dream doll in English Short Stories by Smriti Singh books and stories PDF | ख़्वाबों की गुड़िया

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ख़्वाबों की गुड़िया

रात के क़रीब ढाई बज रहे थे कि मेरे फ़ोन की रोशनी ने मेरा ध्यान अपनी ओर खींचा। वैसे तो मैं सोते वक़्त अपना फ़ोन "डो नॉट डिस्टर्ब" में रखती हूँ, पर ना जाने कैसे आज मेरे ध्यान से ये बात उतर गयी थी। फ़ोन की ओर मूडी तो देखा की उस पर एक मेसिज आया हुआ था। पहले तो काफ़ी जतन किया की उसे नज़रंदाज़ कर दु और अपने सपने की ओर बढ़ जाऊँ, मगर जाने क्यूँ मन में एक जिज्ञासा सी उठी और मेरा हाथ खुद ही फ़ोन की ओर बढ़ा।


मेसिज मेरी सबसे पक्की सहेली निशा का था। वैसे तो निशा मुझे इतनी रात कभी मेसिज करती नहीं, इसलिए उसके इस हरकत ने मुझे थोड़ा सा चौंका दिया था। मैंने झट से फ़ोन खोला, और देखा, उस मेसिज में सिर्फ़ इतना लिखा था की


"मैं बहुत मुश्किल में हूँ, प्लीज़ मुझे जल्द से जल्द कॉल करो। मुझे तुमसे कुछ बहुत ज़रूरी बात करनी है।"


मैं बिलकुल सहम सी गयी थी क्यूँकि मुझे अंदाज़ा लग चुका था कि मेरी दोस्त वाक़ई में किसी मुसीबत में है वरना वो कभी ऐसे नहीं बोलती।


उस वक्त मुझे वक्त का ख़याल भी ना रहा और मैं बिस्तर से उठ कर बाहर वाले कमरे में जाते ही उसे कॉल किया। फ़ोन की घंटी अभी एक बार भी नहीं बजी होगी की उसने फ़ोन उठा लिया था। मुझे लगा कि वो मुझसे अपनी परेशानी, अपना दुःख बाटेंगी, पर फ़ोन उठाते ही उसकी आवाज़ मुझे अस्थिर करने लगी। वो सिर्फ़ रो रही थी, काँप रही थी। मैंने पहले कभी उसे ऐसी हालत में नहीं देखा था, मेरी फ़िक्र अब बढ़ने लगी थी।


"प्लीज़ बता निशा, क्या हुआ? सब ठीक तो है ना? इतनी रात को फ़ोन किया तूने, तू है कहाँ?"


जितनी देर वो रोयी, उतने ही सवाल मैंने उससे पूछा। तभी एक हल्की सी आवाज़ मेरे कान में आयी। उसकी दबी हुई आवाज़ सुनने के लिए मैंने फ़ोन को अपने कान से थोड़ा और कस कर दबाया।


"मैं बहुत मुसीबत में हूँ और मैं समझ नहीं पा रही हूँ की मैं क्या करूँ?", घबराते हुए उसने कहा। उसकी आवाज़ में अब भी मुझे सिसकियाँ सुनाई दे रही थी।


"क्या बात है निशा, प्लीज़ तू मुझे खुल कर बता।", इस बार थोड़ी सकती से मैंने उससे पूछा। मेरी बेचैनी अब बढ़ती ही जा रही थी।


"अभी मैं अपने घर पे हूँ, और सबसे छुप कर तुझे फ़ोन कर रही हूँ। अगर मुझे किसी ने देख लिया तो बहुत गड़बड़ हो जाएगी।", इतना कह कर वो छुप हो गयी। ऐसा लगा जैसे अपने आस-पास किसी के होने की शंका उसे डरा रही हो।


"ठीक है फिर मैं तुझसे मिलने आती हूँ।", मैंने अपनी गाड़ी की चाभी ढूँढते हुए कहा।


"नहीं रोशनी! प्लीज़ तुम अभी मत आना, मैं तुमसे अभी नहीं मिल सकती हूँ। मेरा घर से निकलना भी मुश्किल होते जा रहा है। दरसल, मैं माँ बनने वाली हूँ।" ये कह कर वो थोड़ी शांत सी हो गयी।


"अरे वाह! ये तो बहुत ख़ुशी की बात है, निशा!" मैं अपनी भावनायें वक्त करते हुए उसे ढेर सारी बधाइयाँ दी। एक पल के लिए तो मुझे लगा की उसके ये आँसु, ख़ुशी के थे। जितना मैं उसे जानती हूँ वो एक बहुत ही इमोशनल लड़की है।मगर उसकी सिसकियों और शब्दों ने मेरा ये भ्रम तोड़ दिया।


उसने कहा, "मेरे घरवाले नहीं चाहते है की मैं इस बच्चे को जनम दूँ। वो लोग चाहते है की..."


