Karm ka Vigyaan - 3 in Hindi Science by Disha Jain books and stories PDF | कर्म का विज्ञान - 3

Featured Books
Categories
Share

कर्म का विज्ञान - 3

करते हैं या करना पड़ता है ?
दादाश्री : क्या तेरे साथ कभी ऐसा होता है कि तेरी इच्छा न‌ हो फिर भी तुझे कुछ करना पड़े? ऐसा कुछ होता है तेरे साथ कभी ? ऐसा होता है या नहीं ?

प्रश्नकर्ता: हाँ। ऐसा होता है।

दादाश्री : लोगों को भी होता होगा या नहीं? उसका क्या कारण है कि इच्छा नहीं हो और करना पड़ता है? जो पूर्व कर्म किया हुआ है, यह उसका इफेक्ट आया है। लाचार होकर करते हैं, उसका क्या कारण है ?

जगत् के लोग इस इफेक्ट को ही कॉज़ कहते हैं और उस इफेक्ट को तो समझते ही नहीं न! इस जगत् के लोग इसे कॉज कहते हैं, तो क्या हमें कहना नहीं चाहिए कि मेरी इच्छा नहीं है फिर भी मैंने यह कार्य कैसे किया ? अब जिस कर्म की इच्छा नहीं है वह कर्म ‘मैंने किया’, ऐसा कैसे कह रहे हो ? जगत् ऐसा क्यों कहता है कि, 'आपने कर्म किया ?’ क्योंकि दिखने वाली क्रिया को ही लोग ‘कर्म करना’ कहते हैं। लोग कहते हैं कि, ‘इसी ने यह कर्म बाँधा।’ जबकि ज्ञानी समझ जाते हैं कि यह तो परिणाम आया।

किसने भेजा पृथ्वी पर ?
प्रश्नकर्ता : हमने अपने आप जन्म लिया है या हमें भेजने वाला कोई है ?

दादाश्री : भेजने वाला कोई है ही नहीं। आपके कर्म ही आपको ले जाते हैं। और तुरन्त ही वहाँ जन्म मिलता है। अच्छे कर्म हों तो अच्छी जगह पर जन्म होता है, खराब कर्म हों तो खराब जगह पर होता है।

कर्म का सिद्धांत क्या है?

प्रश्नकर्ता: कर्म की परिभाषा क्या है ?

दादाश्री : कोई भी कार्य करो, उसे 'मैं कर रहा हूँ' ऐसा आधार दिया जाए तो, वही कर्म है। 'मैं कर रहा हूँ' इस प्रकार से आधार देना, उसे ‘कर्म बाँधना’ कहा जाता है । ‘मैं नहीं करता।’ और ‘कौन कर रहा है।’ वह जान लो तब इसे निराधार कर देते हो, तो कर्म छूट जाता है।

प्रश्नकर्ता : कर्म का सिद्धांत क्या है?

दादाश्री : अगर तू बावड़ी में जाकर बोले कि ‘तू चोर है!’ तब बावड़ी क्या बोलेगी ?

प्रश्नकर्ता : ‘तू चोर है।’ यों हमारे बोल की प्रतिध्वनि आती है।

दादाश्री : बस, बस। यदि तुझे यह पसंद नहीं हो, तो तू कहना कि ‘तू बादशाह है।’ तब वह तुझे ‘बादशाह’ कहेगी। तुझे पसंद हो, वैसा कहना, यही है कर्म का सिद्धांत! तुझे वकालत पसंद हो तो वकालत कर। डॉक्टरी पसंद हो तो डॉक्टरी कर। कर्म अर्थात् एक्शन। रिएक्शन अर्थात् क्या? वह प्रतिध्वनि है। रिएक्शन प्रतिध्वनि वाला है। उसका फल आए बगैर नहीं रह सकता।

वह बावड़ी क्या कहती है ? कि यह पूरा जगत् अपना ही प्रोजेक्ट है। जिसे आप कर्म कहते थे न, वह प्रोजेक्ट है।

प्रश्नकर्ता : कर्म का सिद्धांत है या नहीं?

दादाश्री : पूरा जगत् कर्म का सिद्धांत ही है, अन्य कुछ है ही नहीं। और आपकी ही जोखिमदारी से बंधन है। यह सारा प्रोजेक्शन आपका ही है। यह देह भी आपने ही गढ़ा है। आपको जो-जो मिलता है, वह सारा आपका ही गढ़ा हुआ है। उसमें दूसरे किसी का हाथ है ही नहीं। होल एन्ड सोल रिस्पोन्सिबिलिटी आपकी ही है सारी, अनंत जन्मों से।

अपना ही 'प्रोजेक्शन'
बावड़ी में जाकर प्रोजेक्ट करता है। उस पर से लोग ऐसा कहेंगे कि ‘बस, प्रोजेक्ट करने की ही ज़रूरत है।’ हम पूछें कि किसलिए ऐसा कहते हो ? तब कहेंगे कि ‘बावड़ी में जाकर मैंने ही कहा था कि, तू चोर है।’ तो बावड़ी ने मुझे ऐसा कहा कि, ‘तू चोर है।’ फिर मैंने प्रोजेक्ट बदला कि, ‘तू राजा है।’ तो उसने भी 'राजा' कहा। तो भाई, वह प्रोजेक्ट तेरे हाथ में है ही कहाँ फिर ? प्रोजेक्ट को बदलना, वह बात तो सही है, पर फिर वह तेरे हाथ में नहीं है। हाँ, स्वतंत्र है भी और नहीं भी 'नहीं' अधिक है और 'है' कम है। ऐसा यह परसत्तावाला जगत् है। सही ज्ञान जानने के बाद स्वतंत्र है, नहीं तो तब तक स्वतंत्र नहीं है।

लेकिन अब प्रोजेक्ट बंद कैसे हो? जब तक इनमें से खुद का स्वरूप नहीं मिले कि ‘मैं यह हूँ या वह हूँ ?’ तब तक भटकना है। मैं यह देह नहीं हूँ। ये आँखें भी मैं नहीं हूँ। अंदर दूसरे बहुत सारे स्पेयरपार्ट्स हैं। अभी तक ऐसा ही भान है कि उन सभी में 'मैं' 'चंदूभाई हूँ'। ये सार नहीं निकाल सकते, इसलिए वे क्या समझते हैं? जो यह त्याग कर रहा है, वह मैं ही हूँ। इसलिए 'मैं' तो किसी भी ठिकाने पर नहीं रहा उसे। वह समझता है कि जो तप कर रहा है, वह 'मैं' ही हूँ। यह सामायिक करता है वही 'मैं' हूँ। यह व्याख्यान दे रहा है, वह 'मैं' ही हूँ। जब तक ऐसा भान है कि ‘मैं कर रहा हूँ’ तब तक नया प्रोजेक्ट करता रहता है। पुराने प्रोजेक्ट के अनुसार भुगतता रहता है। कर्म का सिद्धांत समझ जाए न तो मोक्ष का सिद्धांत जान जाएगा।

रोंग बिलीफ़ से कर्मबंधन
दादाश्री : आपका नाम क्या है ?

प्रश्नकर्ता : चंदूभाई। (चंदूभाई की जगह अपना नाम माने)

दादाश्री : सचमुच में चंदूभाई हो ?

प्रश्नकर्ता: ऐसा कैसे कहा जा सकता है ? सभी को जो लगता है, वही सच है।

दादाश्री : तो फिर वास्तव में तो चंदूभाई ही हो, नहीं क्या ? आपको विश्वास नहीं है? ‘माइ नेम इज चंदूभाई’ कहते हो न आप तो ?

प्रश्नकर्ता: मुझे तो विश्वास है ही।

दादाश्री : माइ नेम इज़ चंदूभाई, नोट आइ। तो आप वास्तव में चंदूभाई हो या कोई और हो ?

प्रश्नकर्ता: यह ठीक है, कुछ अलग ही हैं। यह तो हक़ीक़त है।

दादाश्री : नहीं। ये चंदूभाई तो पहचानने का साधन है, कि ‘भाई, इस देहवाले, ये भाई, ये चंदूभाई हैं। आप भी ऐसा समझते हो कि इस देह का नाम चंदूभाई है। लेकिन क्या वह नहीं जानना है कि ‘आप कौन हो ?’

प्रश्नकर्ता : वह जानना चाहिए। जानने का प्रयत्न करना चाहिए।

दादाश्री : यानी यह कैसा हुआ कि आप चंदूभाई नहीं हो, फिर भी आप आरोप करते हो, चंदूभाई के नाम से सारा लाभ उठा लेते हो। ‘इस स्त्री का पति हूँ, इसका मामा हूँ, इसका चाचा हूँ।’ इस तरह लाभ उठाते हो और उसी से निरंतर कर्म बँधते ही रहते हैं। जब तक आप आरोपित भाव में हो, तब तक कर्म बँधते ही रहते हैं। जब 'मैं कौन हूँ ?' यह तय हो जाए तो उसके बाद आपको कर्म नहीं बँधते हैं।

अभी भी कर्म बँध रहे हैं और रात को नींद में भी कर्म बँधते हैं। क्योंकि ‘मैं चंदूभाई हूँ।’ ऐसा मानकर सो जाते हो। ‘मैं चंदूभाई हूँ।’, वह आपकी रोंग बिलीफ़ है, उससे कर्म बँधते हैं।

भगवान ने सब से बड़ा कर्म कौन सा कहा ? रात को ‘मैं चंदूभाई हूँ’ कहकर सो गए और फिर आत्मा को बोरे में डाल दिया। वही है सब से बड़ा कर्म !

कर्तापद से कर्मबंधन
प्रश्नकर्ता : कर्म किससे बँधते हैं? इसे जरा अधिक समझाइए।

दादाश्री : कर्म किससे बँधते हैं, वह आपको बताता हूँ। कर्म आप नहीं करते हो, फिर भी आप मानते हो कि ‘मैं करता हूँ’, इसलिए आपका बंधन नहीं जाता। भगवान भी कर्ता नहीं है। भगवान कर्ता होते तो उन्हें बंधन हो जाता। अतः भगवान कर्ता नहीं हैं और आप भी कर्ता नहीं हो। लेकिन आप मानते हो 'मैं कर रहा हूँ', उससे कर्म बंधते हैं।

कॉलेज में पास हुए, वह दूसरी शक्ति की वजह से होता है और आप कहते हो कि मैं पास हुआ। वह आरोपित भाव है। उससे कर्म बँधते हैं।

वेदांत ने भी स्वीकार किया निरीश्वरवाद
प्रश्नकर्ता : तो फिर यदि किसी शक्ति से होता है तो कोई चोरी करे तो वह गुनाह नहीं और कोई दान दे तो वह भी, सब समान ही कहलाएगा न!

दादाश्री : हाँ। समान ही कहलाएगा, लेकिन वे फिर समान रखते नहीं है। दान देनेवाला यों छाती फुलाकर घूमता है, इसीलिए तो वह बंधन में आ जाता है और चोरी करनेवाला कहता है, ‘मुझे कोई पकड़ ही नहीं सकता, अच्छे-अच्छों के यहाँ चोरी कर लूँ।’ इसलिए वह मुआ बंधन में आ जाता है। ‘मैंने किया’ अगर ऐसा नहीं कहे, तो कुछ भी न छुए न।

प्रश्नकर्ता : एक मान्यता ऐसी है कि प्राथमिक कक्षा में हम ऐसा मानते हैं कि ईश्वर कर्ता हैं। आगे जाकर वेद में भी निरीश्वरवाद के सिवा कुछ नहीं है। उपनिषद में भी निरीश्वरवाद ही है। ईश्वर कर्ता नहीं है, कर्म के फल हरएक को भुगतने पड़ते हैं। अब इन कर्मों के फल जन्मोजन्म चलते रहते हैं?

दादाश्री : हाँ, जरूर, कर्म का ऐसा है न कि यह आम में से पेड़ और पेड़ से आम, आम में से पेड़ और पेड़ में से आम!

प्रश्नकर्ता : यह तो उत्क्रांति का नियम हुआ, यह तो होता ही रहेगा।

दादाश्री : नहीं। यही कर्मफल है। यह आम फल के रूप में आया, उस फल में से बीज गिरता है और वापस पेड़ बनता है और पेड़ में से वापस फल बनता है न! वह चलता ही रहेगा, कर्म में से कर्मबीज गिरते ही रहेंगे।

प्रश्नकर्ता : तो फिर ये शुभ-अशुभ कर्म बंधते ही रहते हैं, छूटते ही नहीं ?

दादाश्री : हाँ, ऊपर से गूदा खा लेते हैं और वापस गुठली गिरती है।

प्रश्नकर्ता: उससे तो वहाँ फिर से आम का पेड़ उत्पन्न होगा।

दादाश्री : छूटेगा ही नहीं न!

यदि आप ईश्वर को कर्ता मानते हो तो आप अपने आपको क्यों कर्ता मानते हो? यह तो वापस खुद भी कर्ता बन बैठता है! सिर्फ मनुष्य ही ऐसा है कि जिसे ऐसा भान है कि 'मैं कर्ता हूँ', और जहाँ कर्ता बना वहाँ आश्रितता टूट जाती है। उसे भगवान कहते हैं कि, ‘भाई, तू कर लेता है तो तू अलग और मैं अलग।’ फिर भगवान का और आपका क्या लेना-देना ? खुद को कर्ता मानता है, इसलिए कर्म बँधन होता है।

खुद को यदि उस कर्म का कर्ता न माने तो कर्म का विलय हो जाता है।

यह है महाभजन का मर्म
इसलिए अखा भगत ने कहा है कि,
“जो तू जीव तो कर्ता हरि,
जो तू शिव तो वस्तु खरी!”

अर्थात् यदि ‘तू शुद्धात्मा है’ तो सही बात है। और यदि ‘जीव है’, तो ऊपर हरि कर्ता है। और यदि ‘तू शिव है’ तो वस्तु खरी है। ऊपर हरि नाम का कोई है ही नहीं। तब फिर जीव-शिव का भेद चला जाता है। उससे परमात्मा होने की तैयारी हो जाती है। ये सभी भगवान की जो भक्ति करते हैं, वह जीव-शिव का भेद है और अपने यहाँ यह ज्ञान मिलने के बाद जीव-शिव का भेद चला जाता है।

‘कर्ता छूटे तो छूटे कर्म,
ए छे महाभजननो मर्म।’


चार्ज कब होता है कि, ‘मैं चंदूभाई हूँ और यह मैंने किया।’ यानी जो उल्टी मान्यता है उससे कर्म बँध गया। अब आत्मा का ज्ञान मिले तो 'आप' चंदूभाई नहीं हो। व्यवहार से निश्चय से वास्तव में चंदूभाई नहीं हो और यह 'मैंने किया', वह व्यवहार से है। इसलिए कर्तापन मिट जाए तो फिर कर्म छूट जाते हैं, कर्म नहीं बँधते।

‘मैं कर्ता नहीं’ वह भान हुआ, वह श्रद्धा बैठी, तभी से कर्म छूट जाते हैं, कर्म बँधने से रुक जाते हैं। यानी चार्ज होना बंद हो जाता है। वह है महाभजन का मर्म महाभजन किसे कहा जाता है ? सर्व शास्त्रों के सार को महाभजन कहा जाता है। वह तो महाभजन का भी सार है।

जो करता है वही भुगतता है

प्रश्नकर्ता: हमारे शास्त्र ऐसा कहते हैं कि हर एक को कर्म के अनुसार फल मिलता है।

दादाश्री : वह खुद ही अपने लिए जिम्मेदार है। भगवान ने इसमें हाथ डाला ही नहीं है। बाकी, इस जगत् में आप स्वतंत्र ही हो। ऊपरी (बॉस, वरिष्ठ मालिक) कौन है? आपको अन्डरहेन्ड की आदत है इसलिए आपको ऊपरी मिलते हैं, वर्ना आपका कोई ऊपरी नहीं है और आपका कोई अन्डरहेन्ड भी नहीं है, ऐसा है यह वर्ल्ड ! इसे तो समझने की ज़रूरत है, और कुछ भी नहीं है।

पूरे वर्ल्ड में सब जगह घूम आया हूँ, ऐसी कोई जगह नहीं है जहाँ पर ऊपरीपन हो। भगवान नाम का आपका कोई ऊपरी नहीं है।
आपके जोखिमदार आप खुद ही हो। पूरे वर्ल्ड के लोग मानते हैं कि जगत् भगवान ने बनाया। लेकिन जो पुनर्जन्म का सिद्धांत समझते हैं वह ऐसा नहीं मान सकता कि भगवान ने बनाया है। पुनर्जन्म का मतलब क्या है कि ‘मैं करता हूँ और मैं ही भोगता हूँ और मेरे ही कर्मों का फल भुगत रहा हूँ। इसमें भगवान की दख़ल है ही नहीं।’ खुद जो कुछ करता है, वह सब खुद की ज़िम्मेदारी पर ही करता है, किसकी जिम्मेदारी पर है यह ? समझ में आया न ?

प्रश्नकर्ता : आज तक ऐसा समझता था कि भगवान की जिम्मेदारी है।

दादाश्री : नहीं, खुद की ही जिम्मेदारी है! होल एन्ड सोल रिस्पोन्सिबिलिटी खुद की है, लेकिन उस आदमी को गोली क्यों मारी ? वे रिस्पोन्सिबल थे, उसका यह फल मिला और जब उस मारनेवाले की रिस्पोन्सिबिलिटी आएगी, तब उसे उसका फल मिलेगा। उसका टाइम आएगा तब फल मिलेगा।

जैसे आज आम पेड़ पर लगा, तो आज के आज ही आम लाकर उसका रस नहीं निकल सकता । वह तो टाइम होने पर, बड़ी हो जाए, पक जाए तब उसका रस निकला जा सकता है। उसी तरह यह जो गोली लगती है न, उससे पहले पककर तैयार होती है, तब लगती है। यों ही नहीं लग जाती। और मारनेवाले ने गोली मारी, तो उसमें आज इतना छोटा सा आम बना है, वह बड़ा होने के बाद पकेगा, उसके बाद उसका रस निकलेगा।

कर्मबंधन, आत्मा को या देह को ?

प्रश्नकर्ता: तो फिर अब कर्मबंधन किसे होता है, आत्मा को या देह को ?

दादाश्री : यह देह तो खुद ही कर्म है। फिर उसे दूसरा बंधन कहाँ से होगा? यह तो जिसे बंधन लगता है, जो जेल में बैठा है, उसे बंधन है। जेल को बंधन है या जो जेल में बैठा है उसे बंधन है? यानी यह देह तो जेल है और उसके जो अंदर बैठा है न उसे बंधन है। जो ऐसा मानता है कि 'मैं बंधा हुआ हूँ, मैं देह हूँ, मैं चंदूभाई हूँ', उसे बंधन है।

प्रश्नकर्ता: तो आप ऐसा कहना चाहते हैं कि आत्मा देह के माध्यम से कर्म बांधता है और देह के माध्यम से कर्म छोड़ता है ?

दादाश्री: नहीं, ऐसा नहीं है। आत्मा तो इसमें हाथ ही नहीं डालता। वास्तव में तो आत्मा अलग ही है, स्वतंत्र है। विशेषभाव से ही यह अहंकार खड़ा होता है और वह कर्म बांधता है और वही कर्म भुगतता है। ‘आप हो शुद्धात्मा’ लेकिन कहते हो कि ‘मैं चंदूभाई हूँ।’ जहाँ खुद नहीं है, वहाँ ऐसा आरोप करना कि ‘मैं हूँ।’, वह अहंकार कहलाता है। पराये के स्थान को खुद का स्थान मानता है, वह इगोइज़म है। यह अहंकार छूट जाए तो खुद के स्थान पर आया जा सकता है। वहाँ बंधन है ही नहीं।

कर्म अनादि से आत्मा के संग
प्रश्नकर्ता: तो आत्मा की कर्म रहित स्थिति हो पाती होगी न? वह कब होती है ?

दादाश्री : जिसे एक भी संयोग की वळगणां (पाश, बंधन) नहीं हो न, उसे कर्म कभी भी चिपकते नहीं। जिसे किसी भी प्रकार की वळगणां नहीं है, उसका कर्म का ऐसा कोई भी हिसाब नहीं हो सकता कि उसे कर्म चिपक सकें। अभी सिद्धगति में जो सिद्ध भगवंत हैं, उन्हें किसी प्रकार के कर्म नहीं चिपक सकते। वळगणां (पाश, बंधन) खत्म हो जाए तो नहीं चिपकते।

यह तो संसार में वळगणां खड़ी हो गई है और वह कर्म की वळगणां अनादि काल से है। और वह सारा साइन्टिफिक सरकमस्टेन्शियल एविडेन्स से है। सभी तत्व गतिमान होते रहते हैं और तत्वों के गतिमान होने से ही यह सब खड़ा हुआ है। यह सारी भ्रांति उत्पन्न हुई है। उससे ये सभी विशेष भाव उत्पन्न हुए हैं। भ्रांति का मतलब ही है विशेषभाव। उसका जो मूल स्वभाव था, उसके बदले विशेषभाव उत्पन्न हो गया और उसके कारण यह सारा बदलाव हुआ है। यानी ऐसा कभी हुआ ही नहीं है कि पहले आत्मा कर्म रहित था। यानी कि जब वह ज्ञानीपुरुष के पास आता है, तब तक कर्मों का बोझ काफी कुछ हल्का हो चुका होता है और हल्के कर्मोंवाला बन चुका होता है। हल्के कर्मवाला है तभी तो ज्ञानीपुरुष मिलते हैं। मिलते हैं, वह भी साइन्टिफिक सरकमस्टेन्शियल एविडेन्स है। अगर खुद के प्रयत्न से करने जाएँ तो ऐसा होगा ही नहीं। सहज प्रयत्न, सहज रूप से मिल जाएँ, तब काम हो जाता है।

कर्म संयोग हैं, और वियोगी उनका स्वभाव है।

संबंध, आत्मा और कर्म के...
प्रश्नकर्ता: तो आत्मा और कर्म के बीच क्या संबंध है ?

दादाश्री : दोनों के बीच कर्तारूपी कड़ी नहीं होगी तो दोनों अलग हो जाएँगे। आत्मा, आत्मा की जगह पर और कर्म, कर्म की जगह पर अलग हो जाएँगे।

प्रश्नकर्ता: समझ में नहीं आया ठीक से।

दादाश्री : कर्ता नहीं बने तो कर्म हैं ही नहीं। कर्ता है, तो कर्म हैं। आप यह कार्य कर रहे हों लेकिन अगर कर्ता नहीं बनो न तो भी आपको कर्म नहीं बंधेगा। यह तो आपमें कर्तापद है कि ‘मैंने किया।’ इसलिए बँध गया।

प्रश्नकर्ता: तो कर्म ही कर्ता है?

दादाश्री : 'कर्ता' वह कर्ता है। ‘कर्म’ कर्ता नहीं है। आप क्या कहते हो ? ‘मैंने किया’ कहते हो या 'कर्म ने किया ?

प्रश्नकर्ता : ‘मैं कर रहा हूँ।’ ऐसा तो भीतर रहता ही है न! 'मैंने किया' ऐसा ही कहते हैं।

दादाश्री : हाँ, वह 'कर्ता', ‘मैं कर रहा हूँ।’ ऐसा कहते हो, इसीलिए आप कर्ता बनते हो। वर्ना ‘कर्म’ कर्ता नहीं है। ‘आत्मा’ भी कर्ता नहीं है।

प्रश्नकर्ता: एक तरफ कर्म है और दूसरी तरफ आत्मा है। इन दोनों को अलग कैसे करें ?

