Prem Gali ati Sankari - 48 in Hindi Love Stories by Pranava Bharti books and stories PDF | प्रेम गली अति साँकरी - 48

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प्रेम गली अति साँकरी - 48

48----

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मन में कुछ ऊटपटाँग चल रहा था और मैं झुँझलाते हुए सोच रही थी कि इस सूनेपन को कैसे खत्म किया जाए?सोचा, आज बहुत दिनों बाद अपनी पसंद के कपड़े पहनूँ | मैं आज कुछ ठीक से तैयार होने अपने वॉशरूम से लगे ड्रेसिंग रूम में चली गई जिसमें दीवार के दोनों ओर कई लंबी-चौड़ी अलमारियाँ लगी हुईं थीं जिनके काँच के दरवाज़ों से ड्राईक्लीन की हुई साड़ियाँ कितने करीने  से लगी हुई मुस्कुरा रहीं थीं, उसी में ऊपर के खाने में न जाने कितनी रंग-बिरंगी स्टार्च लगी, रोल प्रैस की गईं साड़ियाँ हैंगर्स में टँगी हुई थीं| उसी अलमारी के आधे भाग में मेरे पसंद के रंग की यानि सफ़ेद रंग की ढेरों अलग-अलग वैरायटी की साड़ियाँ टँगी हुई थीं | सब जानते थे मुझे सफ़ेद रंग कितना पसंद था| अम्मा कितना पूछती थीं कि क्यों मैं रंग-बिरंगे कपड़े नहीं पहनती ? जबकि अम्मा ने मेरी अलमारियाँ सब रंगों के सभी शेड्स से भर रखी थीं| सफ़ेद साड़ियों की वैराइटी तो मेरे पास इतनी थी कि बस---- लेकिन जब भी कोई सफ़ेद रंग की साड़ी पसंद आ जाती, मैं अपने को रोक ही नहीं पाती | सफ़ेद साड़ियाँ और उस पर खूबसूरत पर्ल की वैराइटीज़ के हल्के, नाजुक से गहने मेरी कमजोरी थे ---मुझे लगता वे मुझे एक अलग ही लुक देते हैं | दरअसल, सबने ही तो चढ़ाया था मुझे कि मुझ पर वो ड्रैस-अप, हल्का सा मेकअप  कितना अच्छा लगता है जो मैं करती हूँ | अब कहते हैं कि रंगीन क्यों नहीं पहनती?लाउड मेकअप क्यों नहीं करती?क्या मेरी दौड़ती उम्र के कारण?

बहुत दिनों बाद मैं अपने ड्रेसिंग-रूम में चाव से अपनी अलमारियों को निहार रही थी | वे सब कांच के बंद दरवाज़ों में कैद थीं | मुझे लगा, उनमें भी जैसे जान है| मैं जिस अलमारी को खोलती, उसमें से न जाने साड़ियों के कितने नन्हे हाथ मेरी ओर बढ़ते कि मैं उन्हें निकाल लूँ, उन्हें अपनी देह पर सजा लूँ और प्रेम गीत गुनगुनाऊँ | अगर मैं उन्हें पवन-किरण का स्पर्श ही नहीं होने देती तो बेचारियों को क्यों बंद करके उनका दम घोंट रही हूँ | वे जैसे एक-एक करके मुझे पुकार रही थीं | 

दूसरी ओर की दीवार पर यहाँ से वहाँ तक की अलमारी में मेरे श्वेत-श्याम अथवा केवल श्वेत सलवार कुर्ते, टॉप्स-पैंटस, दुपट्टे हैंगर्स में टंगे हुए थे | दोनों ओर की अलमारियों के नीचे के बड़े-बड़े खाने सभी रंगों के हील वाले, या सादे चप्पलों, जूतों, गुरगाबी, मोजड़ी की वैराइटीज़ से भरे पड़े थे, उनको खास तौर पर इनके लिए ही बनवाया गया था कि जिस रंग के कपड़े पहनें, उसी रंग के जूते-चप्पल वहीं से पहनकर ड्रेसिंग टेबल में खुद को निहारकर निकला जाए | मैं तो कभी भी इतनी सुगढ़ नहीं थी जबकि दादी ने मुझे बहुत सी बातें सिखाई थीं | उनका कहना होता था कि अपनी चीज़ें खुद ही संभालनी चाहिएँ लेकिन उनके जाने के बाद मैंने विनोदिनी को अपने ये सब काम सौंप दिए थे| वह भी बहुत से सालों से यहाँ ‘हाऊस-हैल्प’ थी और मम्मी के कपड़ों की देखभाल भी वही करती थी| एक-एक कपड़े को कैसे संभालती थी वह जैसे अभी नया ही बनकर आया हो | रतनी से सलाह लेती रहती थी और रतनी तो मुझे पटाने में अव्वल थीं| जो कपड़े मुझे कोई नहीं  पहनवा सकता था, वे कपड़े जाने रतनी कैसे पटाकर मुझे पहनवा देतीं| 

