भाग 8
अब नाज़ का निकाह तय हो गया था तो नईमा उसे कहीं बाहर जाने नही देती थी। जब तक कि कोई बहुत जरूरी काम ना हो। नईमा ऊपरी भूत प्रेत, जिन्न से बहुत डरती थी। उसने सुन रक्खा था कि लगन तय लड़कियों को बहुत जल्दी पकड़ लेते हैं।
अब नईमा चाची को राजी करना था तो थोड़ा सा तो तेल लगाना ही पड़ेगा।
पुरवा उछलती कूदती नईमा के पास आई और दुलराते हुए बोली,
"चाची….! आज कई दिन बाद हम आए है इस्माइलपुर से। नाज़ के बिना वहां बिलकुल भी अच्छा नही लग रहा था। पर मां की वजह से रुकना पड़ा।"
फिर नईमा के चेहरे को देखते हुए बोली,
"चाची…! हम और नाज़ बाग वाले पोखरा तक घूम आए। कई दिन हो गए। अब हम नही थे तो नाज़ भी नही ही गई होगी।"
नईमा जो ढेर सारे चावल ले कर उन्हें सूप से साफ कर रही थी। अपना हाथ रोक कर बोली,
"जा… यहीं छत पर घूम ले। इतनी दूर कहां जायेगी…? फिर उसका निकाह भी तय हो गया। ऐसे में बाहर निकलने से काला साया पड़ने का डर रहता है।"
पुरवा ठुनकते हुए बोली,
"चाची….! डेढ़ हाथ के छत पर घूमने में क्या खाक मजा आयेगा…? पोखरा किनारे घूमने का मजा ही कुछ अलग है।"
फिर नईमा को इमोशनल ब्लैक मेल करते हुए चेहरा लटका कर बोली,
"चाची…! कुछ ही दिन की बात है। फिर तो नाज़ चली ही जायेगी। तब मैं भला किसके साथ घूमने जाऊंगी…? ठीक है बंद तो होना ही है घूमना। फिर अभी से ही बंद कर देना ठीक रहेगा।"
फिर उठते हुए बोली,
"अच्छा चाची …! मैं फिर जाती हूं।"
नईमा भावुक हो गई। उसकी आंखें भर आईं। ये सोच कर कि नाज़ जो अब तक इस आंगन में खेलती है। बस अब कुछ ही दिन की मेहमान है। फिर तो पराई हो जायेगी। मेरा सारा हक़ अधिकार खत्म हो जाएगा बेटी पर से। अभी तो जैसे कल की ही बात है नाज़ उसके जीवन में बाहर बन आई थी। फिर दिन, साल कैसे बीते पता ही नही चला। नाज़ कब इतनी बड़ी हो गई उसे और बब्बन को पता भी नही चला। बेटी ब्याह लायक हो गई है उसका एहसास तब हुआ जब शमशाद भाई आरिफ का रिश्ता ले कर आए। बस कुछ ही दिनों की मेहमान है नाज़।
एक बार विदा हो कर ससुराल चली जायेगी। फिर जाने कब उसके ससुराल वाले भेजेंगे। जब तक है खुल कर अपने मन मुताबिक हंस खेल ले। घूम फिर ले। ऐसा सोच कर नईमा बोली,
"ठीक है…। पुरवा बेटी.. ! जाओ तुम दोनो पर अंधेरा होने के पहले समय से लौट आना। और हां ..! पानी में अंदर मत जाना।"
वापस जाने को मुड़ी पुरवा लौट पड़ी और खुश होते हुए नईमा से बोली,
"शुक्रिया चाची…! बिलकुल चाची…! हम समय से लौट आयेंगे। आपको कोई शिकायत नहीं होगी। और पानी में हम नहीं जाएंगी। बस किनारे पर ही बैठ कर बातें करेंगी।"
नईमा बोली,
"जा.. नाजों तैयार हो जा।"
नाज "जी अम्मी..!" कह कर पुरवा का हाथ पकड़े अपने कमरे की और चली गई।
निकाह तय होने के बाद आज नाज का पहली बार आरिफ से मिलना हो रहा था। इसके पहले नाज़ को कोई फिकर नही होती थी कि उसने क्या पहना हुआ है..? वो कैसी दिख रही है..?