अभी उसकी बात खतम हुई भी नहीं थी की, कॉल एकदम से कट गया। मैंने कई बार "हेलो, हेलो" बोला मगर उधर से जवाब आना बंद हो चुका था, मानो पूरे कमरे में एक सन्नाटा सा छा गया हो। वक्त देखा तो रात के क़रीब तीन बजने को आए थे। मैंने फिर से उसे फ़ोन लगाना चाहा मगर जितनी बार मैं उसे फ़ोन करती उतनी बार उसका फ़ोन बंद बताता। मुझे समझ नहीं आ रहा था की मैं क्या करूँ? उसके घर भी नहीं जा सकती थी। मैं वापस अपने कमरे में आ गयी, मन में तरह तरह के ख़याल और प्रश्न उठ रहे थे। आँख़े बंद तो थी मगर मेरी नींद उड़ गयी थी।


मुझे आज भी याद है जब मैंने निशा को पहली बार हमारे हॉस्टल में देखा था। वैसे तो मेरी एक दोस्त ने हमें मिलवाया था, मगर हमें दोस्त बनने में ज़्यादा वक्त नहीं लगा। क्या बताऊँ निशा के बारे में, हमारे यूनिवर्सिटी की टॉपर थी वो, चित्रकारी में अव्वल, नाच गाने में भी हमेशा आगे और खूबसूरत तो इतनी की कॉलेज का हर लड़का उससे बस एक बार बात करने की तलाश में रहता। मन में कभी कोई छल नहीं, किसी के लिए बैर नहीं, किसी से कोई शिकायत नहीं। मुझे ऐसा लगता की अगर मेरे अंदर इतने गुण होते तो मैं हमेशा सातवें आसमाँ पे रहती, मगर मैंने कभी निशा में ये घमंड नहीं देखा था। वो सबसे प्यार से बातें करती, उन्हें वक्त देती, समझती, समझाती, गलती करने पे ग़ुस्सा करती, डाँटती, मेरे साथ बाहर बैठ गाने गाती, बारिश में हम साथ भीगते।


मस्ती से भरी ऐसी चुलबुल सी लड़की को जब आज रोते हुए सुना तो मेरा दिल एकदम से बैठ गया।मैंने तो यही सोचा था कि जो लड़की इतनी पर्फ़ेक्ट है, उसकी ज़िंदगी भी पर्फ़ेक्ट होगी और शायद कुछ समय तक ऐसा हुआ भी। अपने आगे की पढ़ाई पूरी करने लिए वो यू॰एस॰ चली गयी। उसी दौरान मुझे यह पता चला की वहाँ पर वो एक लड़के से काफ़ी क़रीब आ चुकी है और मन ही मन उसे चाहने भी लगी है। निशा थी ही ऐसी की उसे ना चाहना किसी के लिए भी मुश्किल था। कुछ ही दिन बाद उसने मुझे बताया की उस लड़के ने भी अपने मन की बाद निशा से कह दी है। मैं निशा के किए बेहद ख़ुश थी मगर दोनो के घरवाले उनके शादी के ख़िलाफ़ थे। काफ़ी जतन और प्रयास करके दोनो ने अपने घरवालों को मनाया और देखते ही देखते कुछ ही साल में उनकी शादी भी हो गयी।


उसके ससुराल वालों के सख़्त एवं प्रभुत्व स्वभाव के कारण उसकी शादी भी उसके मनचाहे तरीक़े से नहीं हुई। शादी के बाद वो हरियाणा के छोटे से सहर में रहने लगी। ससुराल वाले भी एक एक करके उसके ऊपर कई सारी पाबंदिया लगने लगे थे। बाहर घूमने नहीं जाना, बाल बांध कर रखना, सर पर पल्लू लेना, साड़ी पहना, बाई को छुट्टी दे दिया गया था, यहाँ तक की अब उसे अपना काम भी छोड़ना पड़ गया था। कई बार मैंने उसे पूछा कि वो क्यूँ उनकी सारी बातें मानती है और क्यूँ नहीं वो अपने हक के लिए लड़ती है।


