यह संकट बहुत बड़ा था,स्थिति की गम्भीरता को स्वामी जी भांप चुके थे....उन्होंने मुझे महाभारत काल की पवित्र भस्म से भरा हुआ एक अभिमन्त्रित ताबीज़ दिया...वह भस्म उस लाक्षागृह से प्राप्त हूई थी,जिसमें पांडवो ने एक लंबा समय बिताया था.....पांडवो के तपोबल की शक्ति के कारण उस भवन के कण कण में विद्यमान पवित्रता उसके जलने के बाद भी नष्ट नही हुई थी .....साथ ही स्वामी बटुकनाथ जी ने शीघ्र ही स्वयं भी देवगढ़ आने का आश्वासन देकर मुझे काशी से विदा किया।
अब देवगढ़ जाते वक्त मेरे पास उस शैतान अर्थात वैट वुल्फा के इतिहास से जुड़े सारे राज मौजूद थे, साथ ही उससे निपटने के कुछ नायाब तरीके भी,जो कि स्वामी जी ने मुझे बताये थे......पालमपुर पहुंच कर मैं देवगढ़ जाने वाली उसी ट्रेन में बैठा, जिस एक मात्र ट्रेन को सुबह शाम हरी झंडी दिखाकर रवाना करने के किये मुझे देवगढ़ में तैनात किया गया था.......स्टेशन मास्टर होने के नाते मुझे आवोभगत के साथ ट्रेन के इंजन में बैठाया गया ...क्योंकि एयरकंडीशनर कोच तो उन दिनों होते नही थे........इसी दौरान मेरी मुलाकात हुई ड्यूक ओर्फीन से ,जिसने अभी कुछ दिन पहले ही टीसी के रूप में रेलवे ज्वाइन किया था........ड्यूक बेहद ही विनम्र स्वभाव का था....देवगढ़ पहुंचते पहुंचते मेरी उस से मित्रता हो गयी थी.......बातों ही बातों में मुझे पता चला कि ड्यूक भूत,प्रेत,आत्माओं को अंधविश्वास मानता है एवं इन सब पर जरा भी भरोसा नही करता है.....इसी कारण से ड्यूक से मैंने देवगढ़ में चल रहे घटनाक्रम के बारे में जिक्र करना उचित नही समझा........और स्टेशन से सीधा अपने घर पहुंचा......
इन तीन दिनों से मैं अपने परिवार के बारे में चिंतित था...पर जब घर पहुंचा तो सब को कुशल देख कर मुझे सुकून मिला.....मां ने बताया कि पिछले तीन दिनों से किसी भी प्रकार की कोई रहस्मय गतिविधि आसपास नही हुई है........मैंने उनको स्वामी जी द्वारा बताई गई एक एक बात को बताया.....काली शक्तियों से जुड़े हुए सदियों पुराने इतने गूढ़ रहस्यों के बारे में सुन कर मां भी हैरान थी....कुछ दिनों बाद स्वामी बटुकनाथ जी स्वंय अपने लाव लश्कर के साथ देवगढ़ आये, जब उन्हें भी उस बैट-वुल्फा के द्वारा किसी भी नई गतिविधि को अंजाम न देने की खबर दी गयी तो उन्हें भी विश्वास नही हुआ......उन्होंने बताया कि यह निश्चित ही उसकी कोई चाल होगी, सदियों से कैद में रहने के बाद अभी अभी आजाद हुआ वह शैतान अपनी पूर्ण शक्ति हासिल करना चाहता होगा.....वह क्लियोथुम्बा को भी आजाद कराने का प्रयास कर रहा होगा......इसलिए वह उन दोनों के संयुक्त रूप 'तिमिरा' में बदलने से पहले तक स्वंय के ऊपर कोई खतरा मोल नही लेना चाहता होगा.......शायद इसी लिए उसने स्वयं को कहीं किसी अंधेरे कोने में छिपा लिया है......हम सभी एवं वहां मौजूद लोगो की भीड़ के साथ स्वामी जी पास मौजूद उस शिव मंदिर भी गए,जहाँ पर उस पवित्र हीरे को स्थापित किया गया था.........स्वामी जी ने भगवान शंकर की प्राचीन पाषाण मूर्ति को कुछ देर तक निहारने के बाद,पहले तो हाथ जोड़ कर उनसे प्रार्थना की......उसके बाद उनके दाहिने पैर को लगातार सात बार अपने सिर से स्पर्श किया...........शायद यह हमारे प्राचीन काल के विज्ञान एवं वास्तुकला का अनोखा मिश्रण ही था कि उनके ऐसा करते ही मन्दिर के गर्भगृह की दीवार का वह स्थल जहां पर पूजा के बाद दीपक वगैरह रखे जाते थे.....वहां के दो पत्थर अपने आप ही खिसकने लगे....और वहां पर एक छोटा सा गुप्त स्थान नजर आने लगा.....चौकोर सुरंगनुमा इस स्थान पर धातु की स्टैंड्नुमा आकृति बनी हुई थी.....उसके ऊपर ढेर सारे फलको के बीच कोई वस्तु रखने की जगह तो थी....पर वहां कोई भी वस्तु मौजूद नही थी......
