भाग 1
सन् उन्नीस सौ सैतालिस का समय बिहार के सिवान का एक छोटा मगर समृद्ध गांव। हर तरफ आजादी की मांग चरम पर पहुंच चुकी थी। देश के कोने कोने से, हर घर घर से बस एक ही आवाज उठ रही थी आजादी… आजादी … आजादी….। गांधी का अंग्रेजों के खिलाफ भारत छोड़ो आंदोलन अपने चरम पर था। हर दिल में असमंजस की स्थिति थी। कभी कोई खबर उड़ती उड़ती गांव में पहुंचती .. तो कभी कोई..। क्या बंटवारा होगा…! अगर होगा तो कैसे होगा…? भला ये कैसे संभव होगा…? कौन सा हिस्सा किसके हाथ सौंपा जाएगा….? क्या बंटवारे करना… शरीर को धड़ से जुदा करना नही होगा…? देश का हर हिस्सा तो एक दूसरे से प्यार और लगाव की चाशनी से गुथा हुआ है। किसे काट कर अलग करोगे…? क्या ये आम जनता से नही पूछा जायेगा…? देश का कोना कोना तो रिश्ते की डोर से बंधा हुआ है। कोई भी हिस्सा तो पराया नही लगता। फिर किसे ये नेता लोग अलग करेंगे..? पाकिस्तान की मांग जोरों पर थी। पर आम जन मानस के मन को ये बंटवारा स्वीकार नहीं था। उनको गांधी जी पर पूरा विश्वास था कि किसी भी हालत में वो देश को बंटने नही देंगे। सब को यही लगता था कि जिन्ना जी अभी नाराज है तो मुस्लिमों के लिए अलग देश की मांग कर रहे है। जब गुस्सा उतरेगा… और उन्हें महसूस होगा कि वो गलत मांग कर रहे हैं। जब आजादी की जंग मिल कर लड़ी तो आजादी के बाद अलग क्यों होंगे…? जब हिंदू और मुसलमान भाई आपस में मिलजुल कर रहे हैं। उन्हें साथ रहने में कोई आपत्ति नहीं तो ये मुस्लिम लीग और जिन्ना कौन होते हैं हमें अलग करने वाले।
परंतु जिन्ना के नुमाइंदे उनका पैगाम आम मुस्लिमों तक पहुंचाने की पुरजोर कोशिश कर रहे थे। उनका कहना था कि आजाद भारत में मुस्लिमो को उनका वाजिब हक नही मिलेगा। उनके साथ अभी भी ज्यादती होती है और आजादी के बाद तो और भी ज्यादा होगी।
जब रास्तों, चौपालों, चाय की दुकानों पर अखबार पढ़ते हुए चर्चा शुरू होती तो मुस्लिम लींग के नुमाइंदे आम मुस्लिम जनता को समझाने की कोशिश करते कि जिन्ना साहब ठीक कह रहे हैं। उनका फैसला सही और हमारे भले के लिए है। हमें उनका साथ देना चाहिए।
जैसे बार बार कोई बात गलत बात भी दोहराई जाए तो सही लगने लगती है। वैसे भोली भाली आवाम को भी समझाना कोई मुश्किल काम नहीं था। वो जिन्ना की बात को मानना अपना धर्म समझने लगे। उन्हें जिन्ना में अपने धर्म का सही हितैषी नजर आने लगा।
इन सब के बावजूद अभी गांवों की हवा में ये जहर नही फैल पाया था। गांव देहात के मुस्लिम भाई इस अलगाव की राजनीति से खुद को दूर रक्खे हुए थे। उनके लिए अब्दुल और अमर एक जैसे ही पड़ोसी थे। जितना सुख दुख अब्दुल का उन्हें महसूस होता… उतना ही अमर का भी। दोनो के लिए समान भावना थी। आपसी भाईचारा अभी भी कायम था। किसी के मन एक दूसरे के प्रति मैल नही था, ना ही कोई दुर्भावना ने जन्म लिया था।
ऐसा ही एक गांव सिवान जिले का इस्माइलपुर कस्बा भी था। शमशाद हुसैन क्षेत्र के बड़े जमींदार थे कुछ समय पहले तक। मुगलों ने जागीरदारी दी थी। जिसे अंग्रेजों ने बारी बारी कर कई गांव उनसे छीन लिए थे। क्यों कि वो उनके प्रति आस्था ना रख कर देश के प्रति रखते थे। कुछ गांव ही बचे थे उनके पास।
भले ही जागीर छिन गई थी उनसे और कुछ गांव ही था उनके पास। पर उनकी प्रतिष्ठा में कहीं कोई कमी नही आई थी। बाप दादाओं का जो रुआब, शान और इकबाल था वो आज भी कायम था। क्षेत्र का बच्चा बच्चा उनकी दिल से इज्जत करता था।