"क्यूँकि शादी हमने अपने मर्ज़ी से की है, और कुछ ना सही इतनी ख़ुशी तो हम दे ही सकते है उन्हें", इतना कह कर वो हमेशा मुझे चुप करा देती थी।


पर आज ना जाने मुझे चुप रहने की इच्छा नहीं थी। मुझे इतना आभास हो गया था की ज़रूर कोई संकीर्ण सोच रही होगी उसके ससुराल वालों की ऐसा कहने में की उन्हें बच्चा नहीं चाहिए।


अगले दिन, सुबह होते मैंने उसे फिर से फ़ोन करने की कोशिश की, मगर उसका फ़ोन अभी भी बंद पड़ा था। उसने घर आने से भी माना किया था, ऐसे में मुझे समझ नहीं आ रहा था की मैं क्या करूँ। जैसे-जैसे दिन ढलते गया मेरी सोच मुझे उतनी ही गहरी और काली होते नज़र आ रही थी, मन में अजीब सी उथल-पुथल मची थी, ख़ौफ़नाक और भयानक सोच मन को घेरने लगे थे। शाम के छः बज गए थे और अब मुझसे रुका नहीं जा रहा था। कहीं ज़्यादा देर ना हो जाए, ऐसा सोच कर मैं उसके घर की ओर निकली। कॉल बेल बजाया तो उसकी सास ने दरवाज़ा खोला।


"आंटी, निशा है क्या? मैं उसकी सहेली रोशनी। हम शादी पर मिले थे। मैं कल रात उससे बात कर ही रही थी, की उसका फ़ोन बंद हो गया। मैं उसे मिल सकती हूँ?", इतना कह कर मैंने उनके जवाब का इंतेज़ार किया।


"निशा यहाँ नहीं है, वो अपने मायके गयी है, पिछले एक हफ़्ते से है वो वहीं है।", इतना कह कर आंटी ने दरवाज़ा मेरे मुँह पर दे मारा।


उनकी बातें सुन कर मुझे लगा कि वाक़ई में निशा शायद अपने मायके गयी हो और शायद मैं ही कुछ ज़्यादा सोच गयी, सब कुछ ठीक ही होगा। अच्छी बात तो ये थी कि उसके घर का नम्बर मेरे पास था। मैंने इस बार बिलकुल भी देर नहीं की और झट से उसके घर पे फ़ोन किया। निशा की माँ ने फ़ोन उठाया।


मैंने अपनी बातें दोहराई, "आंटी, निशा है क्या? मैं उसकी सहेली रोशनी। मैं कल रात उससे बात कर ही रही थी, की उसका फ़ोन बंद हो गया। मैं उससे बात कर सकती हूँ?"


इतने में आंटी ने बोला, "बेटा शायद तुमने ग़लत नम्बर लगा कर दिया है, मैं निशा की माँ बोल रही हूँ और निशा तो अपने ससुराल में है। तुम वहाँ का नम्बर लगा कर देखो, तुम्हारी बात हो जाएगी।"


उनकी बातें सुनकर मुझे थोड़ा चक्कर सा आया। जिस तरह निशा की सास ने मेरे मुँह पर दरवाज़ा मार दिया और मुझसे झूठ बोला, मैं समझ गयी की ये गुत्थी इतनी आसानी से सुलझने वाली है नहीं। मुझे पता था की वापस उसके घर जाकर कोई फ़ायदा नहीं, मगर मैं फिर भी अपनी हिम्मत बटोर कर दोबारा वहाँ गयी।


"मुझे पता है निशा यहीं है, मुझे उससे अभी मिलना है। निशा! निशा! कहाँ हो तुम!", एकदम से शोर करते हुए, इस बार मैं बेधड़क घर के अंदर घुस गयी। सामने से यश को जब आते हुए देखा तो मेरी सारी भड़ास उसपर निकल गयी।


"तुम्हारी पत्नी है वो यश! तुम्हारे भरोसे यहाँ आयी है, यहाँ रहती है, तुम्हारे घरवालों की ख़ुशी के किए अपनी सारी ख़्वाहिशों को मार दिया है उसने! उसकी ज़िंदगी सिर्फ़ तुम लोगों को खुश करने तक सिमट कर रह गयी है। मुझे अभी बता दो कि निशा कहाँ है।", मेरे बर्दाश्त की अब कोई सीमा नहीं बची थी।


