Chilak in Hindi Short Stories by Deepak sharma books and stories PDF | चिलक

Featured Books
Categories
Share

चिलक

अस्पताल में अरूण साहब मुझे वार्ड के बाहर ही मिल गए।

’’तुम्हें किसने बताया ?’’ अरूण साहब इधर-उधर देखने लगे, ’’किसी ने तुम्हें देखा तो नहीं है ?’’

’’आप बहुत डरते हैं,’’ मैंने अरूण साहब के संग चुहल की, ’’कोई देख भी लेगा तो कौन जानेगा, हम दोनों एक-दूसरे से प्रेम करते हैं ?’’

’’नहीं,’’ उनके स्वर में रूखाई चली आई, ’’तुम्हें यहाँ नहीं दिखाई देना चाहिए। तुम जाओ, मैं ही उधर लखनऊ तुम्हें मिलने आऊँगा......’’

’’अभी कितनी साँसें बाकी हैं ?’’ हँसकर मैंने वार्ड की तरफ इशारा किया।

’’कैसी बात करती हो ?’’ वे भी हँस पड़े, ’’जाओं अब......’’

’’आपने मेम साहब को बचा लिया, साहब,’’ एक अधेड़ चेहरा हमारे समीप आन प्रकट हुआ, ’’वक्त पर उन्हें अस्पताल ले आए.....’’

यह अधेड़ आवाज मैंने फोन पर कई बार सुन रखी थी। अरूण साहब के दफ्तर मैं जब भी फोन करती, यही आवाज फोन उठाया करती।

’’सब ईश्वर की कृपा है,’’ अरूण साहब ने अधेड़ को टालना चाहा।

तभी वार्ड की खिड़की का पर्दा हटाकर एक लड़के का चेहरा पल-भर के लिए सामने आया और लौट गया।

’’आप लोग अब जाइए !’’ अरूण साहब ने हम दोनों को एक साथ निपटा दिया और वार्ड की तरफ बढ़ लिए।

’’आप कहाँ से आ रही हैं ?’’ दफ्तर वाले अधेड़ कर्मचारी ने मेरे प्रति उत्साह दिखाया, ’’इन साहब को कैसे जानती हैं ?’’

मैंने उसके प्रश्नों का कोई उत्तर न दिया। मैं जानती रही, मेरी आवाज से वह भी जरूर अंदाजा लगा सकता था कि मैं कौन थी।

विशिष्ट रोगियों के लिए बनाए गए उन कमरों के बरामदे को हम दोनों ने लगभग साथ-साथ पार किया।

बरामदा पार होते ही मैं तेज कदमों से अस्पताल के टेलीफोन बूथ पर आ खड़ी हुई।

जब मैंने निश्चित कर लिया कि वह अधेड़ अपने स्कूटर समेत अस्पताल के गेट से बाहर हो चुका है तो मैंने टेलीफोन बूथ से अरूण साहब को मोबाइल मिलाया।

मोबाइल शायद उनके बेटे के पास था, बेटे की आवाज में ’हैलो’ सुनते ही मैंने फोन काट दिया। तभी मुझे अरूण साहब और उनके बेटे कांस्टेबिलों की एक टोली के साथ एक सरकारी एम्बेसडर की ओर बढते हुए दिखाई दिए। जैसे ही उनकी मोटर अस्पताल के फाटक से लोप हुई, मैं वार्ड की तरफ बढ़ ली।

बरामदा पार कर मैं वार्ड के अंदर जा खड़ी हुई। बिस्तर पर लेटी रूग्णा जाग रही थी और उसके पैताने बैठी आया ऊँघ रही थी।

’’मैं सामने वाले वार्ड से आई हूँ।’’ मैं उसके चेहरे के पास पहुँची।

रूग्णा ने अपना सिर हिलाया। निस्तेज उसके चेहरे की आँखे अनावश्यक रूप से चमक लीं।

’’सुनने में आया है, आपने नींद की गोलियाँ ज्यादा मात्रा में खा ली थीं ?’’ मैंने अपने कंठ में मिठास भर ली।

रूग्णा ने अपना सिर फिर हिला दिया।

’’अचरज है, पूरे कस्बापुर में कानून का निष्पादन आपके पति के जिम्मे है और आत्महत्या का प्रयास कर आप ही कानून तोड़ रही हैं......’’

डसके होंठों ने एक मुस्कान का संकेत दिया।

ढुलमुल ढंग से।

’’आप उनका ध्यान बाँटना चाहती थीं ?’’ मेरा रोष मुखर हो लिया, ’’अपनी तरफ खींचना चाहती थी ?’’

अपना ’नही’ इंगित करने के उद्देश्य से उसने अपना सिर विपरीत दिशा में हिला दिया।

’’फिर आपने क्यों ऐसा किया ?’’

’’मैं आजाद होना चाहती थी।’’ दुर्बल, क्षीण स्वर में उसने मुँह खोला।

’’क्यों ?’’

’’छत्ते में शहद की जगह जहर जमा हो रहा था.....’’

