Mahantam Ganitagya Shrinivas Ramanujan - 27 in Hindi Biography by Praveen kumrawat books and stories PDF | महानतम गणितज्ञ श्रीनिवास रामानुजन् - भाग 27

Featured Books
  • ખજાનો - 37

    ( આપણે પાછળના ભાગમાં જોયું કે સાપોની કોટડીમાં ઝહેરીલા સાપ હો...

  • ફરે તે ફરફરે - 20

    ફરે તે ફરફરે - ૨૦   આજે અમેરિકાના ઘરોની વાત માંડવી છે.....

  • નાયિકાદેવી - ભાગ 27

    ૨૭ ગંગ ડાભી ને વિદ્યાધર ગંગ ડાભીને આંખે જોયેલી માહિતી આ માણસ...

  • મુઠ્ઠી ભાર દેડકા

      अद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्र: करुण एव च । निर्ममो निरहङ्कार...

  • ભાગવત રહસ્ય - 69

    ભાગવત રહસ્ય-૬૯   અર્જુન શ્રીકૃષ્ણના અનંત ઉપકારોને યાદ કરી ને...

Categories
Share

महानतम गणितज्ञ श्रीनिवास रामानुजन् - भाग 27

[ भारत लौटने की तैयारी एवं भारत आगमन ]

