समय का काम है चलते रहना और वह निरंतर चलता जा रहा था। कुछ तो सत्ता में न होने के कारण और कुछ घर का माहौल बढ़िया होने के कारण यादवेंद्र घर में ज्यादा समय व्यतीत करने लगा। यूँ तो यशवंत स्कूल वैन पर आता-जाता था, लेकिन कई बार पार्टी दफ्तर जाते समय उसे साथ ले जाता और कई बार उसकी छूट्टी के समय स्कूल से ले आता। उसकी मर्जी की चीजें खिलाता, खिलौने दिलाता और शाम को अपने साथ ही लेकर आता। रमन कहती कि आप बच्चे को बिगाड़ रहे हो। यादवेंद्र बिगाड़ने का अर्थ जानता था। वह अपने पिता जी की तरह स्कूल में जाकर अध्यापकों को डाँटता नहीं था, अपितु यशवंत को भी समझाता कि अध्यापकों की इज्जत करनी चाहिए। बड़ों से नमस्ते करनी चाहिए, उनका विरोध नहीं करना चाहिए। उसे लगता था कि संस्कार न देना बिगाड़ना है, बच्चे के शौक पूरे करना बिगाड़ना नहीं है। उसने उसको टैबलेट भी खरीदकर दिया हुआ था, जिस पर वह सारा दिन खेलता रहता। रमन इससे भी चिढ़ती, लेकिन इस बात को भी मान जाती कि यह दौर ही ऐसा है। जब उन दोनों के पास मोबाइल है, तो बच्चे तो माँगेगे ही। यादवेंद्र तो अपना फोन देता ही नहीं था, ऐसे में वह रमन का फोन पकड़ लेता। रमन ने किसी से बात करनी होती तो यशवंत फोन देता नहीं था, जब उसके गेम खेलते समय कोई कॉल आ जाती तो कई बार वह कॉल काट देता, जिससे माँ-बेटे में झगड़ा होता। इससे बचने के लिए ही उसे टैबलेट लाकर दे दिया गया। अब तो रश्मि भी मोबाइल के लिए छीना झपटी करती। वैसे रमन उसे अपना मोबाइल दे देती, लेकिन वह यशवंत से उसका टैबलेट छीनती, जिससे दोनों भाई-बहनों में झगड़ा हो जाता। रश्मि अगर छोटी थी, तो बड़ा यशवंत भी नहीं, लेकिन रमन हमेशा यशवंत को कहती ये छोटी है, तू बड़ा है, इसकी बात माना कर।
बच्चों का यह झगड़ना यादवेंद्र को बड़ा परेशान करता। जैसे गधे की दुलत्ती से गधा नहीं मरता, वैसे ही बच्चों के झगड़े से भी बच्चों का कुछ नहीं बिगड़ता। इन्होंने एक पल लड़ना होता है और अगले पल मिलकर खेलना होता है, लेकिन बड़े इसे नहीं समझते, इसलिए बच्चों के झगड़े बहुधा बड़ों को बड़े झगड़े में डाल देते है। यादवेंद्र का बच्चों के झगड़े के बाद लाल-पीला होना इसका ही एक उदाहरण था। यहाँ तो गनीमत ये थे कि दोनों बच्चे अपने थे। वैसे यशवंत और रश्मि में खूब बनती थी। यशवंत अपनी छोटी बहन से बहुत प्यार करता था। बाज़ार में जब भी कुछ खाता, रश्मि के लिए ज़रूर लाता। रश्मि भी भैया-भैया करते उसके पीछे-पीछे रहती, लेकिन खेलते खेलते जब वे लड़ पड़ते, तब यादवेंद्र को लगता कि इन्हें अलग-अलग ही रखा जाना चाहिए। रमन समझाती कि सभी बच्चे ऐसा ही करते हैं, लेकिन यादवेंद्र को यशवंत का रोना बिल्कुल भी अच्छा नहीं लगता था। वह रमन को भी डाँटता कि रश्मि के आने के बाद वह यशवंत को ज्यादा डाँटने लगी है। रमन कहती ऐसा नहीं है, लेकिन सुननी तो छोटे बच्चे की पड़ेगी। यादवेंद्र कई बार सोचता रश्मि उसकी बेटी है, इसके बावजूद वह रश्मि को उतना प्यार नहीं करता, जितना रमन गोद लिए जाने के बावजूद रश्मि से करती है। मौसी की बात अचेतन में पड़े-पड़े असर दिखा रही है, यादवेंद्र को इसका पता ही नहीं चलता।
समय पर लगाकर उड़ा जा रहा था। दूसरे दल की सरकार बने चार साल हो गए थे। रश्मि ने भी स्कूल जाना शुरू कर दिया था। दोनों बच्चों के बड़े हो गए थे। जो चीज यशवंत को मिलती, वह रश्मि को भी मिलती, ऐसे में चीजों को लेकर उनका झगड़ना बंद हो गया था। यशवंत तो अब दोस्तों के साथ बाहर खेलने चला जाता और माँ की लाडली रश्मि घर पर रहती। यादवेंद्र के लिए व्यस्तता बढ़ गई थी। गाँव-गाँव के दौरे होने लगे थे। यादवेंद्र ने पहले कभी सभा को संबोधित नहीं किया था, लेकिन इस बार उसे थोड़ा बोलने को कहा गया। शुरू-शुरू में वह झिझका, लेकिन जल्दी ही वह लोगों के सामने अपनी बात रखने लगा। हर जगह जाकर वह कहता कि वर्तमान सरकार ने कोई काम नहीं किया सिवाय दुश्मनी निकालने के। वह अपना उदाहरण देता कि कैसे उसे झूठे केस में फँसाया गया। जो सच नहीं जानते थे, वे यादवेंद्र की बात को सच मान लेते और जो लोग जानते वे चुप कर जाते क्योंकि इसके विरुद्ध बोलने का मतलब होता उसका दूसरी पार्टी का वर्कर सिद्ध होना, क्योंकि दूसरी पार्टी के वर्कर तो इसी बात का प्रचार कर थे कि उनकी पार्टी ने नशे पर नकेल कसने के लिए इस समुद्र की बड़ी मछली को फाँस लिया है।