’’किसकी वजह से ?’’ उसने एक खिड़की खोली तो मैंने दूसरी खिड़की भी खोल लेनी चाही।

’’वजह सब बेजा थीं। मेरे पास धर्माधर्म का अहंकार था तो उनके पास अपनी हड़क का हरख। मेरा अहंकार मुझे  हथियार बाँधने पर मजबूर किए रहता और उनका हरख उन्हें तोड़ने में। अपने अहंकार में मैं उन्हें ललकारती, मेरा हक मुझसे खसोटने का हक किसे दिया आपने ? अपने हरक में वे मुझ पर बिगड़ते। उनका उल्लास उनसे छीनने की हिम्मत मुझमें हो ही क्यों ? रोज का वह कोसना-धिक्कारना मुझे एक नरक की ओर जा रहा था और नरक से अब मुझे दूर जाना रहा, अलग होना रहा.....’’

’’मतलब ?’’ मैं उछल पड़ी, ’’अरूण साहब को तलाक देने को अब आप तैयार हैं ?’’

’’तुम हमें जानती हो ?’’ रूग्णा सोते से जाग पड़ी।

’’अरूण साहब की हरख मुझी से है।’’ मैं मुकाबले पर उतर आई।

’’कोई है ?’’ ऊँचे स्वर में रूग्णा चिल्लाई ।

ऊँघ रही उसकी आया की नींद तो टूटी ही, दरवाजे की दिशा से दो वर्दीधारी कांस्टेबल भी अपनी-अपनी बंदूक उठाए अंदर लपक लिए।

’’हुजूर....’’

’’हुजूर....’’

’’तुम सब लोग कहाँ हो ?’’ प्राधिकार और प्रभुत्व अपने स्वर में भरकर वह फिर चिल्लाई, ’’क्या कर रहे हो ? अपना नाम-पता बताए बगैर यह अजनबी इधर कैसे चली आई? साहब से बर्खास्त होना माँगते हो ?’’

कौन कह सकता था, अभी कुछ ही घंटे पहले वह मृत्यु की लालसा लिए रही थी या फिर अभी कुछ ही मिनट पहले सच बोलने की छटपटाहट ?

’’चलो,’’ वर्दीधारी दोनों कांस्टेबल मेरे दाएँ-बाएँ हो लिए, ’’बाहर चलो....’’

’’साहब के लिए मैं अजनबी नहीं हूँ’’ अपना पहचान-पत्र अपने पर्स से निकालकर मैंने उन कांस्टेबलों के सामने लहराया, ’’वे मुझे जानते हैं। जब वे लखनऊ के पुलिस रेडियो मुख्यालय में तैनात थे, उनकी पूरी डाक मेरे ही जिम्मे रहा करती थी, मैं वहीं लखनऊ के रेडियो मुख्यालय में काम करती हूँ......।’’

’’यह क्या हो रहा है ?’’ तभी अरूण साहब अपने बेटे के साथ अंदर आ गए, ’’कौन है यह ?’’

दोनों ही के हाथों में खाने के डिब्बे और पैकेट रहे।

मुझे अचानक खयाल आया, सुबह ही से मैंने कुछ भी न खाया था। अखबार में अरूण साहब की पत्नी की खबर पढ़ते ही लखनऊ से इधर कस्बापुर के लिए निकल पड़ी थी और तीन घंटे बाद जैसे ही मेरी बस अड्डे पर पहुँची थी, रिक्शा लेकर मैं इधर अस्पताल के लिए चल दी थी।

’’आपने मुझे नहीं पहचाना ?’’ चकितवंत होकर मैंने अरूण साहब से पूछा।

’’यह कौन है ?’’ अरूण साहब ने अपने चेहरे पर मेरे लिए अजनबियत बनाए रखी और अपनी पत्नी की ओर मुड़ लिए, ’’इधर कैसे चली आई ?’’

’’कहती है,’’ रूग्णा ने उत्तर दिया, ’’उधर रेडियो मुख्यालय में.....’’

’’बकती है,’’ अरूण साहब के स्वर ने निष्ठुरता धारण कर ली और उन्होंने कांस्टेबलों को घुड़की दी, ’’इधर टुकुर-टुकुर क्या ताकते हो ? तुम्हें बर्खास्त होना है क्या ? इसे बाहर क्यों नहीं ले जा रहे ? दफा करो इसे.......’’

’’हुजूर....’’

’’हुजूर....’’

दोनों कांस्टेबल पुनः मेरे दाएँ-बाएँ हो लिए।

दाएँ वाले ने मेरी कुहनी टहोकी और बाएँ वाले ने पीठ धकियाई।

उसकी धक्का-मुक्की के बावजूद मेरी नासिकाएँ खाने की गंध अपने अंदर भरने से अपने को नहीं रोक पाईं।

’’इस पर किस नंबर की दफा लगेगी, पापा ?’’ दरवाजे पर लड़के की आवाज ने मेरा पीछा किया।

’’देखना पड़ेगा,’’ अरूण साहब भी सुनाई दे गए, ’अभी तो खाना खाएँगे। बड़ी तेज भूख लगी है.......’’