सुबह 7 बजे का वक़्त है। जावेद साहब, बरामदे में बैठ कर पेपर पढ़ रहे हैं, बेगम से भी गपशप चल रहा है। गाहे- ब-गाहे दरवाज़े पर भी निग़ाह डाल लेते हैं। गोया उन्हें किसी का इंतज़ार हो। आख़िर इतनी सुबह- सुबह जावेद साहब को किसका इंतज़ार है??
तभी बाहर गाड़ी के रुकने की आवाज़ आती है। गेट खुलता है और बाहर से ही सलाम करता हुआ एक शख्स़ अंदर दाख़िल होता है। जिसकी उम्र क़रीब 30 के आस- पास होगी। ऊँचा लम्बा क़द, बड़ी- बड़ी आँखें, कुशादा पेशानी, मुस्कुराता हुआ चेहरा।
जावेद साहब खड़े हो जाते हैं और उसे भींच कर गले लगा लेते हैं। फिर वो शख्स़ बेगम साहिबा की तरफ़ पलटता है और उन्हें गले लगा लेता है। बेगम साहिबा आब-दीदा हो जाती हैं। अब तक तो आप समझ ही गए होंगे कि आने वाले 'मिस्टर रुहान' हैं। जावेद साहब के घर के चश्म- ओ- चिराग़, दो बहनों का एकलौता भाई, उनकी आँखों की ठंडक।
अरे! जावेद साहब की बेटियों से तो मिलवाया ही नहीं आप
सभी को।
रुहान साहब से छोटी दो बहनें हैं जिनमें शीबा की शादी, चार साल पहले हो चुकी है। वो ग्रेजुएट है । और हाउसवाइफ़ है। शीबा साहिबा बस अपनी दुनिया में मस्त रहती हैं, उन्हें दूसरों की ज़िंदगी से कोई लेना- देना नहीं है। या कह सकते हैं,उन्हें "जियो और जीने दो" की तर्ज पर ज़िंदगी गुजारना पसंद है। शीबा के हसबैंड कामरान साहब, हाई-स्कूल में शिक्षक हैं। सीधे- साधे शरीफ़ बंदे हैं। कुल मिलाकर उनकी ज़िंदगी मज़े में गुजर रही है।
आइए अब मिलवाती हूँ, रुहान साहब की छोटी बहन 'मोहतरमा शिया साहिबा' से। बिल्कुल नटखट और चुलबुली सी लड़की। बड़ी- बड़ी आँखें, लम्बे घुंघराले बाल, सफ़ेद-गुलाबी रंगत ।
हरकतें बिल्कुल बच्चों जैसी। घर भर में उधम मचाए रखती है। जावेद साहब की तो इसमें जान बसती है। पढ़ाई-लिखाई के नाम से तो इसकी जान निकलती है। बड़ी मुश्किल से, इस बार रो- धो कर, किसी तरह 12 वीं की परीक्षा दी है। और अब दिन - रात दुआएँ करती रहती है कि फेल हो जाए । ताकि पढ़ाई से उसकी जान छूटे।
*****
"अम्मा, शिया नज़र नहीं आ रही है। अब तक तो उसे आ कर के मेरे 'लगेज' में 'सर्च ओपरेशन' शुरू कर देना चाहिए था।"
रुहान साहब ने हैरान होते हुए कहा।
"हाँ, अब्दुल भाई के तरफ़ गयी थी कल। फ़ारिया भाभी ने उसे अपने पास ही रोक लिया। तुझे तो पता है न, उनकी अपनी कोई औलाद नहीं है। शिया में उनकी जान बसती है। वो तो चाहते हैं कि शिया उनके पास ही रहे। लेकिन शिया का वहाँ दिल ही नहीं लगता। फिर उसे तेरे आने की ख़बर भी तो नहीं है। नहीं तो वो वहाँ किसी हाल में न रुकती।"
अब्दुल भाई, रुहान साहब के मामा हैं। पास ही के मोहल्ले में रहते हैं। पेंशन पा चुके है।
तभी रुहान साहब को कुछ याद आता है। "अम्मा, आपने मुझे इतनी जल्दी में क्यों बुलाया??" पूछ कर वो जावेद साहब की तरफ़ देखने लगते हैं।
जावेद साहब चुप ही रहते हैं। तभी बेगम साहिबा कहती हैं, "बेटा पहले फ्रेश हो जा। मैं नाश्ता लगाती हूँ। बाहर से थक कर आया है। थोड़ा आराम कर ले, फिर इत्मीनान से बात करते हैं।"
रुहान साहब, चुप- चाप उठ कर अंदर अपने कमरे की तरफ़ बढ़ जाते हैं। फ्रेश होने के बाद, बाहर आते हैं। तब तक अम्मा नाश्ते की मेज़ पर, नाश्ता लगा चुकी होती हैं। और अब्बा इंतज़ार कर रहे होते हैं।
अम्मा के हाथों की गरमा- गर्म आलू के पराठे की ख़ुशबू आ
रही थी। अम्मा ने आज़ उनकी पसंद की सारी चीज़ें बनायी थीं। देखते ही भूख जाग पड़ी। आज पूरे चार साल के बाद घर का खाना देखने को मिल रहा था। भर- पेट खा चुकने के बाद, अपने रूम में आराम के लिए आ जाते हैं। अम्मा चाय के लिए पूछती हैं तो मना कर देते हैं। कहते हैं, "अभी थोड़ा आराम करूँगा अम्मा।"लेटते ही नींद आ जाती है।
अभी सोये हुए, कुछ देर ही गुजरे थे कि
"भैया... भैया..." चिल्लाते हुए, शिया रूम में दाख़िल होती है।
रुहान साहब, उठ बैठते हैं।
"अरे! शैतान की नानी! तू कहाँ से टपक पड़ी ?"
