Lahero ki Bansuri - 6 in Hindi Fiction Stories by Suraj Prakash books and stories PDF | लहरों की बाांसुरी - 6

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लहरों की बाांसुरी - 6

6

- एक दिन उसने मुझे एक रेस्‍तरां में चाय पीने के लिए बुलाया था। ये पहला मौका था कि हम इस तरह से चाय पर मिल रहे थे। उसने मेरे सामने एक पैंफलेट रखा था। पूछा था मैंने-क्‍या है ये। - खुद ही पढ़ लो। उसने कहा था। एक बड़ी कंपनी अपने प्रोडक्‍ट की डायरेक्ट मार्केटिंग के लिए शहर में डायरेक्ट सेलिंग नेटवर्क बनाना चाहती थी। उन्‍हें ऐसे एजेंट चाहिये थे जो पार्टटाइम या फुल टाइम काम कर सकें। ये हमारे शहर के लिए बिल्‍कुल नयी बात होती। पहले एक हजार रुपये देकर सामान खरीद कर उनका एजेंट बनना था।

मैंने नितिन से कहा था न तो मेरे पास एक हजार रुपए हैं और न ही इस तरह का काम करने का अनुभव ही है। घर वालों से तो मैं किसी तरह से निपट ही लेती। नितिन बोला था - सब हो जाता है। पहला कदम मुश्किल होता है। उसके बाद के कदम आसान हो जाते हैं। मेरे लिए हजार रुपए भी नितिन ने जुटाये थे। एक तरह से जबरदस्ती ही उसने मुझे ये एजेंसी दिलायी थी। वही मेरे लिए सामान लेकर आया था। मैं समझ नहीं पा रही थी कि इस देवदूत का कैसे आभार कैसे मानूं। वह कोई नौकरी नहीं करता था। मेहनत से कमाया अपना पूरा जेब खर्च उसने मेरे लिए एक नई ज़िंदगी की शुरुआत करने के लिए खर्च कर डाला था। घर में मेरा विरोध हुआ था लेकिन मैंने भी तय कर लिया था कि पढ़ना भी है और अपने पैरों पर खड़ा भी होना है।

मुझे अपना सामान बेचने के लिए शुरुआती ग्राहक ढूंढने में बहुत दिक्कत होती थी। मेरठ जैसे शहर में विदेशी मेक अप और दूसरा सामान बेचना आसान काम नहीं था। बरसों पुरानी आदतें बदलना आसान नहीं होता।

- काम के लिए रोजाना दस बीस लोगों से मिलना पड़ता। सामान का बैग उठाये उठाये घर-घर भटकना पड़ता। हर तरह की बातें सुननी पड़ती। फलां घर की बहू घर-घर जा कर अपनी इज्‍ज़त नीलाम कर रही है। नितिन मेरा हौसला बढ़ाये रहता। कुछ ग्राहक भी दिलवा देता। लेकिन पहले दो तीन महीने मेरा काम संतोषजनक नहीं रहा था। मैं थक चुकी थी। बेशक मेरा लड़की होना, सुंदर होना मेरे काम को आसान करते थे लेकिन ये तरीका मुझे मंजूर नहीं था। नंगी और भेदती निगाहों का सामना करना पड़ता। एक बार नितिन के कहने पर उसके एक दोस्‍त की बहन के घर गयी थी कुछ सामान बेचने। दोस्‍त की बहन तो नहीं मिली थी लेकिन उसके ससुर घर पर अकेले थे। पानी पिलाने और सामान देखने के बहाने उस बुड्ढे ने मुझे एक तरह से नोंच खसोट ही लिया था। शाम को घर आकर दो बार नहाने के बावजूद मैं अपने बदन से चिपकी उसकी गंदी निगाहें नहीं हटा पायी थी। ऐसा अक्‍सर होता।