चार वर्ष के ट्रिनिटी-प्रवास में रामानुजन के बीस महत्त्वपूर्ण शोध-लेख प्रकाशित हो चुके थे। वह एफ. आर. एस. की उपाधि से विभूषित हो चुके थे तथा उन्हें ट्रिनिटी से कार्य के लिए धनराशि (फेलोशिप) प्राप्त होने लगी थी। इस प्रकार उनकी उपलब्धियाँ तो असाधारण थीं।
दूसरी ओर रामानुजन पूरी तरह स्वस्थ नहीं थे। उनके स्वास्थ्य में कुछ सुधार अवश्य होने लगा था। उनके ज्वर का ऊपर-नीचे होना रुक सा गया था। वजन में भी 15 पाउंड की बढ़ोतरी हो गई थी। परंतु वास्तविकता इतनी अस्पष्ट थी कि यह कहना संभव नहीं था कि उनकी स्थिति में सुधार हो रहा है अथवा नहीं। उसी समय वह फिट्जरॉय स्क्वायर से लंदन से कुछ दूर टेम्स नदी के दक्षिण किनारे पर स्थित एक कोलिनेट हाउस नामक नर्सिंग-रूम में स्वास्थ्य-लाभ के लिए चले गए थे। मिलनेवालों को वहाँ उनसे मिलना मैटलॉक की अपेक्षा आसान था। वास्तव में टैक्सी के नंबर की चौंका देने वाली घटना, जिसका उल्लेख पहले किया जा चुका है, यहीं हुई थी, जब हार्डी उनसे मिलने आए थे।
इन सबसे अधिक महत्त्व की बात यह थी कि युद्ध विराम हो जाने से समुद्र से आने-जाने में दुर्घटना होने की आशंका समाप्त हो गई थी।
26 नवंबर को प्रो. हार्डी ने मद्रास विश्वविद्यालय के रजिस्ट्रार फ्रांसिस ड्यूबरी को लिखा—
“मेरा विचार है कि इस समय उसके (रामानुजन के) भविष्य और अस्थायी वापसी पर विचार करना चाहिए।”
उनके जीवनीकार प्रो. पी. वी. शेषु अय्यर ने लिखा है—“सन् 1918 में क्रिसमस तक रामानुजन की बीमारी ने गंभीर रूप धारण कर लिया था। इससे इंग्लैंड के डॉक्टरों को उनके बारे में गंभीर चिंता हो गई थी और उनकी भलाई का विचार करके उन्होंने सलाह दी कि वह अपने देश भारत लौट जाएँ।”
भारत में उनकी उपलब्धियों से उनका हितैषी वर्ग बड़ा प्रसन्न था। इस बीच समय-समय पर उन्हें शोधवृत्ति के बढ़ाए जाने की सूचनाएँ मिलती रहती थीं। दिसंबर 1918 में उन्हें पता लगा कि उनकी 250 पाउंड प्रतिवर्ष की शोधवृत्ति अगले छह वर्षों के लिए बढ़ा दी गई है। ट्रिनिटी की फेलोशिप की राशि इससे अलग थी ही। कुल मिलाकर यह एक अच्छी राशि मिलती थी; परंतु रामानुजन वह समय भूले नहीं थे, जब स्कूल में छात्रवृत्ति समाप्त हो जाने पर उन्हें पढ़ाई छोड़नी पड़ी थी और ट्यूशन एवं रामचंद्र राव की कृपा से जीवन की गाड़ी को आगे खींचना पड़ा था। वह निर्धन व्यक्ति के जीवन में धन के मूल्य को समझते थे। वास्तव में रामानुजन कितने सहृदय थे इसका पता उन्हें मिली 250 पाउंड की इस छात्रवृत्ति के स्वीकृत होने के बाद रजिस्ट्रार को 11 जनवरी, 1919 को लिखे उनके पत्र से मिलता है, जो इस प्रकार था—
‘श्रीमान,
आपका 9 दिसंबर, 1918 का कृपा-पत्र मिला। विश्वविद्यालय द्वारा प्रदान की गई उदार सहायता को मैं कृतज्ञतापूर्वक स्वीकार करता हूँ।
परंतु मुझे लगता है कि भारत लौटने पर, जिसकी संभावना प्रबंध हो जाने पर शीघ्र ही है, वह पूरी राशि जो मुझे प्राप्त होगी, मेरी आवश्यकताओं से कहीं अधिक है। मैं चाहता हूँ कि इंग्लैंड में मेरे ऊपर हुए खर्चों का भुगतान करने तथा 50 पाउंड प्रतिवर्ष मेरे माता-पिता को देने के पश्चात् जो धन बचता है, उसमें से मेरे आवश्यक खर्चों के बाद बच रहे धन का प्रयोग किसी शिक्षा के कार्य में, जैसे निर्धन और अनाथ बच्चों की फीस तथा पुस्तकों के लिए होना चाहिए। यह प्रबंध अवश्य ही मेरे लौटने पर संभव होगा।
मुझे बड़ा खेद है कि स्वास्थ्य ठीक न रहने के कारण मैं पिछले दो वर्षों में पहले की तरह अधिक गणित नही कर पाया हूँ। आशा करता हूँ कि शीघ्र ही मैं और अधिक कर पाऊँगा। मैं अवश्य ही पूरा प्रयत्न करूँगा कि मैं अपने आपको प्रदत्त उस सहायता के योग्य सिद्ध कर सकूँ, जो मुझे प्रदान की गई है।
आपका आज्ञाकारी सेवक
एस. रामानुजन’
24 फरवरी, 1919 को उन्होंने भारत लौटने के लिए अपने पासपोर्ट आदि कार्य संपन्न किए। तभी 13 मार्च, 1919 को उनके दो लघु लेख ‘प्रोसीडिंग्स ऑफ लंदन मैथेमेटिकल सोसाइटी’ में प्रकाशित हुए। इनमें उन्होंने ‘पार्टिशन फंक्शन’ के कुछ नए सूत्र तथा प्रथम एवं द्वितीय रॉजर-रामानुजन के बीच संबंधों का प्रतिपादन किया था।
13 मार्च को ही उन्होंने चमड़े के बक्से में बहुत से कागज, लगभग एक दर्जन पुस्तकें, अपनी 'नोट-बुक्स' तथा अपने छोटे भाई के लिए किशमिश आदि लेकर बंबई जाने वाले पेसिफिक एंड ओरिएंट कंपनी के ‘नगोया’ नामक समुद्री जहाज से प्रस्थान किया।