यश ने मुझ पर झल्लाते हुए, उसके घर और उसके पारिवारिक चीजों से दूर रहने की धमकी दी। उसने ऐसा जताया की वो ये सब कुछ अपने तरीक़े से सम्भाल लेगा और मेरा दख़ल देना मुझ पर भारी पड़ सकता है। मैंने जितना आसान समझा था ये उतना ही मुश्किल होते जा रहा था और वहाँ की परिस्थिति मेरे हाथ से फिसलती हुई दिखायी दे रही थी। पूरा घर अचानक से शांत हो गया था।


मैं धीमे कदमों से एक बार फिर घर के बाहर जा रही थी। फिर मैंने सोच की कैसे मेरे हर सुख दुःख में निशा ने मेरा साथ दिया है, मुझे समझाया है, मेरे साथ खड़ी रही है। ये सब सोचते ही मैंने फ़ैसला कर लिया की मैं इतनी आसानी से हिम्मत नहीं हारूँगी।


मैं वापस मूडी, "बस! बहुत हो गया आप लोग का ड्रामा। अब और नहीं।"


मैंने घर के एक-एक दरवाज़े को खोलना शुरू किया। जैसे ही मैंने निशा और यश का दरवाज़ा खोला, मैंने सामने निशा को बेहोशी के हालत में पाया। एक पल के लिए तो मुझे समझ ही नहीं आया की हुआ क्या है और मैं करूँ क्या। जैसे ही मैं उसके पास गयी मैंने देखा की उसे काफ़ी सारी गहरी चोटें लगी है। उसके हाथों में चूड़ियाँ तो थी मगर साथ ही नाखून के निशान भी चुभे हुए थे, उसमें से शायद खून भी निकल कर अब सूख गया था। उसके पेट पर साड़ी लिपटी हुई तो थी मगर एक नीला-काला सा दाग भी दिखाई दे रहा था, मानो जैसे किसी ने बहुत ज़ोर से चोट पहुँचाया हो। उसके पैरों में पायल तो थी मगर साथ ही बेल्ट से पड़े लम्बे-लम्बे गहरे निशान भी साफ़ दिखाई दे रहे थे मानो जैसे कोई बहुत ही बेरहमी से उसे मारा हो। उसकी आँखें सूझी हुई थी, बाल बिखरे पड़े थे, होंठ से खून बह कर सूख गया था, गले पर हाथों के निशान पड़े हुए थे, पीठ पर बेल्ट के निशान साफ़ थे।


यह दृश्य मेरे लिए काफ़ी भयानक था। जी कर रहा था ज़ोर ज़ोर से रोऊँ मगर ये भी पता था की उसे जल्दी किसी हॉस्पिटल लेके जाना होगा। मैंने ऐम्ब्युलन्स को कॉल किया और उसे हॉस्पिटल लेकर गयी। वहाँ उसका इलाज शुरू हुआ। उसके घरवालों को बताने की हिम्मत भी नहीं हो रही थी मुझे। मैं इंतेज़ार कर रही थी की कब उसे होश आए और डॉक्टर मुझे बोले की सब ठीक है।


थोड़ी देर बाद जब डॉक्टर बाहर आयी तो उन्होंने बताया की, "निशा को काफ़ी कमजोरी है, बहुत ज़्यादा खून भी बह चुका है, इंटर्नल ब्लीडिंग है जो रुक नहीं रहा। किसी भारी वस्तु का पेट पे गिरने के करण, उसके बच्चे को बचा नहीं पाए है, ओवरीज़ पर इतनी चोट आयी है की वो अपनी जगह से नीचे खिसक गया है। ऐसा लग रहा है, जैसे किसी ने हाथों से बच्चे के साथ छेड़-छाड़ करने की कोशिश की है। अभी हालात काफ़ी ख़राब है और फ़ौरन ऑपरेशन करना पड़ेगा।"


मुझे पता चल गया था की ये सब कल रात मेरे फ़ोन रखने के बाद ही हुआ होगा। मैंने निशा के घर पर फ़ोन कर उसकी माँ को सब बताया। मेजर ऑपरेशन हुआ, डॉक्टर को ओवरी निकलना पड़ा क्यूँकि ओवरी में कई छेद हो गए थे और वो एकदम ढीला हो गया था। डॉक्टर ने बोला की इस वजह से अब वो कभी माँ नहीं बन पाएगी।


