"तू कहाँ चला गया था रे? देख तेरी माँ को क्या हो गया?" मोहनचंद ने व्याकुलता की दशा में ही राकेश को कहा।
"क्या हुआ मम्मी को?" राकेश अपने माता के पास जाता है जो पलंग पर सो रही थी। मोहनचंद ने उस पर एक महीन कंबल डाल दी थी और सिर पर बाम लगाकर एक कपड़े से बांध दिया था।
"क्या हुआ मम्मी? बुखार है क्या? चलो डॉक्टर के पास चलते है।" राकेश ने कुछ चिंतित स्वर में बोला।
"नहीं बेटा , मैं ठीक हूँ। हल्का सा बुखार है शायद! अभी खाना खाकर गोली ले लूंगी । ठीक हो जाएगा।" रेखा ने कराहते हुए बोला।
"मैंने भी बहुत कहा कि डॉक्टर के पास चलते है। पर यह माने तब ना! अभी कुछ देर पहले तो यह चंगी भली थी। अभी जब मैं वापस आया तो पता नहीं अचानक क्या हो गया।" राकेश द्वारा डॉक्टर का कहने पर मोहनचंद अपना स्पष्टीकरण देते हुए बोला।
राकेश जब घर आ रहा था तब सोच रहा था कि वह अब कैसे अपनी माँ को प्रिया से रिश्ते के लिए बात करेगा। पर अब वह खुश हो गया। उसे अच्छा बहाना मिल गया था। उसने अनुभव किया कि शायद अभी तक मम्मी ने पापा को यह नहीं बोला है। उसने मौके की तलाश की। जब मोहनचंद रसोई की तरफ़ खाने की तैयारी करने के लिए गया तो राकेश कुटिल अश्रुओं के साथ बोला,"मम्मी , यह सब मेरी वजह से हुआ है ना! मुझे माफ़ कर दो। अगर आपकी यही इच्छा है कि मेरा रिश्ता प्रिया से हो। तो मुझे मंजूर है। बस मेरी शादी अभी नहीं करनी है। और अब तू ठीक हो जा।"
राकेश के इस एक वक्तव्य से रेखा का बुखार तुरंत जैसे नौ दो ग्यारह हो गया। उसको जैसे कुछ हुआ ही नहीं था। वह खुशी से झूम उठी ।
"सच्च बेटा!" रेखा ने पलंग पर बैठकर राकेश का माथा स्नेह से चूम लिया।
"हाँ मम्मी। लेकिन आप पापा को इस बारे में नहीं बताना की मेरे को प्रिया के बारे में सब पता है। वरना उनको बुरा लगेगा कि मेरी वजह से मम्मी की यह हालत हो गयी।" राकेश ने एक कुटिल मुस्कान अपने मुखः पर लाते हुए कहा। उसने सोचा यह पत्ता पिताजी के सामने गुप्त ही रखते है ताकि भविष्य में यह पत्ता किसी काम आ सके।
रेखा ने भी उसको वचन दिया और वह भी यही चाहती थी क्योंकि मोहनचंद ने उसे पहले ही मना किया था उसके बावजूद उसने राकेश को सब बता दिया था। राकेश के मन की कुटिलताओं से अपरिचित रेखा अपने पुत्र के प्रति स्नेह से पुलकित हो उठी। वह उठी और रसोई की तरफ़ चल दी अपनी ज़िम्मेदारी संभालने।
"अरे यह क्या ? तुम उठी क्यों? सोती रहो अभी।" मोहनचंद ने अपनी पत्नी को काम करने से रोकते हुए कहा।
"मेरी तबियत अब एकदम ठीक है। आप जाओ बैठो मैं बना दूंगी खाना।" रेखा के मुखमंडल पर अब असीम शांति झलक रही थी। उसने अपने पति के हाथों से चाकू ले लिया और प्याज काटने लगी।
"तुम्हारा भी कुछ समझ मैं नहीं आता। अचानक बीमार हो जाती हो। और अचानक से सही भी । " मोहनचंद आश्चर्य के भाव से रसोई से बाहर चला गया।
राकेश अपने मन ही मन प्रसन्न हो रहा था। उसे अपनी बुद्धि पर अहंकार सा हो गया। उसके हृदय के एक कोने ने महसूस किया कि क्यों न प्रिया से एक बार मिल लिया जाए? लेकिन तभी उसके फोन पर घंटी बजती है। जो कॉल दिव्या का था।
"हाय दिव्या।"
"हेलो,क्या कर रहे हो?"
"कुछ नहीं बस तुम्हें याद।"
"अच्छा जी! क्यों भला ?"
"अब आप हमारी बॉस जो हो। तो याद करना तो बनता है।"
"अब रहने भी दो। "
"चलो, जो हुक्म मेरे आका। ये तो बताओ कॉल कैसे किया? कोई काम हो तो बोलो!"
"अब क्या बिना काम के कॉल भी नहीं कर सकते! चलो फिर रखती हूँ।"
"अरे! नहीं नहीं नहीं.. ऐसी बात नहीं । बहुत अच्छा किया आपने। और सुनाओ। तुम क्या कर रही हो?"
"मैं क्या करूँ? कुछ समझ में नहीं आ रहा है। तभी तुझे कॉल किया। ओके पापा आ गए है। कल मिलते है कॉलेज में, एक बहुत जरूरी मीटिंग रखनी है।"
"कैसी मीटिंग?"
"वो कल पता चल ही जायेगा। ओके बाए।" दिव्या ने यह कहकर कॉल कट कर दिया। लेकिन राकेश की उत्कंठा बढ़ने लगी। अभी थोड़ी देर पहले वह प्रिया के बारे में सोच रहा था। अब वह दिव्या के बारे में सोचने लगा। लेकिन यह मीटिंग उसकी लाइफ को कहीं ओर ही ले जाएगी.....
क्रमशः.....