- तभी तीन अच्‍छे काम हुए थे और घर में मेरी इज्‍ज़त बढ़ गयी थी। मैं इंटर में पास हो गयी थी। मैं दोबारा मां बनने वाली थी और कंपनी ने एक नयी स्कीम निकाली थी कि आप अपने बल पर जितने एजेंट बनायेंगी, उनकी बिक्री का लाभ भी आपको मिलेगा।

- मुझे ये तरीका पसंद आ गया था। मैं इसी मुहिम में जी जान से जुट गयी थी। मेरी किस्‍मत अच्छी थी कि इस मिशन में मैं कामयाब होने लगी थी। मैंने किसी को भी नहीं छोड़ा। सारे रिश्तेदारों को, परिचित लोगों को और मोहल्‍ले में सबको फुल टाइम या पार्ट टाइम एजेंट बनाना शुरू कर दिया था। अब मैं घर पर ही नये और इच्छुक एजेंटों को बुला सकती थी। मैं अखबारों में पैंफलेट डालती, और लोगों को जोड़ती। मेरा आत्‍म विश्‍वास बढ़ने लगा था।

तभी अंजलि ने मेरी तरफ देखा है और पूछा है - तुम्‍हें बोर तो नहीं कर रही। अब चौदह बरस की फिल्‍म देखने में कुछ वक्‍त तो लगेगा।

- नहीं कहती चलो। सुन रहा हूं मैं।

- बाकी बात बहुत ब्रीफ में बता रही हूं। मैंने काम करते हुए बीए किया, एमए किया, डिस्‍टैंट लनिंग से मार्केटिंग में एमबीए किया। बेटा अब तेरह बरस का है जिसे मेरी जेठानी ही पालती है। मेरे पास इस समय 2000 एजेंट हैं जो लोकल भी हैं और दूसरे शहरों में भी। यानी मेरे ज़रिये लगभग इतने परिवार पल रहे हैं। एक एनजीओ की सर्वेसर्वा हूं। ईवा नाम का ये एनजीओ बच्चों और गरीब लड़कियों के लिए काम करता है। मैं हर बरस बारहवीं क्‍लास की पाँच ऐसी लड़कियां चुनती हूं जिनकी पढ़ाई किसी न किसी वजह से छूट गयी है और वे पढ़ना चाहती हैं। उनकी पूरी पढ़ाई का खर्च मेरे जिम्‍मे।

- मैं इस समय अपनी कंपनी में काफी महत्वपूर्ण कड़ी हूं। हैड क्‍वार्टर में और बड़ी जिम्‍मेवारियों के लिए बार-बार बुलाया जाता है लेकिन मेरे कुछ उसूल हैं। नहीं जाती। अब मुझे खुद इतना काम नहीं करना पड़ता। मेरा डेडिकेटेड स्‍टाफ है जो अपना काम बखूबी करता है। हर महीने दो लाख रुपये के करीब मेरे खाते में जमा हो जाते हैं। अच्‍छी खासी सेविंग कर ली है। कंपनी बीच बीच में ईनाम देती रहती है और घुमाती फिराती रहती है। अपनी पसंद का खूबसूरत घर बनाया है और मैं अपनी ही दुनिया में मस्‍त हूं। इस दुनिया में हर कोई नहीं झांक सकता।

पूछता हूं मैं - इस पूरे सफर में नितिन कहां रह गया?

- नितिन ने भी एमबीए किया था। वह एमए तक तो मेरठ में ही रहा। फिर एमबीए करने अहमदाबाद चला गया था। उसकी बहुत याद आती। हम फोन पर ही बात कर पाते। जब एमबीए करने जा रहा था तो बहुत उदास था। उसने मुझे दावत दी थी और तब इतने बरसों में पहली बार उसने मेरा हाथ थामा था और प्रोपोज किया था - छोड़ छाड़ दो ये सब। हम अपनी दुनिया बसायेंगे। तब तक मुझमें कुछ समझ तो आ ही चुकी थी। बेशक मैं उससे बेइंतहां प्‍यार करती थी लेकिन भाग कर शादी करने के बारे में सोच नहीं सकती थी।