पूरे 27 घंटे बाद उसे जब होश आया तो वो फूट-फूट कर रोने लगी। उसने बताया कि कैसे जबरन उसे हॉस्पिटल ले जाकर टेस्ट करवाया की उसकी कोख में लड़की है या लड़का और जैसे ही खबर मिली कि लड़की है, तो घर में सभी बच्चे को गिराने की बात करने लगे। जब उसने रोकना चाहा तो उसे मारा और बच्चे को गिराने की भी काफ़ी कोशिश की गयी।


"माँ! यह सब सिर्फ़ इसलिए क्यूँकि मेरे अंदर एक लड़की थी? मैं भी तो लड़की हूँ, क्या मैं इतनी बुरी हूँ? और अगर लड़की थी तो इसमें सिर्फ़ मेरी गलती कैसे हुई? क्या ये बच्ची सिर्फ़ मेरा हिस्सा थी? क्या यश को हमारी बच्ची से कोई लगाव नहीं था?", उसकी बातें सुन कर मेरा दिल भर आया।


निशा ने अपने ससुराल वालों के ख़िलाफ़ केस दर्ज किया। यश को पुलिस के हवाले किया गया और बाक़ी सब को भी कुछ वक्त जेल में गुज़ारना पड़ा। निशा ने यश को अब छोड़ने का फ़ैसला कर लिया है। मुझे लगता है की वो बहुत ही बहादुर और हिम्मती है। हालातों से लड़ रही है, अपने आप को काबिल और मज़बूत बना रही है। नए सिरे से अपनी ज़िंदगी शुरू कर रही है, और सबसे पहला कदम उसने अपना काम को दोबारा से शुरू करके किया है, आत्मनिर्भर बन रही है, जो कुछ भी उसने खोया है उसे पाने की कोशिश कर रही है और अब वो अपने बुरे दिनो को पीछे छोड़ कर एक बेहतरीन कल की ओर बढ़ रही है।


भ्रूण हत्या एक सामाजिक एवं मानसिक बीमारी है। सामाजिक, क्यूँकि कई बार हम ये नहीं सोचते की हमें क्या पसंद है या हमारे घरवालों की ख़ुशी किस में है, हम ये ज़्यादा सोच बैठते है की समाज क्या सोचेगा, समाज में हमारी हैसियत कैसे रहेगी। मानसिक, क्यूँकि कई बार हम यह नहीं सोच पाते की लड़का हो या लड़की, औलाद का सूख ज़रूरी है। आज कल लड़कियाँ लड़कों से किसी भी मामले में पीछे नहीं है। इसलिए ये विचार और सोच को बदलना होगा कि, सिर्फ़ लड़का ही घर का चिराग़ कहला सकता है।


एक लड़की अपना सब कुछ पीछे छोड़ अपने पति के भरोसे उसके घर आती है। ऐसे में एक अच्छे पति का यह फ़र्ज़ बनता है की वो उसे खुश रखें, उसकी इज़्ज़त करें, उसे प्यार दें, उसे अपने घर में सभी के साथ घुला-मिला कर रखें, उसकी चोटी-चोटी पीड़ा और आशाओं को समझे, उसे आज़ादी दें, उसकी भावनायें समझे। हर स्त्री को हक़ है काम करने का। मुझे ऐसा लगता है की, किसी भी स्त्री को अपना काम कभी नहीं छोड़ना चाहिए क्यूँकि एक औरत का काम कर के पैसे कामना उसे निडर बनता है, उसे स्वतंत्रता से फ़ैसले लेने का हिम्मत देता है, उसका आत्मबल को बढ़ाता है।


निशा के साथ घटी इस घटना से मैं ये सिखा है की जब तक आप अपने पैरों पर खड़े नहीं है तब तक आप कोई भी फ़ैसला खुद से करने में सक्षम नहीं हो पाते है, इसलिए अपने पैरों पे खड़े होए और अपने ज़िंदगी का फ़ैसला खुद से करे। फिर देखें, ज़िंदगी आपको परिस्थितियों से लड़ने का साहस भी देगी और बेझिझक उड़ने के लिए आसमान भी देगी।