मेरे ड्रेसिंग रूम में लंबा कार्पेट पड़ा था और बीचोंबीच बड़ी सी ड्रेसिंग-टेबल थी जिसकी ड्रॉअर्स कॉसमैटिक्स से भरी रहतीं जिनका प्रयोग करना मुझे बिलकुल पसंद नहीं था| हाँ, हल्के से परफ्यूम की मैं शौकीन थी जिसको मैं हर दिन ही बहुत माइल्ड सा प्रयोग करती| कॉस्मेटिक्स की डेट्स न निकल जाएं उस डर से उससे पहले ही मैं उन सबको घर की ‘लेडी हैल्प’ में बँटवा देती थी| रतनी को कितना शौक था तैयार होने का लेकिन उसका पति जगन तो उसके ज़रा सा तैयार होने पर ही सीधा उसके चरित्र पर हल्ला बोल देता| क्या अच्छी तरह तैयार होने, ड्रेस-अप होने में किसी का चरित्र बिगड़ जाता है ?कमाल की ही सोच थी !  मुझे बड़ा दुख होता उस बेचारी ने तो कभी अपने मन का कपड़ा भी नहीं पहना होगा| मैं अम्मा से इस बात का ज़िक्र बहुत बार करती रहती थी| अम्मा कहतीं---

“शीला ने ही कौनसा अपना शौक पूरा कर लिया ? वह बेचारी तो जगन के परिवार को संभालते हुए ही बुढ़ा  रही है ---”अम्मा दुख से कहतीं | 

न जाने क्यों मेरे मन में आया था कि चलो अब पीछा छुटा जगन से, अब वे दोनों शायद अपने मन की कर सकें | लेकिन यह भी इतना आसान कहाँ था ?तुरत ही दूसरा विचार भी कौंध गया | कभी मैंने उनमें से ही किसी के मुँह से सुना था कि विधवा होने के बाद स्त्रियाँ शृंगार नहीं करतीं | वह तो केवल पति के रहते ही कर सकती हैं | क्या मज़ाक बना रखा है समाज ने, मेरा मन उखड़ जाता और न जाने कितनी क्रांतिकारी बातें मेरे मन में घूमने लगतीं| लगता, उन ज़ंजीरों को तोड़ डालूँ जिन्होंने उनके परिवार को बाँध रखा था | 

मैं रतनी के कहे में थी, जाने क्या था उनके अपनेपन में ?मैं उनकी सब बातें सुनने को तैयार हो जाती| वह शीला दीदी की बहुत इज़्ज़त करती थी | मुझे भी वे बहुत पसंद थीं  और उनके लिए भी मेरे दिल में पीड़ा थी, प्यार था, सम्मान था| 

बस, अम्मा रतनी से एक बात और कहती थीं, मैंने कई बार चुपके से सुना था कि अम्मा उन्हें चुपके-चुपके कुछ कहती रहतीं, कभी इशारे भी  करती रहती थीं कि वे मुझे बाल डाई करवाने को मना लें किसी तरह ! मुझे कहीं जाना होता और रतनी वहाँ होती या उसे पता होता तो वह मेरे सामने आकर खड़ी हो जातीं और इशारे करती रहतीं | मैं जानती थी कि ये सारा पाठ अम्मा का पढ़ाया हुआ है लेकिन मैं ही उन्हें पटा लेती | अगली बार कहीं जाने का प्रोग्राम होगा न तो पहले से कर लेंगे न ! ये क्या हुआ उसी दिन ये सब फैलाकर बैठो और वह दिन कभी नहीं आया था | 

मेरे कमरे पर बाहर से नॉक हुई, मैं तैयार तो हो ही चुकी थी| न जाने किन-बातों में भटक  रही थी और यूँ ही अपने ड्रेसिंग रूम की लाइट्स जलाकर खड़ी अपने कपड़ों पर नज़र मार रही थी| 

“आ जाओ उत्पल ---”

उत्पल अंदर आ गया था, मैंने देखा उसका मुँह कुछ उतरा हुआ था | मैंने चहककर कहा ;

“हैलो उत्पल !”

