भाग 55
साजिद और अशोक ट्रेन खुलने पर वापस अपनी जगह पर आ कर बैठ गए। अब तक उस व्यक्ति की बातें से दोनो ही संजीदा हो गए थे। साजिद अशोक से कहने लगे,
" एक हम है कि बस अपना कारोबार.. अपना धंधा, अपना परिवार, अपने बच्चे इसी में उलझे हुए हैं। देश में क्या हो रहा है इससे हमें कोई मतलब ही नहीं है। आखिर हम भी तो गुलाम हैं इन गोरों के। पर हम क्यों आगे आ कर बलिदान दे..! हम क्यों अपनी आराम की जिंदगी में खलल पैदा करें। इसके लिए तो मोहन जैसे आजादी के दीवाने है ना।"
अशोक बोले,
"हां साजिद भाई..! आप बिलकुल सही कह रहे हैं। ये जिम्मेदारी एक एक दूसरे के ऊपर ना छोड़ का के, एक दूसरे का मुंह नही देख कर अगर घर घर से बच्चा बच्चा उठ खड़ा हुआ होता तो ये गोरे अब तक कब का भाग गए होते। पर हम तो हैं ही बुजदिल। एक छोटा सा बच्चा.. अपने प्राणों की आहुति भारत माता को दे गया।"
साजिद बोले,
"अब इस उम्र में जेल जाने और पुलिस का डंडा खाने की हिम्मत तो नही बची है अशोक जी। अब मैं सोच रहा हूं मोहन जैसे जिनके परिवार की देख भाल की जरूरत है। उनको आर्थिक मदद पहुंचाने की कोशिश करूं… जिस तरह उनके काम आ सकूं आऊं। अब तो इसी रास्ते देश के लिए कुछ कर सकता हूं।"
अशोक बोले,
"अब वही वक्त आ गया लगता है। आंदोलन चरम पर है। अब गांधी बाबा मानने वाले नही हैं बिना पूर्ण आजादी लिए। अब ज्यादा समय नहीं लगना चाहिए हमें आजादी मिलने में। (फिर लंबी सांस लेते हुए बोले) अब क्या बताऊं… मैं आपको. साजिद भाई अपनी कहानी…! मेरे पिता जी को स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों की मदद के आरोप में ही तो गिरफ्तार कर लिया गया था। मेरी माई ने कई बार जेल जा कर पिता जी से मिलने पता, लगाने की कोशिश की। पर ना मिलने दिया गया, ना ही कुछ उनके बारे में कुछ बताया गया। फिर ना जाने क्या हुआ उनके साथ..जेल में..! एक दिन अचानक खबर आई कि उनकी मौत हो गई है। दाह संस्कार वहीं जेल के करीब ही हो रहा है। दो सिपाही आए और मुझे और माई को अपने साथ ले गए। मेरा हाथ पकड़ कर मुझसे मुखाग्नि दिलवा दी गई। मैं अनाथों जैसा पला। माई इस दुख से टूट गई थी। मुझे इन सब आंदोलनों में जाने से दूर ही रक्खा। जब उसे अपना ही होश नही था तो मुझे कैसे संभालती। किसी तरह दिन कटे हमारे। फिर उर्मिला के साथ मेरी शादी कर दी और निश्चिंत हो गई मेरी तरफ से। फिर पुरवा की छट्ठी के अगले दिन इस दुनिया से विदा ले लिया।"
साजिद ने अशोक के कंधे पर हाथ रक्खा और बोले,
"अब क्या किया जा सकता है अशोक भाई…! सब किस्मत का लेखा है। इसका मतलब एक आहुति आपके परिवार से पड़ चुकी है स्वतंत्रता संग्राम में। आप सौभाग्यशाली हैं। मैं भी पूरी कोशिश करूंगा कि आज़ादी मिलते मिलते एक दो बूंद ही सही अपना भी लहू का बलिदान कर सकूं।"
पुरवा मुंह बाए सब कुछ समझने की कोशिश कर रही थी कि आखिर हुआ क्या है जो सब आज इस तरह की बातें कर रहे हैं। लहू बलिदान, कुर्बानी,आजादी, ये सब क्या बातें हो रही हैं। जब उसकी नींद टूटी थी तो यही नजर आया था कि बाऊ जी, साजिद मौसा जी और अमन बाहर गाड़ी के दरवाजे पर किसी को छोड़ने गए थे। जब नीचे देखा तो नीचे किसी आदमी को गाड़ी से उतर कर एक बच्ची के सहारे जाते हुए देखा था। अब बात देश,आजादी,कुर्बानी की हो रही थी। बात क्या हुई थी उसे कुछ पता नहीं था। उसके सोने के बाद ऐसा क्या हुआ कि सभी के बीच बात चीत का विषय बिलकुल ही बदल गया है। साथ ही उसे अपने परिवार के, अपने दादा जी के बारे में एक नई ही बात पता चल रही है। आज तक कभी अम्मा और बाऊ जी ने बड़े में उसे या चंदू नंदू को कुछ भी नहीं बताया था।
पुरवा ने धीरे से बगल में बैठी उर्मिला को खोदा… और पूछा,
"क्या हुआ अम्मा…! ये जो अभी नीचे उतरा बच्ची के साथ. ये कौन था..?"
