तैर्थिक ब्राह्मण पर कृपाएक दिन एक ब्राह्मण तीर्थों में भ्रमण करता हुआ नवद्वीप नगर में उपस्थित हुआ। वह गोपाल मन्त्र के द्वारा श्रीकृष्ण की उपासना करता था। उसने अपने गले में बाल गोपाल एवं शालग्रामशिला को लटकाया हुआ था। उसके शरीर से अद्भुत तेज निकल रहा था तथा वह सब समय अपने मुख से कृष्ण-कृष्ण उच्चारण कर रहा था। वह महाभाग्यवान ब्राह्मण नवद्वीप में घूमते-घूमते जब श्रीजगन्नाथ मिश्र के घर पर उपस्थित हुआ, तो श्रीजगन्नाथ मिश्र उसके अद्भुत तेज को देख झट उठकर खड़े हो गये और उसे प्रणाम किया। तत्पश्चात् उसके हाथ-पैर प्रक्षालन कराकर (धुलवाकर) उसे बैठने के लिए सुन्दर आसन प्रदान किया। जब वह ब्राह्मण सुखपूर्वक बैठ गया, तब श्रीजगत्राथ मिश्र ने पूछा “हे ब्राह्मण आपका निवास स्थान कहाँ है?”
श्रीचैतन्य चरित्र पीयूष ब्राह्मण— “मैं एक विरक्त देशान्तरी (अपने देशको छोड़कर अन्य स्थानों में घूमने वाला) हूँ तथा चित्त विक्षिप्त होनेके कारण भ्रमण करता रहता हूँ।”
मिश्र (ब्राह्मण को प्रणाम करते हुए)– “यह तो आपकी दीनता है। आप जैसे महात्माओं का चित्त चञ्चल नहीं होता, बल्कि आप जैसे महापुरुष तो जगत् के जीवों के कल्याण के लिए ही भ्रमण करते हैं। विशेष रूपसे आज तो मेरा ही परम सौभाग्य है कि आज आप मेरे घर पर पधारे हैं। आप स्व-पाकी ब्राह्मण (स्वयं ही अपना भोजन बना वाले) है, अतः आप मुझे आदेश प्रदान करें कि मैं आपके लिए रन्धन सामग्री की व्यवस्था करूँ।”
ब्राह्मण— “मिश्र! जैसी आप लोंगो की इच्छा हो, वैसा ही कीजिये।
ब्राह्मण की अनुमति प्राप्त होने पर श्री जगन्नाथ मिश्र एवं घर के अन्य लोंगो को बहुत प्रसन्नता हुई। शीघ्र ही रसोई घर को साफ कर रन्धन का सारा सामान वहाँपर रख दिया गया।
तैर्थिक विप्र ने प्रसन्नता पूर्वक रसोई बनायी तथा जब वह श्रीकृष्ण को भोग लगाने के लिए बैठा तो अन्तर्यामी श्रीशचीनन्दन गौरहरि की विप्र को दर्शन देने को इच्छा हुई। इसलिए जब वह विप्र अपनी आँखें बन्दकर श्रीकृष्ण का ध्यान करने लगा, ठीक उसी समय श्रीगोरसुन्दर उसके सामने आ गये। उस समय श्रीगोरसुन्दर (निमाइ) का शरीर धूल से लथ-पथ हो रहा था। उन्होंने हंसते हुए भोग लगाये गये अन्न में से एक मुट्ठी अन्न लेकर खा लिया आहट सुनकर जब विप्रने आँखें खोलीं तो नङ्ग-धड़ङ्ग अवस्था में एक बालक को भोग को जूठा करते हुए देखकर वह चिल्लाने लगा। “हाय ! हाय ! इस नटखट बालक ने भगवान् का भोग जूठा कर दिया।”
उसकी चिल्लाहट सुनकर श्रीजगन्नाथ मिश्र दौड़े-दौड़े वहाँ पर आये तो देखा कि निमाइ भोग खा रहा है तथा हँस रहा है। यह देखकर श्रीजगनाथ मिश्र बहुत क्रोधित होकर निमाइ को पीटने के लिए दौड़े।
