Prem Gali ati Sankari - 47 in Hindi Love Stories by Pranava Bharti books and stories PDF | प्रेम गली अति साँकरी - 47

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प्रेम गली अति साँकरी - 47

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सच में, जीवन कैसा मज़ाक करता है ! कभी मैं अपनी आयु को गिनती, कभी कभी शीशे के आगे खड़े होकर अपने उस चेहरे को देखती जो कभी मुस्कुराता रहता था, आज दुविधा में दिखाई देता है | ऐसा होना नहीं चाहिए था लेकिन हुआ और इसका प्रभाव न केवल मुझ पर वरन अम्मा-पापा पर बहुत अधिक पड़ रहा था | मुझे इस बात से बहुत पीड़ा होती कि मेरे कारण पूरे परिवार को एक अजीब सी स्थिति में से गुजरना पड़ रहा था लेकिन मैं क्या कर सकती थी ? सच में मेरे हाथ में कुछ भी नहीं था | 

उस दिन उत्पल मुझे छोड़कर चुपचाप उठकर चला गया, उसने मेरी बात सुनी भी नहीं | मैं कारण जानती थी लेकिन असमंजस में थी | उसका मुस्कुराता चेहरा मुझे पुकारता लगता था और में उसकी ओर खिंचती भी थी लेकिन उसकी ओर बढ़ते मेरे कदम मुझे रोक लेते और मेरी आँखों में जैसे शून्य पसर जाता| सोती तो ठीक प्रकार नींद भी नहीं आती, वो ही सपने गड्डमड्ड होकर मेरी आँखों में तैरने के लिए तैयार रहते| सपनों में कोई एक तो था नहीं, कभी प्रमेश, कभी श्रेष्ठ और कभी उत्पल और जिन्होंने कभी मुझे प्रपोज़ किया था कभी उनमें से भी एकाध झाँक जाता----सब चेहरे यूँ ही गड्डमड्ड होते रहते और मैं करवटें बदलती रहती| 

मैं जानती थी कि अब दो-चार दिनों में शीला दीदी के घर होने वाले सारे तथाकथित बनावटी रस्मोरिवाज़ समाप्त हो जाएंगे, उनके ये दिखावटी मेहमान चले जाएंगे तब मैं शीला दीदी से या रतनी से अपने मन में उठने वाले ऊहापोह साझा कर सकूँगी| समय अपने-बेगाने की पहचान करवाने में सिद्धहस्त है | शीला दीदी के सारे मेहमानों को देखकर मुझे लगा कि ऐसा भी होता है, ऐसे समय में भी लोग ऐसी नीच हरकतें करने से बाज़ नहीं आते ! मन इतना घबरा रहा था जैसे अगर सब कुछ बाहर न उगल दिया गया तो मैं और भी असमान्य हो जाऊँगी| मैं अपने आपको पहले ही असमान्य समझती थी शायद अम्मा-पापा भी ज़रूर समझते होंगे, बस मुझसे कहते ही नहीं थे| कितना पीड़ादायक होता है अपने बच्चे को असमान्य समझना !

मुझमें इतना विवेक नहीं था कि मैं अपने ऊबड़-खाबड़ दिल को कुछ दिन और संभालकर रख सकूँ | शीला दीदी और रतनी भी आने के बाद सब अपने-अपने काम में फिर से लग जाएंगे और मेरी बात सुनने और मुझे सलाह देने के लिए किसी के पास समय ही नहीं होगा, वैसे व्यस्तता कितनी भी क्यों न हों मेरी बातें तो उन तक पहुँचती ही थीं और उनकी मुझ तक | मुझे बेचैनी इतनी अधिक थी कि मैं किसी न किसी करीबी से अपने मन की बेचैनी जल्दी से जल्दी बाँट लेना चाहती थी| मेरा मन हुआ कि मैं फिर से अपने पुराने दोस्तों को इकठ्ठा करना शुरू करूँ | किशोरावस्था की शैतानियों में हमने क्या-क्या कांड नहीं किए थे ! अब अचानक जैसे मन के घोड़े पीछे दौड़ने लगे | अब मन हो रहा था कि फिर से उन्हीं दिनों में लौट जाऊँ !क्या रखा है इस जीवन में, जाने कब खत्म हो जाए?एक घबराहट भरा प्रश्न मेरे मन को बार-बार मथ रहा था कि क्या मेरा जीवन प्रेम जैसी कोमल, नाजुक छुअन के बिना ही समाप्त हो जाएगा?

पापा-अम्मा की प्रेम कहानी भीतर तक मेरे दिल का हिस्सा बनी हुई थीं, दादी जैसे उनको युवा बने रहने का प्रयास करती रहतीं थीं, चाहती थीं कि सदा उनके जीवन में मित्रता बनी रहे जो मैंने और कभी, किसी भी के घर में ऐसा मुक्त और जीवंत वातावरण नहीं देखा था| फिर भाई भी प्रेम के लिए दूसरे देश में चला गया| मुझे यह भी अच्छी तरह याद है कि  मेरे मित्र जब प्रेम में होते थे तो जैसे उनके पंख लग जाते थे| कैसे हवा में उड़ने लगते थे और खुलकर दोस्तों में कहते थे ---“वी आर इन लव---” उनका झूमना, गाना, नाचना सब जैसे किसी और ही दुनिया के बाशिंदे बन जाना, बड़ा मोहित करता था| कितनी मस्ती भी होती थी और एक कल्पना का संसार भी दिल में बस जाता था लेकिन जिन मित्रों की कल्पना साकार हुई उनमें से कोई तो कुछ दिन बाद ही एक-दूसरे से ऊबने लगे, कुछ का परिवार बढ़ा और उन्हें समय ही कम पड़ने लगा फिर भी कभी न कभी सब आपस में मिलते तो रहते ही थे| मैंने ही अचानक सबसे मिलना छोड़ दिया| अपनी तन्हाइयाँ तो मैंने खुद ही चुनी थीं, क्यों?इसका उत्तर मेरे पास भी नहीं था| मुझे प्रपोज़ करने वाले मित्रों को भी मैं कोई संतोषजनक उत्तर नहीं दे पाई और हरी-भरी बेल से एक सूखी बेल में परिवर्तित होती चली गई | 

अम्मा की इच्छा थी कि मैं कला में अपने आपको डुबो दूँ, उनका अनुभव कहता था कि कला प्रेम है और कला से जुडने के बाद ही पापा का उनको मिलना, प्रेम में पड़ना, फिर बिछुड़ जाना और फिर बरसों बाद ऐसे मिल जाना कि उनके जीवन में बस प्रेम ही प्रेम हो जैसे---मुझे ऐसा प्रेम अपनी ओर आकर्षित करता था| जहाँ तक मैं सोचती हूँ ऐसा प्रेम सबको आकर्षित करता है, प्रेम का समंदर सूख गया तो प्रेम रेती में ही ठहर जाएगा न, हल्का होकर तैरेगा कैसे ?पापा की आँखों में, उनके शरीर के पोर-पोर में, उनकी बातों में यानि पूरे व्यक्तित्व में मुझे हमेशा एक ही भाव दिखाई दिया ‘प्रेम’! उनके इस चिरंतन प्रेम का आधा हिस्सा अम्मा थीं न जिन्होंने उनके अहसासों को सदा मान दिया था| 

मैं संस्थान में जुड़ तो गई थी लेकिन कला में डूब नहीं सकी थी | कई बार सोचती भी कि अम्मा–पापा के प्रेम से जन्मी मैं इतनी अलग कैसे थी ?लेकिन यह भी सत्य है कि दुनिया में हर इंसान एक अलग ही प्राणी होता है| उसके आचार-विचार, उसकी सोच, उसका व्यवहार–सब कुछ अलग ही होता है| एक माँ के गर्भ से जन्म लेने वाले बच्चों की प्रकृति में कितना फ़र्क होता है कि कभी-कभी तो वे पहचाने भी नहीं जाते | खैर, अब मुझे फिर से अपने पुराने दिनों की याद आने लगी थी और मन के भीतर एक हुड़क सी उठ रही थी इसलिए मैंने कुछ नई शुरुआत करने की सोची | 

कई पुराने दोस्तों को फ़ोन किया, वो सब इतने प्रसन्न हो गए कि मैंने उन्हें सामने से फ़ोन किया था और थोड़ी सी नाराजगी के बाद सबने मिलने की जगह निश्चित कर ली| शायद लगभग चार साल बाद मैंने उन्हें याद किया था जबकि वे बेचारे मुझे फ़ोन कर करके थक गए थे| अंत में उन्होंने मुझे फ़ोन करना ही छोड़ दिया था| आखिर कब तक कोई किसी के पीछे पड़ सकता है ?संबंध तो दोनों ओर से होते हैं | लगभग सबकी शादी तो हो ही चुकी थी, सबके बच्चे हो चुके थे बल्कि बड़े हो रहे थे| उनमें से कुछ तो संस्थान में नृत्य व संगीत की शिक्षा भी लेने के लिए आते थे किन्तु वे कभी अंदर नहीं आए| या तो उनके ड्राइवर्स बच्चों को छोड़ने-लेने आते या अगर वे आते भी तो मुझ तक नहीं पहुंचते थे| एक तो सबकी गृहस्थी थी, दूसरे किसी न किसी कार्य में संलग्न थे अत:उन्हें समय की बड़ी तकलीफ़ थी| सबसे बड़ी बात तो यह थी कि वे सभी मुझसे नाराज़ थे और इसीलिए अब मुझसे मिलने में भी उन्हें कोई दिलचस्पी नहीं रह गई लगती थी | 

“उत्पल !क्या कर रहे हो?” मैंने उत्पल को फ़ोन कर ही दिया| मैं सबको नाराज़ करके कैसे रह सकती थी जबकि जानती थी कि मुझे कितना पसंद व प्यार करते हैं सब लोग !मैं ही उन सबसे दूर हो गई थी और होती जा रही थी | प्यार ही प्यार को खींचता है, उदासीनता कब किसे आकर्षित करती है?कोई बहुत करीबी होगा तब एक बार---ज़्यादा से ज़्यादा दो बार या कोई बहुत अधिक संवेदनशील हुआ तो और एकाध बार आपको मना  लेगा लेकिन कितने भी करीबी संबंध क्यों न हो, जब तक हम उन्हें उसी सम्मान व प्रेम से नहीं बुलाते जिससे वे हमें बुलाते हैं, वे कभी भी बने नहीं रह सकते| बड़ी स्वाभाविक सी बात है | ज़िंदगी  के झरोखे खुलते हैं, बंद होते हैं, फिर खुलते हैं और ऐसे ही कभी जल्दी तो कभी देरी में वे इसी प्रकार खुल जा सिमसिम की तरह बंद होते, खुलते रहते हैं| 

मैंने पुराने दोस्तों को फ़ोन किया था, फिर से अपने झरोखे खोलने के लिए जिनमें जंग लग गई थी या लगती जा रही थी| एक दिन ऐसा न हो कि ऐसी जंग लग जाए कि वे कभी भी न खुलें, बस उन्हें तोड़ना पड़े !

“क्या बात है? कुछ काम है क्या ?” उत्पल इतनी देर से फ़ोन पकड़े खड़ा था और मैं फिर से पिछली गलियों की गर्द में अटने लगी थी| 

“काम---हाँ काम ही समझ लो---“मैंने उसे गोल-गोल उत्तर दिया | 

“बताइए---” उसकी आवाज़ में मायूसी ही थी | 

“ऐसे कैसे बताऊँ ?आ जाओ न !” मैंने बड़े हल्के मूड में कहा | 

“ओ के----”उसने और कुछ मुझसे नहीं पूछा | मैं जानती, समझती थी, उसके मन में न जाने कितने प्रश्न उलझे हुए पड़े होंगे लेकिन वह यह भी जानता था कि मैं उसके प्रश्नों का उत्तर इतनी आसानी से देने वाली तो नहीं थी इसलिए उसने अपना समय और ऊर्जा बर्बाद करना ठीक नहीं समझा होगा | उसने उधर से फ़ोन रख दिया था और मैं जानती थी कि अपने हृदय की तीव्र धड़कनों के साथ वह मेरे सामने लगभग आधा घंटे में नमूदार हो जाएगा |