- अहमदाबाद जाने के बाद वह चाहत और गरमी कुछ दिन तो रहे फिर धीरे धीरे कम होने लगे थे। मेरी ज़िंदगी का वह अकेला प्‍यार था और रहेगा, बेशक उसकी ज़िंदगी में औरों ने दस्तक दी ही होगी। जो होता है अच्‍छा ही होता है। आजकल यूएसए में है। मैं अपने पहले और इकलौते प्‍यार को कभी नहीं भूल पायी। आइ मिस हिम ए लाट। आइ स्‍टिल लव हिम।

- यही होना होता है जीवन में अंजलि। जो हमारा जीवन संवारते हैं, हमें उन्‍हीं का साथ नहीं मिल पाता।

- मैंने बहुत तकलीफें भोगी हैं समीर। वहां से यहां तक की पन्‍द्रह बरस की दौड़ बहुत मुश्‍किल रही है। कई बार यकीन नहीं होता कि ये सफर मैंने अकेले तय किया है।

- कहती चलो। मैं अंजलि को दिलासा देता हूं।

- घबराओ नहीं, मेरी बात लगभग पूरी हो चुकी है। बस दी एंड करना है। इस कहानी में आखिरी चैप्‍टर देसराज का है। परेश का बाप बनने के बाद उसे एक नयी दुनिया मिल गयी। उसे इस बात की कोई परवाह नहीं रही कि मैं क्‍या करती हूं कहां जाती हूं और हूं भी सही या नहीं। उसका पीना और बढ़ गया है।

- तीन बरस पहले मैंने उसे अपनी ही कंपनी के प्रोडक्‍ट की एंजेसी दिला दी है। मेरे एजेंट जितना सामान बुक करते हैं उतना ही वह बेचता है। मुझसे ज्‍यादा ही कमा लेता है। हंसी आती है - वह सबको यही बताता है कि उसकी एजेंसी के बल पर ही मेरा काम चल रहा है। कई बार भ्रम भी कितने खूबसूरत होते हैं ना।

अंजलि बताती जा रही है - वह अपनी दुनिया में मस्‍त है, मैं अपनी दुनिया में। कहने को हम पति पत्‍नी हैं लेकिन इस रिश्‍ते की रस्में निभाये बरसों बीत गये हैं। मैं अभी बत्‍तीस की हूं और देसराज छियालिस का। बेशक उससे मेरे वे संबंध नहीं रहे हैं लेकिन फिर भी मैंने कभी उससे बेईमानी नहीं की है। खुद को पूरी तरह काम में खपाये रखती हूं। एक मिनट के लिए भी खाली नहीं बैठती। हर वक्‍त कुछ न कुछ करती ही रहती हूं। ध्‍यान, योगा, जिम, सोशल कमिटमेंट्स, एनजीओ, बच्‍चे और प्रकृति। सच समीर, इस सेल्‍फ एक्‍चुआलाइजेशन ने तो मेरी ज़िंदगी ही बदल दी है। मेरे सारे काम इसी से कंट्रोल होते हैं।

- मैं समझ रहा हूं अंजलि। मैं उसका कंधा थपथपाता हूं। मैं अंधेरे में अंजलि का चेहरा नहीं देख पा रहा लेकिन उसकी आवाज का दर्द बता रहा है कि वह कितनी तनहा है। दोस्त चला गया, पति न अपना था, न अपना रहा। ऐसे में उस जैसी खुद्दार लड़की खुद को कैसे संभालती होगी।

- कुछ और बताना पूछना बाकी है समीर, वह अंधेरे में मेरी तरफ देखती है।

- नहीं अंजलि, सब कुछ तो तुमने बता दिया है। सच में यकीन नहीं हो रहा कि जो अंजलि मेरे पास बैठी है, जो मुझसे पहली बार मिली है और जिसे मैं दो दिन से लगातार न सिर्फ देख रहा हूं, बल्‍कि पूरी शिद्दत से जिसे महसूस कर रहा हूं, यहां तक पहुंचने की तुम्‍हारी तकलीफ की बातें सुन कर दहल गया हूं। तुम्‍हें सलाम है दोस्‍त।

