Mujahida - Hakk ki Jung - 18 in Hindi Moral Stories by Chaya Agarwal books and stories PDF | मुजाहिदा - ह़क की जंग - भाग 18

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मुजाहिदा - ह़क की जंग - भाग 18

भाग 18
वह सोचने लगी काश! कोई आकर उसे कपड़े बदलने की इजाज़त देदे।
आरिज़ की बड़ी भाभी साहब अफसाना ने आकर फिज़ा को रस्मों के बारें में इत्तिला दी और ये भी कहा- "दुल्हन आप तैयार हो जायें, एक घण्टे में रस्मों के लिये औरतें आने वाली हैं। ये भारी भरकम शरारा कुर्ती उतार दें और सिल्वर जरी वाला सूठ पहन लें। और हाँ दुल्हन, जेवर अभी न उतारें उसे पहने रहें। जब तक मोहल्ले, खानदान के सब लोग न देख लें। नई नवेली दुल्हन के जिस्म पर जेवर न हों तो खानदानी रसूख चला जाता है, तब तक मैं कुछ खाने के लिये भिजवाती हूँ।"
उनके इन लफ्जों ने फिज़ा के जिस्म में जान फूँक दी थी। बेशक उन्हे देखते ही फिज़ा ने दुपट्टा सिर से ओढ़ लिया था मगर उसका दिल कुछ हल्के कपड़े पहनने को कर रहा था। उसने धीरे से हाँ में सिर हिला दिया था। भूख उसको भी लगी थी, मगर लाज से कहना मुश्किल था। अम्मी जान ने कहा था-'चाहे जितनी भी भूख लगे बर्दाश्त करना। जाते ही खाना माँगने न लग जाना।'
जाते-जाते आरिज़ की भाभी साहब बच्चों को अपने साथ ही ले गयी थी, ये कह कर 'दुल्हन को आराम करने दो वह अभी थकी हुई हैं।'
बच्चों के जाने के बाद फिज़ा ने दरवाजे को अन्दर से लाॅक किया और गद्दे पर लुढ़क गयी। उसका दिल सोने को कर रहा था। मगर नया घर ,नये लोग, नया माहौल किससे कहे? और कैसे कहे? नुसरत फूफी भी कहीँ नजर नही आ रहीं थीं। उसे लगा था कम से कम फूफी तो वहाँ मिल जायेंगी जिनसे वह अपने दिल की बात कह सकेगी। मगर जब से वह आई है उसे एक बार भी कहीँ नजर नहीं आईं। पता नही कहाँ गयीं फूफी? वैसे तो उनका घर भी पड़ोस में ही था। काश! वो यहाँ होतीं तो कितना अच्छा होता? हमें कितना अकेलापन महसूस हो रहा है?
उसनें उस कमरें का पूरा मुआयना किया। कमरा सामान से फैला हुआ जरुर था लेकिन शानदार और एकदम नया सा लग रहा था। उसने अन्दाजा लगाया ये उसका कमरा नही होगा। शायद ये एक आम कमरा होगा। जहाँ कोई भी आता-जाता होगा। पूरे कमरें में शादी का सामान फैला हुआ था। मिठाइयों के डिब्बे एक कोने में लगे हुये थे। कुछ तोहफे थे जो अभी पैक थे, सामने वाली मेज पर बेतरकीब लदे हुये थे।
दरवाजा तो लाॅक था इसलिए वह बेफिक्र होकर कुछ देर लेट सकती है। यही सोच कर वह लेट गयी। थकान की बजह से उसको नींद आ गयी।