उसने मुझे देखा और इतने दिनों बाद ढंग से तैयार देखकर वह कुछ अजीब सा हो मुझे देखने लगा| मुझे उसकी आँखों में सब कुछ दिखाई दे रहा था---प्यार, अपनापन, प्रशंसा----इससे भी आगे बहुत कुछ ! लेकिन वह कुछ न बोला और मेरे कमरे की मेरी फेवरेट खिड़की की ओर बढ़ गया| मेरे कमरे में बहुत कम लोगों को आने की इजाज़त थी जिनमें उत्पल ने सबसे पहले अधिकार जमा लिया था | 

“क्या काम था ?” मेरी खिड़की के पास की कुर्सी पर बैठते हुए उसने पूछा| 

“बैठो नहीं, चलना है ---”मैं दरवाज़े की ओर बढ़ी | 

“कहाँ ?”

“कहीं भी, घूमने चलते हैं | ” हम स्थान तो फिक्स कर ही चुके थे, हाँ, वह नहीं जानता था| 

हम कमरे से निकलकर बाहर तक आ गए, अम्मा -पापा को पता था मैंने बाहर जाने का कार्यक्रम बनाया था| उन्हें अच्छा लगा था, कम से कम मैं बाहर जाने के लिए राज़ी तो हुई थी | अम्मा-पापा बगीचे के सामने बरामदे में पड़ी कुर्सियों पर बैठे थे | मुझे अच्छी तरह तैयार देखकर दोनों ने एक-दूसरे को देखा और मन ही मन मुस्कुराए | उनकी आँखें मुस्का रही थीं, वे खिले हुए दिख रहे थे | 

यू.के में कार्यक्रम बहुत सफ़ल जा रहे थे और अम्मा के चेहरे पर चिंता की लकीरें आज काफ़ी कम दिखाई दे रही थीं | अभी भाई अमोल से उनकी फ़ोन पर बात हुई थी और उसने बताया था कि वहाँ लोग इतने खुश हैं कि वे संस्थान के कार्यक्रमों की तारीखें और आगे बढ़ाना चाहते हैं | बल्कि दूसरे स्थानों से भी उन्हें निमंत्रण आ रहे हैं | भाई की यह भी इच्छा थी कि शीला दीदी के घर की समस्या हल होने के बाद अम्मा-पापा को यू.के  आ जाना चाहिए | 

अम्मा ने जल्दी-जल्दी मुझे ये सब बताया और तसल्ली की साँस ली | मैं जानती थी कि जब किसी काम को अधिक सम्मान मिलने लगता है तब और अधिक ज़िम्मेदारी आ जाती है | लोगों की अपेक्षाएं कई गुण बढ़ने लगती हैं | अम्मा थीं वो, उन्होंने हमेशा चेलेंज स्वीकार किया था और सदा उसमें खरी उरती थीं | जब कभी हमारी चर्चाएं होतीं हम उनके इस शास्त्रार्थ के आगे घुटने टेक देते कि ---‘लोग भी अपेक्षा उसी से रखते हैं न जो चेलेंज के योग्य होता है | ” हमारी बोलती बंद हो जाती | 

“अम्मा-पापा, हम आते हैं | थोड़ी देर हो जाए तो परेशान मत होना | ”मैंने अम्मा की बात खत्म होते ही कहा, नहीं तो न जाने और कितनी देर हम बातों में ही चिपके रहते | 

“ठीक है ---बाय ---”पापा-अम्मा ने खुशी-खुशी हाथ हिलाते हुए कहा| 

मैं उत्पल के साथ गेट तक पहुंची ही थी कि सामने से आवाज आई| हम अपने ही में मगन थे, इतने दिनों बाद पुराने दोस्तों से मिलने जा रहे थे| मैं उत्साह में थी और अभी तक उत्पल से मैंने कोई बात नहीं की थी कि मैं उसे कहाँ लेकर जा रही हूँ| अंदर ही अंदर मैं यह सोचकर हँस रही थी कि उसके मन में तो न जाने क्या-क्या चल रहा होगा !!

“अरे ! हम तो आपसे मिलने आए हैं --आप कभी मिलती ही नहीं –” वह  न जाने अचानक कहाँ से आ टपका था|