अब उन्हीं शमशाद हुसैन के छोटे भाई सामान बेटे आरिफ हुसैन का निकाह तय हुआ था। घर ही नही पूरे गांव में शादी का जश्न मनाया जा रहा है। हर शख्स खुशी में ऐसे झूम रहा था जैसे उसके ही घर में शादी हो। इस खुशी में शामिल होने वालों में कोई एक धर्म के लोग नही थे। इसमें हिंदू मुस्लिम का फर्क किए बगैर सभी शामिल थे।
हो भी क्यों ना जमींदार शमशाद खान के अजीज भाई सामान बेटे की शादी है। निकाह के पंद्रह दिन पहले से मेहमान जुटने शुरू हो गए थे। आस पास के रिश्तेदार तो आए ही थे दूर दराज के रिश्तेदार भी इस शादी में शामिल होने आए थे।
इनमे ही एक थे। रावलपिंडी से करीब सौ किलोमीटर दूर चकवाल के रहने वाले शमशाद के खाला और खालू जान। इतनी दूर से जल्दी जल्दी आना नही हो पाता था। पिछली दो शादियों में उनका आना नही हो पाया था। तो इस बार शमशाद की अम्मी ने अपने बहन बहनोई को खत में लिखवा भेजा था कि कैसे भी कर के निकाह में शामिल होना ही होगा…? कोई बहाना… कोई मजबूरी नही चलेगी। खानदान की आखिरी शादी है उन्हें समय निकाल कर कुछ दिनों के लिए आना ही होगा।
जब शमशाद के खालू साजिद और खाला सलमा ने जब खत पढ़ा तो उनको भी लगा कि जब इतना इसरार कर के बुला रहे हैं तो जरूर जाना चाहिए। पर कारोबार और परिवार की जिम्मेदारियां इतनी थी कि कहीं निकलना होता ही नही था। साजिद ने सलमा से जाने के बारे में पूछा और उसकी इच्छा जाननी चाही। वो बोले,
" बड़े ही प्यार से बुलाया है तुम्हे। क्या कहती हो..? जाना चाहो तो चली जाओ। मैं इंतजाम कर दूंगा।"
सलमा को भी बहन और मायके की याद शिद्दत से आने लगी। शमशाद की अम्मी कलमा और सलमा में उम्र में अच्छा खासा फासला था। कलमा सबसे बड़ी थी और सलमा सबसे छोटी। बीच में तीन भाई थे। सबकी लाडली छोटी सलमा का निकाह इतनी दूर किया जाए ऐसे किसी की भी इच्छा नहीं थी। पर खानदान से ही एक परिवार कारोबार के लिए वहां जा कर बस गया था। उनके कारोबार ने खूब तरक्की की। फिर जब बेटे के निकाह की बात आई तो लड़की अपने खानदान और अपने पुश्तैनी गांव से लाने का फैसला हुआ। जिससे आना जाना होता रहे। अपने लोगों से रिश्ता कायम रहे। इस लिए सलमा को चुना गया साजिद के लिए। इस रिश्ते में एक खामी दूरी को छोड़ दें तो सारी खूबियां ही खूबियां थी। साजिद के अब्बू का ऐसा रुतबा था इस खानदान पर कि सभी ने इस रिश्ते को हाथों हाथ लिया। कुछ समय तक तो दोनो तरफ से आना जाना बना रहा। फिर सलमा के भी बाल बच्चे हो गए, वो पढ़ने लिखने लगे तो आने जाने में पढ़ाई का हर्ज होने लगा। इस कारण मायके जाने का अंतराल बढ़ने लगा। और धीरे धीरे बढ़ता ही गया। जिम्मेदारियां बढ़ने से अब तो शादी ब्याह में भी जाना नही हो पाता था। अब इस अचानक आए खत ने सब पिछली यादों को ताजा कर दिया था।
शमशाद की अम्मी अपनी छोटी बहन सलमा को बेटी जैसा प्यार दुलार देती थी। सलमा भी बड़ी बहन को अपनी अम्मी से कम इज्जत नहीं देती थी। अभी तक का दबा हुआ प्यार इस खत के आने से सलमा के दिल में हिलोरे मारने लगा। अम्मी अब्बू, भाई बहन सब की याद सताने लगी। जैसे इस खत ने दिल में दबी हुई चिंगारी को हवा दे दी थी। अब जब जायेगी तो वहीं पास में मायका भी तो है। बूढ़ी अम्मी अब्बू जान से भी मिलना हो जायेगा। कम से कम इसी बहाने वो जा सके। वैसे तो जाना हो नही पाएगा।
साजिद ने पूछ लो लिया सलमा से जाने को। पर इन हालात में घर छोड़ कर जाना थोड़ा मुश्किल था।
क्या सलमा अकेली ही शमशाद के घर शादी में शामिल होने जायेगी…? क्या साजिद उसे भेजेगा…? क्या सलमा की अपने घर वालों से मिलने की इच्छा पूरी हो पाएगी…? जानने के लिए पढ़े अगले भाग।