यह देखकर स्वामी जी चौंक गए....वह प्राचीन अभिमन्त्रित हीरा यहां से किसी के द्वारा चोरी किया गया था।
स्वामी जी ने उस धातु के स्टैंड को हाथ से स्पर्श किया ,आंखे बंद की एवं कुछ देर ध्यान मग्न रहने के बाद मेरी ओर देख कर कहा......एक माह पूर्व ही यहां से हीरा किसी ने चुराया है.....और उसे चुराने वाला चोर भी इस समय हमारे सामने खड़ी इस भीड़ में ही मौजूद है.....फिर स्वामी जी ने क्रोधित होते हुए चेतावनी दी कि यदि तुरन्त ही वह चोर भीड़ से निकल कर सामने नही आया....तो अंजाम बहुत बुरा होगा......स्वामी जी की चेतावनी को सुनकर भीड़ में ही मौजूद सुमेर नाम का एक मजदूर डरते हुए सामने आया और उसने स्वीकार किया कि वह प्रतिदिन इस मंदिर में पूजा के लिए आता था, एक दिन वह आर्थिक तंगी के चलते भगवान के पैरों में अपना सिर पटकते हुए मदद मांग रहा था.....तभी अचानक से दीवार के दो पत्थर खिसक गए,और हीरे की चमक से मन्दिर जगमगा उठा....उसने उस जगमगाते हुए हीरे को भगवान से मिला आशीर्वाद समझ कर उठा कर अपने पास रख लिया.....और फिर पैसो की चाहत में उसे देवगढ़ कस्बे के ही एक सोना चांदी का व्यापार करने वाले दुकानदार को कुछ पैसों में बेंच दिया.......
स्वामी जी ने बताया कि यदि वह हीरा यथास्थान नही रखा गया तो किसी भी वक्त वह दूसरी काली शक्ति अर्थात 'किल्योथुम्बा' भी आजाद हो जाएगी.......
उसी मजदूर सुमेर ने अपनी गलती के लिए सबसे माफी मांगते हुए बहुत जल्दी ही किसी भी प्रकार से वह हीरा वापस लाने का वायदा किया।
स्वामी जी ने वैट वुल्फा को वापस बुलाने के लिये एक 'वैदिक व्यूह' की रचना की......जिसके बीचोबीच उसी प्राचीन कलश को रखा गया......उसके बाद उन्होने एक दिव्य यज्ञ का आरम्भ किया........यज्ञ समाप्ति के बाद जैसे ही पूर्णाहुति दी गयी.......वैदिक शक्तियों ने कहीं दूर अंधेरे के गर्भ में छिपे वैटवुल्फा को उसकी काली शक्तियों सहित खींच कर वैदिक चक्रव्यूह के बीचोबीच रखे कलश में एक बार पुनःकैद कर दिया.......स्वामी जी की वैदिक शक्तियों ने काली शक्तियों पर बड़ी आसानी से विजय प्राप्त कर ली थी यह देख कर हम सभी उत्साहित थे....मगर स्वामी जी ने हमें आगाह किया कि यह जीत जश्न मनाने के लिए नही है.....उन्होंने बताया कि आसपास ही मौजूद दूसरे कलश तक उनकी मानसिक तरंगे नही पहुंच पा रही है......इसलिए उसकी स्थिति ज्ञात नही हो पा रही है......अभी भी दो काम बहुत जरूरी है,एक तो उस हीरे को यथास्थान रखना,और दूसरा इस बात का ध्यान रखना की दूसरे कलश में छिपी वह काली शक्ति भी भविष्य में कभी आजाद न हो पाए।
उन्होंने मुझे एकांत में बताया कि यदि भविष्य में किसी भी तरह से यह दोनों काली शक्तियां आपस में मिलकर 'तिमिरा' को पुनः जीवित करती है.....तो उसका अंत संसार में सिर्फ सम्राट पोरस के किसी वंशज द्वारा ही इस प्राचीन मंदिर मे मौजूद शिवजी के त्रिशूल द्वारा किया जा सकेगा.....अन्यथा उसको काबू में करने का दूसरा कोई उपाय नही।
फिर स्वामी जी मेरी माँ को वह हीरा वापस आने पर मन्दिर में स्थापित करने की जिम्मेदारी सौंप कर वहां से चले गए,साथ में वह कलश भी ले गए।
उस मजदूर 'सुमेर' ने अपना वायदा निभाया,एवं कुछ ही दिन बाद वह हीरा उस व्यापारी के यहां से चुरा लिया,वह उसके स्थान पर उसने हीरे के बदले में व्यापारी से ली गयी रकम वापस रख दी........
मां ने हीरे को विधि विधान के साथ वापस मन्दिर में उसी स्थान पर स्थापित कराया......वैसे तो हीरे का राज सार्वजनिक हो जाने से उसके दोबारा चोरी किये जाने की आशंका बढ़ गयी थी,पर चूंकि यह राज सिर्फ स्टेशन परिसर में रहने वाले मजदूरों को ही पता था......और साथ ही उनको हीरे के न होने के अभाव में उससे होने वाले नुकसान की भी जानकारी थी,इसलिए हीरे के दोबारा चोरी किये जाने की गुंजाइश भी खत्म हो गयी थी।
सब कुछ सामान्य चलने लगा था....और इस घटना को पूरे ढाई वर्ष बीत चुके थे......फिर एक दिन आया वह काला दिन.......अर्थात 5 दिसम्बर 1980......काली शक्तियो ने ढाई साल पहले जो षड्यंत्र रचा था,उसमे उलझ कर स्वामी बटुकनाथ जी भी भ्रमित हो गए थे,जबकि सच्चाई कुछ और ही थी....जो बहुत ही जल्दी सामने आने वाली थी.....और इस सच्चाई ने ऐसा घाव दिया था कि इस 5 दिसम्बर को जीवन भर मैंने एक काले दिवस के रूप में ही याद किया।
रैलवेट्रैक की जर्जर हो चुकी पटरियों को बदलने के काम का आज अंतिम दिन था... बड़े स्तर पर काम चल रहा था,बहुत से मजदूर बाहर से आये हुए थे.....,तभी अचानक से एक मजदूर अपने साथी को पास बुलाते हुए खुशी से चीखा......."यह देखो मुझे क्या मिला है?.....एक पुराना कलश......."
.....कहानी जारी रहेगी....