परन्तु उस ब्राह्मण ने उन्हें रोक दिया तथा नम्रता पूर्वक बोला “हे मिश्र ! यह तो एक अज्ञ (नासमझ) बालक है, इसे अच्छे-बुरे का क्या ज्ञान? आप तो एक समझदार व्यक्ति हैं, अतः थोड़ा विचार तो कीजिये, क्या मारने से बालक को ज्ञान होगा? दण्ड उसे दिया जाता है, जिसे कुछ ज्ञान हो। इसलिए आपको मेरी शपथ है, जो आपने इसे मारा।”
यह सुनकर मिश्र दुःखपूर्वक अपने सिर पर हाथ रखकर सिर नीचा करके बैठ गये। अब वे तैर्थिक ब्राह्मण से क्या कहें, वे कुछ समझ नहीं पा रहे थे। उन्हें इस प्रकार शोकमग्न देखकर विप्र स्वयं ही बोला– “हे जगन्नाथ मिश्र जी आप दुःखी मत होइये। एकमात्र भगवान् ही जानते हैं कि किस दिन क्या होगा, अतः जो हुआ उसे भगवान् की इच्छा जानकर प्रसन्न हो जाइये तथा आपके घर में यदि कुछ फल-मूल हों, तो ले आइये, मैं आज वही ठाकुर जी को निवेदन करूँगा।”
जगन्नाथ मिश्र (दीनतापूर्वक)– "हे विप्रवर! यदि आपकी मेरे तथा मेरे परिवार के प्रति कृपा दृष्टि है तथा आप हमें अपना सेवक मानते हैं, तो हम सबकी प्रसन्नता के लिए आप एक बार पुनः रसोई बनाकर अपने गोपाल जी को भोग लगायें तथा उनका प्रसाद ग्रहण करें।”
ब्राह्मण– “यदि आप लोगों की इसी में प्रसन्नता है, तो मैं आप लोगों की प्रसन्नता के लिए अवश्य ही पुनः रसोई बनाऊँगा।”
यह सुनकर सभी लोग आनन्दित हो उठे तथा उन्होंने जल्दी-जल्दी रन्धनके लिए द्रव्योंको पुनः प्रस्तुत कर दिया। जब ब्राह्मण ने पुनः रसोई बनाना आरम्भ किया तो सभी लोग कहने लगे— “यह निमाइ बहुत चञ्चल है। कहीं यह पुनः भगवान् का भोग नष्ट न कर दे, इसलिए जब तक ब्राह्मण भगवान्को भोग लगाकर प्रसाद नहीं पा लेता है, तब तक इसे घर से दूर रखना चाहिये।” यह सुनकर श्रीशचीमाता निमाइ को गोद में लेकर पड़ोस के घर चली गयीं। वहाँ पर सभी स्त्रियाँ मिलकर निमाइ को चिढ़ाने लगीं।
स्त्रियाँ– “अरे निमाइ क्या इस प्रकार ब्राह्मण का अन्न खाया जाता है ?”
निमाइ (हँसते हुए )– “इसमें मेरा कोई दोष नहीं है। ब्राह्मण ने स्वयं ही मुझे बुलाया, इसीलिए में चला गया।”
स्त्रियाँ– “अरे निमाइ चोर न जाने वह ब्राह्मण किस कुलका है तथा कहाँ का है परन्तु तूने आज उसके हाथका पकाया हुआ अन्न खा लिया है, इसलिए तेरो तो जाति ही नष्ट हो गयी है, अब तू क्या करेगा ?”
निमाइ (हँसते हुए)– “आप लोग कैसी बातें कर रही हैं? मैं तो गोप जाति का एक ग्वाला हूँ तथा सदा सर्वदा ब्राह्मण के हाथ का ही खाता हूँ। अत: कुछ विचार तो करो, ब्राह्मण के हाथ का खाने से कहीं ग्वाले की जाति नष्ट होती है?”