दादाश्री: अलग ही हैं। यह कड़ी निकल जाए न तो, लेकिन यह तो सिर्फ कर्तापद की कड़ी ही है। इस कड़ी के कारण बँधा हुआ लगता है। कर्तापद चला गया, कर्तापद करने वाला गया, ‘मैंने किया’, ऐसा बोलने वाला गया तो हो चुका, खतम हो गया। दोनों अलग ही हैं फिर तो।

कर्म बँधते हैं, वह तो अंतःक्रिया

प्रश्नकर्ता: मनुष्य के लिए कर्म लागू होते हैं या नहीं?

दादाश्री: निरंतर कर्म बाँधते ही रहते हैं। अन्य कुछ करते ही नहीं। मनुष्य का अहंकार ऐसा है कि खाता नहीं, पीता नहीं, संसार नहीं बसाता, व्यापार नहीं करता, फिर भी मात्र अहम्कार ही करता है कि ‘मैं कर रहा हूँ’, उससे सारे कर्म बाँधते रहते हैं। वह भी आश्चर्य है न? यह प्रूव (साबित) हो सके ऐसा है! खाता नहीं है, पीता नहीं है, यह प्रूव हो सकता है। इसके बावजूद यह भी प्रूव हो सकता है कि कर्म करता है। और सिर्फ मनुष्य ही कर्म बाँधते हैं।

प्रश्नकर्ता: शरीर के लिए खाते-पीते हों, लेकिन फिर भी शायद खुद कर्म न भी करते हों ?

दादाश्री: ऐसा है न, कोई व्यक्ति अगर कर्म कर रहा हो न तो आँख से दिखाई नहीं दे सकता। दिखता है आपको? यह जो आँखों से दिखाई देता है न, उसे दुनिया के लोग कर्म कहते हैं। इन्होंने कर्म का विज्ञान यह किया, इन्होंने यह किया, इसने इसे मारा, ऐसा कर्म बाँधा। अब जगत् के लोग ऐसा ही कहते हैं न ?

प्रश्नकर्ता: हाँ, जैसा दिखाई देता है वैसा ही कहते हैं।

दादाश्री : कर्म यानी उसकी प्रवृत्ति क्या हुई। उसने गाली दी तो भी कर्म बाँधा, उसने मारा तो भी कर्म बाँधा, खाया तो भी कर्म बाँधा, सो गया तो भी कर्म बाँधा। वह जो भी प्रवृत्ति करता है, उसी को लोग कर्म कहते हैं। लेकिन वास्तव में जो दिखाई देता है वह कर्मफल है, वह कर्म नहीं है।

जब कर्म बँधन होता है, तब अंतरदाह होता रहता है। छोटे बच्चे को कड़वी दवाई पिलाएँ तब क्या करता है? मुँह बिगाड़ता है न! और मीठी चीज खिलाएँ तो? खुश होता है। इस जगत् जीव मात्र राग-द्वेष करते हैं, वे सभी कॉज़ेज़ हैं और उनमें से ये कर्म उत्पन्न हुए हैं। जो खुद को पसंद हैं, वे, और जो नहीं पसंद हैं वे, दोनों ही कर्म आते हैं। नापसंद काटकर जाते हैं, यानी दुःख देकर जाते हैं, और पसंदीदा सुख देकर जाते हैं। यानी कि कॉज़ेज़ पिछले जन्म में डले हैं, वे इस जन्म में फल देते हैं।

कर्मबीज के नियम
प्रश्नकर्ता : कर्मबीज की ऐसी कोई समझ है कि यह बीज पड़ेगा और यह नहीं ?

दादाश्री : हाँ आप कहो कि 'यह नाश्ता कितना अच्छा बना है, इसे मैंने खाया', तो बीज पड़ा। मैंने खाया' बोलने में हर्ज नहीं है। 'कौन खाता है' वह आपको जानना चाहिए कि ‘मैं नहीं खाता हूँ, खाने वाला खाता है’, पर यह तो खुद कर्ता बन जाता है और जब कर्ता बनता है तभी बीज डलते हैं।

गालियाँ दे तो उस पर द्वेष नहीं, फूल चढ़ाए या उठाकर घूमे तो उस पर राग नहीं, तो कर्म नहीं बँधेंगे उसे।

प्रश्नकर्ता : राग-द्वेष हों फिर भी पता नहीं चले तो उसका क्या उपाय है ?

दादाश्री : उसके लिए इनाम मिलता है, अगले जन्म में उसका भटकना जारी ही रहता है।

संबंध, देह और आत्मा का...

प्रश्नकर्ता: देह और आत्मा के बीच का संबंध अधिक विस्तार से समझाइए न !

दादाश्री : यह जो देह है, वह आत्मा की अज्ञानता से उत्पन्न हुआ परिणाम है। जो-जो ‘कॉज़ेज़’ किए थे, उनका यह 'इफेक्ट' है। कोई आपको फूल चढ़ाए तो आप खुश हो जाते हो, और कोई गाली दे तो आप चिढ़ जाते हो। उस चिढ़ने में और खुश होने में बाह्य दर्शन की क़ीमत नहीं है। अंतर भाव से कर्म चार्ज होता है। वह फिर अगले जन्म में डिस्चार्ज होता है, उस समय वह 'इफेक्टिव' है। ये मन-वचन-काया तीनों इफेक्टिव हैं। इफेक्ट भोगते समय दूसरे नये कॉज़ेज़ उत्पन्न होते हैं जो अगले जन्म में वापस इफेक्टिव होते हैं। इस तरह कॉज़ेज़ एन्ड इफेक्ट, इफेक्ट एन्ड कॉज़ेज़ का चक्र चलता ही रहता है। फॉरेन के साइन्टिस्टों को भी समझ में आता है कि भाई इस तरह पुनर्जन्म है। तब बहुत खुश हो जाते हैं कि इफेक्ट एन्ड कॉज़ेज़ है यह !

तो ये सब इफेक्ट हैं। आप वकालत करते हो, वह सब इफेक्ट है। इफेक्ट में अहंकार नहीं करना चाहिए कि ‘मैंने किया।’ इफेक्ट तो अपने आप ही आता है। यह पानी नीचे जाता है, वह ऐसे नहीं कहता कि, ‘मैं जा रहा हूँ’, वह समुद्र की तरफ, चार सौ मील इधर-उधर चलकर जाता ही है न! जबकि मनुष्य तो अगर किसी का केस (मुकदमा) जितवा दे तो 'मैंने कैसे जितवा दिया' कहता है। अब उसका उसने अहंकार किया, उससे कर्म बँधा, कॉज हुआ। उसका फल वापस इफेक्ट में आएगा।

कारण-कार्य के रहस्य
इफेक्ट क्या है, आप समझ गए ? जो अपने आप होता ही रहे, वह इफेक्ट। हम परीक्षा देते हैं न, वह कॉज कहलाता है। फिर हमें परिणाम की चिंता नहीं करनी होती। वह तो इफेक्ट है। यह जगत् पूरा इफेक्ट की चिंता करता है। वास्तव में तो कॉज़ के लिए चिंता करनी चाहिए !

यह विज्ञान तेरी समझ में आया ? विज्ञान सैद्धांतिक होता है। अविरोधाभास होता है। तूने बिजनेस किया और दो लाख कमाए, वह कॉज है या इफेक्ट ?

प्रश्नकर्ता: कॉजेज़ हैं।

दादाश्री : किस तरह कॉजेज हैं, वह मुझे समझा इच्छानुसार कर सकता है ?

प्रश्नकर्ता: हम बिजनेस करते हैं और जो होने वाला है वह होगा ही, वह इफेक्ट होता है। पर बिजनेस करने के लिए कॉज़ेज़ तो करने पड़ते हैं न ? तभी बिजनेस कर सकते हैं न ?

दादाश्री : नहीं, कॉजेज में दूसरी कोई रिलेटिव वस्तु का उपयोग नहीं होता। बिज़नेस तो, अगर शरीर अच्छा हो, दिमाग़ अच्छा हो, सब हो, तभी हो सकता है न! सबके आधार पर जो होता है, वह इफेक्ट है और जो व्यक्ति सोते सोते 'इसका खराब होगा, ऐसा होगा', ऐसा करता है, वे सब कॉजेज है, क्योंकि उसमें आधार या किसी चीज़ की जरूरत नहीं है।

प्रश्नकर्ता: तो हम जो बिजनेस करते हैं, वह इफेक्ट कहलाता है ?

दादाश्री : इफेक्ट ही कहते हैं न! बिज़नेस इफेक्ट ही है। परीक्षा का परिणाम आए, क्या उसके लिए कुछ करना पड़ता है ? परीक्षा में जो करना पड़ता है, वे कॉजेज कहलाते हैं। कुछ करना पड़ता है? वह भी परिणाम में कुछ करना पड़ता है ?

प्रश्नकर्ता: नहीं।

दादाश्री : उसी तरह इसमें कुछ करना नहीं पड़ता। वह सब होता ही रहता है। अपना शरीर काम में आता है और सब होता ही रहता है। कॉज में तो खुद को करना पड़ता है। यह जो कर्ताभाव है,वह कॉज़ है, बाक़ी सब इफेक्ट है। भोक्ताभाव कॉज़ है।

प्रश्नकर्ता : जो भी भाव होते हैं, वे सभी कॉज़ेज़ हैं। ठीक ?

दादाश्री : हाँ, जहाँ और किसी की हेल्प की जरूरत नहीं है। आप फर्स्ट क्लास खाना बनाती हो, तो वह सब इफेक्ट ही है, और उसमें अगर आप भाव करो कि 'मैंने कितना अच्छा खाना बनाया, कितना अच्छा बनाया।' वह भाव आपका कॉज़ है। यदि भाव नहीं करोगी तो सब इफेक्ट ही है। वह सभी जो सुना जा सके, देखा जा सके, वह सब इफेक्ट्स है। कॉज़ज देखे नहीं जा सकते।

प्रश्नकर्ता : तो पाँच इन्द्रियों से जो कुछ भी होता है, वह इफेक्ट है ?

दादाश्री : हाँ, वह सब इफेक्ट है। पूरी लाइफ ही इफेक्ट है। उसके अंदर जो भाव होते हैं, वे भाव कॉज़ हैं, और भाव का कर्ता होना चाहिए। जगत् के लोग, वे तो कर्ता हैं।

कर्म बँधने से रुक गए तो काम हो जाएगा। ऐसा आपको समझ में आता है क्या? आपके कर्म बँधने से रुक जाते हैं? कभी देखा है वह ? शुभ में पड़ो तो शुभ बंधता है, नहीं तो अशुभ तो है ही। कर्म छोड़ते ही नहीं! अगर यह सब जान ले कि 'खुद कौन है, यह सब कौन कर रहा है तो फिर कर्म बँधेगे ही नहीं न!

पहला कर्म किस तरह से आया
?
प्रश्नकर्ता: कर्म की थ्योरी के अनुसार कर्म बंधते हैं और उन्हें भुगतना पड़ता है। अब इस तरह आपने कॉज़ और इफेक्ट बताए, तो उनमें पहले कॉज़ फिर उसका इफेक्ट, तो हम तार्किक दृष्टि से सोचें और पीछे जाते जाएँ तो सबसे प्रथम कॉज किस तरह से आया होगा?

दादाश्री : अनादि में पहला नहीं होता न! यह माला आपने देखी है‌ गोलाकार ? ये सूर्यनारायण घूमते हैं तो उसकी बिगिनिंग कहाँ से करते होंगे ?

प्रश्नकर्ता: उसकी बिगिनिंग है ही नहीं।

दादाश्री : अतः कहीं पर से भी इस दुनिया की बिगिनिंग है ही। पूरी ही गोल है, राउन्ड ही है। लेकिन इसमें से छुटकारा हो सकता है। बिगिनिंग नहीं है इसकी! आत्मा है, इसलिए छुटकारा हो सकता है। पर उसकी बिगिनिंग नहीं है। राउन्ड है पूरा ही, हर एक चीज राउन्ड। कोई चीज़ चौकोर नहीं है। अगर चौकोर होता तो हम उसे कह सकते थे कि इस कोने से शुरू हुआ है और इस कोने पर मिल गया। राउन्ड में कोना कौन सा ? पूरा जगत् ही राउन्ड है। उसमें बुद्धि काम कर सके, ऐसा नहीं है। इसलिए बुद्धि से कहो, 'बैठ एक तरफ' । बुद्धि से समझ में नहीं आ सकता। ज्ञान से समझ में आ सकता है।

'अंडा पहले या मुर्गी पहले ?' अरे भाई! रख न इसे एक ओर। यहाँ से उसे एक ओर रखकर, आगे की बात कर न! नहीं तो अंडा और मुर्गी बनना पड़ेगा। उसे छोड़ता ही नहीं है। जिसका समाधान नहीं है, वह सभी गोल है। लोग नहीं कहते कि गोल-गोल बातें कर रहा है ये व्यक्ति!

प्रश्नकर्ता: फिर भी यह प्रश्न होता ही रहता है कि जन्म से पहले कर्म कहाँ से? चौरासी लाख फेरे शुरू हुए। यह पाप-पुण्य कहाँ से, कब से शुरू हुए ?

दादाश्री : अनादि से।

प्रश्नकर्ता: उसकी शुरुआत कुछ तो होगी न ?

दादाश्री : जब से बुद्धि शुरू हुई न तब से शुरुआत और बुद्धि का एन्ड हो, वहाँ खत्म हो जाता है। समझ में आया न? बाक़ी है अनादि से!

प्रश्नकर्ता : यह जो बुद्धि है, वह किसने दी ?

दादाश्री: देनेवाला है ही कौन? कोई ऊपरी है ही नहीं न! कोई है नहीं न, दूसरा कोई। कोई देनेवाला होगा, तभी तो ऊपरी कहा जाएगा। ऊपरी होगा, तो वह हमेशा हमारे सिर पर रहेगा। फिर मोक्ष रहेगा ही नहीं दुनिया में। जहाँ ऊपरी हो, वहाँ मोक्ष होता होगा ?

प्रश्नकर्ता : लेकिन सबसे पहला कर्म कौन सा हुआ ? जिसके कारण यह शरीर मिला ?

दादाश्री : यह शरीर किसी ने नहीं दिया है। ये सभी छह तत्वों के इकट्ठे होने से, उनके ऐसे आमने-सामने जोइन्ट होने से उसकी 'ये सारी अवस्थाएँ उत्पन्न हो गई हैं। वह शरीर मिला ही नहीं। यह तो आपको जो ऐसा दिखाई देता है, वही भूल है। भ्रांति से दिखाई देता है। यह भ्रांति चली जाए न, तो कुछ भी नहीं रहेगा। आप यह जो ऐसा समझते हो कि 'मैं चंदूभाई हूँ, उसी से यह सारा खड़ा हो गया है।

कर्म, एक या अनेक जन्मों के ?
प्रश्नकर्ता : ये जो सभी कर्म हैं, वे एक ही जन्म में नहीं भोग लिए जाते। इसलिए अनेक जन्म लेने पड़ते हैं न, उन्हें भुगतने के लिए? जब तक कर्म पूरे नहीं हो जाते, तब तक मोक्ष कहाँ है ?

दादाश्री: मोक्ष की तो बात ही कहाँ गई, जब उस जन्म के कर्म पूरे होते हैं तब शरीर छूटता है। और तब भीतर नये कर्म बँध ही चुके होते हैं। इसलिए मोक्ष की तो बात ही कहाँ करने को रही? पुराने, अन्य कोई पिछले कर्म नहीं आते। आप अभी भी कर्म बाँध रहे हो। अभी आप यह बात कर रहे हो न, इस घड़ी भी पुण्यकर्म बाँध रहे हो। पुण्यानुबंधी पुण्य कर्म बाँध रहे हो।

करे कौन और भुगते कौन ?
प्रश्नकर्ता: दादा, पिछले जन्म में जो कर्म किए, वे इस जन्म में भुगतने पड़ते हैं, तो पिछले जन्म में जिस शरीर ने भुगते थे, वह शरीर तो जल गया और आत्मा तो निर्विकार है, वह आत्मा दूसरा शरीर लेकर आता है, लेकिन इस शरीर को पिछले जन्म के शरीर द्वारा किए गए कर्म क्यों भुगतने पड़ते हैं?

दादाश्री : उस शरीर द्वारा किए गए कर्म तो वह शरीर भुगतकर ही जाती है।

प्रश्नकर्ता: तो ?

दादाश्री : यह तो चित्रित किए हुए मानसिक कर्म है। सूक्ष्म कर्म जिसे हम कॉज़ल बॉडी कहते हैं न, कॉज़ेज़।

प्रश्नकर्ता : ठीक है, लेकिन उस देह ने भाव किए थे न?

दादाश्री : देह ने भाव नहीं किए थे।

प्रश्नकर्ता : तो ?

दादाश्री : देह ने तो खुद उसका फल भुगता न! दो धौल मारी तो देह को फल मिल ही जाता है। लेकिन उसकी योजना में था, वह यों रूपक में आया।

प्रश्नकर्ता: हाँ, पर योजना की किसने? उस देह ने योजना की थी न ?

दादाश्री : देह को तो लेना-देना नहीं है न! बस, अहंकार ही करता है यह सब इस जन्म का इसी जन्म में ?

प्रश्नकर्ता : इन सभी कर्मों के फल अपने इसी जीवन में भुगतने हैं या फिर अगले जन्म में भी भुगतने पड़ते हैं?

दादाश्री : पिछले जन्म में जो कर्म किए थे, वे योजना के रूप में थे। यानी कि कागज़ पर लिखी हुई योजना। अब वे अभी रूपक में आते हैं। जब फल देने के लिए सम्मुख होते हैं, तब वे प्रारब्ध कहलाते हैं। कितने काल में परिपक्व होते हैं? वे पचास पचहत्तर या सौ सालों में परिपक्व होते हैं, तो फल देने के लिए सम्मुख होते हैं। पिछले जन्म में जो कर्म बाँधे थे, वे कितने ही सालों में परिपक्व होते हैं, तब यहाँ फल देते हैं और जब वे फल देते हैं, उस समय जगत् के लोग क्या कहते हैं, कि इसने कर्म बाँधा। इसने इस आदमी को दो धौल मार दीं, उसे जगत् के लोग क्या कहते हैं ? इसने कर्म बाँधा। कौन सा कर्म बाँधा ? तब कहते हैं, ‘दो धौल मार दीं।’ उसे उसका फल भोगना पड़ेगा। वह यहाँ पर वापस मिलेगा ही। क्योंकि धौलें मारीं, लेकिन आज मार खानेवाला ढीला पड़ गया, लेकिन फिर जब भी मौका मिलेगा, तब बदला लिए बिना रहेगा नहीं न! जबकि लोग कहते हैं कि देखो कर्म का फल भुगता न आखिर! तो इसी को कहा जाता है, 'यहीं पर फल भुगतना।' लेकिन हम लोग उसे कहते हैं कि तेरी बात सही है। इसका फल भुगतना है, लेकिन वे दो धौलें क्यों मारी उसने ? वह किस वजह से ? वह वजह नहीं मिलती है उसे । वह तो कहता है कि 'उसी ने मारा।' यह तो, उसे उदयकर्म नचाता है। पहले जो कर्म किया है, वह नचाता है।

प्रश्नकर्ता: वह जो धौल मारी, वह कर्म का फल है, कर्म नहीं है, वह ठीक है न ?

दादाश्री : हाँ, वह कर्मफल है। इसलिए उदयकर्म उससे यह करवाता है और वह दो धौलें मार देता है। फिर वह मार खानेवाला क्या कहता है, कि ‘भाई, और एक-दो लगा न!’ तब वह कहेगा, ‘मैं क्या बेअक्ल, मूर्ख हूँ ?’ बल्कि डाँटता है। पहले जो मारा था, उसका कारण है। दोनों का जो हिसाब हो, उस हिसाब से बाहर नहीं हो सकता कुछ भी। यह जगत् ऐसा है कि हिसाबी है, एक एक आना और पाई समेत हिसाब है। इसलिए यह जगत् बिल्कुल भी डरने जैसा है ही नहीं, बिल्कुल ही चैन से सो जाने जैसा है। फिर भी यों बिल्कुल निडर भी नहीं हो जाना चाहिए कि मुझे कुछ नहीं होगा।

कर्मफल–लोकभाषा में ज्ञानी की भाषा में।
प्रश्नकर्ता: ऐसा कहते हैं कि सब यहीं के यहीं भुगतना है। क्या वह गलत है ?

दादाश्री : भुगतना यहीं के यहीं है, पर वह इस जगत् की भाषा में है। अलौकिक भाषा में उसका क्या अर्थ है ?

पिछले जन्म में अहंकार का मान का कर्म बँधा होता है, इस जन्म में उनसे पूरी बिल्डिंग बनती है, तब फिर उससे इस जन्म में वह मानी बनता है। किसलिए मानी बनता है? कर्म के हिसाब से वह मानी बनता है। अब मानी बना, उसे जगत् के लोग क्या कहते हैं कि, 'यह कर्म बाँध रहा है, यह इस तरह मान रहा है।' जगत् के लोग इसे कर्म कहते हैं। जबकि भगवान की भाषा में तो यह कर्म का फल आया है। फल अर्थात् मान नहीं करना हो तो भी करना ही पड़ता है, हो ही जाता है।

और जगत् के लोग जिस चीज़ के लिए कहते हैं कि ‘यह क्रोध करता है, मान करता है, अहंकार करता है।’, अब उसका फल यहीं के यहीं भुगतना पड़ता है। मान का फल यहीं के यहीं क्या आता है कि अपकीर्ति फैलती है, अपयश फैलता है, वह यहीं पर भुगतना पड़ता है। ये मान करते हैं, उस समय यदि मन में ऐसा हो कि यह गलत हो रहा है, ऐसा ‍नहीं होना चाहिए, हमें मान विलय करने की जरूरत है, ऐसा भाव हो तो वह नया कर्म बाँधता है। उससे अगले जन्म में फिर मान कम हो जाता है।

कर्म की थियरी ऐसी है। गलत होते समय भीतर भाव बदल जाएँ तो उसी अनुसार नया कर्म बँधता है। और यदि गलत करे और ऊपर से खुश हो कि, 'ऐसा ही करने जैसा है' तो उससे फिर नया कर्म मज़बूत होता जाता है, निकाचित हो जाता है। उसे फिर भुगतना ही पड़ेगा!

पूरे साइन्स को ही समझने जैसा है। वीतरागों का विज्ञान बहुत गुह्य है

....या इस जन्म का अगले जन्म में ?
प्रश्नकर्ता: तो इस जन्म में किए गए कर्मों का फल क्या अगले जन्म में मिल सकता है?

दादाश्री : हाँ, इस जन्म में नहीं मिलता।

प्रश्नकर्ता: तो अभी जो हम भुगत रहे हैं, वह पिछले जन्म का फल है ?

दादाश्री : हाँ, पिछले जन्म का फल है और साथ-साथ नये कर्म आने वाले जन्म के लिए बँध रहे हैं। इसलिए आपको नये कर्म अच्छे करने चाहिए। यह तो बिगड़ गया है पर आने वाला नहीं बिगड़े, इतना देखते रहना है।

प्रश्नकर्ता : अभी कलियुग चल रहा है। अभी मनुष्य अच्छे कर्म तो कर नहीं सकता, कलियुग के प्रभाव से।

दादाश्री : अच्छे कर्मों की जरूरत नहीं है।

प्रश्नकर्ता : तो किसकी ज़रूरत है?

दादाश्री : भीतर सद्भावना की जरूरत है। अच्छे कर्म तो प्रारब्ध अच्छा हो तो हो सकते हैं, नहीं तो नहीं हो सकते। पर अच्छी भावना तो हो सकती है, प्रारब्ध अच्छा नहीं हो तो भी।

बुरे कर्म का फल कब ?
प्रश्नकर्ता : अच्छे और बुरे कर्मों के फल इसी जन्म में भुगतने पड़ते हैं या अगले जन्म में, तो फिर जीव मोक्षगति को कैसे प्राप्त कर सकेंगे ?