पर… आज..? आज उसे अजीब सी फीलिंग आ रही थी।
कमरे में आ कर अपना बाहर पहनने वाले कपड़े का बक्सा खोला। कभी कोई कमीज उठाती, कभी कोई सलवार। कभी शरारा निकाल लेती। अजीब से असमंजस में थी वो। फिर झुंझला कर बोली,
"पुरवा…! मुझे तो कुछ समझ नही आ रहा..! अब तू ही बता मैं क्या पहनूं…..?"
पुरवा जो पास बैठी नाज़ को ऐसे कपड़ों के चुनाव में उलझा देख मुस्कुरा रही थी। नाज की ठुड्ढी पकड़ कर हिलाते हुए बोली,
"मेरी… बन्नो..! तू कुछ भी पहन ले। कमाल ही लगेगी। पर देख रही हूं तू कपड़ों को ले कर तो इतना परेशान कभी नही होती थी।"
फिर ’हूं…. ’ करते हुए बोली,
"पहले कभी आरिफ भाई से मिलने भी तो नही गई थी। ये उन्हीं का असर है।"
नाज पुरवा की बात सुन कर शर्म से गुलाबी गुलाबी हो गई। मुस्कुराते हुए बोली,
"अब बस भी कर पुरवा मुझे छेड़ना…! बता ना मैं कौन सा पहनूं इनमे से..?"
पुरवा ने गौर से बक्से में पड़े कपड़ों को उलट पलट कर देखा और एक नींबू पीले रंग का सलवार कमीज निकाल कर नाज़ को पकड़ा दिया।
नाज़ ने उसे पहना और पुरवा ने उसके लंबे बालों की ढीली ढीली सी चोटी बना दी। अब वो बाहर जाने को तैयार थीं।
नाज़ अपनी ओढ़नी सर पर संभालती हुई पुरवा के साथ कमरे से बाहर निकली और नईमा से बोली,
"अम्मी….! हम जा रहे है।"
नईमा ने नजर उठा कर देखा….. नाज़ को। और फिर नजरें घुमा ली। फिर दुआ करने लगी कि कही मेरी ही नजर न मेरी बच्ची को लग जाए। सुना है बच्ची को मां की नजर ही बहुत जल्दी लगती है। इस लिए अपने चारों ओर थू …थू… थू …. कर नजर ना लगने का गांव का पारंपरिक टोटका किया।
फिर बोली,
"बच्चियों….! समय से आ जाना।"
फिर नाज़ और पुरवा पोखरा वाले आम के बाग की ओर चल दी। दोनों हंसती मुस्कुराती,आपस में बातें करती रही रास्ते भर। पोखरा घर से कुछ आधा पौना मील की दूरी पर था।
बातों में रास्ता कब बीत गया उनको पता भी नही चला।
ऐसे ही नही नाज़ और पुरवा का मन पसंद स्थान था ये। करीब बीस कट्ठा में फैला था ये पोखरा। इसके चारों ओर आम के पेड़ लगे हुए थे। इस बाग में आम के साथ साथ कुछ पेड़ अमरूद, कुछ एक इमली के पेड़ कुछ लीची के। कुल मिला कर मिले जुले पेड़ो का बाग था ये। जिसमे आम के पेड़ की अधिकता थी।
मार्च का महीना था। आम मोजरों से लदे हुए थे। जैसे प्रकृति ने पेड़ की हर डाल हर फुनगी को हल्के सुनहरे मोजरो का ताज पहनाया हो।
मोजरों की भीनी भीनी खुशी से पूरा बाग गमक रहा था। कोयल की मीठी कूक मन को मोह रही थी।
नाज़ और पुरवा दोनों ने इधर उधर देखा। आरिफ कही नही दिखा। उन्होंने सोचा शायद आने में देर हो गई हो उनको। या फिर कहीं ऐसा तो नहीं कि वो दोनों ही देर से आई हो और आरिफ बिचारे इंतजार कर के लौट गए हो।
नाज़ ने सवालिया नजरों से पुरवा को देखा।
पुरवा उल्टा नाज़ को ही सुनाने लगी।
"क्या….? तू मुझे ऐसे क्यों देख रही है…? मैं तो जल्दी ही आ रही थी। तेरी ही तैयारी नही हो पा रही थी। मोहतरमा … कपड़े ही नही चुन पा रही थीं। तो मैं क्या करूं…? लगता है आरिफ भाई आ कर लौट गए।"
क्या सचमुच आरिफ आ कर लौट गया था…? या कोई और बात हो गई थी…? क्या आरिफ से नाज़ की मुलाकात हो पाई….?"