिया।
सलमा उदास स्वर में बोली,
"ये लोग थे तो घर में कितनी रौनक रहती थी ना। अब घर कितना सूना लगेगा ना।"
साजिद बोले,
"दुखी मत हो सलमा…! दो चार दिन बुरा लगेगा फिर आदत पड़ जायेगी। अब वो आ गए.. इतने दिन रुक गए यही बड़ी बात है। अब उनकी भी मजबूरी है, आखिर कितने दिन अपना घर बार छोड़ कर रुकते।"
पर साजिद ने असल वजह जाने देने की नही बताई। आज कल देश में कैसा माहौल चल रहा है ये जान कर बेकार में ही वो परेशान हो जायेगी। इस लिए कुछ भी नही बताना ही बेहतर था। बस वो बा खैरियत अपने घर पहुंच जाए बस यही इस वक्त जरूरी था।