दादाश्री : कर्मों के फल नुकसान नहीं पहुँचाते। कर्म के बीज से नुकसान हैं। कर्म बीज गिरने बंद हो गए तो, मोक्ष में जाते हुए कर्मफल रुकावट नहीं डालते, कर्मबीज रुकावट डालते हैं। बीज कैसे रुकावट डालते हैं ? कि तूने डाले हैं तो तू इनका स्वाद लेकर जा, उनका फल चखकर जा उन्हें चखे बिना नहीं जा सकता। यानी वे ही रुकावट डालते हैं, बाक़ी ये कर्मफल रुकावट नहीं डालते हैं। फल तो कहते हैं, ‘तू अपनी तरह से खाकर चला जा’

प्रश्नकर्ता : लेकिन आप श्री ने कहा था कि एक प्रतिशत भी कर्म किया हो तो वह भुगतना ही पड़ता है।

दादाश्री : हाँ, भुगतना ही पड़ता है। भुगते बगैर चलेगा नहीं। ऐसा रास्ता है कि कर्म के फल भोगते हुए भी मोक्ष हो सकता है। लेकिन कर्म बाँधते समय मोक्ष नहीं होता। क्योंकि वे कर्म बाँधेंगे तो फल खाने के लिए अभी और रहना पड़ेगा न!

प्रश्नकर्ता: हम जो अच्छे-बुरे कर्म करते हैं, वे इसी जन्म में भुगतने होते हैं या फिर अगले जन्म में ?

दादाश्री : जिन कर्मों को लोग देख पाते हैं कि, ‘इसने बुरा कर्म किया, इसने चोरी की, इसने लुच्चापन (बदमाशी) किया, इसने दग़ा दिया, वे सभी यहीं पर भुगतने हैं और उन कर्मों से ही भीतर जो राग-द्वेष उत्पन्न होते हैं, उनका फल अगले जन्म में भुगतना पड़ता है।’

प्रत्येक जन्म के पूर्व जन्मों का सार
प्रश्नकर्ता: अभी ये जो कर्म हैं, वे अनंत जन्मों के हैं?

दादाश्री : हर एक जन्म, अनंत जन्मों के सार के रूप में है। सभी जन्मों का एक साथ नहीं होता। क्योंकि नियम ऐसा है कि परिपाक काल होने पर फल पकना ही चाहिए, नहीं तो कितने ही कर्म रह जाएँगे।

प्रश्नकर्ता : यह सब पिछले जन्म के साथ जुड़ा हुआ है न?

दादाश्री: हाँ, ऐसा है न कि कोई जीव एक जन्म में दो कार्य नहीं कर सकता, कॉज़ेज़ और इफेक्ट एक साथ नहीं कर सकता। क्योंकि कॉज़ेज़ और इफेक्ट की अवधि साथ में कैसे हो सकती है ? उनकी अवधि पूरी होने पर कॉज़ेज़ इफेक्टिव होते हैं। अवधि पूरी हुए बिना नहीं हो सकते। जैसे कि यह आम का पेड़ होता है न, उस पर फूल आने के बाद इतना सा आम लगता है। उन्हें पकने में समय लगता है या नहीं? यदि हम दूसरे दिन मिन्नत मानें कि पक जाएँ, तो क्या पक जाएँगे ? अतः जो कर्म बाँधते हैं, उन्हें परिपक्व होने के लिए सौ साल की ज़रूरत है, तब जाकर वे फल देने के लिए सम्मुख होते हैं।

प्रश्नकर्ता : इस जन्म के जो कर्म हैं, वे पिछले जन्म के ही होते हैं या उससे भी पहले के अनंत जन्मों के होते हैं?

दादाश्री : नहीं, ऐसा नहीं है इस कुदरत का। कुदरत तो निश्चित है, व्यापारियों को भी नहीं आएँ, उतना अच्छा तरीका! आज से दस जन्म पहले जो कर्म हुए होंगे न, उनका हिसाब निकालकर, वह नफा नुकसान आगे ले जाता है, नौंवे जन्म में अब उसमें ये सभी कर्म नहीं आते, सिर्फ उन कर्मों का सार हैं। नौंवें में से आठवें में, आठवें में से सातवें में। इस तरह भीतर जितने वर्षों का आयुष्य होता है, उतने ही वर्षों के कर्म होते हैं। परन्तु वे फिर वैसे ही रूप में भीतर आते हैं, लेकिन वे एक जन्म के ही कहे जाते हैं। दो जन्मों के इकट्ठे हैं, ऐसा नहीं कहा जा सकता। कर्मों को परिपक्व होने में देर लगती है। कुछ लोगों के पाँच सौ सालों में हज़ार-हज़ार सालों में परिपक्व होते हैं, फिर भी बहीखाते में नया ही होता है।

प्रश्नकर्ता: केरी फॉरवर्ड हो जाता है?

दादाश्री: हाँ, बहीखाते की बात आपको समझ में आई? पुराने
में बहीखाते का नये बहीखाते में आ जाता है और अब वह व्यक्ति नए बहीखाते में आ जाएगा। कुछ भी बाक़ी रहे बगैर। अतः ये कर्म कॉज़ेज़ के रूप में बँधते हैं। वे इफेक्टिव कब होते हैं? पचास-साठ-पचहत्तर साल बीतने के बाद फल देने के लिए इफेक्टिव होते हैं।

इन सबका संचालक कौन ?
प्रश्नकर्ता : तो यह सब चलाता कौन है ?

दादाश्री : यह सब तो, यह कर्म का नियम ऐसा है कि आप जो कर्म करते हो, उनके परिणाम अपने आप कुदरती रूप से आ जाते हैं।

प्रश्नकर्ता: इन कर्मों के फल हमें भुगतने पड़ते हैं। वह कौन तय करता है? कौन भुगतवाता है ?

दादाश्री: तय करने की ज़रूरत ही नहीं है। कर्म ‘इटसेल्फ’ करते रहते हैं। अपने आप खुद ही हो जाता है।

प्रश्नकर्ता: तो फिर कर्म के नियम को कौन चलाता है?

दादाश्री: 2H और O इकट्ठे हो जाने से बरसात हो जाती है, यह है कर्म का नियम।

प्रश्नकर्ता : लेकिन किसी ने उसे किया होगा न, वह नियम ?

दादाश्री: नियम कोई नहीं बनाता है। तब तो फिर वह मालिक कहा जाएगा। किसी को करने की ज़रूरत नहीं है। इटसेल्फ पजल हो गया है और वह विज्ञान के नियम से होता है। उसे हम ऐसा कहते हैं कि 'ओन्लि सायन्टिफिक सरकमस्टेन्शियल एविडेन्स' से जगत् चल रहा है। गुजराती में उसे कहा है कि ‘व्यवस्थित शक्ति’ जगत् चला रही है।

‘व्यवस्थित शक्ति’ और कर्म।
प्रश्नकर्ता: आप जो ‘व्यवस्थित’ कहते हैं, क्या वह कर्म अनुसार है ?

दादाश्री : जगत् कहीं कर्म से नहीं चलता है। जगत् को 'व्यवस्थित शक्ति' चलाती है। आपको यहाँ कौन लेकर आया ? कर्म ? नहीं। आपको 'व्यवस्थित' लेकर आया है। कर्म तो भीतर पड़ा हुआ था ही। वह कल क्यों नहीं लेकर आया और आज ही लाया ? 'व्यवस्थित' काल एकत्र कर देता है, भाव एकत्र कर देता है। सभी संयोग इकट्ठे हो गए, तब तू यहाँ आया। कर्म तो 'व्यवस्थित' का एक अंश है। अगर संयोग मिल जाते हैं तब कहता है, 'मैंने किया ' और संयोग नहीं मिलें तब ?

फल मिलते हैं ऑटोमेटिक
प्रश्नकर्ता: कर्म का फल और कोई देता है तो फिर वह कर्म ही हुआ ?

दादाश्री: कर्म का फल अन्य कोई देता ही नहीं। कर्म का फल देनेवाला कोई जन्मा ही नहीं। सिर्फ इतना ही है कि अगर यहाँ पर खटमल मारने की दवाई पी जाएगा तो मर ही जाएगा, उसके लिए बीच में फल देनेवाले की कोई जरूरत नहीं है।

अगर कोई फल देनेवाला होता न, तब तो बहुत बड़ा ऑफिस बनाना पड़ता। यह तो साइन्टिफिक तरीके से चलता है। बीच में किसीकी ज़रूरत नहीं है। जब उसका कर्म परिपक्व होता है तब फल आकर खड़ा ही रहता है, खुद अपने आप ही। जैसे ये कच्चे आम अपने आप ही पक जाते हैं न! नहीं पकते ?

प्रश्नकर्ता: हाँ, हाँ।

दादाश्री: आम के पेड़ पर नहीं पकते? हाँ, पेड़ पर पकते हैं न,, उसी तरह ये कर्म परिपक्व होते हैं। जब उनका टाइम आता है, तब पककर तैयार होकर फल देने लायक हो जाते हैं।

प्रश्नकर्ता: पिछले जन्म में हमने जो कर्म किए थे, इस जन्म में उनका फल आया तो इन सब कर्मों का हिसाब कौन रखता है ? इनका बहीखाता कौन रखता है?

दादाश्री : जब ठंड पड़ती है, तब पाइप के अंदर जो पानी होता है, उसे बर्फ कौन बना देता है? वह तो वातावरण ठंडा हुआ, इसलिए ! ओन्ली साइन्टिफिक सरकमस्टेन्शियल एविडेन्स! ये सब कर्म-वर्म करते हैं, उनका फल आता है वह भी एविडेन्स है। तुझे भूख कौन लगवाता है? सब साइन्टिफिक सरकमस्टेन्शियल एविडेन्स हैं, उनसे सब चलता है !

कर्मफल में 'ऑर्डर' का आधार
प्रश्नकर्ता: कौन से ऑर्डर (क्रम) में कर्मों का फल आता है? जिस ऑर्डर में बँधता है उसी ऑर्डर में उनका फल आता है ? अर्थात् पहले यह कर्म बाँधा, फिर यह कर्म बाँधा, फिर यह कर्म बांधा। यह कर्म एक नंबर पर बाँधा, तो उसका डिस्चार्ज भी फिर, पहले आता है ? फिर दो नंबर का बाँधा, उसका डिस्चार्ज दूसरे नंबर पर आता है, ऐसा है ?

दादाश्री : नहीं, ऐसा नहीं है।

प्रश्नकर्ता: हं, तो कैसा है, वह जरा समझाइए।

दादाश्री : नहीं, ऐसा नहीं है। वे सभी अपने-अपने स्वभाव के अनुसार सेट हो जाते हैं कि ये दिन में भुगतने के कर्म, ये रात में भुगतने के कर्म, ये सभी... इस तरह सेट हो जाते हैं। ये दुःख में भुगतने के कर्म, ये सुख में भुगतने के कर्म, ऐसे सेट हो जाते हैं। वैसी सारी व्यवस्था हो जाती है उनकी ।

प्रश्नकर्ता: वह व्यवस्था किस आधार पर होती है ?

दादाश्री: स्वभाव के आधार पर हम सब मिलते हैं, तो सभी मिलते-जुलते स्वभाववाले हों, तभी मिल पाते हैं। वर्ना नहीं होता।

वह केवलज्ञान में ही देखा जा सकता है।
प्रश्नकर्ता: यह कर्म नया है या पुराना, वह किस तरह से दिखाई देगा ?


दादाश्री: कर्म किया या नहीं किया, यह तो कोई भी नहीं देख सकता। वह तो सिर्फ भगवान, जिन्हें केवलज्ञान है, ही जान सकते हैं।

इस जगत् में आपको जो कर्म दिखाई देते हैं, उनमें एक राई जितना भी कर्म नया नहीं है। इन कर्मों के ज्ञाता-दृष्टा रहोगे तो नया कर्म नहीं बँधेगा और तन्मयाकार रहोगे तो नये कर्म बँधेंगे। आत्मज्ञानी होने के बाद ही कर्म नहीं बँधते।

इस जगत् में आत्मा दिखाई नहीं देता है, कर्म भी नहीं दिखाई देते, लेकिन कर्मफल दिखाई देते हैं।

जब कर्मफल आते हैं तो लोगों को उनमें ‘टेस्ट’ आता है, तब उनमें तन्मयाकार हो जाते हैं, उसी की वजह से भुगतना पड़ता है।

अभी मुए कहाँ से ?
प्रश्नकर्ता: कई बार ऐसा होता है कि हम अशुभ कर्म बाँध रहे होते हैं लेकिन उस समय बाहर तो शुभकर्म का उदय होता है।

दादाश्री: हाँ, ऐसा होता है। अभी आपके शुभ कर्म का उदय है लेकिन भीतर अशुभ कर्म बाँध सकते हैं।

आप दूसरे शहर से यहाँ सिटी में आएँ और अगर रात को देर हो जाए तो अंदर ऐसा लगता है कि ‘अब हम कहाँ सोएँगे ?’ तो फिर आप कहते हो कि ‘यहाँ मेरे एक मित्र रहते हैं, हम वहाँ चलें।’ तब चार लोग वे और पाँचवे आप, साढ़े ग्यारह बजे उस मित्र के वहाँ जाकर दरवाजा खटखटाते हो। वे पूछें ‘कौन है ?’ तब आप कहते हो, 'मैं'। तब वह कहता है, ‘खोलता हूँ’। वह फिर दरवाजा खोलकर क्या कहता है हमें ? पाँच व्यक्तियों को देखता है, हमें अकेले को नहीं देखता, चार पाँच लोगों को देखता है, तब हमें क्या कहता है ? क्या ऐसा कहता है कि ‘वापस जाओ’ क्या कहता है ?

‘आइए, पधारिए !’ अपने यहाँ तो खानदानी लोग हैं, ‘आइए, पधारिए’ कहकर बैठाते हैं।

प्रश्नकर्ता: वह ऐसा भी कहता है कि, ‘कब आए’ और ‘कब जाने वाले हो ?’

दादाश्री : नहीं, खानदानी ऐसा नहीं पूछते। वे ‘आइए, पधारिए’ करके बैठाते हैं, पर उसके मन में क्या चल रहा होता है ? कि अभी कहाँ से मुए! वही कर्म है। वैसा करने की जरूरत नहीं है। वे आए हैं, उनका हिसाब होगा तब तक रहेंगे। फिर चले जाएँगे। उसने जो यह अक्लमंदी की कि ‘अभी कहाँ से मुए’ वह कर्म बाँधा। अब वह कर्म बाँधा तब मुझसे पूछना था कि मुझसे ऐसा हो जाता है, तो मुझे क्या करना चाहिए ? तब मैं बताऊँगा कि, उस क्षण अगर तू कृष्ण भगवान को मानता है, चाहे जिन्हें मानता हो, उनका नाम लेकर कहना ‘हे भगवान! मुझसे भूल हो गई। फिर से ऐसा नहीं करूँगा।’ इस तरह माफ़ी माँगना तो मिट जाएगा। बाँधा हुआ कर्म तुरन्त ही मिट जाएगा। जब तक चिट्ठी पोस्ट में नहीं डाली जाए, तब तक उसे बदला जा सकता है। पोस्ट में चला गया यानी कि यह देह छूट गई, फिर बंध जाता है। देह छूटे उससे पहले हम वह सब मिटा दें तो मिट जाएगा। अब उसने एक कर्म तो बाँधा न?

अब वापस फिर तुझे क्या कहता है ? ‘चंदूभाई इतनी इतनी...’ क्या बोले ‘इतनी?’ कॉफी या चाय, ऐसा कुछ नहीं कहते, पर हम समझ जाते हैं कि ये चाय के लिए कह रहे हैं। पर वे 'इतनी थोड़ी थोड़ी...' तब आप कहते हो, ‘अभी रहने दो न चाय-वाय, अभी खिचड़ी-कढ़ी होगी तो चलेगा।’ तब फिर अंदर उनकी पत्नी चिढ़ जाती है। उससे कर्म बँधते हैं सारे। अब उस क्षण, जो कुदरत का नियम है, वह हिसाब में आया है, तो उसके लिए भाव मत बिगाड़ना। उस नियम में रहकर भले ही खिचड़ी और कढ़ी जो अपने पास हो, वह दे देना। मेहमान ऐसा नहीं कहते कि आप मिठाई खिलाइए। खिचड़ी-कढ़ी, सब्जी, जो हो वह परोसो। ये तो फिर इज्जत चली जाएगी, उसके लिए यह वापस खिचड़ी कढ़ी नहीं परोसता, हलवा आदि भी परोसता है। पर अंदर मन में फिर गालियाँ देता है। अभी कहाँ से मुए! वही उसका (चार्ज) कर्म है । अतः ऐसा नहीं होना चाहिए।

इसीलिए मत बिगाड़ो भाव कभी

प्रश्नकर्ता : पुण्यकर्म और पापकर्म कैसे बँधते हैं?

दादाश्री: दूसरों को सुख देने का भाव किया तो उससे पुण्य बँधता है और दूसरों को दुःख देने का भाव करने से पाप बँधता है। मात्र भाव से ही कर्म बँधते हैं, क्रिया से नहीं क्रिया में वैसा हो या नहीं भी हो, लेकिन भाव में जैसा हो वैसा कर्म बँधता है। इसलिए भाव बिगाड़ना मत।

कोई भी कार्य जब स्वार्थ भाव से किया जाता है तब पाप कर्म बँधता है और जब निःस्वार्थ भाव से किया जाता है तब पुण्यकर्म बँधता है। लेकिन दोनों ही कर्म हैं न! जो पुण्यकर्म का फल है, वह सोने की बेड़ी, और पाप कर्म का फल, लोहे की बेड़ी। पर दोनों बेड़ियाँ ही हैं न?

स्थूल कर्म: सूक्ष्म कर्म
एक सेठ ने पचास हजार रुपये दान में दिए। तो उसके मित्र ने उनसे पूछा, 'इतने सारे रुपये दे दिए ?' तब सेठ बोले, 'मैं तो ऐसा हूँ कि एक पैसा भी नहीं दूँ। ये तो इस मेयर के दबाव के कारण देने पड़े।' अब इसका फल वहाँ क्या मिलेगा ? पचास हजार का दान दिया, वह स्थूल कर्म, उसका फल सेठ को यहीं के यहीं मिल जाता है। लोग 'वाह-वाह' करते हैं। कीर्तिगान करते हैं और सेठ ने भीतर सूक्ष्म कर्म में क्या चार्ज किया ? 'एक पैसा भी दूँ, ऐसा नहीं हूँ।' उसका फल आनेवाले जन्म में मिलेगा। तब अगले जन्म में सेठ एक पैसा भी दान में नहीं दे सकेगा। अब इतनी सूक्ष्म बात किसे समझ में आए ?

उसकी जगह पर दूसरा कोई गरीब हो, उसके पास भी वे ही लोग गए हों दान लेने, तब वह गरीब आदमी क्या कहता है कि, 'मेरे पास तो अभी पाँच ही रुपये हैं, वे सभी ले लो, पर अभी यदि मेरे पास पाँच लाख होते तो वे सभी दे देता ।' दिल से ऐसा कहता है। अब उसने जो पाँच ही रुपये दिए, वह डिस्चार्ज में कर्मफल आया था, पर भीतर सूक्ष्म में क्या चार्ज किया ? पाँच लाख रुपये देने का, तो अगले जन्म में जब वह डिस्चार्ज होगा तब पाँच लाख दे पाएगा।

एक आदमी पूरे दिन दान देता रहता हो, धर्म की भक्ति करता हो, मंदिरों में पैसे देता हो, और सब धर्मकार्य करता रहता हो, उसे जगत् के लोग क्या कहते हैं कि ‘ये धर्मिष्ठ हैं।’ अब उस व्यक्ति के भीतर क्या विचार होते हैं कि किस तरह इकट्ठा करूँ और किस तरह भोग लूँ!' अंदर तो उसे अणहक्क (बिना हक़ का) की लक्ष्मी छीन लेने की बहुत इच्छा होती है। अणहक्क के विषय भोग लेने के लिए तैयार ही होता है !

इसलिए भगवान उसका एक भी पैसा जमा नहीं करते हैं। उसका क्या कारण है? क्योंकि दान-धर्म-क्रिया वे सभी स्थूल कर्म हैं। उन स्थूल कर्मों का फल यहीं पर मिल जाता है। लोग उस स्थूल कर्म को ही अगले जन्म का कर्म मानते हैं। पर उसका फल तो यहीं पर मिल जाता है और सूक्ष्म कर्म, जो कि अंदर बँध रहा है, जिसकी लोगों को खबर ही नहीं है। उसका फल अगले जन्म में मिलता है।

आज किसी व्यक्ति ने चोरी की, वह चोरी स्थूल कर्म है। उसका फल इसी जन्म में मिल जाता है। जैसे कि उसे अपयश मिलता है, पुलिसवाला मारता है, वह सारा फल उसे यहीं पर मिल जाता है।

अर्थात् यह जो स्थूलकर्म दिखाई देते हैं, स्थूल आचार दिखाई देते हैं, वे 'वहाँ' काम नहीं आते। 'वहाँ' तो, सूक्ष्मभाव क्या है, सूक्ष्मकर्म क्या है, बस इतना ही 'वहाँ' काम आता है। अब जगत् पूरा स्थूल कर्म पर ही एडजस्ट हो गया है।

ये सभी साधु-संन्यासी त्याग करते हैं, तप करते हैं, जप करते हैं, पर वे तो सारे स्थूल कर्म हैं। उनमें सूक्ष्म कर्म कहाँ हैं? ये जो दिखाई देते हैं उनमें अगले जन्म का सूक्ष्म कर्म नहीं है। ये जो किए जाते हैं, उस स्थूल कर्म का यश उसे यहीं पर मिल जाता है।

क्रिया नहीं लेकिन ध्यान से चार्जिंग
आचार्य महाराज प्रतिक्रमण करते हैं, सामायिक करते हैं, व्याख्यान देते हैं, प्रवचन देते हैं, लेकिन वह तो उनका आचरण है, वह स्थूल कर्म है। पर भीतर क्या है, वह देखना है। भीतर जो चार्ज होता है, वह 'वहाँ' पर काम आएगा। अभी जिस आचरण का पालन करते हैं, वह डिस्चार्ज है। पूरा बाह्याचार ही डिस्चार्ज रूपी है। वहाँ ये लोग कहते हैं कि, 'मैंने सामायिक की, ध्यान किया, दान दिया।' तो उसका यश तुझे यहीं पर मिल जाएगा। अगले जन्म का उससे क्या लेना देना ? भगवान कोई ऐसी कच्ची माया नहीं हैं कि तेरे ऐसे घोटाले को चलने दें। बाहर सामायिक करता है और भीतर न जाने क्या करता है।

एक सेठ सामायिक करने बैठे थे, तब बाहर किसी ने दरवाज़ा खटखटाया। सेठानी ने जाकर दरवाज़ा खोला। एक व्यक्ति आए थे, उन्होंने पूछा, 'सेठ कहाँ गए हैं?' तब सेठानी ने जवाब दिया, 'उकरड़े' (कूड़ा-करकट फेंकने का स्थान)। सेठ ने अंदर बैठे-बैठे यह सुना और खुद के अंदर झांका तो वास्तव में वे उकरड़े में ही गया हुआ था! अंदर तो खराब विचार ही चल रहे थे, वे सूक्ष्म कर्म और बाहर सामायिक कर रहे थे, वह स्थूल कर्म। भगवान ऐसा घोटाला नहीं चलने देते। अंदर सामायिक रहे और बाहर समायिक न भी हो पाए तो उसका 'वहाँ' पर चलेगा। ये बाहर के दिखावे 'वहाँ' चल सकें, ऐसे नहीं है।

भीतर बदलो भाव इस तरह
स्थूलकर्म यानी तुझे एकदम गुस्सा आ जाए तब गुस्सा नहीं लाना है फिर भी वह आ जाता है। ऐसा होता है या नहीं होता ?