चुनाव के दिनों में झूठा-सच्चा प्रचार खूब होता है। दूसरे दल के लोगों के चरित्र पर कीचड़ उछाला जाता है। जनता पर इनका ज्यादा असर होता ही नहीं। हर पार्टी के कुछ प्रतिशत वोट तो पक्के होते है। वे अंधभक्तों की तरह अपनी पार्टी की किसी भी बात को बुरा कहते ही नहीं, अपितु अगर कुछ बुरा हो जाए, तो अपने स्तर पर ही तर्क लेकर आ जाते हैं। जो लोग किसी पार्टी विशेष के समर्थक नहीं होते, वे निजी हित को देख रहे होते हैं। कर्मचारी देख रहे होते हैं कि किसकी सरकार बनने से ज्यादा वेतन बढ़ेगा, किसकी सरकर सरकारी कर्मचारियों के आगे जल्दी झुकती है। किसान देख रहे होते हैं कि कौन सी पार्टी उनके कर्ज माफ करेगी, बिजली फ्री करेगी। सारे बूढ़े बुढापा पेंशन पर नजर जमाए हुए होते हैं, भले ही उनको इसकी जरूरत न हो, लेकिन सरकार जब देती है तो लेने का हक तो बनता ही है। सभी दल बढ़-चढ़कर वायदे कर रहे हैं। चुनाव आयोग ने चुनावों पर खर्च तो निश्चित कर दिया, लेकिन अभी तक यह निश्चित नहीं किया कि आप वायदों के रूप में कितनी लंबी फैंक सकते हो। वायदे कैसे पूरे किए जाएँगे, इसे जानने का अधिकार किसी के पास नहीं, इसलिए सब मुफ्तखोरी को बढ़ावा देने पर तुले हुए हैं। 'जन उद्धार संघ' लोगों को बताता है कि 'लोक सेवा समिति' ने सिर्फ उतने ही काम किए हैं, जिनकी शुरूआत उनके दौर में हो गई थी, जी भर्तियाँ हुई उनमें खर्ची-पर्ची खूब चली। हर किसी को नौकरी मिलती नहीं, इसलिए यह मान लेना बड़ा आसान होता है कि नौकरी तो मिलती ही पैसे और सिफारिश से है और अगर कोई कहता है कि मुझे अपने बल पर मिली है, तो कहा जाता 5-10 प्रतिशत को ही योग्यता से मिलती है। ऐसा नहीं कि यह झूठ था कि इस सरकार में पर्ची-खर्ची चली। यह सच था, अपितु यह तो हर सरकार का है, लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि शत-प्रतिशत भर्ती सिफारिश से होती है। आटे में नमक चलता ही है। यह बात है कभी-कभी नमक की मात्रा बढ़ जाती है, लेकिन आटा हमेशा नमक से ज्यादा ही रहता है, लेकिन युवाओं के लिए यह अपनी असफलता को छुपाने के बड़ा बहाना होता है। आधे तो टेस्ट देने जाने से पहले ही कहने लगते हैं कि क्या करेंगे मेहनत करके, टेस्ट देकर, नौकरी तो रिश्वत-सिफारिश वालों को मिलेगी। जब विपक्षी दल सत्ता दल की ऐसी भर्तियों को दिखाता है तो युवाओं को अपनी बात सच्ची लगने लगती है और इस उम्मीद से वे दूसरे दल को वोट देने को तैयार हो जाते हैं कि वे उन्हें पक्का नौकरी दिलवा देंगे। इस नाते 'जन उद्धार संघ' युवाओं की बड़ी भीड़ को अपनी तरफ झुकाने में सफल हो रहा था। 'लोक सेवा समिति' ने जैसे ही बुढापा पेंशन दो हजार प्रति माह करनी शुरू की, वैसे ही इन्होंने 2500/ देने की बात कर दी। और भी अनेक वायदे किए जा रहे थे कि खेतों के लिए बिजली दी जाएगी। बैंक लोन माफ कर दिए जाएँगे। स्कूल अपग्रेड होंगे। दो लाख कर्मचारी रखे जाएँगे। कच्चे कर्मचारी पहली कलम से पक्के किए जाएँगे। आकर्षक वायदों को सुनकर लोगों का झुकाव 'जन उद्धार संघ' की और होने लगा। चुनाव से पहले उनका पलड़ा भारी देख 'जन उद्धार संघ' से अलग होकर नई पार्टी में शामिल हुए बहुत से नेता बारिशी मेंढकों की तरह पुनः पुरानी पार्टी में टपक पड़े।
क्रमशः