इस प्रकार श्रीगौरसुन्दर छलपूर्वक स्वयं अपना परिचय दे रहे थे, परन्तु भगवान् की माया से मोहित होने के कारण कोई भी उनकी बातें समझ नहीं पा रहा था। उनकी ऐसी अनोखी बातें सुनकर सभी हँसने लगी।
उधर ब्राह्मण ने पुनः रसोई बनायी जब वह गोपालजी को भोग निवेदन कर आँखें बन्द कर उनका ध्यान कर रहा था, तो अन्तर्यामी श्रीगौरसुन्दर जान गये। अतः सभी लोगों को मोहित कर वे हँसते हँसते ब्राह्मण के निकट पहुँच गये तथा उन्होंने भोगपात्र में से एक मुट्ठी अन्न लेकर खा लिया। आहट सुनकर ब्राह्मण ने आँखें खोलों तो पुनः उसी बालक को भोग जूठा करते देखकर चिल्लाने लगा— “हाय हाय! इस चञ्चल बालक ने फिर से भोग नष्ट कर दिया।”
उसको हाय हाय सुनकर जैसे ही श्रीजगन्नाथ मिश्र वहाँ पर पहुँचे, वैसे ही गौरसुन्दर वहा से भाग खड़े हुए। मिश्र उन्हें पीटने के लिए उनके पीछे दौड़े।
मिश्र (क्रोधित होकर)— “अरे दृष्ट बालक तेरी दृष्टता बहुत बढ़ गयी है। अतः आज मैं तुझे पीटकर तेरी बुद्धि को ठीक करता हूँ।” ऐसा कहते हुए जब वे गौरसुन्दर के पीछे दौड़े, तो उस समय ब्राह्मण तथा अन्य लोगों ने उन्हें रोक लिया। परन्तु मिश्र का क्रोध शान्त नहीं हुआ।
मिश्र— “तुम लोग मुझे छोड़ दो, आज मैं इस टुष्ट बालक को अच्छी तरह सबक सिखाकर ही रहूँगा।”
लोग— “हे मिश्र! यह आप क्या करने जा रहे हैं? आप तो परम दयालु हैं। यदि आप ऐसे निबोध बच्चे को पीटते हैं, तो आपकी दयालुता एवं समझादारी कहाँ रही। इसका कारण है कि जो ऐसे अच्छे-बुरे के ज्ञान से रहित एक अबोध बालक को पीटते है, वह भी तो एक अबोध ही हुआ। निमाइ तो बालक है, अतः चञ्चलता तो उसका स्वभाव ही है।”
वहाँ उपस्थित लोगों की बातें सुनकर भी जब जगन्नाथ मिश्रका क्रोध शान्त नहीं हुआ तो उस ब्राह्मण ने शीघ्र हो वहाँ पर आकर जगन्नाथ मिश्र का हाथ पकड़ लिया तथा अत्यन्त नम्र एवं मधुर बचनों से बोला— “है जगन्नाथ मिश्र इस बालक का कोई दोष नहीं है। आप व्यर्थ ही उस पर क्रोध कर रहे है। वास्तव में आज मेरे भाग्य में भगवान्ने लिखा ही नहीं है। इसका प्रमाण यह है कि मैंने दो बार रसोई बनायी, परन्तु इस बच्चे ने दोनों बार उसे जूठा कर दिया।”
यह सुनकर श्रीजगन्नाथ मिश्र का क्रोध शान्त तो हुआ, परन्तु दुःखी एवं लज्जित होकर जब वे सिर नीचाकर कुछ विचार कर ही रहे थे कि उसी समय उनके बड़े पुत्र विश्वरूप वहाँ पर आ पहुँचे। उस समय उनके शरीर से दिव्य तेज निकल रहा था, समस्त अंगो से लावण्य झलक रहा था तथा उनके गलेमें यज्ञसूत्र (उपवीत) सुशोभित हो रहा था। विश्वरूप के उस अपूर्वरूपका दर्शन कर तैर्थिक ब्राह्मण मोहित हो गया तथा एकटक उन्हें निहारने लगा। कुछ क्षण तक इसी प्रकार निहारने के पश्चात् ब्राह्मण ने पूछा— “वे किनके पुत्र हैं?”