प्रश्नकर्ता : होता है।

दादाश्री : वह गुस्सा आया, उसका फल यहीं पर तुरन्त मिल जाता है। लोग कहते हैं कि 'जाने दो न इसे, यह तो है ही बहुत क्रोधी।' अरे कोई तो उसे सामने धौल भी मार देता है। यानी अपयश या और किसी तरह से उसे यहीं पर फल मिल जाता है। गुस्सा होना वह स्थूल कर्म है लकिन जब गुस्सा आया तब उसके भीतर आज का तेरा भाव क्या है? 'गुस्सा करना ही चाहिए।' तो वह अगले जन्म में फिर से गुस्सा करने का हिसाब है, और अगर तेरा आज का भाव है कि 'गुस्सा नहीं करना चाहिए।' तेरे मन में निश्चित किया हो कि 'गुस्सा करना ही नहीं है, फिर भी गुस्सा हो जाता है तो तुझे अगले जन्म के लिए बंधन नहीं रहा।

इस स्थूलकर्म में तुझे गुस्सा आ गया, तो उसके लिए तुझे इस जन्म में मार खानी पड़ेगी। फिर भी तुझे बंधन नहीं होगा क्योंकि सूक्ष्मकर्म में तेरा निश्चय है कि गुस्सा करना ही नहीं चाहिए और कोई व्यक्ति किसी पर गुस्सा नहीं होता, लेकिन फिर भी मन में कहे कि 'ये लोग ऐसे हैं कि इन पर गुस्सा किया जाए तभी ये सीधे होंगे।' तो उससे वह अगले जन्म में गुस्सेवाला बनता है। अतः बाहर जो गुस्सा होता है, वह स्थूल कर्म है, और उस समय भीतर जो भाव होता है, वह सूक्ष्मकर्म है। यदि इसे समझें तो स्थूल कर्म से बिल्कुल भी बंधन नहीं है। इसलिए इस साइन्स को मैंने नई तरह से रखा है। अभी तक दुनिया में ऐसी मान्यता दृढ़ कर दी है कि स्थूल कर्म से बंधन है और इसीलिए लोग डरते रहते हैं।

इस ज्ञान से घर-संसार सहित मोक्ष
अब घर में स्त्री है, शादी की है और मोक्ष में जाना है, तो मन
में होता रहता है कि मैंने तो शादी की है, तो अब मोक्ष में कैसे जा पाऊँगा ? अरे, स्त्री बाधक नहीं है, तेरे सूक्ष्म कर्म बाधक हैं। ये तेरे स्थूल कर्म बाधक नहीं हैं। वह मैंने ओपन किया है और यह साइन्स ओपन नहीं करूंगा तो भीतर घबराहट घबराहट और घबराहट रहेगी। भीतर अजंपा, अजंपा, अजंपा (बेचैनी, अशांति, घबराहट) रहता है। वे साधु कहते हैं कि हम मोक्ष में जाएँगे। अरे, आप कैसे मोक्ष में जाओगे? क्या छोड़ना है, वह तो आप जानते नहीं। आपने तो स्थूल को छोड़ा है। जो आँखों से दिखाई देता है, कान से सुनाई देता है, वह छोड़ा है। उसका फल तो इस जन्म में ही मिल जाएगा। यह साइन्स नये ही प्रकार का है। यह तो अक्रम विज्ञान है। जिससे इन लोगों को हर प्रकार से फेसीलिटी (सहूलियत) हो गई है, बीवी को छोड़कर थोड़े ही भाग सकते हैं? अरे बीवी को छोड़कर भाग जाएँ और अपना मोक्ष हो, ऐसा हो सकता है क्या ? किसी को दुःख देकर अपना मोक्ष हो, ऐसा संभव है क्या ?

इसलिए बीवी बच्चों के प्रति सभी फर्ज निभाना और पत्नी जो भी 'भोजन' दे वह चैन से खाओ। वह सब स्थूल है। यह समझ जाना। स्थूल के पीछे आपका अभिप्राय ऐसा नहीं रहना चाहिए कि जिससे सूक्ष्म में चार्ज हो। इसलिए मैंने आपको पाँच वाक्य आज्ञा के रूप में दिए हैं। भीतर ऐसा अभिप्राय नहीं रहना चाहिए कि 'यह करेक्ट है, मैं जो करता हूँ, जो भोगता हूँ, वह करेक्ट है।' ऐसा अभिप्राय नहीं होना चाहिए। बस इतना ही आपका अभिप्राय बदला कि सबकुछ बदल जाएगा।

इस तरह मोड़ो बच्चों को

बच्चे में खराब गुण हों तो माँ-बाप उन्हें डाँटते हैं और कहते फिरते हैं कि, 'मेरा बेटा तो ऐसा है, नालायक है, चोर है।' अरे, वह ऐसा करता है, उस करे हुए को रख न एक तरफ। पर अभी उसके भाव बदल न ! उसके भीतर के अभिप्राय बदल न! उसके भाव कैसे बदलने, वह माँ बाप को आता नहीं है। क्योंकि सर्टिफाइड माँ-बाप नहीं हैं, और माँ-बाप बन बैठे हैं! बच्चे को चोरी की बुरी आदत पड़ गई हो तो माँ-बाप उसे डाँटते रहते हैं, मारते रहते हैं। इस तरह माँ-बाप हमेशा एक्सेस (जरूरत से ज्यादा) बोलते हैं। एक्सेस बोला हुआ हेल्प नहीं करता। इसलिए तब बेटा क्या करता है? मन में पक्का करता है कि, 'भले ही बोलते रहें। मैं तो ऐसा करूँगा ही।' इस बेटे को माँ बाप और अधिक चोर बनाते हैं। द्वापर और त्रेता और सतयुग में जो हथियार थे, आज लोग उनका कलियुग में उपयोग करने लगे हैं। बेटे को बदलने का तरीका अलग है। उसके भाव बदलने हैं। उस पर प्रेम से हाथ फेरकर प्यार से कहना कि, 'आ बेटे, भले ही तेरी माँ चिल्लाए, वह चिल्लाए, पर जैसे तूने इस तरह किसी की चोरी की, वैसे ही कोई तेरी जेब में से चोरी करे तो तुझे सुख महसूस होगा ? उस समय तुझे अंदर कैसा दुःख होगा? वैसे ही क्या सामने वाले को भी दुःख नहीं होगा ? इस तरह पूरी थियरी बेटे को समझानी पड़ेगी। एक बार उसके अंदर बैठ जाना चाहिए कि यह गलत है। आप उसे मारते रहते हो, उससे तो बच्चे ढीठ होते जाते हैं। सिर्फ तरीका ही बदलना है। पूरी दुनिया ने स्थूल कर्म को ही समझा है, सूक्ष्म कर्म को समझा ही नहीं है। सूक्ष्म को समझा होता तो यह दशा नहीं होती।

चार्ज और डिस्चार्ज कर्म.
प्रश्नकर्ता: स्थूलकर्म और सूक्ष्मकर्म के कर्ता अलग-अलग हैं ?

दादाश्री : दोनों के कर्ता अलग हैं। ये जो स्थूलकर्म हैं, वे डिस्चार्ज कर्म हैं। ये बेटरियाँ होती हैं न, वे चार्ज करने के बाद डिस्चार्ज होती रहती हैं न ? हमें डिस्चार्ज नहीं करनी हों, फिर भी वे होती ही रहती हैं न ?

प्रश्नकर्ता: हाँ।

दादाश्री उसी प्रकार ये जो स्थूलकर्म हैं, वे डिस्चार्ज कर्म हैं। और भीतर दूसरे नये चार्ज हो रहे हैं, वे सूक्ष्म कर्म हैं। इस जन्म वे जो चार्ज हो रहे हैं, वे अगले जन्म में डिस्चार्ज होते रहेंगे। और इस जन्म में पिछले जन्म की बेटरियाँ डिस्चार्ज होती रहती हैं, एक बेटरी मन की, एक बेटरी वाणी की और एक बेटरी देह की ये तीनों बेटरियाँ वर्तमान में डिस्चार्ज होती ही रहती हैं, और भीतर नई तीन बेटरियाँ चार्ज हो रही हैं। यह बोल रहा हूँ, तो तुझे ऐसा लगता होगा कि 'मैं' ही बोल रहा हूँ। पर नहीं, यह तो रिकॉर्ड बोल रही है। यह तो वाणी की बेटरी डिस्चार्ज हो रही है। मैं बोल ही नहीं रहा हूँ और ये सारे जगत् के लोग क्या कहते हैं कि 'मैंने कैसी बात की, मैंने कैसा बोला!' वे सभी कल्पित भाव हैं, इगोइज़म है। अगर सिर्फ वह इगोइज़म (अहंकार) चला जाए तो फिर बाकी कुछ बचा ? यह इगोइजम, यही अज्ञानता है और यही भगवान की माया है। क्योंकि करता है कोई और, और खुद को ऐसा एडजस्टमेन्ट हो जाता है कि ‘मैं ही कर रहा हूँ।’ ये सूक्ष्मकर्म जो अंदर चार्ज होते हैं, वे फिर कम्प्यूटर में जाते हैं एक व्यष्टि कम्प्यूटर है और दूसरा समष्टि कम्प्यूटर है। व्यष्टि में पहले सूक्ष्मकर्म जाते हैं और वहाँ से फिर समष्टि कम्प्यूटर में जाते हैं। फिर समष्टि कार्य करता रहता है। रियली स्पिकिंग ऐसा कहने से कि 'मैं चंदूभाई हूँ' कर्म बँधते हैं। 'मैं कौन हूँ', इतना ही यदि समझ गया तो तभी से सारे कर्मों से छूट जाता है। अर्थात् यह सरल और सीधा विज्ञान रखा है, वर्ना करोड़ों उपायों से भी एब्सोल्यूट होना संभव नहीं है और यह तो बिल्कुल एब्सोल्यूट थियरम है।

कर्म — कर्मफल — कर्मफल परिणाम।
प्रश्नकर्ता: पिछले जन्म के जो चार्ज हो चुके कर्म हैं, वे इस जन्म में डिस्चार्ज के रूप में आते हैं। तो इस जन्म के जो कर्म हैं, वे इसी जन्म में डिस्चार्ज के रूप में आते हैं या नहीं?

दादाश्री : नहीं।

प्रश्नकर्ता: तो कब आएँगे ?

दादाश्री: पिछले जन्म के कॉजेज हैं न, वे इस जन्म के इफेक्ट हैं। इस जन्म के कॉजेज अगले जन्म के इफेक्ट हैं।

प्रश्नकर्ता: लेकिन कुछ कर्म ऐसे होते हैं कि यहीं पर भुगतने पड़ते हैं न! आपने ऐसा कहा है, एक बार।

दादाश्री : वह तो इस दुनिया के लोगों को ऐसा लगता है। जगत् के लोगों को क्या लगता है ? हं... देख, बहुत खाता था होटल में और इसीलिए मरोड़ हो गए। 'होटल में खाता था, वह कर्म बाँधा, उससे ये मरोड़ हो गए' कहेंगे। जबकि ज्ञानी क्या कहते हैं, वह होटल में किसलिए खाता था? ऐसा किसने सिखाया उसे, होटल में खाना ? किस तरह हुआ? संयोग खड़े हो गए। पहले जो योजना की हुई थी, उस योजना का परिणाम आया, इसलिए वह होटल में गया। उसे जाने के संयोग सारे मिल आते हैं। इसलिए अब छूटना हो तो छूटा नहीं जा सकता। उसके मन में ऐसा होता है कि अरे ऐसा क्यों हो रहा है ? तब यहाँ के भ्रांतिवाले को ऐसा लगता है कि यह काम किया इसलिए ऐसा हुआ। भ्रांतिवाले ऐसा समझते हैं कि यहाँ कर्म बाँधते हैं और यहीं भोगते हैं। ऐसा समझते हैं। लेकिन यह पता नहीं लगाते कर्म का विज्ञान कि खुद को नहीं जाना हो, फिर भी कैसे जाता है? उसे नहीं जाना है फिर भी वह किस प्रकार किस नियम से जाता है, वह हिसाब है।

तब हम और अधिक सिखाते हैं कि बेकार में इन बच्चों को मारना मत बिना बात के, लेकिन फिर से ऐसा भाव नहीं करे, वैसा करो। फिर से योजना नहीं करे, वैसा करो। चोरी खराब है, होटल में खाना खराब है... ऐसा उसे ज्ञान उत्पन्न हो, ऐसा करो, ताकि फिर से अगले जन्म में ऐसा नहीं हो। यह तो मारते रहते हैं और बेटे से कहते हैं, 'देख! नहीं जाना है तुझे, तो उसका मन उल्टा चलता है, 'भले ही ये कहें, हम तो जाएँगे, बस।' बल्कि हठ पकड़ता है और उसी से ये उल्टे कर्म बंधते हैं न! माँ-बाप उल्टा करवाते हैं।

प्रश्नकर्ता: पहले जो भाव किए थे, उनकी वजह से होटल में गया, अब होटल में गया, फिर वहाँ पर खाया और फिर मरोड़ हो गए, यह सब डिस्चार्ज है?

दादाश्री : वह होटल में गया, वह डिस्चार्ज है और मरोड़ हो गए, वह भी डिस्चार्ज है। डिस्चार्ज खुद के बस में नहीं रहते, कंट्रोल नहीं रहता, आउट ऑफ कंट्रोल हो जाते हैं।

अब यदि ऐसा समझे कि एक्जेक्ट कर्म की थियरी किसे कहते हैं, तो वह व्यक्ति पुरुषार्थ धर्म को समझ सकेगा। इस दुनिया के लोग जिसे कर्म कहते हैं, कर्म की थ्योरी उसे कर्मफल कहती है। होटल में खाने का जो भाव होता है, वह पूर्वजन्म में बाँधे गए कर्मों के आधार पर खाता है। वहाँ यह कर्म कहलाता है। उस कर्म के आधार पर इस जन्म में वह बार-बार होटल में खाता रहता है। उसे कहते हैं कि कर्मफल आया और ये जो मरोड़ हुए, उसे जगत् के लोग ऐसा मानते हैं कि कर्मफल आया, जबकि कर्म की थ्योरी क्या कहती है कि ये जो मरोड़ हुए, वह कर्मफल का परिणाम आया।
वेदांत की भाषा में, जो वह होटल में खाने के लिए आकर्षित होता है, वह पूर्व में बाँधे हुए संचित कर्मों की वजह से है। अभी भीतर बिल्कुल ना है फिर भी होटल में जाकर खा आता है, वह है प्रारब्ध कर्म और फिर वापस उसका इस जन्म में ही परिणाम आता है और मरोड़ हो जाते हैं वह क्रियमाण कर्म।

होटल में खाते हुए मज़ा आया, उस समय भी बीज डालता है और मरोड़ होते हैं, तब भोगते समय भी फिर से बीज डालता है। इस तरह कर्मफल के समय और कर्मफल परिणाम के समय दोनों बार बीज डालता है।

संचित, प्रारब्ध और क्रियमाण कर्म।
प्रश्नकर्ता: वह सारा पूर्वजन्म के संचितकर्म पर आधारित है ?

दादाश्री : ऐसा है न, संचित कर्म वगैरह सभी शब्दों को समझने की ज़रूरत है। यानी संचितकर्म, कॉज़ेज़ हैं और प्रारब्ध कर्म इन संचित कर्मों का इफेक्ट है और इफेक्ट का फल तुरन्त ही मिल जाता है, वह क्रियमाण कर्म। संचित कर्म का फल, पचास-साठ सौ साल के बाद उसका काल परिपक्व हो तब मिलता है।

यह संचित कर्म का फल है। संचितकर्म फल देते समय संचित नहीं कहलाता। फल देते समय प्रारब्धकर्म कहलाता है। वही के वही संचित कर्म जब फल देने के लिए तैयार होते हैं, तब वे प्रारब्ध कर्म कहलाते हैं। संचित अर्थात् संदूक में रखी हुई गड्डियाँ। वे गड्डियाँ यदि जरा बाहर निकालें तो, वह प्रारब्ध है। प्रारब्ध का अर्थ क्या है कि जो फल देने को सम्मुख हो गया है, वह प्रारब्ध। जो फल देने के लिए सम्मुख नहीं हुआ है, अभी तो कितने ही काल के बाद फल देगा, तब तक वे सभी संचित हैं। सारे संचित कर्म पड़े रहते हैं। धीरे-धीरे, जैसे-जैसे खुलते जाते हैं, वैसे-वैसे फल देते हैं।

और क्रियमाण तो आँखों से देखे जा सकते हैं। पाँच इन्द्रियों से अनुभव में आते हैं, वे क्रियमाण कर्म इस तरह ये कर्म तीन प्रकार से पहचाने जाते हैं। लोग कहते हैं देखो न, इसने दो धौल मार दी। धौल मारनेवाले को देखते हैं, धौल खानेवाले को देखते हैं, वह क्रियमाण कर्म है। अब क्रियमाण कर्म अर्थात् क्या ? फल देने के लिए जो सम्मुख हुआ, वह यह फल। उसे फल ऐसा आया कि दो धौल दे दीं। और मार खानेवाले को फल ऐसा आया, उसने दो धौल खा लीं। अब उस क्रियमाण का वापस फल आता है। तो जो धौल मारी थी, उससे फिर मन में बदले की भावना रखता है कि जब मेरी पकड़ में आएगा, उस घड़ी देख लूँगा। इसलिए फिर वापस वह उसका बदला लेता है। और फिर वापस नये बीज डलते ही जाते हैं। नये वीज तो डालता ही जाता है भीतर बाकी, सिर्फ संचित तो ऐसे ही पड़ा हुआ, स्टॉक में रखा हुआ माल है। पुरुषार्थ अलग चीज़ है। क्रियमाण तो प्रारब्ध का रिजल्ट है, प्रारब्ध का फल है।

प्रश्नकर्ता: इस पुरुषार्थ को आप कर्मयोग कहते हैं ?

दादाश्री : कर्मयोग समझना चाहिए। जो कर्मयोग भगवान ने जो लिखा है और लोग जिसे कर्मयोग कहते हैं, उन दोनों में आकाश-पाताल जितना फर्क है।

पुरुषार्थ का मतलब कर्मयोग है, लेकिन कर्मयोग कैसा ? ऑन पेपर। योजना करना, वह कर्मयोग कहलाता है। वह जो कर्मयोग हुआ, उससे फिर हिसाब बँधा, उसका फल संचित कहलाता है और संचित भी जो है वह योजना में ही है, लेकिन जब फल देने को सम्मुख होता है तब प्रारब्ध कहलाता है, और जब प्रारब्ध फल देता है तब क्रियमाण कहा जाता है। जब पुण्य होता है तब क्रियमाण अच्छे होते हैं, और जब पाप आते हैं तब क्रियमाण उल्टे होते हैं।

अनजाने में किए गए कर्मों का फल मिलता है क्या ?
प्रश्नकर्ता : जान-बूझकर किए हुए गुनाहों का कितना दोष लगता है ? और अनजाने में की हुई भूलों का कितना दोष लगता है ? अनजाने में की हुई भूलों के लिए माफ़ी मिल जाती होगी न?

दादाश्री: कोई ऐसे पागल नहीं हैं कि यों ही माफ़ कर दें। अगर आपसे अनजाने में कोई व्यक्ति मर गया तो कोई ऐसा बेकार नहीं बैठा कि माफ़ करने आए। अब अनजाने में अँगारों पर हाथ लग जाए तो क्या होगा ?

प्रश्नकर्ता: जल जाएँगे।

दादाश्री: तुरन्त फल ! अनजाने में करो या जान-बूझकर करो।

प्रश्नकर्ता: अनजाने में की गई भूलों को इस तरह भुगतना पड़ता है, तो जानने के बाद कितना भुगतना पड़ेगा?

दादाश्री: हाँ, तो वही मैं आपको समझाता हूँ कि अनजाने में किए गए कर्म किस तरह भुगतते हैं? एक आदमी ने बहुत पुण्यकर्म किए, राजा बनने के पुण्यकर्म किए हों, पर अनजाने में किए हों, समझकर नहीं। लोगों को देख-देखकर वैसे कर्म खुद ने भी किए। वह फिर समझे बिना राजा बनता है, उस तरह के कर्म बाँधता है। अब वह पाँच साल की उम्र में राजगद्दी पर आता है, फादर ऑफ हो गए इसलिए। और ग्यारह साल की उम्र तक, यानी उसे छह साल तक राज्य करना था, इसलिए ग्यारहवें साल में गद्दी पर से उतर गया। अब दूसरे व्यक्ति को जो 28 साल की उम्र में राजा बना और 34 वें साल में राज्य छूट गया। उनमें से किसने अधिक सुख भोगा? दोनों को राज्य मिला।

प्रश्नकर्ता : जो 28वें साल में आया और 64वें साल में गया, उसने।

दादाश्री : उसने जानते हुए पुण्य बाँधा था, इसलिए उसे जानते हुए भोगा। और उस बच्चे ने अनजाने में पुण्य किया था, इसलिए अनजाने में भोगा। इस तरह अनजाने में पाप बाँधो तो अनजाने में भुगत लिया जाता है और अनजाने में पुण्य करो तो अनजाने में भुगत लिया जाता है। मजा नहीं आता। समझ में आता है न ?

अनजाने में किए हुए पाप के बारे में मैं आपको समझाता हूँ। इस तरफ दो तिलचिट्टे जा रहे थे, बड़े-बड़े तिलचिट्टे और इस तरफ दो मित्र जा रहे थे। तब एक मित्र का पैर तिलचट्टे पर पड़ा और वह कुचला गया और दूसरे मित्र ने तिलचिट्टा देखा और उसे मसलकर मार दिया। दोनों ने क्या काम किया ?

प्रश्नकर्ता : तिलचिट्टे को मारा।

दादाश्री : दोनों खूनी माने जाएँगे, कुदरत के वहाँ। उन तिलचिट्टों के परिवारवालों ने शिकायत की कि हम दोनों के पति को इन लड़कों ने मार दिया है। दोनों का गुनाह एक सा है। दोनों गुनहगार, खूनी की तरह ही पकड़े गए। खून करने का तरीका अलग-अलग है, पर अब उसका फल देते समय दोनों को क्या फल मिलता है? दोनों को सजा हुई, दो धौल और चार गालियाँ। अब वह जिसने यह सब अनजाने में किया था, वह व्यक्ति दूसरे जन्म में मजदूर बनता है, तो उसे किसीने दो धौल मार दीं और चार गालियाँ दे दीं तो कुछ ही दूर जाकर उसने वे झाड़ दीं और दूसरा, अगले जन्म में गाँव का मुखिया था, बहुत बड़ा, अच्छे से अच्छा आदमी। उसे किसीने दो धौल मारीं और चार गालियाँ दीं, तो कितने ही दिनों तक वह सोया नहीं। कितने दिन भोगा! इसने तो जान-बूझकर मारा था, मजदूर ने अनजाने में किया था। इसीलिए सोच-समझकर करना यह सब जो कुछ भी करोगे न, उसकी ज़िम्मेदारी खुद की ही है। यू आर होल एन्ड सोल रिस्पोन्सिबल गॉड इज नोट रिस्पोन्सिबल एट ऑल। (आप ही पूर्ण रूप से ज़िम्मेदार हो, भगवान बिल्कुल भी जिम्मेदार नहीं हैं।)

प्रारब्ध भुगतने पर ही छुटकारा
प्रश्नकर्ता: मुख्य तो अपने ही कर्म बाधक है ?