अंजलि ने मेरा हाथ दबाया है - वो सब तो ठीक है लेकिन तुमने ये नहीं पूछा कि इस गिलास से मेरी दोस्‍ती कब और कैसे हो गयी। वह मेज पर रखे गिलास की तरफ इशारा करती है।

मैं हंसता हूं – नहीं, मैं समझ रहा हूं। दोस्‍त चला गया हो, जीवन साथी कभी अपना न रहा हो और अपनी मेहनत के बलबूते पर सफलता मिलने लगी हो तो सेलिब्रेट करने के लिए कोई तो साथी चाहिये ही। तब भरा हुआ गिलास सबसे अच्‍छा दोस्‍त होता है। चाहे उसे कितनी बार खाली करो, चाहे किस भी ड्रिंक से भर दो, कोई शिकायत नहीं करता।

- सही कह रहे हो समीर। अब ये गिलास ही मेरा सबसे अच्‍छा दोस्‍त है। देसराज वैसे तो आम दुकानदार किस्‍म का आदमी है लेकिन एक बात उसकी बहुत अच्‍छी है। वह बहुत सलीके से पीता है। घर पर ही उसने एक बढ़िया-सा बार बना रखा है। उसके पास बेहतरीन कटलरी है और हर तरह की शराबों का शानदार कलेक्‍शन है उसके पास।

मैं हंसा हूं - तो घर का माल घर पर ही ...।

- पहली बार मैंने उसके बार में से ही चुरा कर पी थी। उस दिन जब नितिन के दोस्‍त की बहन के ससुर ने मुझ पर हाथ डाला था। मुझे तब पता ही नहीं था कि कौन सी बॉटल में क्‍या है और उसे कैसे पीते हैं। बस गिलास में डाली थी और हलक से नीचे उतार ली थी। फिर तो सिलसिला बनता चला गया। अब तो तय करना ही मुश्‍किल है कि देसराज ज्‍यादा पीता है या मैं ज्‍यादा पीती हूं।

- अब चलें समीर। ये पानी तो अब कुर्सी पर चढ़ कर सिर तक आने को बेताब हो रहा है।

मैं सहारा दे कर अंजलि को कमरे तक लाता हूं। कल अंजलि मुझे सहारा देकर लायी थी। आज मैं..।

· 

अंजलि वाशरूम में गयी हैं तो मैं पहले कमरे में ही पसर गया हूं लेकिन बाहर आते ही उन्‍होंने मुझे उठा दिया है - ये बेईमानी नहीं चलेगी। तुम जाओ अपने कमरे में। और मेरा हाथ थाम कर बेड रूम में ले आयी हैं।

· 

अभी मेरी आँख लगी ही है कि झटके से मेरी नींद खुली है। अंजलि मेरे कंधे पर झुकी मुझसे पूछ रही हैं - क्‍या मैं थोड़ी देर के लिए तुम्‍हारे पास सो सकती हूं?

मैं उठ बैठा हूं – ओह, श्‍योर श्‍योर कम। मैंने उनके लिए तकिया ठीक किया है लेकिन वे दुबक कर छोटी सी मासूम बच्‍ची की तरह मेरे सीने से लग कर सो गयी हैं। मैं उनके कंधे थपथपा रहा हूं और उनके बालों में उँगली फिर रहा हूं। इस समय एक जवान और खूबसूरत औरत का मेरी बांहों में होना भी मुझमें किसी तरह की सैक्‍सुअल फीलिंग नहीं जगा रहा। नशे में होने के बावजूद एक अजीब सा ख्याल मेरे मन में आता है - औरत ही हर बार कई भूमिकाएं अदा करती है। बहन, बेटी, पत्‍नी, मां। मेरे सीने से बच्‍ची की तरह लग कर सोयी अंजलि के लिए मैं आज पिता या भाई की भूमिका निभा रहा हूं।

