चुनाव हुए और चुनावों का नतीजा उम्मीद मुताबिक ही था। यादवेंद्र की पार्टी 'जन उद्धार संघ' सत्ता में आई। विधायक दल का नेता चुनने में ज्यादा विरोध नहीं हुआ, क्योंकिं विरोध करने वाले कुछ तो पार्टी छोड़ गए थे और जो वापिस आए थे उनको अपनी औकात का अहसास हो चुका था। पुराने नेता राम सहाय मुख्यमंत्री बने और उनके मुख्यमंत्री बनने का अर्थ था, शंभूदीन का मंत्री बनना क्योंकि वह तो मुख्यमंत्री महोदय का दाहिनी हाथ था। जब पार्टी सत्ता में नहीं थी, तब शंभूदीन की वफादारी ने और ज्यादा प्रभावित किया था।
यादवेंद्र के लिए अब करने को बहुत काम थे। सबसे पहले तो उसको केस से बरी होना था। यादवेंद्र ने इसके लिए मंत्री जी से बात की। मंत्री जी ने बताया, "कार्यवाही तो कानूनी ढंग से ही होगी।"
"मतलब सरकार बनने का भी मुझे कोई फायदा नहीं।"
"मैंने ऐसा कब कहा।"
"कानूनी कार्यवाही होने का मतलब तो यही हुआ ना।"
"तुम बहुत भोले हो यादवेंद्र। मेरे कहने का अर्थ था कि विधानपालिका को इतना अधिकार नहीं कि वह न्यायपालिका को अपने ढंग से चलने के लिए विवश करे। हाँ, हम कार्यपालिका का साथ लेंगे। केस को कमजोर रखने की कोशिश तो हमने तब भी की थी, अब इसे और कमजोर करने का प्रयास करेंगे। गवाहों को मुकरवाएँगे।"
"क्या फैसला जल्दी नहीं हो सकता।"
"हमें क्या लेना है फैसला करवाकर। चलते हुए केस तो नेताओं के गहने हैं। इसी गहने को हमने अब भुनाया है और आगे भी भुनाएँगे। आगे केस खत्म करवा दिया तो हमारे साथ न्यायपालिका भी बदनाम होगी। हम पर भी आरोप लगेंगे कि हम तो कोर्ट को भी स्वतंत्र नहीं रहने दे रहे।"
"लेकिन जब तक फैसला नहीं होगा, तब तक चिंता तो बनी रहेगी।"
"चिंताएँ कभी खत्म हुई हैं यादवेंद्र? फिर इस बारे में तुझे कहा ही था कि यह फैसला कम-से-कम बीस साल नहीं होगा। देख पाँच तो निकल गए। जब सत्ता से बाहर होने पर तेरा कुछ नहीं बिगड़ा, तो अब भी कुछ नहीं बिगड़ेगा।
यादवेंद्र को यह बात कुछ हद तक जँची भी। फिर विरोध करने का कोई फायदा भी नहीं था। होना तो वैसा ही है, जैसा मंत्री जी चाहेंगे। यादवेंद्र ने अब दूसरी समस्या रखी, "नेता जी पिछले पाँच सालों में बहुत नुकसान हो गया, इसके बारे में भी सोचें।"
"सब सोचा हुआ है, तू निश्चिंत रह।"
"इस बार हम पुराना धंधा नहीं करेंगे।
"क्यों, डर गया?" - मंत्री जी ने मजाक किया।
"आप जो भी समझें।" - यादवेंद्र ने लगभग सहमति दी।
"इस बार तुझे वो काम नहीं देंगे, अपितु उससे बेहतर देंगे।"
"क्या?" - यादवेंद्र ने उत्सुकता से कहा।
"इस बार तुझे शराब के ठेके दिलवाएँगे और यह कानूनी काम है, इसमें कोई खतरा नहीं, साथ ही ऐसा काम भी करेंगे जिससे पहले से भी ज्यादा कमाई हो।"
"मैं कुछ समझा नहीं।"
"शराब के ठेके मिलने से कोई यह नहीं कह सकेगा कि यह गैरकानूनी काम है। एक नम्बर की कमाई होगी, लेकिन इस कमाई से अपना काम नहीं चलेगा, इसलिए नशे का धंधा तो करना ही पड़ेगा।"
"नहीं नेता जी, कम खा लेंगे। मुझे शराब के ठेके ही काफी हैं। मुझे इस बार अपने फॉर्म हाउस पर कुछ नहीं रखना।"
