Udas Chehra in Hindi Moral Stories by Dr. Suryapal Singh books and stories PDF | उदास चेहरा

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उदास चेहरा


अपराह्न दो बजे का समय। गोण्डा का बस स्टेशन। दिल्ली जाने वाली बस में लोग बैठ रहे हैं। चालक और परिचालक दिल्ली.........दिल्ली की हाँक लगाते हुए। अभी बस भरी नहीं है। कभी कभी तो एक दम ठसाठस भर जाती है पर आज अभी आधी ही भर पाई है।
बस में एक तेरह साल का लड़का लोचन उदास बैठा है। अगल-बगल के लोग उतर गए हैं। सीट मिल गई है इसलिए आश्वस्त हैं। कोई गुटका कोई पान खा रहा है। सत्तर साल का एक आदमी आता है। बच्चे के सामने बैठ जाता है। उसके हाथ हलके से कांपते हैं।
'बच्चा ठीक से रह्यो । जो कुछ कहिहैं वह का किह्यो।' उसने कहा। कहते कहते उसकी आँखें भर आईं।
'बच्चा खुश रहेव।' बच्चा उसी तरह उदास है जैसे उसका दिमाग कहीं और हो । वृद्ध उतर जाता है। गांव के जगमोहन और ईश्वर के साथ बच्चे को भेज रहा है।’ उनसे बात करने लगता है।
'भैया आपै के सहारे भेजित है।' कहते हुए वृद्ध स्वयं विचलित हो उठता है।
'बाबा आप चिन्ता न करो। हम उसको काम पर लगवा देंगे। दस साल हो गया दिल्ली रहते.......।’ जगमोहन बोल उठा ।
'वहिका रोटी बनावै, नाहीं आवत ।'
एक बार फिर जैसे वृद्ध चिंहुक उठा।
'बाबा सब सीख जाएगा। आप परेशान न हों।' ईश्वर ने समझाया।
'अब हीं अबोल है भैया ।'
'देख रहा हूँ बाबा। हम पूरी देख रेख रखेंगे।'
पान को चबाते हुए जगमोहन ने कहा।
'बाबा आपौ पान खाव।' ईश्वर कहने लगे ।
'नहीं भैया पान न खाब मुला हमरे नतिया का देखे रहेंव।' वृद्ध कहता रहा।
"बाबा आप निश्चिन्त रहो।' जगमोहन विश्वास दिलाते रहे।
वृद्ध पुनः बस में बच्चे के सामने बैठ जाता है। बच्चे का चेहरा अब भी उदास है जैसे गांव, घर, गुल्ली डंडा का खेल, संगी साथी, अपना प्राथमिक स्कूल सभी उसे एक एक कर याद आ रहे हों। मां के सामने कभी कभी वह ज़िद कर लेता था पर अब ? वह ज़िद करने का साहस नहीं कर सकेगा। उसे याद आ रहा है उसका दो बीघा खेत जिसमें काम करने के लिए वह बाबा के साथ जाता था। काली थान पर लगा वह नीम का पेड़ अब वह वर्षों नहीं देख पाएगा। माँ घर पर रोती होगी। वह दस साल का था तभी तो काका को अचानक दौरा पड़ा। वे बच्चे को छोड़कर चले गए। उसके पिता को और लोग काका कहते थे। वह भी उन्हें काका कहने लगा। उसका मन करता कि वह जोर से चीखे- 'काका', पर ऐसा कुछ नहीं हुआ। वह उसी तरह चुप बैठा है अपनी सीट पर .........चेहरा उदास। काका के मरने के बाद ही उसकी पढ़ाई छूटी।
बाबा से अब काम कम सधता। वे मजदूरी के लिए जाते पर उन्हें काम कम ही मिल पाता। कई बार शहर के चौराहे पर लगने वाली श्रमिकों की बाजार से बैरंग वापस आना पड़ा है। बाबा को काम पर कोई तभी रखता जब कोई नवजवान न मिल पाता। पढ़ाई छोड़ने के बाद लोचन अपने बाबा के साथ कभी कभी श्रमिकों की बाजार में गया है। उसे भी कभी काम मिला कभी नहीं भी।
लोचन के गांव के कुछ लोग दिल्ली में रहते हैं । आज़ादी के पहले लोग कलकत्ता, लाहोर, करांची, रंगून जाते थे काम की तलाश में। अब प्रायः लोग बम्बई, लुधियाना, दिल्ली भागते हैं। गांव में ईश्वर और जगमोहन दिल्ली से घर आए थे। वे आज बस से दिल्ली जा रहे हैं। रेल से बिना आरक्षण के जाना बहुत कष्टकर होता है इसीलिए बस से। इसमें कम से कम सीट तो मिल जाती है। लोचन के बाबा ने ईश्वर से कहा, 'भैया हमरे लोचन को भी..........।' कहते कहते बाबा रो पड़े थे। ईश्वर उसे ले जाने के लिए तैयार हो गए। लोचन के बाबा उसे बस में बिठाने आए हैं।
बस चालक अपनी सीट पर आकर बैठ गया है। परिचालक अब भी 'दिल्ली दिल्ली' की पुकार लगा रहा है। चालक ने बस को स्टार्ट कर दिया। लोग जल्दी जल्दी बस में बैठते हैं। बाबा बस से उतर जाते हैं। परिचालक ने एक सीटी मारी। बस लगभग भर गई है। पीछे की केवल पांच सीटें खाली हैं। बस रेंग चली। लोचन बाबा की ओ देखते चिल्लाना चाहता है 'बाबा' पर शब्द नहीं फूटते।
बस चली गई। बाबा को चक्कर आ गया। वे सिर थाम कर बैठ गए। उनकी आँखों से आँसू झरने लगे। धोती के एक कोने से उन्होंने आँसू पोछा। पास ही खड़ी एक छोटी लड़की बाबा को आँसू पोछते देख बोल पड़ी, 'बाबा इतने बड़े होकर रोते हो ?"