दादाश्री : नहीं तो फिर और कौन! और कोई नहीं करता। बाहरवाला कोई नहीं करता। आपके ही कर्म परेशान करते हैं आपको। समझदार वाइफ लाता है और फिर पागल हो जाती है। तो क्या वह किसीने कर दी ? पति के ही कर्म के उदय से पागल हो जाती है। इसलिए हमें मन में यह समझ जाना चाहिए कि 'मेरी ही गलती हैं, मेरे ही हिसाब हैं, और मुझे चुका देने हैं हर किसी को आ फँसे भाई, आ फँसे हैं।'

खुद को भुगते बिना चारा नहीं है। प्रारब्ध हमें भी भुगतना
पड़ता है, सभी को, महावीर प्रभु भी भुगतते थे। भगवान महावीर को तो देव लोग परेशान करते थे। वे भी भुगतते थे। देव लोग बड़े-बड़े खटमल डालते थे।

प्रश्नकर्ता: वह उन्हें प्रारब्ध भुगतना पड़ा न ?

दादाश्री : कोई चारा ही नहीं न! वे खुद समझते थे कि देव लोग यह कर रहे हैं, फिर भी प्रारब्ध मेरा है।

कौन से कर्म से देह को दुःख ?
प्रश्नकर्ता : कौन से कर्मों के आधार पर शरीर के रोग होते हैं ?

दादाश्री : लूला-लँगड़ा हो जाता है न! हाँ, वह सब क्या हुआ है? वह किसका फल है? अगर हम कान का दुरुपयोग करते हैं तो कान का नुकसान हो जाता है। आँखों का दुरुपयोग करते हैं तो आँखें चली जाती है, नाक का दुरुपयोग करते हैं तो नाक चली जाती है, जीभ का दुरुपयोग करें तो जीभ खराब हो जाती है, दिमाग़ का दुरुपयोग करते हैं तो दिमाग़ खराब हो जाता है, पैर का दुरुपयोग करें तो पैर टूट जाता है, हाथ का दुरुपयोग करते हैं तो हाथ टूट जाता है। यानी जिसका दुरुपयोग करता है, उसी तरह का फल भुगतना पड़ता है, यहाँ पर।

निर्दोष बच्चों को भुगतना क्यों ?
प्रश्नकर्ता: कई बार ऐसा देखा गया है कि छोटे बच्चे जन्म से ही अपंग होते हैं। पंगु होते हैं। कुछ छोटे बच्चे कुतुबमीनार और हिमालय दर्शन की दुर्घटना में मर जाते हैं। तो इन छोटे-छोटे बच्चों ने क्या पाप किया होगा कि उनके साथ ऐसा होता है ?

दादाश्री: पाप किया हुआ ही था, उसका हिसाब चुक गया। डेढ़ साल का हुआ, माँ-बाप के साथ का सारा हिसाब पूरा हुआ, इसलिए चला गया। हिसाब चुका देना चाहिए। ये हिसाब चुकाने के लिए आते हैं।

प्रश्नकर्ता: वह बालक माँ बाप के किए हुए दुष्कृत्य का फल देने के लिए आया था ?

दादाश्री: माँ-बाप के साथ का जो हिसाब नियोजित है, जितना दुःख देना हो तो दुःख देकर जाता है और सुख देना हो तो सुख देकर जाता है और एक-दो साल का होकर मर जाता है, तो ज़रा सा ही दुःख देकर जाता है और एक बाईस साल का शादी के बाद मर जाता है तो अधिक दुःख देता है। ऐसा होता है या नहीं होता ?

प्रश्नकर्ता: ऐसा होता तो है। ठीक है।

दादाश्री : यानी ये दुःख देने के लिए होते हैं और कुछ हैं वे बड़े होने पर सुख देते हैं। ठेठ तक, पूरी जिन्दगी सुख देते हैं। सुख और दुःख देने के लिए ही आमने-सामने ये सारे संबंध हैं। ये रिलेटिव संबंध हैं।

आज के कुकर्मों का फल इसी जन्म में ?
प्रश्नकर्ता: यह जो कर्म का फल आता है, तो मानो कि उदाहरण के तौर पर हमने किसी के विवाह में रुकावट डाली, तो फिर वापस वैसा ही फल हमें अगले जन्म में मिलेगा ? क्या वही व्यक्ति अपने विवाह में रुकावट डालेगा? क्या कर्म का फल इस तरह से होता है? उसी प्रकार से और उसी डिग्री का ?

दादाश्री : नहीं, इसी जन्म में मिलता है, विवाह होने में दरार डालो, वह तो प्रत्यक्ष जैसा ही कहलाता है और प्रत्यक्ष का फल यहीं पर मिल जाता है।

प्रश्नकर्ता: हमने किसी के विवाह होने में रुकावट डाली, लेकिन उससे पहले हमने विवाह कर लिया हो तो कहाँ से मिलेगा ?

दादाश्री: नहीं, उसी तरह का फल मिले, ऐसा नहीं है। आपने जो उसका मन दुखाया, उसी तरह आपका मन दुखने का रास्ता मिलेगा। अगर किसी की बेटियाँ नहीं हों तो, वह किस तरह फल पाएगा? दूसरे लोगों की लड़कियों के विवाह होने में बाधा डालता है और खुद की लड़कियाँ नहीं है और इस जन्म में ही कर्म का फल मिल जाता है। इसी जन्म में फल मिले बगैर रहता नहीं है। ऐसा है न, परोक्ष कर्म का फल अगले जन्म में मिलता है और प्रत्यक्ष का फल इस जन्म में मिलता है।

प्रश्नकर्ता: परोक्ष शब्द का अर्थ क्या है ?

दादाश्री: वह कर्म जिसका हमें पता नहीं चलता।

प्रश्नकर्ता: अगर मैंने किसी व्यक्ति का दस लाख रुपये का नुकसान करने का भाव किया हो तो फिर मुझे वापस वैसा ही नुकसान मिलेगा ?

दादाश्री : नहीं, नुकसान नहीं। वह तो दूसरे रूप में, आपको उतना ही दुःख होगा। जितना दुःख आपने उसे दिया उतना ही दुःख आपको होगा। फिर बेटा पैसे खर्च कर दे और दुःखी करे या और किसी भी तरह से, लेकिन उतना ही दुःख होगा आपको। वह सारा यह हिसाब नहीं है, बाहर का हिसाब नहीं है। इसलिए यहाँ ये सब भिखारी कहते हैं न, रास्ते में एक आदमी कह रहा था, 'हम यह जो भीख माँग रहे हैं, हमारा दिया हुआ ही वह आप हमें वापस कर रहे हो' खुल्लम खुल्ला कहता है वह तो। 'आप जो दे रहे हो, वह हमारा दिया हुआ है। वही दे रहे हो, वर्ना हम आपको देंगे।' दोनों में से एक तो होगा! नहीं, ऐसा नहीं है। आपने किसी के दिल को ठंडक पहुँचाई तो आपके दिल को ठंडक पहुँचेगी। आपने उसका दिल दुःखाया तो आपका दुःखेगा, बस अंत में इन सभी कर्मों का समावेश राग-द्वेष में होता है। राग-द्वेष का फल मिलता है। राग का फल सुख और द्वेष का फल दुःख मिलेगा।

प्रश्नकर्ता : यह जो आपने कहा न कि राग का फल सुख और द्वेष का फल दुःख है, तो यह परोक्ष फल की बात है या प्रत्यक्ष फल की ?

दादाश्री : सिर्फ प्रत्यक्ष ही। ऐसा है न, राग से पुण्य बँधता है और पुण्य से लक्ष्मी मिली। अब लक्ष्मी मिली लेकिन खर्च होते समय वापस दुःख देकर जाती है, इसलिए ये सभी सुख जो आप लेते हो, वे लोन पर लिए हुए सुख हैं। इसलिए, यदि फिर पेमेन्ट करना हो तभी ये सुख लेना। हाँ, तभी सुख चखना, वर्ना मत चखना। अगर अब आपमें चुकाने की शक्ति नहीं है, अब वापस पेमेन्ट करने की, तो वह चखना बंद कर दो। बाकी, ये सारे सुख लोन वाले हैं। किसी भी प्रकार का सुख, वह लोन पर लिया हुआ है।

पुण्य का फल सुख, लेकिन सुख भी लोन वाला और पाप का फल दुःख, दुःख भी लोन वाला । अर्थात् यह सारा लोनवाला है। इसलिए अगर सौदा नहीं करना हो तो मत करना। इसीलिए पुण्य और पाप हेय (त्याज्य) माने गए हैं।

प्रश्नकर्ता: यह पहले दिया हुआ था और अभी वापस ले लेते हैं, इसलिए हिसाब चुक जाता है। फिर उसे तो लोन पर लिया हुआ नहीं कहा जाएगा न ?

दादाश्री: अभी जो सुख चखते हो वे सारे वापस आए हुए नहीं हैं, लेकिन इन सभी को चखते हो। इनका पेमेन्ट करना पड़ेगा। अब पेमेन्ट किस तरह करना पड़ेगा? अच्छा आम खाया, तो उस दिन खुश हो गए और हमें सुख उत्पन्न हुआ। आनंद में दिन गुज़रा। लेकिन दूसरी बार आम खराब आएगा, उससे उतना ही दुःख आएगा। लेकिन यदि इसमें सुख नहीं लेंगे, तो वह दुःख नहीं आएगा।

प्रश्नकर्ता : अगर उसमें मूर्छा नहीं तो ?

दादाश्री: तो फिर आम खाने में हर्ज नहीं है।

साधो सास के साथ सुमेल
प्रश्नकर्ता: सास के साथ मेरा बहुत टकराव होता है, उससे किस तरह छूटूं?

दादाश्री: एक-एक कर्म से मुक्ति होनी चाहिए। सास परेशान करे तब हर एक बार कर्म से मुक्ति मिलनी चाहिए तो उसके लिए हमें क्या करना चाहिए? सास को निर्दोष देखना चाहिए कि सास का क्या दोष है? मेरे कर्म का उदय है, इसलिए वे मिले हैं। वे तो बेचारे निमित्त हैं। तो उस कर्म से मुक्ति हो जाएगी और यदि सास का दोष देखोगी तो कर्म बढ़ेंगे, तो फिर उसके लिए कोई क्या कर सकता है? सामने वाले के दोष देखने से कर्म बँधते हैं और खुद के दोष देखने से कर्म छूटते हैं।

इस तरह से रहना चाहिए कि अपने कर्म न बँधे, इस दुनिया से दूर रहना चाहिए। ये कर्म बाँधे थे, इसीलिए तो ये मिले हैं। अपने घर में ये सब कौन इकट्ठे हुए हैं? जिनके साथ कर्म के हिसाब बँधे हुए हैं, वही सब इकट्ठे हुए हैं और फिर हमें बाँधकर मारते भी हैं। हमने निश्चित किया हो कि मुझे इससे बात नहीं करनी है, फिर भी सामने वाला मुँह में उँगलियाँ डालकर बुलवाता रहता है। अरे, उँगली डालकर क्यों बुलवा रहा है? उसे कहते हैं बैर! सारे पूर्वजन्म के बैर! कहीं पर देखा है ऐसा ?

प्रश्नकर्ता: सब ओर वही दिखाई पड़ता है न!

दादाश्री: इसीलिए मैं कहता हूँ न कि वहाँ से हट जाओ और मेरे पास आ जाओ। यह जो मैंने पाया है वह आपको दे दूँ, आपका काम हो जाएगा और छुटकारा हो जाएगा। वर्ना, छुटकारा नहीं होगा।

हम किसी के दोष नहीं निकालते, लेकिन नोट करते हैं कि देखो यह दुनिया क्या है? मैंने इस दुनिया को हर तरह से देखा है। बहुत तरह से देखा है। अगर अभी तक कोई दोषित दिखता है तो वह अपनी ही भूल है। कभी न कभी निर्दोष तो देखना ही पड़ेगा न ? अपने हिसाब के कारण ही है यह सब। इतना थोड़ा सा समझ जाओगे न, तो भी बहुत काम आएगा।

जहाँ अपने गाढ़ ऋणानुबंध हों, वहाँ हमारे गाढ़ कर्मों का उदय आता है और वे हमारा ऋणानुबंध छुड़वाने आते हैं। सारा अपना ही हिसाब है। किसी ने गाली दी तो क्या वह अव्यवहार है? व्यवहार है। 'ज्ञानी' को तो अगर कोई गालियाँ दे तो वे खुश होते हैं कि 'बंधन से मुक्त हुए।' जबकि अज्ञानी धक्के मारता है और नए कर्म बाँधता है। सामनेवाला जो गालियाँ देता है, वह तो अपने ही कर्मों का उदय है। सामनेवाला तो निमित्त मात्र है, वैसी जागृति रहे तो नया कर्म नहीं बँधता। हर एक कर्म उसकी निर्जरा का निमित्त लेकर आया हुआ है। किस-किस के निमित्त से निर्जरा होगी, वह निश्चित है। उदयकर्म में राग-द्वेष नहीं करें, उसी को धर्म कहते हैं।

खुद ने ही डाले अंतराय ?
प्रश्नकर्ता: जब हम सत्संग में आते हैं, तब अगर कोई व्यक्ति अवरोध करता है। तो क्या वह अवरोध अपने कर्मों के कारण है ?

दादाश्री: हाँ। आपकी भूल नहीं होगी तो कोई आपका नाम भी नहीं लेगा। आपकी भूलों का ही परिणाम है। खुद के ही बाँधे हुए अंतराय कर्म हैं। किए हुए कर्मों के सारे हिसाब भुगतने हैं।

प्रश्नकर्ता: वह भूल हमने पिछले जन्म में की थी ?

दादाश्री: हाँ, पिछले जन्म में ।

प्रश्नकर्ता: अभी उनके प्रति मेरा व्यवहार अच्छा है, फिर भी वे कहते रहते हैं, खराब व्यवहार करते हैं। क्या वह पिछले जन्म का है?

दादाश्री : पिछले जन्म के कर्म का मतलब क्या है ? योजना के रूप में किए होते हैं। यानी मन के विचार से कर्म किए होते हैं, वे अभी रूपक में आते हैं और हमें वह कार्य करना पड़ता है। नहीं करना हो फिर भी करना ही पड़ता है। हमारे पास कोई चारा ही नहीं रहता। ऐसे जो कार्य करते हैं वे पिछली योजना की वजह से करते हैं और फिर वापस उनका फल भुगतना पड़ता है।

पति-पत्नी के टकराव

खटमल काटते हैं, वे तो बेचारे बहुत अच्छे हैं, लेकिन यह पति पत्नी को काटता है, पत्नी पति को काटती है, वह बहुत पीड़ाकारी होता है। काटते हैं या नहीं काटते ?

प्रश्नकर्ता: काटते हैं।

दादाश्री : तो वह काटना बंद करना है। खटमल काटते हैं, वे तो काटकर चले जाते हैं। बेचारा वह भीतर तृप्त हुआ कि चला जाता है। पर पत्नी तो हमेशा काटती रहती है। एक व्यक्ति ने तो मुझे बताया, 'मेरी वाइफ मुझे सापिन की तरह काटती है।' तब फिर भाई, शादी क्यों की थी उस सापिन से! तो क्या वह खुद साँप नहीं है ? ऐसे ही कोई सौंपिन आती है? साँप हो तभी सौंपिन आती है न?

प्रश्नकर्ता : उसके कर्म में लिखा होगा इसलिए उसे भुगतना ही पड़ा, इसलिए वह काटती है, उसमें पत्नी की भूल नहीं है!

दादाश्री : बस यानी कि ये कर्म के भुगतान हैं सारे। इसलिए ऐसी वाइफ मिल जाती है, ऐसा पति मिल जाता है। सास ऐसी मिल जाती हैं। नहीं तो इस दुनिया में कितनी अच्छी सासें हैं। पति कैसे अच्छे होते हैं! कितनी अच्छी पत्नियाँ होती हैं, फिर हमें ही ऐसे टेढ़े क्यों मिले ?

यह तो पत्नी के साथ झगड़ा करता रहता है। अरे, तेरे कर्म का दोष है। लोग निमित्त को काटने दौड़ते हैं। पत्नी, निमित्त है। निमित्त को क्यों काटते हो ? निमित्त को काटने दौड़ता है, उससे क्या कभी भला होता है ? उल्टी गतियों में जाता है फिर। यह तो, लोगों को बताते नहीं कि उनकी क्या गति होनेवाली है इसलिए नहीं डरते। यदि कह दें न कि चार पैर और ऊपर से पूँछ मिलेगी, तो अभी सीधे हो जाएँगे।

प्रश्नकर्ता: उसमें किसका कर्म खराब समझें ? पति-पत्नी दोनों ही लड़ते-झगड़ते हैं, उसमें ?

दादाश्री : दोनों में से जो तंग आ जाए, उसका।

प्रश्नकर्ता: उनमें से तो कोई तंग ही नहीं होता। वे तो लड़ते ही रहते हैं।

दादाश्री : तो दोनों का एक सा । सब नासमझी से हो रहा है।

प्रश्नकर्ता : अगर यह समझ में आ जाए तो कोई दुःख ही नहीं है न!

दादाश्री : उसे समझ जाएँ तो कोई दुःख ही नहीं है। यह तो ऐसा है, एक लड़का कंकड़ मारता है तो फिर उसे मारने दौड़ता है और गुस्सा हो जाता है एकदम गुस्सा हो जाता है या नहीं? और पहाड़ पर से कंकड़ सिर पर गिरे और खून निकले तो ? किस पर गुस्सा करेगा ?

प्रश्नकर्ता: किसी पर नहीं।

दादाश्री यह भी उसी तरह का है। मारनेवाला हमेशा निमित्त ही है। इसका भान नहीं है इसलिए गुस्सा करता है! इस तरह से निमित्त समझ जाए तो दुःख ही नहीं है!

सुख देकर सुख लो
जैसे कि हम बबूल उगाएँ और फिर उसमें से आम की आशा रखें तो नहीं चलेगा न ? जैसा बोते हैं, वैसा फल मिलता है। जैसे-जैसे कर्म किए हैं, वैसा फल हमें भुगतना है। अभी किसी को गालियाँ दीं, तो उस दिन से गाली देनेवाला इसी ताक में रहता है कि कब मिले और वापस दे दूँ। लोग बदला लेते हैं, इसलिए ऐसे कर्म मत करना कि लोग दुःखी हों। आपको यदि सुख चाहिए तो सुख दो।

कोई दो गालियाँ दे जाए तो क्या करना चाहिए? जमा कर लेना। पहले दी हैं, वे वापस दे गया है और यदि पसंद हों तो दूसरी दो-पाँच गालियाँ देना, और नहीं पसंद हों तो उधार मत देना। वर्ना जब वह वापस देगा तब सहन नहीं होगा। इसलिए जो कुछ भी दे, उसे जमा कर लेना।

इस दुनिया में अन्याय नहीं है। बिल्कुल एक सेकन्ड भी न्याय से बाहर नहीं गई है यह दुनिया। इसलिए आप यदि ठीक ढंग से रहोगे तो आपका कोई नाम नहीं लेगा। हाँ, दो गालियाँ देने आए, ले लो। लेकर जमा कर लो और कह दो कि यह हिसाब पूरा हो गया।

क्लेश, नहीं है उदयकर्म
‘समझ लिया’ तो किसे कहते हैं, कि घर में मतभेद नहीं हों, मनभेद नहीं हों, क्लेश झगड़े नहीं हों। यह तो महीने में एकाध दिन क्लेश हो जाता है या नहीं हो जाता घर में? फिर यह जीवन कैसे कहलाएगा? इससे अच्छी तरह तो आदिवासी जीते हैं।

प्रश्नकर्ता : पर उदयकर्म में होगा, तो क्लेश कलह होगा ही ?

दादाश्री : नहीं, क्लेश उदयकर्म के अधीन नहीं हैं, लेकिन अज्ञान से खड़े होते हैं। क्लेश खड़े होते हैं और उससे नये कर्मबीज पड़ते हैं। उदयकर्म क्लेशवाला नहीं होता। अज्ञानता के कारण वह जानता नहीं है कि खुद यहाँ किस तरह से रहे, इसलिए क्लेश हो जाता है।

अभी अगर मुझे यहाँ ऐसी खबर लाकर दे कि मेरा एक खास फ्रेन्ड मर गया तब तुरन्त ही ज्ञान से मुझे पृथ्थकरण हो जाता है कि यह क्या हुआ, इसलिए फिर मुझे क्लेश होने का कोई कारण ही नहीं है न! यह तो अज्ञान उलझा देता है कि मेरा दोस्त मर गया, और वही सब क्लेश करवाता है!

क्लेश मतलब अज्ञानता। अज्ञानता से सारे क्लेश खड़े होते हैं। अज्ञानता चली जाएगी तो क्लेश दूर हो जाएगा।

यह सब क्या है, वह जान लेना चाहिए। साधारण रूप से अगर अपने घर में बच्चा मटकी फोड़ दे तो कोई क्लेश नहीं करता और काँच का कोई बर्तन फोड़ दे तो ? पति क्या कहता है पत्नी को ? तू सँभालती नहीं है इस बच्चे को, तो मुए मटकी के लिए क्यों नहीं बोला ? तब कहता है, 'वह तो डी-वेल्यु थी। उसकी क़ीमत ही नहीं थी।' अगर कीमत नहीं हो तो हम क्लेश नहीं करते और क़ीमतवाले
में क्लेश करते हैं न! दोनों ही चीजें उदयकर्म के अधीन ही फूटती हैं न! पर देखो हम मटकी के लिए क्लेश नहीं करते!

एक व्यक्ति के दो हज़ार रुपये खो जाएँ, तब उसे मानसिक चिंता-उपाधि (बाहर से आने वाले दुःख) होती है। दूसरे व्यक्ति के खो जाएँ तो वह कहेगा, ‘यह कर्म का उदय होगा तो हो गया अब।’ तो अगर ऐसी समझ हो तो हल ला सकता है, वर्ना क्लेश हो जाता है। पूर्वजन्म के कर्मों में क्लेश नहीं होता। क्लेश तो अभी की अज्ञानता का फल है।

कुछ लोगों के दो हज़ार चले जाएँ तो भी कुछ असर नहीं होता, ऐसा होता है या नहीं होता? कोई दुःख उदयकर्म के अधीन नहीं होता। सभी दुःख अपनी अज्ञानता से हैं।

बीमा नहीं करवाया हो और गोडाउन जल जाए तब कुछ लोग उस घड़ी वे शांत रह सकते हैं, अंदर भी शांति रह सकती है, बाहर और अंदर दोनों तरह से, और कुछ लोग तो अंदर दुःख और बाहर भी दुःख दिखाते हैं। वह सारी अज्ञानता, नासमझी है। वह गोडाउन तो जलनेवाला था ही। इसमें नया है ही नहीं। अगर तू सिर फोड़कर मर जाए, फिर भी उसमें बदलाव नहीं होनेवाला।

प्रश्नकर्ता: किसी भी वस्तु के परिणाम को अच्छी तरह से स्वीकार लेना चाहिए?

दादाश्री: हाँ, पॉजिटिव लेना पर अगर ज्ञान हो तो वह पॉजिटिव लेता है वर्ना फिर बुद्धि तो नेगेटिव ही देखती है। यह पूरा जगत् दुःखी है। जैसे मछली छटपटाती है उस तरह छटपटा रहे हैं। इसे जीवन कैसे कहेंगे ? समझने की जरूरत है, जीवन जीने की कला जानने की ज़रूरत है। सभी के लिए कहीं मोक्ष नहीं है, जीवन जीने की कला, वह तो होनी चाहिए न!

अमंगल पत्र, पोस्टमेन का क्या गुनाह ?