"अम्मा जी ने फोन पर बताया। सुन कर मैं सीधे दौड़ी चली आई।
भाई, आप तो अगले साल ईद में ही आने वाले थे। इतनी जल्दी कैसे आ गए?"
"अच्छा! तुझे भी नहीं पता है! अम्मा ने मुझे, इतनी जल्दी में क्यों बुलाया है? "
अब तक शिया को भी नहीं पता है कि उसके भाई की शादी होने वाली है। और ये बातें अभी घर के बड़ों के बीच ही है।
"अच्छा! भाई, मैंने जो- जो कहा था, वो सारी चीज़ें लाए हो न?"
"क्या कहा था तूने? मुझे तो कुछ याद नहीं है!" रुहान साहब भूलने की एक्टिंग करते हुए कहते हैं।
शिया, मुँह फुला कर बैठ जाती है। उसकी आँखों में आँसू आ जाते हैं। वो ऐसी ही थी ज़रा-ज़रा सी बात पर मुँह फुला लेने वाली।
रुहान साहब, हँसने लगते हैं। कहते हैं, "मैं अपनी गुड़िया की फरमाइशें, कैसे भूल सकता हूँ... जा निकाल ले अपना सारा सामान।"
ये सुनकर शिया बहुत ख़ुश हो जाती है,
और सामान चेक करने लगती है।
तभी अम्मा आ जाती हैं कमरे में। "एक- दम सब्र नहीं है इस लड़की में, भाई को ठीक से सोने नहीं दिया।"
"नहीं अम्मा, मैं उठने ही वाला था अब।"
"बेटा, खाना लगाऊँ?"
नहीं अम्मा, अभी नहीं खाऊँगा। एक कप चाय लुंगा बस।
"ठीक है बेटा, लाती हूँ।"
कह कर अम्मा जी, चाय बनाने चली जाती हैं।
कुछ देर में चाय ले कर आ जाती हैं। तब तक में रुहान साहब बाहर जाने के लिए तैयार हो चुके थे।
"कहीं जा रहे हो बेटा?"
"हाँ अम्मा, ज़रा फरहान से मिल कर आता हूँ। बहुत दिनों से उससे बात नहीं हुई है और उसका फोन भी नहीं लगता है अब। पता नहीं क्या बात है?" सोचते हुए कहते हैं।
अम्मा के हाथों से, चाय लेकर पीने लगते हैं। "अम्मा, आपकी हाथों की चाय पीने के लिए तो तरस कर रह गया था।"
अम्मा जी, बेटे को दालहाना' नज़रों से देख रही होती हैं।
"क्या हुआ अम्मा? आप ऐसे क्यों देख रही हैं?"
अम्मा जी चौंकते हुए कहती हैं, "अ.. अहाँ.. नहीं.. कुछ नहीं बेटा.." कहते हुए, बेटे को प्यार से देखते हुए मुस्कुराने लगती हैं।
उनकी आँखों में चमक आ जाती है, बेटे को सेहरे में सजा देखने के ख़्याल से ही।
रुहान साहब को अब दाल में कुछ- कुछ काला नज़र आने लगता है।
वैसे उन्हें शक तो पहले से ही था। लेकिन फोन पर बार- बार पूछने पर भी अम्मा ने कुछ नहीं बताया था।
"अच्छा बेटा, शाम को तेरे अब्बू आते हैं तो चाय पर बात करते हैं। तब तक तू दोस्तों से मिल आ।"
"ठीक है अम्मा!" और अम्मा को सलाम करते हुए बाहर निकल जाते हैं।
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नाबिया का घर....
नाबिया बरामदे में बैठ कर एक किताब पढ़ रही है।
प्रेमचंद की किताब गोदान है उसके हाथों में।
शाम के 4:30 बज चुके हैं।
लेकिन अरुशा का अब तक कोई पता नहीं है।
नाबिया, फोन लगाती है, फोन भी नहीं लगता है।
पता नहीं! ये अरुशा की बच्ची कहाँ रह गयी है?
उठ कर टहलने लगती है। तभी बाहर कोई नोक करता है।
बड़बड़ाती हुई दरवाज़ा खोलती है, "अरुशा की बच्ची कहाँ रह गयी थी तू?? कब से इंतज़ार कर रही हूँ।" लेकिन दरवाज़ा खोलते ही जिस शख्स पर निगाह पड़ती है; एकदम चुप हो कर पीछे हट जाती है। और घर के अंदर चली जाती है। दरवाज़ा पे खड़ा शख्स़, हैरान सा आवाज़ लगाता रह जाता है।
क्रमशः