"तेरे फॉर्म हाउस पर अब कुछ नहीं रखा जाएगा। दौर बदल गया है, तो नशा भी बदल गया है और हम भी अपना तरीका बदलेंगे।
"आपकी पहेलियाँ मुझे समझ नहीं आ रही।"
"देख यादवेंद्र शराब बेचने से हमारी पहुंच हर गाँव में नशे करने वालों पर हो जाएगी। शराब के ठेकों या गाँव के नशेड़ियों के जरिए अब हम स्मैक यानी चिट्टा पहुँचाएँगे।"
"नेता जी, यह नहीं होगा।"
"यह तो तुझे करना ही है।" - नेता जी ने आदेश जारी किया। जैसे शैतान की जान तोते में अटकी होती है, वैसी ही स्थिति यादवेंद्र की थी। मंत्री जी के खिलाफ जाना खतरे से खाली नहीं था। उधर नेता जी यादवेंद्र को ब्लैकमेल तो कर रहे थे, मगर उसे यह अहसास नहीं होने देना चाह रहे थे, इसलिए उसे प्यार से समझाया कि कमाई इसी में है। यह धंधा हम न करेंगे तो कोई और करेगा। पिछली बार तो हमारे पास इतना माल था, तब हमारा कुछ नहीं बिगड़ा, इस बार तो हम एक ग्राम स्मैक भी अपने पास नहीं रखेंगे। मैं तो सदा से तेरे साथ हूँ। माल कहाँ से कहाँ, कौन लाएगा और किसके पास जाएगा, इसके बारे में तुझे बता दिया जाएगा। तूने सिर्फ डील करनी है।"
"पर...' - यादवेंद्र अभी भी घबराया हुआ था।
"पर, वर छोड़, दिलेर बन और किसी से बात नहीं करनी इस बारे में। घर पर भी नहीं, क्योंकि बात एक से दूसरे तक गई तो समझो उसके हजारों-लाखों तक जानें का रास्ता बन गया।
यादवेंद्र नेता जी से विदा होकर चल दिया। इस बार उन्होंने सोचने के लिए भी नहीं कहा, अपितु सीधा फैसला सुनाया। यादवेंद्र अपने आप को दलदल में धंसा महसूस कर रहा था। वह सोच रहा था कि रमन को जब पता चलेगा तो वह क्या कहेगी। जमानत पर आने के बाद उसने उससे वायदा किया था कि अब वह ऐसा कुछ नहीं करेगा, हालाँकि उस समय वायदा करने का कारण सज़ा का डर था और अब तक डर निकल चुका था, फिर भी वह चाहता था कि इस पचड़े में न पड़े तो ठीक है। मंत्री जी ने उसे समझाया था कि यहाँ अक्सर कहा जाता है कि कानून के हाथ बहुत लंबे हैं, लेकिन यह नहीं दिखाया जाता कि कानून की आँखों पर पट्टी भी है। वह देख नहीं सकता। सिर्फ सुनकर इधर-उधर हाथ मारकर मुजरिमों को पकड़ता है। कानून से दूर भागने का कोई फायदा नहीं, बस कानून के कान में बात बताने वालों को अपने पक्ष में करने की ज़रूरत है, फिर भले उसके लंबे हाथों के नीचे बैठे रहो। यादवेंद्र इस सच से वाकिफ था। सत्ता में न होने और काफी मात्रा में नशा पकड़े जाने के बाद अगर उसका तब कुछ नहीं बिगड़ा तो अब कैसे बिगड़ेगा। यही सोच उसे हौसला देती। यही सोच रमन को किए पुराने वायदे भूल जाने को कहती। घर आकर रमन को उसने इतना बताया कि इस बार पर कानूनी रूप से शराब के ठेके लेगा। रमन उससे सहमत तो नहीं थी, मगर यह भी जानती थी कि यादवेंद्र और कर भी क्या सकता है। वह लट्ठमार है और लठ्ठमारों को ऐसे ही काम मिलते हैं। यह काम दो नम्बर का नहीं, यही सोचकर वह कुछ न बोली। यादवेंद्र का इससे हौसला बढ़ा। उसे लगता था कि रमन नशा बेचने के खिलाफ है, लेकिन शराब के ठेकों पर मौन सहमति पाकर वह नए धंधे के गुर नेता जी से सीखने लगा।