इस दुनिया में सारे दुःख नासमझी की वजह से ही हैं। इस जगत् में! खुद ने ही खड़े किए हैं, नहीं दिखाई देने की वजह से! जब जल जाता है तब अगर पूछें न कि भाई, आप क्यों जल गए? तब कहता है, ‘भूल से जल गया, क्या जान-बूझकर जलूँगा ?’ उसी तरह ये सारे दुःख भूल की वजह से हैं। सारे दुःख अपनी भूल का परिणाम हैं। भूल चली जाएगी तो खत्म हो जाएगा।

प्रश्नकर्ता : प्रगाढ़ कर्म हैं, इसी कारण हमें दुःख भुगतना पड़ता है?

दादाश्री : अपने ही किए हुए कर्म हैं, इसलिए अपनी ही भूल है। किसी अन्य का दोष इस जगत् में है ही नहीं। दूसरे तो निमित्त मात्र हैं। दुःख आपका है और सामनेवाले निमित्त के हाथों से दिया जा रहा है। पिताजी की मृत्यु की चिट्ठी पोस्टमेन देकर जाए तो उसमें पोस्टमेन का क्या दोष ?

पूर्वजन्म के ऋणानुबंधी

प्रश्नकर्ता: अपने जो रिश्तेदार हैं, अथवा तो वाइफ, बच्चे हों, आज अपने जो रिश्तेदार, ऋणानुबंधी हैं, वे क्या इसलिए मिलते हैं कि उनके साथ अपना कुछ पूर्वजन्म का कोई संबंध होता है ?

दादाश्री : सही है। ऋणानुबंध के बिना तो कुछ भी नहीं हो सकता न! सब हिसाब हैं। या तो हमने उन्हें दुःख दिया है या उन्होंने हमें दुःख दिया है। उपकार किए होंगे, तो उसका फल अभी मीठा आएगा। दुःख दिया होगा, उसका कड़वा फल आएगा।

प्रश्नकर्ता : मान लो कि अभी मुझे कोई आदमी परेशान करता है और मुझे दुःख होता है, तो यह जो दुःख मुझे होता है वह तो मेरे ही कर्मों का फल है। पर वही व्यक्ति मुझे परेशान करता है तो क्या पिछले जन्म में उसका मेरे साथ कुछ ऐसा हिसाब बँधा होगा इसलिए वही मुझे परेशान करता है, ऐसा कुछ है क्या ?

दादाश्री : है न। सारा हिसाब है। जितना हिसाब होगा उतने समय तक दुःख देगा। दो का हिसाब होगा तो दो बार देगा, तीन का हिसाब होगा तो तीन बार देगा। क्या मिर्ची दुःख नहीं देती ?

प्रश्नकर्ता : देती है।

दादाश्री: मुँह में जलन होती है, नहीं? ऐसा है यह सब खुद परेशान नहीं करता, पुद्गल करता है और हम समझते हैं कि वही यह कर रहा है। वह गुनाह है वापस। पुद्गल दुःख देता है। मिर्ची दुःख देती है, तब फिर कहाँ डाल देता है उसे ?

कभी मिर्ची दुःख दे तो उससे हमें समझ जाना है कि भाई इसमें दुःखी होनेवाले का दोष है। मिर्ची तो अपने स्वभाव में ही है।

प्रश्नकर्ता: हम भी किसी को परेशान करें और उसे दुःख हो, तो क्या करना चाहिए ?

दादाश्री: हमें प्रतिक्रमण करना पड़ेगा। कपड़े तो साफ रखने पड़ेंगे न ! मैले कैसे रखें उन्हें!

उत्तम प्रकार का वर्तन, ऐसा होना चाहिए कि किसी को किंचित् मात्र भी दुःख नहीं हो ऐसा होना चाहिए। तो अभी दुःख होता है, उसका प्रतिक्रमण करें तो अंतिम दशा आएगी।

कोई किसी का दुःख ले सकता है ?

प्रश्नकर्ता : दो साल पहले एक महान संत एक होस्पिटल में बहुत पीड़ा भुगत रहे थे। तब मैंने उनसे प्रश्न पूछा था कि आपको ऐसा क्यों हो रहा है? तो ऐसा कहा कि मैंने बहुत लोगों के दुःख ले लिए हैं। इसलिए मुझे यह सब हो रहा है। कोई ऐसा कर सकता है ?

दादाश्री: कोई किसी का दुःख नहीं ले सकता। ये तो बहाने
बनाए, संत के रूप में पूजनीय बनकर खुद के ही कॉजेज के ये
परिणाम हैं। ये तो बहाने बनाते हैं, खुद की आबरू रखने के लिए। बड़े दुःख लेनेवाले पैदा हुए संडास जाने की शक्ति नहीं, वे क्या दुःख लेते! कोई किसीका ले ही किस तरह सकता है ?

प्रश्नकर्ता: मैं भी नहीं मानता। दुःख लिया ही नहीं जा सकता।

दादाश्री : ना, ना! ये तो लोगों को मूर्ख बनाते हैं। कोई ले ही नहीं सकता। यानी ये सब तो बहाने बनाते हैं। फिर पूजे जाते हैं ! मैं तो मुँह पर कह दूँ कि आप अपना दुःख भुगत रहे हैं। क्या देखकर ऐसा कह रहे हैं? बड़े आए दुःख लेनेवाले।

प्रश्नकर्ता : दु:ख दे तो सकते हैं न ?

दादाश्री : वह दुःख ले नहीं सकता और जो कोई हमें दुःख दे सकता है, वह तो अपना इफेक्ट है। दे सकता है वह भी इफेक्ट है और ले सकता है वह भी इफेक्ट है। इफेक्ट यानी इट हेपन्स कोई कर्ता नहीं है!

भयानक दर्द, पापकर्म से

प्रश्नकर्ता: जब किसी रोग के कारण मृत्यु होती है, तब लोग ऐसा कहते हैं कि पूर्वजन्म के कोई पाप बाधक हैं। क्या यह बात सही है ?

दादाश्री : हाँ, पाप से रोग होते हैं और यदि पाप नहीं होते, तो रोग नहीं होते। तुमने किसी रोगी को देखा है ?

प्रश्नकर्ता: मेरी माताजी अभी ही दो महीने पहले केन्सर के कारण गुजर गई।

दादाश्री : वह तो सारा पापकर्म के उदय से होता है। पापकर्म का उदय हो तब केन्सर होता है। यह सारा हार्ट अटेक वगैरह पापकर्म से होते हैं। निरे पाप ही बाँधे हैं, इस काल के जीवों का धंधा ही यह है, पूरा दिन पापकर्म ही करते रहते हैं। भान नहीं है इसलिए । यदि भान होता तो ऐसा नहीं करते।

प्रश्नकर्ता: उन्होंने पूरी ज़िन्दगी भक्ति की थी, तो उन्हें केन्सर क्यों हुआ?

दादाश्री: भक्ति की है तो उसका फल अभी बाद में आएगा। अगले जन्म में मिलेगा। यह पिछले जन्म का फल आज मिला है और अगर आज आप अच्छे गेहूँ वो रहे हो, तो अगले जन्म में आपको गेहूँ मिलेंगे।

प्रश्नकर्ता : कर्म के कारण रोग होते हैं, तो दवाई से कैसे मिटते हैं ?

दादाश्री : हाँ। उन रोगों में वे पाप ही किए हुए हैं न, वे पाप नासमझी से किए थे, इसलिए दवाईयों से मदद मिल जाती है और हेल्प हो जाती है। जान-बूझकर किए गए हों तो उन्हें दवाई ववाई कुछ नहीं मिल पाती। दवाई मिलती ही नहीं है। नासमझी से करनेवाले लोग हैं बेचारे! नासमझी से किया हुआ पाप छोड़ता नहीं है और जान-बूझकर करनेवाले को भी नहीं छोड़ता। लेकिन नासमझीवाले को कुछ मदद मिल जाती है और जान-बूझकर करनेवाले को नहीं मिलती।

वह है औरों को परेशान करने का परिणाम।
प्रश्नकर्ता: हम जो शरीर के सुख-दुःख भुगतते हैं, वह व्याधि हो या चाहे कुछ भी आए, वे पूर्व के किस प्रकार के कर्मों के परिणाम होते हैं ?

दादाश्री : इसमें तो ऐसा है, कितने ही लोग नासमझी में बिल्ली को मार देते हैं, कुत्ते को मार देते हैं, उन्हें दुःख देते हैं, परेशान करते हैं। वे जब दुःख देते हैं, उस घड़ी खुद को भान नहीं रहता कि इसका जिम्मेदारी क्या आएगी ? बिल्ली के छोटे बच्चे को मार देते हैं, कुत्ते के बच्चे को मार देते हैं और दूसरा ये डॉक्टर मेढक काटते हैं, तो उसके प्रतिस्पंदन उनके शरीर पर पड़ेंगे। जो आप कर रहे हो, उसी के प्रतिस्पंदन आएँगे। प्रतिस्पंदन हैं ये सारे ।

प्रश्नकर्ता: अर्थात् किसी के शरीर के साथ की गई छेड़खानी के प्रतिस्पंदन आते हैं ?

दादाश्री: हाँ, वहीं किसी जीव को किंचित् मात्र दुःख दिया जाए तो, वह आपके ही शरीर पर आएगा।

प्रश्नकर्ता : यानी उसने जब यह सब किया होगा, जीवों को चीरा होगा तो उस समय वह अज्ञान दशा में होता है न! उसे ऐसा बैरभाव भी नहीं होता, तो भी उसे भुगतना पड़ेगा?

दादाश्री : भूल से अज्ञान दशा में अंगारों पर हाथ पड़ता है न, तो अंगारे फल देते ही हैं। कोई छोड़ता नहीं है। अज्ञान या सज्ञान, अनजाने में या जान-बूझकर, भुगतने का तरीका अलग होता है, लेकिन कुछ छोड़ नहीं देते! ये सभी लोग दुःख भुगत रहे हैं, वह उनका खुद का ही हिसाब है सारा। इसलिए भगवान ने कहा है कि मन-वचन-काया से अहिंसा का पालन कर ऐसा कर कि किसी जीव को किंचित् मात्र भी दुःख नहीं हो। यदि तुझे सुखी होना होतो !

प्रश्नकर्ता: किसी महात्मा को डॉक्टर नहीं बनना चाहिए ?

दादाश्री: बनना चाहिए या नहीं बनना चाहिए, वह डिफरन्ट मेटर है। वह तो उसकी प्रकृति के अनुसार होता ही रहेगा। बाक़ी, मन में भाव ऐसा होना चाहिए। तो फिर डॉक्टर की लाइन में जा ही नहीं पाएगा जिसका ऐसा भाव है कि किसी को किंचित् मात्र दुःख नहीं हो, वह वहाँ क्यों मेढक मारेगा ?

प्रश्नकर्ता: दूसरी तरफ डॉक्टरी सीखकर हज़ारों लोगों की बीमारी मिटाकर फायदा भी पहुँचता है न ?

दादाश्री : वह दुनिया का व्यवहार है। उसे फ़ायदा नहीं कहते।

मंदबुद्धि वाले का कर्मबंधन किस तरह का है ?
प्रश्नकर्ता: जो अच्छा व्यक्ति होता है, उसे तो तरह-तरह के विचार आते हैं, एक मिनट में कितने ही विचार कर लेता है। कर्म बाँध लेता है और मंदबुद्धि वाले को तो कुछ समझ ही नहीं होती इसलिए उसे तो ऐसा कुछ है ही नहीं, निर्दोष होता है न!

दादाश्री: वह समझदार समझदारी के कर्म बाँधता है और नहीं समझने वाला नासमझी के कर्म बाँधता है। पर नासमझी वालों के कर्म बहुत मोटे होते हैं और समझदारी वाले तो विवेक सहित ऐसे बाँधते हैं। नासमझी वाले के सारे कर्म जंगली जैसे होते हैं, जानवर जैसे, उसे तो कोई समझ ही नहीं है, भान ही नहीं है, वह तो किसी को देखते ही पत्थर मारने को तैयार हो जाता है।

प्रश्नकर्ता: हमें ऐसे लोगों पर दया नहीं रखनी चाहिए ?

दादाश्री: रखनी ही चाहिए। जिसे समझ नहीं हो, उसकी तरफ दयाभाव रखना चाहिए। उसे हेल्प करनी चाहिए कुछ। दिमाग़ की खराबी की वजह से बेचारा ऐसा है, उसमें फिर उसका क्या दोष ? वह पत्थर मार जाए, फिर भी हम उसके साथ बैर नहीं रखते, उस पर करुणा रखनी चाहिए।

गरीब-अमीर कौन से कर्म से ?

जो हो रहा है, उसे ही न्याय माना जाए तो कल्याण हो जाए।

प्रश्नकर्ता: तो दादा, आपको नहीं लगता कि कोई दो लोग हों, उनमें से एक देखता है कि 'यह आदमी इतना बुरा है, फिर भी इतनी अच्छी स्थिति में है और मैं इतना धर्मपरायण हूँ, फिर भी ऐसा दुःखी हूँ', तो उसका मन धर्म पर से हट नहीं जाएगा ?

दादाश्री: ऐसा है न, यह जितना दुःखी है, सारे ही धर्मपरायण वाले उतने दुःखी नहीं होते। सौ में से पाँच प्रतिशत सुखी भी होते हैं।

आज जो दुःख आया है, वह अपने ही कर्मों का परिणाम है। आज वह जो सुखी हुआ है, आज उसके पास पैसा है और वह सुख भोग रहा है तो, वह उसके कर्मों का परिणाम है। और अभी जो खराब कर्म कर रहा है जब उनका परिणाम आएगा, तब वह भुगतेगा। हम अभी जो अच्छा कर रहे हैं, जब हमें उसका परिणाम मिलेगा, तब भुगतेंगे।

प्रश्नकर्ता: दादा, आपकी यह बात सत्य है। पर यदि व्यावहारिक दृष्टि से देखा जाए तो एक व्यक्ति झोंपड़पट्टी में रहता है, भूखा है, प्यासा होता है। सामने महल में एक आदमी रहता हैं। झोंपड़ीवाला देखता है कि 'मेरी ऐसी कैसी दशा है। मैं तो इतना ईमानदार हूँ। नौकरी करता हूँ, फिर भी मेरे बच्चों को खाने को नहीं मिलता। जबकि यह आदमी तो इतना उल्टा करता है, फिर भी वह महल में रहता है।' तो उसे गुस्सा नहीं आएगा? वह स्थिरता कैसे रख पाएगा?

दादाश्री : अभी जो दुःख भोग रहा है, वह पहले की जो परीक्षा दी है, उसका परिणाम आ रहा है और उस महलवाले ने भी यह परीक्षा दी है, उसका यह परिणाम आया है, पास हुआ है और अब वापस नापास होने के लक्षण खड़े हो रहे हैं उसके। और इस गरीब को पास होने के लक्षण खड़े हो रहे हैं।

प्रश्नकर्ता : लेकिन जब तक उस गरीब आदमी की खुद की मानसिक स्थिति परिपक्व नहीं हो जाती, तब तक वह कैसे समझ पाएगा?

दादाश्री : उसे यह स्वीकार नहीं होता इसलिए इससे बल्कि और अधिक पाप बाँधता है। उसे यह समझना ही चाहिए कि मेरे ही कर्मों का परिणाम है।

करें अच्छा और फल खराब
प्रश्नकर्ता: हम अच्छा करते हैं पर उसका फल अच्छा नहीं मिलता। उसका अर्थ ऐसा हुआ कि पूर्वजन्म के कुछ खराब कर्म होंगे जो वे उसे केन्सल कर देते हैं ?

दादाश्री: हाँ, कर देते हैं। हमने ज्वार तो बोया और वे बड़े भी हो गए, लेकिन अगर अपने पूर्वजन्म के अपने खराब कर्म का उदय होगा तो आखिरी वर्षा नहीं होती, तब सारी ही फसल सूख जाती है, और पुण्य जोर करे तो तैयार हो जाती है, वर्ना हाथ में आया हुआ भी छिन जाता है। इसलिए अच्छे कर्म करो, वर्ना मुक्ति ढूँढो। दोनों में से एक रास्ता लो ! इस दुनिया में से छूट जाने का रास्ता ढूँढो, या फिर हमेशा कि लिए अच्छे कर्म करो। पर हमेशा के लिए अच्छे कर्म हो नहीं पाते हैं इंसान से, उल्टे रास्ते चढ़ ही जाता है। कुसंग मिलता ही रहता है।

प्रश्नकर्ता: शुभ कर्म और अशुभ कर्म पहचानने का थर्मामीटर कौन सा है ?

दादाश्री: जब शुभ कर्म आते हैं तब हमें मिठास लगती है, शांति लगती है, वातावरण शांत लगता है और जब अशुभ कर्म आएँ तब कड़वाहट उत्पन्न होती है, मन को चैन नहीं पड़ता। अयुक्त कर्म तपाता है और युक्त कर्म हृदय को आनंद देता है।

मृत्यु के बाद साथ में क्या जाता है ?
प्रश्नकर्ता : ये जो शुभ और अशुभ कर्म हैं, उनका जो परिणाम अब वह दूसरी जिस किसी योनि में जाए, वहाँ उसे वे भुगतने पड़ते हैं न?

दादाश्री : वहाँ भुगतना ही पड़ता है। जब मृत्यु होती है, तब यहाँ से मूल शुद्धात्मा जाता है। साथ में सारी ज़िन्दगी जो शुभाशुभ कर्म किए हैं, वे योजना के रूप में, जिसे कारण शरीर अर्थात् कॉज़ल बॉडी कहा जाता है, और सूक्ष्म बॉडी यानी इलेक्ट्रिकल बॉडी, ये सब साथ में जाएगा। और कुछ नहीं जाता।

प्रश्नकर्ता: मनुष्य जन्म जो मिलता है, वह बार-बार मिलता है या फिर कुछ समय के लिए मनुष्य में आकर उसे वापस दूसरी योनि में जाना पड़ता है ?

दादाश्री : यहीं से सभी योनियों में जाते हैं। अभी लगभग सत्तर प्रतिशत लोग चार पैरों में (जानवरगति) जाएँगे। यहाँ से सत्तर प्रतिशत ! और जनसंख्या तीव्रता से खतम हो जाएगी।

अर्थात् मनुष्य में से जानवर भी बन सकता है, देवता बन सकता है, नर्कगति हो सकती है और फिर से मनुष्य भी बन सकता है। जिस-जिस तरह के कर्म किए हों, वैसी-वैसी योनियों में जाते हैं। क्या लोग पाशवता के लायक कर्म करते हैं?

प्रश्नकर्ता: अभी तो बहुत लोग पाशवता के ही कर्म कर रहे हैं न!

दादाश्री: तो वहाँ की टिकट गई, रिज़वेंशन हो गया। अगर मिलावट करता है, अणहक्क का खा जाता है, भोग लेता है, झूठ बोलता है, चोरियाँ करता है, तो अब उन सबकी निंदा करने का अर्थ ही क्या है? उन्हें उनकी टिकट उन्हें मिल गई है।

चार गति में भटकन
प्रश्नकर्ता: मनुष्य नीच योनि में जा सकता है क्या ?

दादाश्री: मनुष्य में से तो फिर देवता में, सबसे बड़ा देवता भी बन सकता है, इस दुनिया में टॉपमोस्ट और नीच योनि अर्थात् कैसी नीच योनि ? घृणाजनक योनि में जाता है। जिसका नाम सुनते ही घृणा होती है।

मनुष्य, मनुष्य जन्म में ही कर्म बाँध सकता है। बाक़ी दूसरे किसी योनि में कर्म नहीं बाँधता। दूसरी सभी योनियों में कर्म भुगतता है। और यहाँ मनुष्य में कर्म बाँधता भी है और कर्म भुगतता भी है, दोनों होता है। पिछले कर्म भुगतते जाते हैं और नये बाँधते हैं। इसलिए यहाँ से चार गति में भटकना है, यहाँ से जाते हैं और ये गायें-भैंसे वगैरह जानवर दिखते हैं, ये जो देवी-देवता हैं, उन्हें कर्म सिर्फ भोगने ही हैं, उन्हें कर्म करने का अधिकार नहीं है।

प्रश्नकर्ता: पर अधिकतर तो मनुष्य से कर्म अच्छे होते ही नहीं हैं न?

दादाश्री : यह तो कलियुग है और दूषमकाल है, इसलिए काफी कुछ कर्म खराब ही हैं।

प्रश्नकर्ता : यहाँ पर दूसरे नये कर्म बँधेंगे ही न ?

दादाश्री: रात-दिन बँधते ही रहते हैं। पुराने भुगतता जाता है। और नये बांधता जाता है।

प्रश्नकर्ता : तो अब इससे अच्छी दूसरी कोई योनि है क्या ?

दादाश्री: कहीं भी नहीं है। इतना ही अच्छा है। अन्य जन्म तो दो प्रकार के हैं। यहाँ यदि कर्ज हो जाए, यानी खराब कर्म बँध जाएँ, तो वह कर्ज़ कहलाता है। तब फिर जानवरों में जाना पड़ता है, डेबिट भुगतने के लिए और अगर डेबिट ज्यादा हो गया हो तो नर्कगति में जाना पड़ता है। वहाँ पर कर्ज भुगतकर वापस आना है, डेबिट भुगतकर । यहाँ पर अच्छे कर्म किए हों, तो बड़े, ऊँची जाति के मनुष्य बनते हैं। वहाँ पूरी जिन्दगी सुख मिलता है। उसे भोगकर वापस जैसा था वैसा का वैसा, नहीं तो फिर देवगति में जाता है। क्रेडिट के सुख भोगने के लिए। पर क्रेडिट पूरी हो गई, लाख रुपये पूरे हो गए, खर्च हो गए तो वापस यहीं पर !

प्रश्नकर्ता: अन्य सभी योनियों से इस मनुष्य योनि का आयुष्य अधिक है न ?

दादाश्री: नहीं, ऐसा कुछ नहीं है। इन देवी-देवताओं का आयुष्य लाखों सालों का होता है।

प्रश्नकर्ता: पर देवी-देवता बनने के लिए तो ये सारे कर्म पूरे हो जाने के बाद नंबर आएगा न ?

दादाश्री: नहीं, ऐसा कुछ नहीं है। यदि कोई सुपरह्युमन हो तो देवता ही बनता है। खुद का सुख खुद नहीं भोगता और दूसरों को दे देता है, वह सुपरह्युमन कहलाता है। वह देवगति में जाता है!

प्रश्नकर्ता : खुद को सुख नहीं हो, तो फिर वह दूसरों को कैसे सुख दे सकेगा ?

दादाश्री: इसलिए तो नहीं दे सकता न! लेकिन अगर कोई ऐसा व्यक्ति हो, करोड़ों में एकाध व्यक्ति, जो खुद का सुख दूसरों को दे देता है तो, वह देवगति में जाता है। पहले तो ऐसे बहुत लोग थे। सौ में से दो-दो, तीन-तीन प्रतिशत, पाँच-पाँच प्रतिशत थे। अभी तो शायद ही करोड़ों में से दो-चार निकलते हैं। अभी तो अगर कोई दुःख नहीं देता है तो भी समझदार कहलाता है। दूसरों को कुछ भी दुःख नहीं दे तो फिर से मनुष्य योनि में आता है। मनुष्य में अच्छी जगह पर कि जहाँ बंगला तैयार हो, गाड़ियाँ तैयार हों, वहाँ जन्म होता है, और अगर पाशवता के कर्म करे, मिलावट करे, लुच्चापन करे, चोरियाँ करे, तो पशु में जाना पड़ता है।

प्रश्नकर्ता: तो नियम क्या है ?