उसकी आँख तब खुली जब दरबाजे पर दस्तक हुई। उसने हड़बड़ा कर दरवाजा खोला, तो सामने नुसरत फूफी ही खड़ी थीं। अपनी फूफी जान को देखते ही उसकी आँख में चमक आ गयी। वह उनसे लिपट गयी और शिकायत करने लगी- "आप कहाँ थी फूफी? हम कब से आपको ढ़ूँढ रहे थे। वो थोड़ा सा ही मुस्कुराई थी उनकी मुस्कुराट फीकी थी। उन्होनें उसकी बात का कोई जवाब नही दिया था कहने लगीं- "फिज़ा बेटा, आप अभी तक तैयार नही हुयी हैं? बाहर सब आपका इन्तजार कर रहे हैं। सब लोग नाराज़ हो रहे हैं। चलियें फटाफट तैयार हो जाइये।"
"हाँ..हाँ..फूफी जान हम आतें हैं अभी, वो क्या है न... हमारी आँख लग गयी थी।" फिज़ा के लहजे में थोड़ी सी घबराहट थी। उसे अम्मी जान की बात याद आ गयी उन्होंने रिश्ता लगने के बाद न जाने क्या-क्या और कितनी बार समझाया था कि ससुराल में कैसे रहना चाहिये क्या नही करना चाहिए बगैहरा-बगैहरा। इसीलिए वह थोड़ी सी घबरा गयी थी। नुसरत ने कोई जवाब नही दिया बस एक फीकी मुस्कान बिखेर दी और बाहर निकल गई। उसे नुसरत फूफी का बर्ताब कुछ अजीब सा लगा। बेशक वह मुस्कुरा रही थीं।
फिज़ा ने अफसाना भाभी साहब के हुक्म के मुताबिक वही सिल्वर जरी वाला सूठ पहन लिया था और सारा का सारा जेवर भी पहन लिया था। बेशक उसे उन सबसे चुभन हो रही थी फिर भी, अगर वह न पहनती तो हुक्म की नाफरमानी हो जाती, जो वह नही चाहती थी। वैसे भी उसने देखा है कई फिल्मों में और रिश्तेदारी में भी कि नई दुल्हन को कुछ दिनों तक यूँही सजे- सँवरे रहना पड़ता है। फिल्मों में सब देख कर कितना अच्छा लगता था? वास्तव में बहुत मुश्किल होता है यूँ लदे-फदे रहना। या अल्लाह! जल्दी से हमें निजात दिलवा इन सब चीजों से।
शाम तक सभी रस्मों रिवाज़ निबट गये थे। थोड़ी देर तक तो वो वहाँ थीं। उसे घूँघट में से उनकी आवाज़ सुनाई पड़ रही थी। फिर उसके बाद उसे नुसरत फूफी कहीँ दिखाई नही दीं। इसका मतलब ये था शायद वह अपने घर चली गयीं थीं, उसने कयास लगाया। अगर वो यहाँ होतीं तो कितना अच्छा होता? उसे उनकी जरूरत महसूस हो रही थी। क्यों कि बड़ी भाभी साहब के अलावा अभी किसी से भी उसकी कोई खास जान-पहचान नही हुई थी।
आरिज़ से एक-दो बार आमना-सामना हुआ था। सिर्फ देखा ही था बात एक बार भी नही हुई। हलाँकि उसका दिल चाह रहा था कि आरिज़ उसके नजदीक रहे या बात करे। मगर मेहमानों से भरे घर में ऐसा होना या चाहना बेवकूफी थी। शायद वह भी उसे नकाब के बगैर देखने के लिये बेकरार था इसीलिये कई बार बेवजह उधर चक्कर लगा चुका था। एक बार तो छोटी फरहा भाभी जान ने मज़ाक में कह भी दिया था- "आरिज़ मियाँ जरा उधर ही रहें और सब्र रखें। दुल्हन कहीँ भागी नहीं जा रहीं।" सभी हँस पड़े थे और आरिज़ मियाँ तो एकदम से सकपका गये थे झेप कर यूँ भागे जैसे किसी ने उनकी चोरी पकड़ ली हो।