नींद मेरी आंखों से कोसों दूर चली गयी है। पता नहीं क्‍या-क्‍या दिमाग में आ रहा है। दो दिन में कितने तो रूप दिखा दिये इस मायावी अंजलि ने। कल सुबह का चलती कार में उनका वह रूप और अब मेरे सीने से लगी अबोध बच्‍ची सी सो रही अंजलि का ये रूप। कितने रूप एक साथ जी रही है ये अकेली औरत।

मैं उनके चेहरे की तरफ देखता हूं। गहरी नींद में हैं। मेरा नशा अभी बाकी है। लेकिन इतना होश भी बाकी है कि पूरी रात इस तरह बिताना मेरे लिए कितना मुश्‍किल होगा। कुछ भी अनहोनी हो सकती है। मैं कमज़ोर पडूं, इससे पहले ही अंजलि को आराम से सुलाता हूं, उनका सिर तकिये पर टिकाता हूं और हौले से उठ कर बाहर वाले कमरे में आता हूं। दस कदम चलने से ही मेरी सांस फूल गयी है जैसे मीलों लम्‍बा सफर करके आया हूं।

अचानक झटके से मेरी नींद खुली है। पेट में कुछ गड़बड़ लग रही है। तेजी से बाथरूम की तरफ लपकता हूं। उफ.. । ये क्‍या मुसीबत है। वापिस आया ही हूं कि फिर..फिर ..। अभी तो बाथरूम की टंकी ही नहीं भरी होती। क्‍या करूं .. अंजलि को जगाऊं.. । नहीं वे भी क्‍या करेंगी। बेचारी बच्‍ची की नींद सो रही हैं। लेकिन बार बार फ्लश की आवाज सुन कर उनकी नींद खुल ही गयी है। पूछती हैं - क्या हुआ समीर। और मैं यहां कैसे आ गयी। मैं तो बाहर सोयी थी समीर।

मैं निढाल सा सोफे पर पसरा बैठा हूं। बताता हूं - पेट गड़बड़ा गया है। बीस बार तो हो आया। बाहर के कमरे तक जाने और बार बार बाथरूम तक आने की ताकत ही नहीं बची है।

अंजलि उठ कर मेरे पास आ गयी हैं। मेरे माथे पर हाथ फिरा कर देखती हैं, बुखार तो नहीं है। मैं इशारे से बताता हूं – बुखार नहीं है। वे बताती हैं - रुको, मेरे पास गोली है। वे लपक कर गयी हैं और अपने बैग में से गोली ले कर आयी हैं। पानी के साथ गोली ली है मैंने। अंजलि कहती हैं - लेट जाओ, लेकिन मैं ही मना कर देता हूं। उठ कर बैठने और बाथरूम भागने में दिक्कत होगी। अंजलि चिंता में पड़ गयी हैं - कितनी बार हो आये?

मैं इशारे से बताता हूं - कई बार। गिनती याद नहीं। वे सीरियस हो गयी हैं - डॉक्‍टर को बुलाने की ज़रूरत है क्‍या? वे घड़ी देखती हैं - तीन बज कर चालीस मिनट।

मैं मना कर देता हूं - जितना जाना था जा चुका। अब भीतर बचा ही क्‍या है।

अंजलि अफसोस के साथ कहती हैं - गलती मेरी है। मैं समझ गयी थी कि तुम्‍हारी इतनी लिमिट नहीं है। लेकिन बार-बार और हर तरह के ड्रिंक्‍स पिलाती रही। छी: मैं भी क्‍या कर बैठी। तुम्‍हें कुछ हो गया तो...। वे अपने आपको कोसे जा रही हैं।

मैं इस हालत में भी उन्‍हें समझाता हूं - ऐसा कुछ नहीं हुआ है। मैंने शायद ढंग से खाना नहीं खाया था और ज्‍यादा ले ली थी। अब गोली से आराम आ रहा है।I