लोग— “यह श्रीजगन्नाथ मिश्र का पुत्र है।”
यह सुनकर वह ब्राह्मण विश्वरूप को अपने वक्षःस्थल से लगाकर कहने लगा— “वे माता-पिता धन्य हैं, जिनका ऐसा गुणवान एवं रूपवान पुत्र है।
विश्वरूप भी तैर्थिक ब्राह्मण को प्रणामकर बोले— “अहो। आज हमारा परम सौभाग्य है कि आज आप हमारे घर अतिथि के रूप में पधारे हैं, क्योंकि आप जैसे अतिथि तो बहुत जन्मों के सौभाग्य के फल से ही प्राप्त होते हैं। वास्तव में आप जैसे महात्माओं का भ्रमण तो जगत् कल्याण के लिए ही होता है। आप जैसे महात्मा अपने स्वार्थ के लिए या विषयभोग के उद्देश्य से भ्रमण नहीं करते, बल्कि विषय भोगों में आसक्त संसारी लोगों को कृष्ण सेवा में उन्मुख करने के लिए ही भ्रमण करते हैं। परन्तु विषय भोगों में आसक्त दुर्भागे लोग आप जैसे महात्माओं को भी अपने जैसा भोगी मानकर आप लोगों का अनादर करते है तथा इस प्रकार अपने लिए नरक का द्वार खोल देते हैं। आज हमारा परम सौभाग्य है कि आप हमारे अतिथि हुए हैं, परन्तु उससे अधिक हमारा दुर्भाग्य है कि आप जैसे अतिथि हमारे घर में अभी तक भूखे हैं। आप जैसे अतिथि जिसके घर में भूखे रह जायें, क्या कभी उस घर का मङ्गल हो सकता है? आपका दर्शन पाकर मैं धन्य हो गया, परन्तु अपने छोटे भाई की नटखटता सुनकर बहुत दुःखी हूँ।"
ब्राह्मण— “विश्वरूप। इसके लिए तुम दुःख मत करो। तुम्हारे घरमें कुछ फल-मूल हो तो ले आओ, आज मैं वही खाकर अपना निर्वाह कर लूँगा फिर में तो एक वनवासी हूं और प्रायःः फल-मूल खाकर ही रहता हूँ, इसलिए तुम मेरी चिन्ता मत करो। वैसे भी तुम्हारे दर्शन से मेरा मन प्रसन्न हो गया है। तुम्हारा दर्शन कर तो मुझे ऐसा लगता है कि जैसे मैंने करोड़ों बार भोजन कर लिया है। अतः जाओ घर के भीतर से कुछ फल मूल ले आओ, आज मैं गोपाल को वही निवेदन कर उसे ही ग्रहण कर लेता हूँ।”
विश्वरूप (सकुचाते हुए) “हे विप्रवर मुझे कहते हुए भी भय
लग रहा है, किन्तु आप तो दया के सागर हैं। आप जैसे साधुओं का स्वभाव ही है कि वे दूसरो का दुःख देखकर दुःखी हो जाते हैं। इसलिए यदि कृपाकर आप एक बार पुन: रसोई बनाकर गोपाल को अर्पणकर प्रसाद ग्रहण करें, तो मेरा एवं मेरे सारे परिवार का दुःख दूर हो जायेगा तथा सभी को परम आनन्द होगा।”
ब्राह्मण— “देखो, मैंने दो बार रसोई बनायी, परन्तु श्रीकृष्ण ने दोनों बार मुझे खाने नहीं दिया। इसलिए मुझे लगता है कि आज श्रीकृष्ण की इच्छा नहीं है कि में अन्न खाऊ। अतः इस विषय में प्रयत्न करना व्यर्थ ही है, क्योंकि घर में खाने-पीने एवं भोग की समस्त वस्तुएँ उपलब्ध होने पर भी यदि कृष्ण की इच्छा नहीं हो, तो लाख बार प्रयास करने पर भी कोई लेशमात्र भी भोग नहीं कर सकता। इसके अतिरिक्त बहुत देर भी हो गयी हैं, इसलिए इस समय क्या रसोई करना उचित है।”
विश्वरूप (ब्राह्मण के चरण पकड़कर)— “हे विप्रवर इसमें कोई दोष नहीं है, यदि आप एक बार पुनः रसोई बनाते हैं तो हम सभी को आनन्द होगा।
विश्वरूप के ऐसे नम्र व्यवहार से मोहित होकर विप्र पुनः रसोई बनाने के लिए तैयार हो गया। सभी लोगोंने जब रसोईपरको लीपकर रन्धनका सारा समान प्रस्तुत कर दिया तो ब्राह्मण ने फिर से रसोई बनाना आरम्भ किया। अब घर के सभी लोग निमाइ के विषय में विचार करने लगे कि कहीं वह इस बार फिर से भोग नष्ट न कर दे। सबने देखा कि इस समय निमाइ एक कमरे में छिपा है। तब श्रीजगन्नाथ मिश्र ने उस कमरे का द्वार बंद कर दिया तथा स्वयं दरवाजे के बाहर बैठकर पहरा देने लगे। घर को स्त्रियाँ कहने लगी कि अब चिन्ता की कोई बात नहीं है, क्योंकि निमाइ कमरे मे सो गया है तथा बाहर से दरवाजा भी बन्द है। इस प्रकार सभी लोग निश्चिन्त हो गये।
इधर कुछ समय पश्चात् ब्राह्मण ने पुनः रसोई बनायी और वह गोपालजी को भोग लगाने लगा अन्तर्यामी श्रीशाचीनन्दन जान गये। उनको इच्छा विप्र को दर्शन देने की तो थी ही। अतः उनकी इच्छा से निद्रादेवी ने वहाँ पर उपस्थित सभी लोगों को वशीभूत कर लिया, जिससे सभी लोग गम्भीर निद्रा में सो गये। अब निमाइ पुनः उस विप्र के सामने आ गये, जहाँ पर वह गोपालजी को भोग निवेदन कर रहा था। जैसे ही उस विप्र की दृष्टि निमाइ पर पड़ी तो वह घबराकर चिल्लाने लगा— “हाय! हाय! यह चञ्चल बालक फिर आ गया।”
परन्तु वहाँ तो सभी लोग भगवान् की इच्छा से सो रहे थे, अतः उसकी चीख-पुकार सुनने वाला कौन था? उसे इस प्रकार चिल्लाते हुए देखकर प्रभु श्रीगौरसुन्दर बोले— “हे विप्र तुम बड़े भोले-भाले हो। पहले तो तुम मेरा मन्त्र जपकर मुझे आह्वान करते हो, जिस कारण में तुम्हारे निकट आकर तुम्हारे द्वारा प्रेमपूर्वक अर्पण किये गये भोग को ग्रहण किये बिना रह नहीं पाता। परन्तु जब में भोग ग्रहण करने लगता हूँ, तो तुम हाय! हाय! करते हो। इसका कारण यह है कि तुम मुझे पहचान नहीं पाये हो। तुम्हारे हृदय में सदा सर्वदा मेरे दर्शन की अभिलाषा रहती है, तुम्हारी ऐसी उत्कण्ठा को देखकर ही में तुम्हें दर्शन देने के लिए आया हूँ अतः तुम मेरे स्वरूप का दर्शन करो।”
उसी क्षण उस विप्र ने भगवान् के अपूर्व अष्टभुज रूप का दर्शन किया। उन्होंने चार हाथो में शङ्ख, चक्र, गदा एवं पद्म धारण कर रखे थे। उनके एक हाथ में मक्खन था, जिसे वे दूसरे हाथ से खा रहे थे। इसके अतिरिक्त वे दो हाथों से मुरली बजा रहे थे। उनके वक्षस्थल पर कौस्तुभमणि झिलमिला रही थी, समस्त अंगो में रत्नजड़ित अलंकार एवं सिर पर मोर पंख सुशोभित हो रहा था। उनके गले में वैजयन्ती माला, कानों में मकराकृत कुण्डल तथा श्रीचरणकमलों में रत्नजड़ित नूपुर सुशोभित हो रहे थे। अगले ही क्षण विप्रने देखा कि वे एक कदम्ब वृक्ष के नीचे खड़े होकर मधुर वंशी बजा रहे हैं तथा चारों ओर से गोप गोपियाँ तथा गायें उन्हें घेरकर अपलक नेत्रों से उन्हें प्रेमपूर्वक निहार रहे हैं। इसके अतिरिक्त वह विप्र जैसा ध्यान करता, वैसा ही साक्षात् दर्शन करने लगा। भगवान् के ऐसे अपूर्व ऐश्वर्य का दर्शनकर वह सौभाग्यशाली विप्र आनन्द से मूच्छित होकर भूमिपर गिर पड़ा।
करुणा के सागर श्रीगौरसुन्दर ने जब अपने कोमल श्रीहस्तकमल से उस विप्र को स्पर्श किया तो उसकी मूर्च्छा दूर हो गयी। परन्तु आनन्द से जड़वत् हो जाने के कारण उसके मुख से एक शब्द भी न निकला। उसके शरीर में अष्टसालिक भाव प्रकट होने लगे, आनन्द से उसका शरीर काँपने लगा, सारे शरीर से पसीना बहने लगा और आँखों से गङ्गा यमुना की भाँति अश्रुधारा प्रवाहित होने लगी। अगले ही क्षण वह सौभाग्यवान विप्र प्रभु के श्रीचरणकमलों से लिपटकर जोर-जोर से रोने लगा। उसकी ऐसी व्याकुलता देखकर प्रभु श्रीगौरसुन्दर हँसते-हँसते बोले— “हे विप्र! तुम मेरे अनेक जन्मों के दास हो। द्वापरयुग में भी मैंने तुम्हें नन्दगृह में इसी प्रकार दर्शन दिया था, परन्तु तुम्हें इसकी स्मृति नहीं है। जब में गोकुल में नन्दगृह में अवतरित हुआ था, तो उस समय भी सौभाग्यवश भ्रमण करते-करते तुम श्रीनन्दमहाराज के घर में उपस्थित हुए थे तथा तुमने इसी प्रकार रसोई बनाकर मुझे भोग अर्पण किया था और मैंने इसी प्रकार तुम्हें दर्शन दिया था। तुम मेरे जन्म-जन्मों के दास हो इसीलिए मैंने तुम्हें दर्शन दिया है। मेरे दास के अतिरिक्त कोई भी मेरा दर्शन नहीं कर सकता।
युगधर्म हरिनाम-सङ्कीर्तन का प्रचार करने के लिए मैं इस धरा पर अवतरित हुआ हूँ। इसके माध्यम से मैं लोगों के घर घर जाकर उन्हें वह अमूल्य वस्तु प्रदान करूँगा जो कि शिव ब्रह्मा एवं देवताओं के लिए भी दुर्लभ है। तुम इन समस्त लीलाओं का स्वयं दर्शन करोगे। परन्तु सावधान! जब तक में इस धरा धाम पर लीलाएँ करूँगा, तब तक यह रहस्य तुम किसी से मत कहना। यदि तुमने इन सब बातों को किसी के सामने प्रकट किया तो मैं तुम्हारा सर्वनाश कर दूंगा।”
इस प्रकार उस ब्राह्मण पर कृपा करने के पश्चात् श्रीगौरसुन्दर पुनः अपने कक्ष में जाकर सो गये तथा ब्राह्मण प्रेम में आविष्ट होकर रोते-रोते प्रसाद पाने लगा। जब निद्रादेवी ने सभी लोगों को अपने प्रभाव से मुक्त कर दिया, उस समय सभी ने देखा कि ब्राह्मण ने निर्विघ्न रूप से प्रसाद पा लिया है तथा निमाइ भी घर के भीतर आराम से सो रहा है। यह देखकर सभी बहुत आनन्दित हुए। ब्राह्मण की बड़ी इच्छा हो रही थी कि वह इन लोगों को बताये कि उनका निमाइ कोई साधारण बालक नहीं है। निमाइ के रूप में उनके घर में स्वयं कृष्ण ही आविर्भूत हुए हैं। अतः उन्हें अपना बालक समझकर शासन मत करना, सभी लोग अच्छी प्रकार से उनकी सेवाकर अपने जीवन को सार्थक करें। परन्तु प्रभु की आज्ञा का उल्लंघन होने के भय से ब्राह्मण चुप रह गया। अब वहाँ से विदा होकर कहीं अन्यत्र न जाकर वह गुप्त रूप से नवद्वीप में ही निवास करने लगा। कभी-कभी प्रभु के दर्शन के लिए मधुकरीके बहाने श्रीजगन्नाथ मिश्रके घर आ जाता था। इस प्रकार वह आनन्दपूर्वक भगवान् की लीलाओं का दर्शन करते हुए अपना जीवन व्यतीत करने लगा।