उर्मिला ने घूर कर देखा और बोली,
" तू तो बस.. सोती रह। क्या करेगी कुछ और जान कर।"
पुरवा को घर से निकले काफी देर हो गई थी। वो घर से चलते वक्त ही हल्की हुई थी। अब बड़े ही जोर से उसे जरूरत महसूस हो रही थी। पर कहां जाए उसे ये जानकारी नहीं थी। पहली बार जो बैठी थी गाड़ी में। वो उर्मिला से बिलकुल सट कर बोली,
"अम्मा..! जाना है।"
और अपनी कानी उंगली को बगल में ओढ़नी में छुपा कर दिखाया।
उर्मिला ने उसे रुकने का इशारा किया।
इधर मुंगफली के सारे ठोगे अमन के पास ही थे। सभी ने अपना अपना खा कर खत्म कर दिया था। बस उसमे से पुरवा वाला ठोंगा बचा हुआ था। वो उसे थमा कर अपनी जिम्मेदारी से छूट जाना चाहता था। उसने पहली बार पकड़ाने की कोशिश की। पर पुरवा ने नही लिया। फिर देने की कोशिश की तो वो ये कह कर कि अभी ले लेती हूं। उसे शांत कर दिया।
एक तरफ पुरवा को जल्दी से जाना था, दूसरी तरफ अमन उसे मुंगफली खाने को बार बार कह रहा था। वो झल्ला कर बोली,
"रख दीजिए ना..। अभी नही खा सकते हम।"
अमन बोला,
"पर क्यों…? छीलना भारी लगता है तो मैं छिले देता हूं।"
पुरवा ने पुनः अम्मा को अपनी समस्या बताई।
पर इस बार पुरवा ने बहुत जतन से छुपा कर अम्मा को अपनी जरूरत बताई थी। लेकिन बगल में बैठी सलमा से नहीं छुप पाया। वो ताड़ गई पुरवा की परेशानी। साथ ही ये भी कि आखिर क्यों वो मुंगफली नही खा रही।
वो बोली,
"क्या… उर्मिला..! बच्ची कब से तुमसे कुछ कह रही है और तुम उसकी बात पर ध्यान ही नहीं दे रही हो।"
दर असल उर्मिला को तीन तीन मर्दों के बीच से बेटी को ले कर जाने में थोड़ा संकोच हो रहा था।
सलमा उठ खड़ी हुई और बोली,
"आओ बिटिया .! बैठे बैठे पैरों में झुनझुनी चढ़ गई है ना। चलो थोड़ा सा इधर उधर चहल कदमी कर लो तो ठीक हो जायेगा।"
पुरवा और उर्मिला सलमा की समझदारी की कायल हो गईं। पुरवा झट से उठ कर सलमा के साथ चल दी।
सलमा ने पुरवा को आखिर में बने शौचालय तक पहुंचा दिया। फिर उसका दरवाजा खोल कर बोली,
"जाओ पुरवा..! "
साथ ही इस्तेमाल का तरीका भी बता दिया।
पुरवा ने पहली बार ऐसा छोटा कमरा देखा था। जिसे शौचालय के रूप में इस्तेमाल किया जाता है। उसके गांव में तो सब खेत में ही जाते है।