बंबई में 27 मार्च, 1919 का शुभ दिन था। रामानुजन ने समुद्री जहाज से भारत की धरती पर पैर रखा। उनकी माता तथा छोटा भाई लक्ष्मी नरसिंहा वहाँ उनकी प्रतीक्षा कर रहे थे। पत्नी जानकी को वहाँ न पाकर कदाचित् कुछ असमंजस से उन्होंने पूछा, “वह कहाँ है?”
माँ ने कुछ रोष में कुछ इस प्रकार कहा “अरे, उसके लिए परेशान क्यों होता है? वह भी आ जाएगी।”
जैसा पहले लिख आए हैं, रामानुजन के जाने के लगभग दो वर्ष बाद से ही उनकी माँ एवं पत्नी के संबंधों में तनाव आ गया था और पत्नी जानकी अपने भाई के पास चली गई थीं। एक वर्ष की अवधि तक इंग्लैंड में रहते हुए रामानुजन को इसका आभास हो गया था और वह परिवार में इस तनाव के कारण दुःखी रहते थे। भारत आने पर अपनी पत्नी को न पाकर उनका मन और भी उदास हो गया। वास्तव में वह यह भी अपनी माँ एवं भाई से नहीं जान पाए कि पत्नी जानकी कहाँ हैं— अपने पिता के घर राजेंद्रम में, बहन के साथ मद्रास में अथवा भाई के पास कराची में? सच तो यह है कि जानकी को रामानुजन की माँ ने रामानुजन के भारत लौटने की सूचना ही नहीं दी थी। हाँ, मद्रास के समाचार पत्रों के माध्यम से जानकी को उनके आने की सूचना अवश्य मिल गई थी; परंतु किसी अज्ञात भय के कारण उनका साहस बंबई पहुँचने का नहीं हो पाया था।
तुरंत ही अनुज लक्ष्मी नरसिंहा ने दो-तीन स्थानों पर पत्र लिखकर जानकी को रामानुजन के पहुँचने की सूचना दी और लिखा कि रामानुजन उनसे शीघ्र ही मद्रास में मिलने के लिए आतुर हैं। जानकी तथा उनके घर वालों के लिए इतना ही पर्याप्त था। वह अपने भाई के साथ तत्काल मद्रास के लिए चल पड़ीं।
विदेश से लौटने पर रामानुजन तथा उनकी माता को एक अन्य चिंता थी— सामाजिक शुद्धि की। इसके लिए उनकी माता ने उन्हें रामेश्वरम् मंदिर ले जाकर पश्चात्ताप करने की योजना बना रखी थी; परंतु उनके स्वास्थ्य को ध्यान में रखते हुए लगभग 500 मील की इस यात्रा को स्थगित करना पड़ा और तीन रात बंबई में रुककर बंबई मेल से मद्रास ले जाया गया।
रामानुजन को अपने जीवन में, विशेष रूप से लंदन जाने के बाद, काफी ख्याति मिली थी। समाचार पत्रों में उनके बारे में समय-समय पर समाचार प्रकाशित होते रहते थे। भारत पहुँचने से एक सप्ताह पूर्व उनकी जीवनी एवं कार्य-कलाप वाले सराहनापूर्ण लेख प्रकाशित हुए थे। जब उन्हें एफ. आर. एस. से सम्मानित किया गया था, तब उनकी अनुपस्थिति में ही प्रेसीडेंसी कॉलेज तथा अन्य स्थानों पर भव्य समारोह आयोजित हुए थे । वस्तुतः वह समाज में प्रतिभा और गौरव की प्रतिमा तथा चर्चा का विषय बन चुके थे। राजनीतिक स्तर पर देश में स्वायत्त शासन तथा देशभक्ति की भावना का प्रादुर्भाव भी हुआ था।
उनकी ख्याति से प्रभावित मद्रास के कई व्यक्ति उनकी सुख-सुविधा तथा रहने की सारी व्यवस्था करने के लिए आगे आए। उनके उपचार पर होने वाले व्यय के लिए भी सहृदय व्यक्तियों की कमी नहीं रही।
पहले वह एडवर्ड इलियट मार्ग पर स्थित एक धनी वकील के सुंदर बँगले पर रुके। उनके एक जीवनीकार ने लिखा है कि वहाँ पहुँचने के कुछ समय बाद जब उनके पुराने विद्यार्थी के. एस. विश्वनाथ शास्त्री उनसे मिलने पहुँचे तो वह दही तथा सांभर खा रहे थे। तब उन्होंने कहा था “यदि यह मुझे इंग्लैंड में मिल गया होता तो मैं बीमार ही न होता।”
उनकी ख्याति और अब एक बड़े बँगले में रहने के कारण तथा स्वास्थ्य ठीक न होने के कारण उच्च वर्ग के जाने-अनजाने व्यक्ति उनसे मिलने के लिए आते रहते थे। उन आगंतुकों की भीड़ से बचाने के लिए उनके डॉक्टर एम.सी. नजुंडा राव ने उन्हें नगर से कुछ और दूरी पर लुज चर्च रोड पर स्थित 'वेंकट विलास' में स्थानांतरित करवा दिया था। यहीं पर 6 अप्रैल को जानकी अपने भाई के साथ रामानुजन के पास पहुँचीं। बाद में उनके पिता भी उनसे इंग्लैंड से लौटने पर उनसे प्रथम बार मिले। 24 अप्रैल को उन्होंने रजिस्ट्रार ड्यूसबरी को लिखा कि वह उनकी यात्रा आदि पर हुए व्यय का ब्योरा बना दें, तथा उन्हें प्राप्त होने वाली फेलोशिप की राशि प्रति माह उन्हें भेजने का प्रबंध कर दें।
उन्हें विश्वविद्यालय में प्राध्यापक के पद पर नियुक्त किया गया। इस नियुक्ति को उन्होंने स्वीकार कर लिया और स्वास्थ्य सुधरने पर कार्यभार सँभालने की बात विश्वविद्यालय को लिखी। उनका ध्यान रखने वालों में तथा समय-समय पर उनसे मिलने वालों में श्री रामचंद्र राव, सर फ्रांसिस स्प्रिंग, श्री नारायण अय्यर, ‘हिंदू’ समाचार पत्र के प्रकाशक आदि गण्यमान्य व्यक्ति थे।