दादाश्री : अधोगति में जानेवाला पकड़ा नहीं जाता और जिसे ऊर्ध्वगति में जाना है, ऐसे मनुष्य के हल्के कर्म होते हैं न, तो उसे पुलिसवाले से पकड़वा ही देते हैं तुरन्त ही। वह आगे उल्टा जाते हुए रुक जाता है और उसके भाव बदल जाते हैं। कुदरत किसे हेल्प करती है? जो भारी है, उसे भारी होने देती है। हल्का है, उसे हल्का होने देती है। हल्केवाला ऊर्ध्वगति में जाता है। भारीवाला अधोगति में जाता है। ऐसे हैं ये कुदरत के नियम जैसे किसी ने कभी चोरी नहीं की है और अभी एक बार चोरी करे न, तो तुरन्त पकड़ा जाता है और पक्का चोर पकड़ में नहीं आता। क्योंकि उसके कर्म भारी हैं, उसमें भी पूरे मार्क्स चाहिए न! माइनस मार्क भी पूरे चाहिए न ! तभी दुनिया चलेगी न?

मनुष्यजाति में ही बंधें कर्म।
प्रश्नकर्ता: इसीलिए मैं पूछ रहा हूँ कि मनुष्य जन्म के अलावा दूसरा कोई ऐसा जन्म है या नहीं कि जिसमें कम कर्म बँधते हों ?

दादाश्री: और कहीं कर्म बँधते ही नहीं है। दूसरी किसी योनि में कर्म बँधते ही नहीं है, सिर्फ यहीं पर बँधते हैं और जहाँ नहीं बँधते हैं, वे लोग क्या कहते हैं ? कि यहाँ कहाँ इस जेल में आए ? जहाँ कर्म बँध सकें वैसी जगह तो मुक्तता कहलाती है, और बाकी की तो जेल कहलाती है।

प्रश्नकर्ता: मनुष्य जन्म में ही कर्म बंधते हैं। अच्छे कर्म भी यहीं पर बँधते हैं न ?

दादाश्री : अच्छे कर्म भी यही बँधते हैं और बुरे भी यहीं पर
बंधते हैं। ये मनुष्य कर्म बाँधते हैं। उनमें यदि लोगों को नुकसान करने वाले, लोगों को दुःख देने वाले कर्म होते हैं, तो वह जानवर में जाता है और नर्कगति में जाता है। लोगों को सुख देने के कर्म होते हैं तो मनुष्य
में आता है और देवगति में जाता है। वह जैसे कर्म करता है, उसी अनुसार उसकी गति होती है। अब गति हुई यानी फिर भुगतकर वापस यहीं पर आना पड़ता है।

कर्म बांधने का अधिकार मनुष्यों को ही है, अन्य किसी को नहीं, और जिसे बाँधने का अधिकार है, उसे चारों गति में भटकना
पड़ता है। और यदि कर्म नहीं करे, बिल्कुल भी कर्म ही न करे तो
मोक्ष में जाता है। मनुष्य में से मोक्ष में जाया जा सकता है। दूसरी किसी जगह से मोक्ष में नहीं जा सकता। आपने ऐसा देखा है कि कर्म नहीं करे ?

प्रश्नकर्ता: नहीं, वैसा नहीं देखा है।

दादाश्री : आपने ऐसे देखे हैं जो कर्म नहीं करते ? इन्होंने देखे हैं और आपने नहीं देखे ?

ये जानवर वगैरह सभी हैं, वे खाते हैं, पीते हैं, मारपीट करते हैं, लड़ाई-झगड़ा करते हैं, फिर भी उन्हें कर्म नहीं बँधते। उसी प्रकार मनुष्यों के लिए भी ऐसी स्थिति संभव है कि कर्म न बंधें। लेकिन तभी जब 'खुद' कर्म का कर्ता नहीं बने तो और कर्म भुगत ले! इसलिए जो यहाँ, हमारे यहाँ आते हैं, उन्हें 'सेल्फ रियलाइज़' का ज्ञान प्राप्त हो जाता है तो कर्म का कर्तापन छूट जाता है, करना ही छूट जाता है, भुगतना ही रहता है फिर। जब तक अहंकार है तब तक कर्म का कर्ता ।

आठ जन्मों तक की पूँजी साथ में
प्रश्नकर्ता: जिन-जिन योनियों में कर्म नहीं बँधते, सिर्फ कर्म भुगतने ही पड़ते हैं, तो उस जीव का अगला जन्म किस प्रकार होता है ?

दादाश्री : यह इतना अधिक है कि मनुष्य यहाँ से गया, तो गाय का जन्म मिला। वह गाय का जन्म भुगतता है। वह पूरा हो जाए, उसके बाद बकरी का जन्म मिलता है। वह बकरी का ही आए ऐसा नहीं है। जिस किसी योनि में उसका हिसाब होता है उसके अनुसार आता है। डिजाइन के अनुसार आता है। फिर, गधे का जन्म आता है। सौ दो सौ साल इस तरह भटककर आता है। जब सारा डेबिट भुगत लेता है तब वापस यहाँ पर मनुष्य गति में आता है। बाकी की सभी योनियों में जब एक जन्म के बाद दूसरा जन्म होता है, तो वह कर्म करने से नहीं होता। वह इसलिए होता है क्योंकि कर्म भुगते जा चुके हैं। यह एक परत गई और दूसरी परत आई, दूसरी परत गई और तीसरी परत आई, इस तरह जब सभी परतें भुगत ली जाती हैं, तब सभी आठ जन्म पूरे हो जाते हैं और वापस यहाँ मनुष्य में आ जाता है। अधिक से अधिक आठ जन्म दूसरी गतियों में भटककर वापस मनुष्य आ ही जाता है। ऐसा है कर्म का नियम।

मनुष्यों के लायक कर्म तो उसके पास पूँजी के रूप में रहते
ही हैं। जहाँ जाए, देवगति में जाए, तब भी। यानी पूँजी के आधार पर वापस लौटकर आता है। इस तरह इस पूँजी को रखकर, बाकी दूसरे सारे कर्म भुगत लेता है।

प्रश्नकर्ता : मनुष्य में आता है, फिर उसका जीवन किस तरह चलता है? वह उसके भाव पर ही चलता है न ? उसके कौन से कर्मों के आधार पर उसका जीवन चलता है ?

दादाश्री: कहते हैं, उसके पास मनुष्य के कर्म तो पूँजी में हैं ही। यह पूँजी तो अपने पास है ही, लेकिन अगर उधार हो गया, हो जाए तो उधार भुगत लो और फिर वापस आना। क्रेडिट हो गया हो, तब क्रेडिट भुगतकर वापस यहाँ पर आना। यह तो पूँजी है ही अपने पास। यह पूँजी तो कम पड़े, ऐसी है नहीं। यह पूँजी कब कम पड़ती है ? कि जब कर्तापद छूटे तब छूटती है। तब मोक्ष में चला जाता है। नहीं तो कर्तापद छूटता ही नहीं न! अहंकार खतम हो जाए, तब छूटता है। जब तक अहंकार है, तब उन कर्मों को भुगतकर वापस यहीं के यहीं आ जाता है वह।

प्रश्नकर्ता: दूसरी सभी योनियों में से जब वापस मनुष्य में आता है, तो आने पर कहाँ जन्म लेता है? मछुआरे के वहाँ या राजा के वहाँ ?

दादाश्री : यहाँ मनुष्य योनि में खुद का जो सामान तैयार रखकर गया था न, तो और उसके अलावा यह जो कर्ज किया है, उस कर्ज को चुकाकर आता है और वापस वहीं के वहीं आ जाता है और उसी सामान से वापस शुरू करता है। हम जिस बाजार में जाते हैं, वे सारे काम निपटाकर वापस घर पर ही आ जाते हैं। उसी तरह यह घर है। यहीं के यहीं वापस आना है। यहाँ यह घर है। यहाँ पर जब अहंकार खतम हो जाएगा, तब यहाँ पर भी नहीं रहेंगे। मोक्ष में चले जाएँगे, बस! अब दूसरे जन्मों में अहंकार का उपयोग नहीं होता। जहाँ भुगतना है, वहाँ अहंकार का उपयोग नहीं होता। इसलिए कर्म ही नहीं बँधते । इन भैंसों को, इन गायों को किसी में अहंकार नहीं है। दिखता ज़रूर है कि यह घोड़ा अहंकारी है, पर वह डिस्चार्ज अहंकार है। वास्तव में अहंकार नहीं है। वास्तव में अहंकार होता तो कर्म बँधता यानी अहंकार के कारण वापस यहाँ ( मनुष्य योनि में ) आता है। यदि अहंकार खतम हो जाएगा तो मोक्ष में चला जाएगा।

रिटर्न टिकट लिया है जानवर में से !
प्रश्नकर्ता: आपने कहा कि कर्मों का फल मिलता है, तो ये जो जानवर हैं, वे वापस मनुष्य में आ सकते हैं क्या ?

दादाश्री : वे ही आते हैं। वे ही अभी आए हैं। उनकी आबादी बढ़ गई है। और वे ही ये सारी मिलावट करते हैं।

प्रश्नकर्ता: उन जानवरों ने कौन से सत्कर्म किए होंगे कि वे मानव बने ?

दादाश्री : उन्हें सत्कर्म नहीं करने पड़ते। मैं आपको समझाऊँ। एक मनुष्य कर्जदार हो गया। कर्जदार है इसलिए दिवालिया कहलाता है। लोग दिवालिया कहते हैं उसे। तो फिर उसने कर्ज चुका दिया, तब फिर उसे दिवालिया कहेंगे क्या?

प्रश्नकर्ता: नहीं, फिर नहीं कहेंगे।

दादाश्री : उसी तरह यहाँ से जानवर में जाते हैं न, कर्ज चुकाने के लिए ही । कर्ज चुकाकर वापस यहाँ आ जाता है और अगर देवगति में जाता है तो क्रेडिट (जमा रकम) भोगकर वापस यहीं पर आता है।

ऐसे निमंत्रित करते हैं अधोगति
प्रश्नकर्ता: मनुष्य को जानवरों का ही जन्म मिलेगा, वह किस तरह पता चलता है ?

दादाश्री: उसके सारे लक्षण ही कह देते हैं। अभी उसके विचार हैं न, वे विचार ही पाशवता के आते हैं। कैसे आते हैं ? किसका भुगत लूँ? किसका खा जाऊँ, किसका ऐसा करूँ ? मृत्यु समय की स्थिति का फोटो भी जानवर जैसा खिंचता है।

प्रश्नकर्ता: आम की गुठली बोने पर आम ही आता है, क्या उसी तरह जब मनुष्य मरता है तो मनुष्य में से वापस मनुष्य ही बनता है ?

दादाश्री: हाँ, मनुष्य में से वापस अर्थात् यह मेटरनिटी वॉर्ड में मनुष्य की कोख से कुत्ता जन्म नहीं लेता है। समझ में आता है न! पर मनुष्य गति में जिसके सज्जनता वाले विचार हों अर्थात् मानवता के गुण हों तो फिर वापस मनुष्य गति में आता है। जो खुद के हक़ की भोगने की चीजें भी लोगों को दे दे तो देवगति में जाता है, सुपर ह्युमन कहलाता है। और खुद की स्त्री भोगने में हर्ज नहीं है। वह हक़ का कहलाता है, पर अणहक्क (बिना हक़) का नहीं भोग सकते। वैसे भोग लेने के जो विचार हैं, वही उसकी मनुष्य में से दूसरे जन्म में जानवर में जाने की निशानी है। वह वीज़ा है, हम उसका वीजा देख लें न, तो पता चल जाता है।

प्रश्नकर्ता: कर्म का सिद्धांत ऐसा है कि मनुष्य को उसके कर्म मनुष्य योनि में ही भुगतने पड़ते हैं।

दादाश्री : नहीं। कर्म तो यहीं के यहीं भुगतने हैं। लेकिन जो विचार किए हुए हों कि किसका भोग लूँ, किसका ले लूँ, और किसका ये कर लूँ, ऐसे संकल्प विकल्प किए हों, वे उसे वहाँ पर ले जाते हैं। यहाँ किए हुए कर्म तो यहीं के यहीं भुगत लेता है। पाशवता का कर्म किया हों, तो यहीं के यहीं भुगत लेता है। उसमें हर्ज नहीं है। आँखों से दिखें ऐसे पाशवता के कर्म किए हों, वे यहीं पर भुगतने पड़ते हैं। उन्हें किस तरह भुगतता है? लोगों में निंदा होती है, लोग दुत्कारते हैं। लेकिन यदि पाशवता के विचार किए, संकल्प विकल्प खराब किए कि इसी तरह करना चाहिए। इसी तरह करना चाहिए, इस तरह भोगना चाहिए, योजनाएँ बनाई। वे योजना उसे जानवरगति में ले जाती हैं। योजना गढ़ता है न अंदर ? नहीं गढ़ता ? वे जानवरगति में ले जाती हैं।

इसमें भोगने वाला कौन ?
प्रश्नकर्ता: अच्छे कर्म करने से पुण्य बँधता है और बुरे कर्म करने से पाप। ये पाप-पुण्य कौन भुगतता है, शरीर या आत्मा ?

दादाश्री : जो ये पाप-पुण्य जो करता है, वही भुगतता है। कौन भुगतता है? अहंकार करता है और अहंकार भुगतता है। शरीर नहीं भुगतता और आत्मा भी नहीं भुगतता, अहंकार भुगतता है। यदि अहंकार शरीर सहित होता है, तो शरीर सहित भुगतता है। शरीर के बिना किया हुआ अहंकार शरीर के बिना भुगतता है। सिर्फ मानसिक रूप से भुगतता है।

प्रश्नकर्ता : मृत्यु के बाद स्वर्ग या नर्क जैसा कुछ है क्या ?

दादाश्री: मृत्यु के बाद स्वर्ग और नर्क दोनों ही हैं।

प्रश्नकर्ता: यदि खराब कर्म किए हों तो नर्क में कौन जाता
है ? आत्मा जाता है ?

दादाश्री : अरे आत्मा और शरीर दोनों साथ ही हैं न!

प्रश्नकर्ता: मरने के बाद शरीर तो यहीं पर छूट जाता है न ?

दादाश्री: वहाँ फिर नया शरीर बनता है। नर्क में अलग तरह का शरीर बनता है, वहाँ पारे जैसा शरीर होता है।

प्रश्नकर्ता: वहाँ पर शरीर भुगतता है या आत्मा भुगतता है?

दादाश्री: अहंकार भुगतता है। जिसने किए हों न, नर्क के काम किए हों, वह भुगतता है।

हिटलर ने कैसे कर्म बाँधे ?
हिटलर ने इन लोगों को मारा, उसे उसका फल क्यों नहीं मिला ? उसने जिन्हें मारा, वे सब उसे कहाँ से मिले ? उसे ये प्लेन कहाँ से मिल गए? यह सब कहाँ से मिला ? मिल गया तो मारे । यह कर्मफल था उस बेचारे का ? उसका भी फल वापस नर्कगति आएगा। शास्त्रकारों ने आगे कहा है, यहाँ जो मर गया और जगत् में निंदनीय हो गया तो नर्कगति या जानवर में जाएगा। जगत् में यदि कभी तारीफ के लायक हुए और उसकी ख्याति फैले तो देवगति या बहुत हुआ तो मनुष्य में जाता है! उसका वापस फल तो मिलेगा। अतः इसे लोगों के तराजू से देख लेना।

सत्ताधीश के हिसाब प्रजा के संग
प्रश्नकर्ता: किसी देश के सत्ताधीश होते हैं हैं न, या फिर वहाँ के धर्मगुरु कहो, अभी पूरी सत्ता उनके हाथ में है। वे देश के प्रमुख कहलाते हैं अभी। अभी लाखों लोग मर रहे हैं। दुनिया के सभी देशों ने उनसे विनती की कि आप समाधान करो पर वे समाधान करने को तैयार नहीं है और लाखों लोगों का निकंदन हो ही रहा है। वह कैसा कर्म है? उनके साथ ऋणानुबंध, लाखों लोगों के साथ के ऋणानुबंध क्या है ?

दादाश्री: वे लोग तो खुद के कर्म भोग रहे हैं। वे बाँध नहीं रहे हैं, वे भोग रहे हैं।

प्रश्नकर्ता: और वह जो मार रहा है, उसका ?

दादाश्री: वह तो कर्म बाँध रहा है। वह नर्कगति में जाएगा।

प्रश्नकर्ता: ये सभी मर रहे हैं। उसका निमित्त तो यह मारने वाला बनता है न ? वह किस कारण से ?

दादाश्री: निमित्त बनता है और इसीलिए वह नर्क में जाएगा।

प्रश्नकरता: नर्क में जाएगा वह ठीक है। पर यह हुआ किस तरह ? किस हिसाब से हुआ होगा ?

दादाश्री: लोगों का हिसाब। मारनेवाले के साथ का हिसाब नहीं, लोगों ने गुनाह किए थे इसलिए वैसा निमित्त मिल गया। लोगों ने गुनाह किए थे, इसलिए कोई भी निमित्त मिल गया और उन्हें खतम कर दिया। उन सबका कर्म व्यक्तिगत नहीं है। यह व्यक्तिगत तो कब कहलाएगा ? आप कुछ भी नहीं कहते फिर भी आपको देखते ही मुझे अंदर संताप होने लगता है, वह व्यक्तिगत है। दूर रहकर किए गए काम व्यक्तिगत नहीं कहलाते।

वह कहलाता है सामूहिक कर्मोदय
प्रश्नकर्ता: अब इस जगत् में जो भूकंप आते हैं और ज्वालामुखी फटते हैं, वह सब कौन सी शक्ति करती है ?

दादाश्री: सारा व्यवस्थित शक्ति... व्यवस्थित शक्ति सबकुछ करती है। एविडेन्स खड़ा होना चाहिए। सब एविडेन्स इकट्ठे हुए या फिर ज़रा कुछ कच्चा रह जाए न तो (बाकी का) थोड़ा सा मिलने पर फूटता है जोर से।

प्रश्नकर्ता: क्या ये आँधी-तूफान वगैरह व्यवस्थित भेजता है ?

दादाश्री: तो और कौन भेजेगा? यह तूफ़ान तो पूरे मुंबई पर आता है, लेकिन कुछ लोग ऐसा पूछते हैं, 'तूफ़ान आया है या नहीं?' ऐसा पूछते हैं। 'अरे भाई, पूछ रहे हो ?' तब कहते हैं, 'हमने तो नहीं देखा अभी तक, हमारे यहाँ तो नहीं आया।' ऐसा है यह सब तो। तूफ़ान मुंबई में सभी को स्पर्श नहीं करता। किसीको एक प्रकार से स्पर्श करता है, किसीका पूरा ही मकान उड़ा देता है एकदम से और किसीकी दरियाँ पड़ी हुई हों, तो उन्हें कुछ नहीं होता। सबकुछ पद्धतिपूर्वक काम कर रहा है। तूफ़ान आए उसका डर नहीं रखना है। सब व्यवस्थित भेजता है।

प्रश्नकर्ता : ये जो सारे भूकंप आते हैं, साइक्लोन आते है, लड़ाईयाँ होती हैं, क्या वह सब कुछ हानि वृद्धि की वजह से नहीं है ?

दादाश्री : नहीं, वह सब कर्म के उदय की वजह से पर है। सभी लोग उदय भुगत रहे हैं। मनुष्यों की वृद्धि हो रही हो न, तब भी भूकंप होते रहते हैं। यदि हानि वृद्धि के अधीन हो तो नहीं होगा न ?

प्रश्नकर्ता: जिसे भुगतना है उसका उदय ?

दादाश्री : मनुष्यों का उदय, जानवरों का, सभी का। हाँ, सामूहिक उदय आता है। देखो न हीरोशिमा और नागासाकी में उदय आया था न!

प्रश्नकर्ता: जिस प्रकार कोई एक व्यक्ति पाप करता है, उसी तरह लोग सामूहिक पाप करते हैं तो उसका बदला सामूहिक प्रकार से मिलता है ? एक आदमी खुद चोरी करने गया और दस लोग साथ में डाका डालने गए, तो उसका दंड सामूहिक मिलता होगा ?

दादाश्री: हाँ, फल सामूहिक मिलेगा, लेकिन दसों लोगों को कम-ज्यादा। उनके भाव कैसे हैं, उस आधार पर। कोई व्यक्ति तो ऐसा कहता है कि 'यह मेरे चाचा की जगह पर मुझे जबरदस्ती जाना पड़ा', ऐसे भाव होते हैं। अतः जितना स्ट्रोंग भाव है, उसी अनुसार सारे हिसाब चुकाने हैं। बिल्कुल करेक्ट धर्म के काँटे जैसा।

प्रश्नकर्ता : लेकिन ये जो कुदरती कोप होते हैं, जैसे यह किसी जगह प्लेन गिरा और इतने लोग मर गए या किसी जगह पर कोई ज्वालामुखी फटा और दो हज़ार लोगों की हानि हुई, तो क्या वह उन सब के एक साथ मिलकर किए गए कर्मों के सामूहिक दंड का परिणाम होगा ?

दादाश्री: वह सारा उन सब का हिसाब है। उतने ही हिसाव वाले पकड़े जाते हैं उसमें कोई दूसरा नहीं पकड़ा जाता। आज मुंबई चला जाए और उसके बाद कल यहाँ भूकंप आ जाए और कोई मुंबई वाले यहाँ पर आए हुए हों, और वे मुंबईवाले यहाँ मर जाते हैं, तो यह सब हिसाब है।

प्रश्नकर्ता: तो अभी जो इतने लोग जहाँ-तहाँ सब मर जाते हैं, कोई पाँच सौ-दो सौ, ऐसी संख्या में जो पहले कभी भी इतने सारे समूह में मरते हुए नहीं देखे जाते थे, तो क्या समूह में इतना पाप होता है?

दादाश्री : पहले समूह थे भी नहीं न! अभी अगर लाल झंडेवाले निकलें तो कितने होते होंगे ? ये सफेद झंडेवाले कितने होते होंगे ? अभी समूह हैं, इसलिए समूह का काम। पहले समूह थे ही नहीं न !

प्रश्नकर्ता: हं... अर्थात् कुदरती कोप समूह का ही परिणाम है न! यह अनावृष्टि होना, यह किसी जगह पर भारी बाढ़ आ जाना, किसी जगह पर भूकंप से लाखों लोगों का मर जाना।

दादाश्री: सब इन लोगों का ही परिणाम।

प्रश्नकर्ता: तो जिस समय दंड मिलना हो, तब चाहे जहाँ से भी खिंचकर यहाँ पर आ ही जाता है ?

दादाश्री: कुदरत ही उसे ले आती है वहाँ पर और उबाल देती है, भून देती है। उसे प्लेन में लाकर प्लेन को गिरा देती है।

प्रश्नकर्ता: हाँ, दादा। ऐसे उदाहरण देखे जाते हैं कि जो जानेवाला हो, वह किसी कारण से रह जाता है और जो बिल्कुल भी नहीं जानेवाला था, वह उसकी टिकट लेकर बैठ गया होता है। फिर प्लेन गिरकर टूट जाता है।

दादाश्री: हिसाब है सारा। पद्धति अनुसार न्याय। बिल्कुल धर्म के काँटे जैसा। क्योंकि उसका मालिक नहीं है। अगर मालिक होता, तब तो अन्याय हो सकता था।

प्रश्नकर्ता: एयर इन्डिया का प्लेन टूट गया। वह सब का निमित्त था? यह व्यवस्थित था ?

दादाश्री: हिसाब ही। हिसाब के बिना तो कुछ भी होता नहीं।


पाप-पुण्य का नहीं होता प्लस - माइनस..

प्रश्नकर्ता: पाप कर्म और पुण्य कर्म का प्लस माइनस (जोड़-बाकी) होकर नेट रिजल्ट आता है, भोगवटे (सुख या दुःख का असर, भुगतना) के रूप में ?