चूकिं बड़ी भाभी साहब ही उसका ख्याल रख रहीं थीं या यूँ कहें कि वही सबसे पहले उसके पास कमरें में आईं थीं इसलिये फिज़ा को उनसे थोड़ी नज़दीकियत हो गयी थी और वह हर चीज़ के लिये उन्हें ही ढ़ूढ़ रही थी। उनकी नज़दीकी उसे अम्मीजान के माफिक लग रही थी।
फिज़ा ने उनसे फूफीजान के बारें में पूछा तो उन्होंने कोई खास तबज्जो नही दी, बस इतना ही बताया- "वह अपने घर चली गयीं हैं। अगर कल आयें तो मिल लेना।" फिर कुछ सोच कर बेसाख़्ता उन्होनें सवाल किया- "कुछ खास बात है क्या दुल्हन? अगर हो तो बतायें। फोन करके बुलवा लेते हैं उन्हें।" फिज़ा को लगा जैसे नुसरत फूफी की वहाँ कोई खास अहमियत नही है। मगर वह तो हमेशा बड़ी तारीफें किया करती थीं। आरिज़ की भी और उन सभी की जो उनसे तार्रुख रखते हैं। फिर आज ये क्या हुआ। खैर उसने खुद को संभाला- 'शायद ये हमारी गलतफहमी हो।'
शादी की पहली रात थी। फिज़ा को जिस कमरें में लाया गया वो बेहद खूबसूरत था। उसने आज सुबह से इस कमरें को पहली मर्तवा देखा था। कमरें में घुसते ही लाल गुलाब और चम्पा के सफेद फूलों की सजाबट और खुशबू देख कर वह मुग्ध हो गयी। उसने ऐसी सजावट फिल्मों में ही देखी थी उसे यकीन नही था कि आरिज़ भी इतने शौकीन मिजाज होगें? उसे अपने ख्याब रंगीन होते दिखाई देने लगे। जिसमें हरा ,गुलाबी, लाल, बैगनी सभी रंग चटख दिखाई पड़ रहे थे। वह ध्यान से एक-एक चीज को देखने लगी। पूरे कमरें को बहुत ही करीने से सजाया गया था। कमरें के बीचोंबीच वही शीशम का पलंग पड़ा हुआ था जिसे उसके अब्बूजान ने अपने सामने बैठ कर बनवाया था। उसके मुँह से यकायक निकल पड़ा- "उफफफ.. कितना खूबसूरत है ये? घर पर तो जी भर देख न सकी थी लाज आती थी ये सोच कर भी कि ये पलंग उसके लिये बनवाया गया है। सो काफी देर खड़ी -खड़ी वह निहारती रही। उसे तब होश आया जब उसे छोड़ने आई फरहा भाभी जान ने उससे कहा- "दुल्हन आपका ही कमरा है ये, बैठ जाइये और आराम से देख लीजिये। बस तब तक आरिज़ मियाँ आते ही होगें। उसके बाद तो आपको मौका मिलेगा ही नही।" फिज़ा को छेड़ कर वह हँस पड़ी तो वह लाज से दोहरी हो गयी। दो गिलास दूध और कुछ बादाम नाश्ता रख कर वह बाहर चली गयीं। उसने महसूस किया था कि फरहा भाभी जान थोड़ी हँसमुख मिजाज हैं और बड़ी अफसाना भाभी साहब कुछ कम बोलती हैं।
वह उस पलंग पर बैठने की जुर्रत नही कर पाई चूंकि वह चारों तरफ फूलों से ढ़का हुआ था और पूरे पलंग पर भी फूल ही फूल बिखरे हुये थे। इसलिये वह सामने दीवार से सटे सोफे पर बैठ गयी। उसने बहुत सारी फिल्मों में इस तरह के सीन देखे थे। सब कुछ बिल्कुल फिल्मों के जैसा ही था। उसने भाभी के जाने के बाद ध्यान से उस कमरें की एक-एक चीज को दिल भर के निहारा। वो इस सुनहरी तस्वीर को अपने जहन में उतार लेना चाहती थी। जो किसी भी लड़की की जिन्दगी में एक दफ़ा आती है।
क्रमश: