[ पश्चिमी वातावरण में रामानुजन का जीवन ]
साधारणतः आज भी एक ऐसे देश में, जहाँ की संस्कृति व सभ्यता अपने देश से बिलकुल भिन्न हो, एक व्यक्ति को अपने परिवार से दूर जाकर रहने पर बड़ी विषम परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है। तब की तो बात ही और थी। रामानुजन को भी यह सब झेलना पड़ा और इन व्यक्तिगत परेशानियों का भी प्रभाव उनके जीवन पर पड़ा।
पिछले अध्यायों में हम रामानुजन को मिले कैंब्रिज के बौद्धिक वातावरण तथा विश्वयुद्ध से उत्पन्न परिस्थितियों का उल्लेख कर आए हैं। यह बौद्धिक वातावरण वास्तव में कैसा था, रामानुजन के कृतित्व के कितना अनुकूल था, यह भी रामानुजन के व्यक्तित्व एवं कृतित्व को समझने के लिए जान लेना आवश्यक है।
सबसे पहले उनकी दिनचर्या एवं भोजन व्यवस्था का अवलोकन करना उचित होगा। एक व्यक्ति के जीवन में कितने ही प्रभाव क्षेत्र कार्य करते हैं। मोटे तौर पर इन्हें देहिक, मानसिक, बौद्धिक, पारिवारिक आदि कहा जा सकता है। जिस प्रकार वह नामगिरी देवी से जुड़े थे, उससे उनके व्यक्तित्व का एक आध्यात्मिक पक्ष भी था।
रामानुजन का शोध कार्य बौद्धिक क्षेत्र था, परंतु अन्य क्षेत्रों का भी निरंतर सक्रिय रहना स्वाभाविक था। भारत में
उनके जो संस्कार बने थे, वे सब उनके जीवन के अभिन्न अंग बन गए थे। एक कर्मकांडी परिवार में पले, देवी-देवताओं के प्रति आस्थावान् रामानुजन की एक अलग प्रकार की मानसिकता थी। ट्रिनिटी में उन्होंने अपने कक्ष में हिंदू देवी-देवताओं के चित्र लगा रखे थे। प्रातः उठकर वह नियम से स्नान करते, धोती धारण करके मस्तक पर तिलक एवं भस्म लगाकर पूजन-अर्चन, ध्यान आदि करते। जब वे बाहर जाते तभी पश्चिमी वस्त्रों को धारण करते थे।
भारत में उन्हें स्वयं भोजन बनाने की कभी आवश्यकता नहीं पड़ी थी। तब इंग्लैंड में आज की तरह भारतीय भोजनालय नहीं थे। अतः पूर्णरूप से शाकाहारी जीवन व्यतीत करने के लिए स्वयं भोजन बनाना उनके लिए अनिवार्य था। वहाँ पहुँचने के बाद आरंभ के दिनों में एक-दो बार उन्होंने कॉलेज की कैंटीन में भुने आलू मँगाकर खाए, परंतु जब एक अन्य भारतीय, जो स्वयं भी एक तमिल ब्राह्मण था, ने हँसते हुए कहा कि ये तो सुअर की चर्बी (लार्ड) में भूने गए हैं, तो उसके बाद रामानुजन ने कॉलेज कैंटीन से कभी कुछ लेकर नहीं खाया। वह स्वयं अपना खाना बनाने-खाने लगे थे। वह मुख्य रूप से चावल, दही, रसम, सांभर आदि बनाते थे और कभी-कभी आने वाले मित्रों को भी खाने पर आमंत्रित कर लेते थे। दिन में एक बार अथवा दो दिन में एक बार ही वह भोजन बनाते थे।
उनके समय में लगभग एक हजार भारतीय विद्यार्थी इंग्लैंड में शिक्षा प्राप्त कर रहे थे। रामानुजन यद्यपि शरमीले और एकांतप्रिय थे, परंतु उन्हें अन्य भारतीयों से मिलना, चुटकुले सुनाना, राजनीति पर चर्चा करना एवं धर्म-दर्शन पर वार्ता करने में रुचि रहती थी। धर्म और दर्शन पर उनके ज्ञान से प्रभावित होकर पी. सी. महालनोबीस ने तो यहाँ तक कहा था कि यदि वह एक दार्शनिक बनते तो उस दिशा में भी अपनी अमिट छाप छोड़ते। आरंभ के समय को छोड़ बाद में उनकी असाधारण प्रतिभा तथा कितनी ही विस्मित करने वाली चर्चाओं के कारण अन्य भारतीय उनसे मिलने के लिए उत्सुक रहते थे। वास्तविकता तो यह थी कि उनका सामाजिक व्यवहार भारतीयों से भी नाममात्र का ही था।
सामाजिक स्तर पर अंग्रेजों से उनके मिलने-जुलने का कोई प्रमाण नहीं मिलता। कार्य में अत्यधिक व्यस्त रहना और अपने कक्ष से बहुत कम ही बाहर निकलना इसका एक कारण रहा। वह तो बिशप हॉस्टल में बंद ही रहते थे। स्वाभाविक रूप से शरमीला होना दूसरा कारण था। परंतु इनके अतिरिक्त इसमें अंग्रेजों का स्वभाव भी महत्त्वपूर्ण कारण रहा होगा। रामानुजन की जीवनी के लेखक कैनिगेल ने अंग्रेजों, विशेष रूप से कैंब्रिज के इस बेबाक स्वभाव के विषय पर कुछ विस्तार से लिखा है। उन्होंने स्पष्ट शब्दों में अंग्रेजों की रंग एवं जाति भेदभाव की बात को भी लिखा है। उन्होंने सन् 1922 की 'लइटन कमेटी' को उद्धृत किया है, जिसके अनुसार निष्कर्षतः—
“हमारे विचार से यह स्वीकार करना चाहिए कि ब्रिटेन और भारत के विद्यार्थियों के अपने-अपने विशिष्ट चारित्रिक लक्षण हैं, जो घनिष्ठता में बाधक होते हैं। ब्रिटेनवासी मिलनसार नहीं हैं जिसके कारण वे अपने देशवासियों से मित्र भी बनाने में धीमे हैं और किसी आगंतुक द्वारा व्यक्तिगत जानकारी बढ़ाने के प्रयत्नों को शंका की दृष्टि से देखते हैं। कैनिगेल के शब्दों में, बातचीत में एक अंग्रेज अति सावधानी से ठीक होते हुए भी भावनाहीन और तटस्थ दृष्टिकोण रखकर यह स्पष्ट दरशा देता है कि वह सामने वाले की बात को रंचमात्र भी महत्त्व नहीं देता।” एक प्रकार की उदासीनता, तटस्थता, व्यवसायिक मानसिकता, भावनात्मक-हीनता ब्रिटेन-वासियों के स्वाभाविक चारित्रिक गुण हैं। स्वयं महात्मा गांधी ने, जो रामानुजन से बहुत पहले 1887 में इंग्लैंड गए थे, इसकी चर्चा की है।
रामानुजन भी अंग्रेजों से मित्रता बढ़ाने के लिए उत्सुक एवं लचीले स्वभाव के नहीं थे। कहते हैं, उन्हें किसी अंग्रेज के साथ बैठकर उसकी गंध पर विस्मय होता था। उन्हें बाद में यह पता लगा कि अंग्रेज प्रतिदिन स्नान नहीं करते हैं। सच तो यह है कि सप्ताह में एक बार भी स्नान करने वाले अंग्रेज अधिक नहीं हैं। एक जानकार तथ्य के अनुसार अंग्रेजों ने स्नान करने की आदत भारतीयों से सीखी है।
वास्तव में सामाजिक स्तर पर प्रो. हार्डी से भी उनका कोई विशेष संबंध स्थापित नहीं हुआ था। दोनों जब मिलते तब गणित पर बातें करते हुए ही समय निकल जाता, कोई अन्य वार्त्ता चल ही नहीं पाती थी। उन्होंने लिखा है—
“रामानुजन एक गणितज्ञ था, जो काम की बात करने के लिए उतावला रहता था। और फिर मैं भी एक गणितज्ञ ही था। एक गणितज्ञ को रामानुजन से मिलने पर इतिहास की बातें करने के बजाय अन्य बहुत रोचक चीजें रहती थीं। यह पता लगाना कि उसने उन निष्कर्षों तथा प्रमेयों को कैसे प्राप्त किया, नितांत मूर्खता लगती थी; जबकि वह मुझे आधा दर्जन नए शोध प्रतिदिन ही दिखाता था।”सामाजिक संबंध न बन पाने के बारे में प्रो. हार्डी ने स्वयं लिखा है, “रामानुजन एक भारतीय था और मेरा विश्वास है कि एक अंग्रेज को एक भारतीय को आपस में ठीक से समझना दूभर है।” रामानुजन को कैंब्रिज में बुलाने में निमित्त होने तथा आयु में लगभग दस वर्ष बड़े प्रो. हार्डी का व्यवहार उनके प्रति एक अभिभावक जैसा ही था।
इसके अतिरिक्त हार्डी अन्य बहुत से कार्यों में व्यस्त थे। गणित के क्षेत्रों को ही लें, तो रामानुजन की शोध के क्षेत्रों के अतिरिक्त वह गणित के कई क्षेत्रों में कार्य कर रहे थे। 1915 से 1918 के बीच उन्होंने 45 शोध-पत्र लिखे जिनमें से केवल 4 रामानुजन के साथ थे। वह 'लंदन मैथेमेटिकल सोसाइटी' में सक्रिय थे, उसकी बैठकों में भाग लेते थे, उसके एक पदाधिकारी थे। 'कैंब्रिज फिलोसॉफिकल सोसाइटी' से वह जुड़े थे। वह विश्व स्तर के गणितज्ञ थे। गणित के बाद भी वह अन्य संस्थाओं से जुड़े थे। क्रिकेट उनका प्रिय खेल था और वह उसमें विशेष रस लेते थे, टेनिस वह नियम से खेलते थे। वह ‘ट्रिनिटी एस्से सोसाइटी’ के सदस्य थे। आदि, आदि।
हार्डी युद्ध के विरुद्ध थे और इस संबंध में उनके विचार छिपे नहीं थे। बटरैंड रसेल से बहुत व्यक्ति परिचित होंगे। गणितज्ञ होने के साथ-साथ वह एक उच्च कोटि के दार्शनिक भी थे। उस समय बटरैंड रसेल को लेकर ट्रिनिटीी में काफी उथल-पुथल थी। वह युद्ध के विरुद्ध थे। उनका विरोध मौखिक नहीं था। वह 'नॉन-कांसक्रिप्शन फैलोशिप' में सक्रिय होकर अनिवार्य सैन्य भरती का विरोध करते थे। तभी एक विशेष घटना घटी। अप्रैल 1916 में स्कूल के एक अध्यापक श्री एवरेट, जो अंतःकरण की आवाज पर अनिवार्य भरती के विरुद्ध थे, को अ-सैन्य कार्य के लिए भरती के आदेश आए, जिसको मानने से उन्होंने मना कर दिया। इस अवज्ञा के लिए उनका 'कोर्ट-मार्शल' कर दो वर्ष की कठोर सजा दे दी गई। रसेल ने उस सजा के विरोध में अपने हस्ताक्षरों से एक प्रपत्र निकाला। इसपर ट्रिनिटी कॉलेज ने रसेल को बरखास्त कर दिया। पूरे ट्रिनिटी में विभिन्न प्रतिक्रियाएँ हुई। हार्डी, लिटिलवुड, बार्नेस, नेविल तथा कुछ अन्य व्यक्तियों ने इसका प्रतिकार किया। बाद में अन्य ऐसी ही घटनाओं पर भी हार्डी चुप नहीं रहे।
संक्षेप में कहें तो वहाँ रामानुजन का यदि कोई निकट का व्यक्ति था तो वह एकमात्र हार्डी ही थे और प्रो. हार्डी के पास रामानुजन के लिए बहुत ही सीमित समय था। इस प्रकार रामानुजन के लिए कितने ही कारणों से ट्रिनिटी सामाजिक परिवेश मानसिक शांति के लिए आदर्श तो क्या, अनुकूल भी नहीं था।