दादाश्री : नहीं, प्लस माइनस नहीं होता। लेकिन उसका भोगवटा कम किया जा सकता है। प्लस माइनस का नियम तो, जब से यह दुनिया है तभी से कभी भी था ही नहीं। वर्ना अक्कलवाले लोग ही लाभ उठा लेते, ऐसा करके। क्योंकि सौ पुण्य करे और दस पाप करे, उन दस को कम करके मेरे नब्बे बचे हैं, जमा कर लेना, कहेंगे। तब अक्कलवालों को तो मज़ा आ जाएगा सब को। ये तो कहते हैं, यह पुण्य भोग और फिर बाद में दस पाप भुगत।

प्रश्नकर्ता : दादा, हमसे बिना अहंकार से कोई सत्कार्य हो अथवा किसी संस्था या होस्पिटल आदि को पैसे दें तो अपने कर्म के अनुसार जो भोगना होता है, वह कम हो जाता है, यह सच्ची बात है ?

दादाश्री: नहीं, कम नहीं होता। कम-ज्यादा नहीं होता। उससे दूसरे कर्म बंधते हैं। दूसरे पुण्य के कर्म बंधते हैं। लेकिन वह हम किसी को मुक्का मार आएँ, उसका फल तो भुगतना पड़ेगा। नहीं तो ये सारे व्यापारी लोग माइनस करके फिर सिर्फ फायदा ही रखते। यह ऐसा नहीं है। नियम बहुत सुंदर है। एक मुक्का मारा हो, उसका फल आएगा। सौ पुण्य में से दो माइनस नहीं होंगे। दो पाप भी हैं और सौ पुण्य भी हैं। दोनों अलग-अलग भोगने हैं।

प्रश्नकर्ता अर्थात् यह शुभकर्म करें और अशुभ कर्म करें, दोनों का फल अलग-अलग मिलता है?

दादाश्री: अशुभवाला अशुभ फल देता ही है। शुभ का शुभ देता है। कुछ भी कम ज्यादा नहीं होता। भगवान के वहाँ नियम कैसा है ? कि आपने आज शुभ कर्म किया यानी सौ रुपए दान में दिए, तो सौ रुपए जमा करते हैं और पाँच रुपए किसी को गाली देकर उधार चढ़ाया, तो आपके खाते में उधार लिख देते हैं। वे पँचानवे जमा नहीं करते। वे पाँच उधार भी करते हैं और सौ जमा भी करते हैं। बहुत पक्के हैं। वर्ना इन व्यापारी लोगों को फिर से दुःख ही नहीं पड़ते। ऐसा होता तो जमा- उधार करके उनका जमा ही रहता, और तब फिर कोई मोक्ष में जाता ही नहीं। यहाँ पर पूरा दिन सिर्फ पुण्य ही होता। फिर कौन जाता मोक्ष में ? नियम ऐसा ही है कि सौ जमा करते हैं और पाँच उधार भी करते हैं। बाकी (माइनस) नहीं करते। इसलिए जो जमा किया हो, आदमी को फिर वह भुगतना पड़ता है, वह पुण्य अच्छा नहीं लगता फिर, बहुत पुण्य इकट्ठा हो जाए न, दस दिन, पंद्रह दिन खाने करने का शादियाँ वगैरह चल रही हों तो अच्छा नहीं लगता, ऊब जाते हैं। बहुत पुण्य से भी ऊब जाते हैं, बहुत पाप से भी परेशान हो जाते हैं। पंद्रह दिन तक यों सेन्ट और इत्र लगाते रहे, खूब खाना खिलाया, फिर भी खिचड़ी खाने के लिए घर पर भाग जाता है। क्योंकि यह सच्चा सुख नहीं है। यह कल्पित सुख है। सच्चे सुख के प्रति कभी अभाव होता ही नहीं। वह आत्मा का जो सच्चा सुख है, उसके प्रति कभी अभाव होता ही नहीं। यह तो कल्पित सुख है।

कर्म बंधन में से मुक्ति का मार्ग...

प्रश्नकर्ता: पुनर्जन्म में कर्मबंध का हल लाने का रास्ता क्या है? साधारण रूप से हमें ऐसा मालूम है कि पिछले जन्म में हमने अच्छे या बुरे सभी कर्म किए हुए हैं ही, तो उनसे छूटने का रास्ता क्या है ?

दादाश्री: यदि कोई तुझे परेशान कर रहा हो, तो अब तू समझ जाता है कि मैंने इसके साथ पूर्वजन्म में खराब कर्म किए हैं, यह उसी का फल दे रहा है, तो तुझे शांति और समता से उसका निबेड़ा लाना है। खुद शांत नहीं रह पाता और वापस दूसरा बीज डालता है तू । अतः पूर्वजन्म के बंधन खोलने का एक ही रास्ता है, शांति और समता। उसके लिए खराब विचार तक नहीं आना चाहिए और ऐसा रहना चाहिए कि 'मेरा ही हिसाब भोग रहा हूँ। यह जो कुछ भी कर रहा है, वह मेरे पाप के आधार पर ही है, ऐसा लगना चाहिए कि मैं अपने ही पाप भुगत रहा हूँ, तो छुटकारा होगा। और वास्तव में आपके ही कर्म के उदय से वह दुःख देता है। वह तो निमित्त है। पूरा जगत निमित्त है, दुःख देने वाला, रास्ते में सौ डॉलर ले लेनेवाला, सभी निमित्त हैं। आपका ही हिसाब है। आपको यह पहले नंबर का इनाम कहाँ से लगा ? इन्हें क्यों नहीं लगता ? सौ डॉलर ले लिए, वह इनाम नहीं कहलाएगा ?

प्रार्थना का महत्व, कर्म भुगतने में
प्रश्नकर्ता: दादा, मैं यह प्रश्न पूछ रहा था कि जो प्रारब्ध बन चुका है, कोई बीमार पड़नेवाला है या किसी का कुछ नुकसान होनेवाला है, तो क्या प्रार्थना से उसे बदला जा सकता है ?

दादाश्री : ऐसा है न, प्रारब्ध के भाग हैं। प्रारब्ध के प्रकार होते हैं। एक प्रकार ऐसा होता है कि वह प्रार्थना करने से खत्म हो जाता है। दूसरा प्रकार ऐसा है कि आपके साधारण पुरुषार्थ करने से खत्म हो जाता है। और तीसरा प्रकार ऐसा है कि आप चाहे जितना पुरुषार्थ करो, लेकिन भुगते बिना चारा नहीं रहता। बहुत गाढ़ होता है। अगर किसी व्यक्ति ने अपने कपड़ों पर थूका और उसे ऐसे धोने जाएँ तो अगर वह हल्का होगा तो पानी डालने से धुल जाएगा। बहुत गाढ़ होगा तो ?

प्रश्नकर्ता: नहीं निकलेगा।

दादाश्री: उसी प्रकार जो कर्म गाढ़ होते हैं, उन्हें निकाचित कर्म कहा है।

प्रश्नकर्ता: लेकिन अगर कर्म बहुत गाढ़ हों तो प्रार्थना से भी कुछ फर्क नहीं पड़ता?

दादाश्री : कुछ फर्क नहीं पड़ता। लेकिन प्रार्थना से उस समय सुख लगता है।

प्रश्नकर्ता: भुगतने की शक्ति मिलती है ?

दादाश्री: नहीं, यह आपको जो दुःख आया है न, दुःख में सुख का भाग लगता है, प्रार्थना के कारण। लेकिन प्रार्थना रह सकना मुश्किल है। जब संयोग खराब हों, और मन बिगड़ा हुआ हो, उस समय प्रार्थना रहनी मुश्किल है। उस घड़ी रहे तो बहुत उत्तम कहलाएगा। तब दादा भगवान जैसे को याद करके बुलाओ कि जो खुद शरीर में नहीं रहते हैं, शरीर के मालिक नहीं हैं, उन्हें यदि याद करके बुलाएँगे तो वह रहेगा, नहीं तो नहीं रहेगा।

प्रश्नकर्ता: वर्ना उन संयोगों में प्रार्थना याद ही नहीं आती ?

दादाश्री: याद ही नहीं आएगी। याद को ही गायब कर देती है, भान ही उड़ जाता है सारा।

देवी-देवताओं की मनौती का बंधन ?
प्रश्नकर्ता: किसी भी देवी-देवता की मनौती रखने से कर्म बंधन होता है क्या ?

दादाश्री: मनौती रखने से अवश्य ही कर्म बंधन होता है। मनौती अर्थात् क्या कि उनके पास से हमने मेहरबानी माँगी। इसलिए वे मेहरबानी करते भी हैं, और आप उसका बदला देते हो, और उसी से कर्म बंधते हैं।

प्रश्नकर्ता : संतपुरुष के सहवास से कर्म बंधन छूट जाते हैं क्या?

दादाश्री : कर्म बंधन कम हो जाते हैं और पुण्य के कर्म बंधते हैं, लेकिन वे उसे नुकसान नहीं पहुँचाते। पाप के बंधन नहीं बंधते।

जागृति, कर्म बंधन के सामने...
प्रश्नकर्ता: कर्म नहीं बंधें, उसका उपाय क्या है ?

दादाश्री : यह कहा न, तुरंत ही भगवान से कह देना यह, 'अरेरे! मैंने ऐसे-ऐसे खराब विचार किए। अब ये जो आए हैं वे तो, उनका हिसाब होगा तब तक रहेंगे, लेकिन मुझे तो ऐसा लगा कि 'ये अभी कहाँ से आ गए!' यह मैंने हिसाब बाँधा। उसके लिए क्षमा माँगता हूँ, फिर से ऐसा नहीं करूंगा।'

प्रश्नकर्ता : कोई खून करे और फिर पछतावा करके भगवान से ऐसा कहे, तो कर्म कैसे छूट जाते हैं?

दादाश्री : हाँ, छूटते हैं। खून करके खुश हो तो खराब कर्म बंधते हैं, और खून करके पछतावा करने से कर्म हल्के हो जाते हैं।

प्रश्नकर्ता: कुछ भी करे, फिर भी कर्म तो बंधा ही न ?

दादाश्री: बंधकर छूटता भी है। खून हुआ न, वह कर्म छूटा है। उस समय बंधता कब है ? अगर मन में ऐसा हो कि यह खून करना ही चाहिए था। तो वापस नया बंध जाता है। यह कर्म पूरा छूटा या छूटते समय पछतावा करें न, तो छूट जाएगा। मारा, वह बहुत बड़ा नुकसान करता है। यह मारा, उससे अपकीर्ति होगी, शरीर में तरह-तरह के रोग उत्पन्न हो जाएँगे। भुगतने पड़ेंगे। यहीं के यहीं भुगतना है। नया गाढ़ कर्म नहीं बंधेगा। वह कर्म फल है, वह भुगतना है। मारा, वह कर्म के उदय से ही मारा, और मारा मतलब कर्म फल भोगना पड़ेगा, लेकिन सच्चे दिल से पछतावा करेगा तो नए कर्म ढीले पड़ जाएँगे। मारने से नया कर्म कब बंधता है ? कि 'मारना ही चाहिए', वह नया कर्म। राजी खुशी से मारे तो गाढ़ कर्म बंधता है, और पछतावे सहित करे तो कर्म ढीले पड़ जाते हैं। उल्लास से बाँधे हुए कर्मों का पश्चाताप से नाश होता है।

एक गरीब आदमी को उसके बीवी बच्चे परेशान कर रहे हों कि आप मांस नहीं खिलाते। तब वह कहता है, 'पैसे नहीं है, क्या खिलाऊँ ?' तो बीवी कहती है, 'हिरण मारकर लाओ।' तब चुपचाप जाकर हिरण मारकर ले आया और खिलाया। अब इससे उसे दोष लगा। और वैसा ही हिरण, एक राजा का बेटा था, वह शिकार करने गया। वह शिकार करके खुश हो गया। अब हिरण तो दोनों ने मारा। इसने यह अपने शौक के लिए मारा, जबकि वह गरीब आदमी खाने के लिए मारता है। अब जो खाता है, उसे उसका फल, वह मनुष्य में से जानवर बनता है, वह गरीब आदमी! और राजा का बेटा शौक के लिए करता है,
खाता नहीं है। सामनेवाले को मार देता है। खुद के किसी भी लाभ के बिना। खुद को और कोई लाभ नहीं होता और बेकार शिकार करके मार डालता है। इसलिए उसका फल नर्कगति आता है। कर्म एक ही प्रकार का लेकिन भाव अलग-अलग। गरीब आदमी को तो उसके बच्चे परेशान करते हैं, इसलिए बेचारा, और यह तो शौक के लिए जीवों को मारता है। शिकार का शौक होता है न! उसके बाद हिरण वहीं के वहीं पड़ा रहता है, राजा को कुछ लेना देना नहीं होता। लेकिन फिर क्या कहता है ? 'देखो, एक्ज़ेक्ट निशाना लगाया और इस तरह गिरा दिया उसे। अगर हम इन ट्रैफिक के लॉज़ को नहीं समझेंगे, तो फिर ट्रैफिक में मार ही डालेंगे न, आमने-सामने ! लेकिन वह तो आता है सभी को! 'यह' नहीं आता, इसलिए हमारे जैसे सिखानेवाले चाहिए।

फाँसी की सजा से जज को क्या बंधन ?
एक जज ने मुझसे कहा कि, 'साहब, आपने मुझे ज्ञान तो दे दिया और अब मुझे वहाँ कोर्ट में फाँसी की सजा देनी चाहिए या नहीं?' तब मैंने उन्हें कहा, 'उसके लिए क्या करोगे, फाँसी की सजा नहीं दोगे तो ?' उसने कहा, 'लेकिन दूँगा तो मुझे दोष लगेगा ।'

फिर मैंने उसे तरीका बताया कि आपको यह कहना है कि, 'हे भगवान, मेरे हिस्से में यह काम कहाँ से आया ?" और उसका दिल से प्रतिक्रमण करना और दूसरा, गवर्मेन्ट के नियम के अनुसार काम करते जाना।

प्रश्नकर्ता : किसी को हम दुःख पहुँचाएँ और फिर हम प्रतिक्रमण कर लें, लेकिन अगर उसे भारी आघात ठेस पहुँची हो तो उससे हमें कर्म नहीं बंधेगा ?

दादाश्री: हम उसके नाम के प्रतिक्रमण करते रहें, और उसे जितना दुःख हुआ हो, उतने ही प्रतिक्रमण करने पड़ेंगे। हमें तो प्रतिक्रमण करते रहना है, हमारी दूसरी कोई जिम्मेदारी नहीं है।

किसी भी कार्य का पछतावा करो, तो उस कार्य का फल, रुपए में बारह आने तक नाश हो ही जाता है। फिर जली हुई डोरी होती है न, उसके जैसा फल आता है। वह जली हुई डोरी अगले जन्म में बस ऐसा करते ही उड़ जाएगी। कोई क्रिया यों ही बेकार तो जाती ही नहीं। प्रतिक्रमण करने से वह डोरी जल जाती है, लेकिन डिज़ाइन वैसी की वैसी रहती है। अब अगले जन्म में क्या करना पड़ेगा? इतना ही किया, झाड़ दिया कि उड़ गई।

जप-तप से कर्म बंधते हैं या खपते हैं ?
प्रश्नकर्ता : जप-तप में कर्म बंधते हैं या कर्म खपते हैं ?

दादाश्री: उसमें कर्म बंधते ही हैं न! हर एक बात में कर्म ही बंधते हैं। रात को सो जाएँ, तो भी कर्म बंधते हैं, और ये जप-तप करते हैं उससे तो बड़े कर्म बंधते हैं। लेकिन वे पुण्य के बंधते हैं। उससे अगले जन्म में भौतिक सुख मिलते हैं।

प्रश्नकर्ता: तो कर्म खपाने के लिए धर्म की शक्ति कितनी?

दादाश्री: धर्म-अधर्म दोनों कर्म खपा देते हैं। सांसारिक बंधे हुए कर्मों को, अगर विज्ञान हो तो तुरंत ही कर्मों का नाश कर देता है। अगर विज्ञान हो तो कर्मों का नाश हो जाता है। धर्म से पुण्य कर्म बंधते हैं, और अधर्म से पापकर्म बंधते हैं, और आत्मज्ञान से कर्मों का नाश हो जाता है, भस्मीभूत हो जाते हैं।

प्रश्नकर्ता : जो धर्म और अधर्म, दोनों को खपा दे तो उसे धर्म कैसे कह सकते हैं?

दादाश्री : धर्म से पुण्य के कर्म बंधते हैं और अधर्म से पाप के कर्म बंधते हैं। अभी कोई धौल लगा दे तब क्या होगा? कोई धौल मारे तो क्या करोगे आप? उसे दो लगा दोगे न ! डबल करके दोगे। नुकसान करवाए बिना देते हैं, डबल करके। वह आपके पाप का उदय आया, इसलिए उसे धौल मारने का मन हुआ। आपके कर्म का उदय आपको दूसरे के पास से धौल मरवाता है, मारनेवाला तो निमित्त बना। अब कोई एक धौल लगाए, तो हमें कह देना है कि 'खत्म हुआ हिसाब अपना, मैं जमा कर लेता हूँ', और जमा कर लो। पहले दी थी, वह वापस दे गया। जमा कर लेना है, नया उधार नहीं देना है। पसंद हो तो उधार देना। पसंद है क्या ? नहीं ? तो उसे नया उधार मत देना ।

अपने पुण्य का उदयकर्म हो तो सामनेवाला अच्छा बोलता है। और पाप का उदयकर्म हो तो सामनेवाला गालियाँ देता है। उसमें किसका दोष ? इसलिए हमें कहना है कि 'मेरा ही उदयकर्म है और सामनेवाला तो निमित्त है।' ऐसे करने से अपने दोष की निर्जरा (आत्मप्रदेश में से कर्मों का अलग होना) हो जाएगी। और नया नहीं बंधेगा।

कर्म-अकर्म दशा की स्थिति

प्रश्नकर्ता: मैं ऐसा मानता हूँ कि कोई भी गलत काम करने से कर्म तो बंधेंगे ही।

दादाश्री: तो क्या अच्छे कर्म का बंधन नहीं है ?

प्रश्नकर्ता: अच्छा और बुरा, दोनों से कर्म बंधते हैं न!

दादाश्री : अरे ! इस समय भी आप कर्म बाँध रहे हो! इस समय आप बड़े पुण्य का कर्म बाँध रहे हो! लेकिन ऐसा दिन कभी आता ही नहीं है न कि कभी भी कर्म नहीं बंधे? उसका क्या कारण होगा ?

प्रश्नकर्ता : कोई न कोई प्रवृत्ति तो करते ही हैं न, अच्छी या खराब ?

दादाश्री: हाँ, लेकिन क्या ऐसा रास्ता नहीं होगा कि कर्म नहीं बंधे ? भगवान महावीर किस प्रकार से बिना कर्म बाँधे मुक्त हुए होंगे ? यह देह हैं तो कर्म तो होते ही रहेंगे! संडास जाना पड़ता है, सबकुछ नहीं करना पड़ता ?

प्रश्नकर्ता: हाँ, लेकिन जो कर्म बाँधे हों, उनके फल वापस भुगतने पड़ते हैं न!

दादाश्री: कर्म बाँचेंगे तब तो वापस अगला जन्म मिले बगैर रहेगा नहीं। यानी कि कर्म बाँधे, तो अगले जन्म में जाना पड़ेगा! लेकिन इस जन्म में महावीर को अगले जन्म में नहीं जाना पड़ा था, तो कोई रास्ता तो होगा न? कर्म करने के बावजूद भी कर्म नहीं बंधे, ऐसा ?

प्रश्नकर्ता : होगा।

दादाश्री : आपको ऐसी इच्छा होती है कि कर्म नहीं बंधे ? कर्म करते हुए भी कर्म नहीं बंधे ऐसा विज्ञान होता है। उस विज्ञान को जानो तो मुक्त हो जाओ।

बाधक है अज्ञानता, नहीं कर्म रे...
प्रश्नकर्ता: हमारे कर्मों के फलस्वरूप ही यह जन्म मिलता है न ?

दादाश्री: हाँ, पूरी जिंदगी कर्म के फल भुगतने हैं! और यदि राग-द्वेष करते हैं तो उनमें से नए कर्म खड़े होते हैं। यदि राग-द्वेष न करें तो कुछ भी नहीं।

कर्म में हर्ज नहीं, कर्म तो, यह शरीर है इसलिए होंगे ही, लेकिन राग-द्वेष करने में हर्ज है। वीतराग क्या कहते हैं कि वीतराग बनो।

इस दुनिया में चाहे कोई भी काम करें लेकिन उसमें काम की कीमत नहीं है। अगर उसके पीछे राग-द्वेष हों, तभी अगले जन्म का हिसाब बंधता है। राग-द्वेष नहीं होते हैं, तो जिम्मेदारी नहीं है।

पूरी देह, जन्म से लेकर मृत्यु तक अनिवार्य है। उनमें से राग-द्वेष जो होते हैं, उतना ही हिसाब बंधता है।

इसलिए वीतराग क्या कहते हैं कि वीतराग होकर मोक्ष में चले जाओ।

हमें तो कोई गालियाँ दे तो हम समझते हैं कि यह अंबालाल पटेल को गालियाँ दे रहा है, पुद्गल को गालियाँ दे रहा है। आत्मा को तो वह जान ही नहीं सकता, पहचान ही नहीं सकता न, इसलिए 'हम' स्वीकार नहीं करते। 'हमें' स्पर्श ही नहीं करता, हम वीतराग रहते हैं। हमें उस पर राग-द्वेष नहीं होता। इसलिए फिर एक अवतारी या दो अवतारी होकर सब खत्म हो जाएगा।

वीतराग इतना ही कहना चाहते हैं कि 'कर्म बाधक नहीं हैं, तेरी अज्ञानता बाधक है!' अज्ञानता किसकी ? 'मैं कौन हूँ' उसकी। देह है तब तक कर्म तो होते ही रहेंगे, लेकिन अज्ञान जाएगा तो कर्म बंधने बंद हो जाएँगे !

कर्म की निर्जरा कब होती है ?
प्रश्नकर्ता: कर्म होने कब रुकते हैं?

दादाश्री : 'मैं शुद्धात्मा हूँ' उसका अनुभव होना चाहिए। यानी तू शुद्धात्मा हो जाएगा, उसके बाद कर्मबंध रुकेगा। कर्म की निर्जरा होती रहेगी और कर्म होने रुक जाएँगे!

कर्म नहीं बंधे, उसका क्या रास्ता है? यह कि स्वभाव-भाव में आ जाना चाहिए। जब 'ज्ञानीपुरुष' खुद स्वरूप का भान करवा देते हैं, उसके बाद कर्म नहीं बंधते। फिर नए कर्म चार्ज नहीं होते। पुराने कर्म डिस्चार्ज होते रहते हैं और जब सभी कर्म पूरे हो जाते हैं, तब अंत में मोक्ष हो जाता है !

यह कर्म की बात आपको समझ में आई इसमें! कर्ता बनने से कर्म बंधते हैं। जब कर्तापन छूट जाएगा, तब फिर कर्म नहीं बाँधेगा। यानी आप आज कर्म बाँध रहे हो, लेकिन जब मैं आपका कर्तापन छुड़वा दूंगा, तब आपको कर्म नहीं बंधेंगे और जो पुराने हैं वे भुगत लेना। यानी पुराना हिसाब चुक जाएगा और कॉज़ खड़े नहीं होंगे। सिर्फ 'इफेक्ट' ही रहेंगी और फिर जब इफेक्ट भी पूरी भोग ली जाएँगी तब संपूर्ण मोक्ष हो जाएगा!

जय सच्चिदानंद


कर्ताभाव से कर्मबंधन !
कर्म कैसे बंधते हैं? “मैं कर रहा हूँ।” यह कर्त्ताभाव है। करता है कोई और, और आरोपण करता है कि मैंने किया। इस कर्त्ताभाव से कर्म बंधते हैं। अब ‘कर्त्ता कौन है?’ यह जानना पड़ेगा, ताकि फिर कर्म नहीं बंधें और मुक्ति हो जाए! —दादाश्री