For you in Hindi Fiction Stories by Neerja Hemendra books and stories PDF | तुम्हारे लिए

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तुम्हारे लिए

हमारे जीवन में गति हो या न हो, कोई परिवर्तन हो या न हो, हम चलें या न चलें, समय का पहिया सदा अपनी गति से चलता रहता है। समय चक्र के साथ ऋतुएँ परिवर्तित होती रहती हैं। अनीता के जीवन में भी ऐसा ही कुछ हो रहा है। यद्यपि उसके जीवन में सब कुछ ठहर-सा गया है, किन्तु ¬समय अपनी गति से आगे बढ़ता जा रहा है। ऋतुएँ भी परिवर्तित हो रही हैं। वर्ष-दर-वर्ष वह उम्र की सीढियाँ भी चढ़ती जा रही है।

विवाहोपरान्त घर गृहस्थी के उत्तरदायित्वों निभाने में वह इतनी व्यस्त हुई कि कुछ देर के लिए भी ठहर कर पीछे देखने का समय ही नही मिला और आज उसे ऐसा प्रतीत हो रहा है जैसे उन्नीस वर्ष की उम्र में विवाह हो जाने के पश्चात् वह सीधे उम्र के इस पचासवें पड़ाव पर पहुँच गयी हो।

विवाह के समय उसकी उम्र उन्नीस वर्ष की भी पूरी नही थी। अट्ठारह वर्ष तीन माह। विवाह के लगभग पाँच वर्षों के अन्दर ही तीनों बच्चे उसकी गोद में आ गये थे। अब बच्चे बड़े हो गये हैं। सब कुछ परिवर्तित हो गया है। किन्तु कुछ अपरिवर्तित-सा भी है। जैसे कि वह आज भी प्रातः चार बजे उठती है। पहले वह इतनी देर तक पूजा-पाठ नही करती थी किन्तु अब पूजा पर बैठ जाने के पश्चात् सन्तुष्टि न मिलने तक बैठी रहती है।

आज भी वह प्रातः चार बजे उठ गयी है। आवश्यक कार्यों से निवृत्त होकर पहले कुछ देर तक वह पूजा करेगी। तत्पश्चात् रसोई के कुछ आवश्यक कार्यों को कर अपने तथा अपने पति समीर के लिए चाय बनाकर समीर को आवाज लगा कर उठायेगी। अनीता एक सरकारी विद्याालय में अध्यापिका है। उसके विद्यालय का समय आठ बजे का है। अतः घर के अन्य सदस्यों की अपेक्षा उसे शीघ्र उठना पड़ता है। अब तो प्रातः उठ जाना उसकी आदत में इस प्रकार सम्मिलित हो गया है कि अवकाश के दिनों में भी उसकी आँख प्रातः अपने आप खुल जाती है।

समीर प्रतिदिन उसे छोड़ने आॅटो स्टैण्ड तक जाता है। आॅटो स्टैण्ड उसके घर से लगभग एक कि0मी0 की दूरी पर है। घर से आॅटो स्टैण्ड तक जाने के लिए उसके पास समीर के अतिरिक्त अन्य कोई विकल्प नही है। वहाँ से आॅटो लेकर वह विद्यालय चली जाती है। समीर चाय पीकर कुर्ता-पायजामा पहन कर बाइक गेट से बाहर निकालने लगा। बाहर निकलने से पूर्व वह अपनी सास के कक्ष में जाकर अपने जाने की सूचना देती है साथ ही उन्हें यह भी बताती है कि खाना बनाने वाली के आने पर उससे क्या-क्या बनवाना है। उसका सबसे छोटा बेटा अमन सो रहा है।

उसके दो बेटे तथा एक बेटी हैं। बड़ा बेटा बंगलौर में मोबाईल कम्पनी में इंजीनियर है। उसका विवाह हो चुका है तथा वह दो वर्ष की एक बेटी का पिता है। उससे छोटी अमीषा है। उसने एम0बी0बी0एस किया है और पी0जी0की तैयारी कर रही है। अमन सबसे छोटा है। इस समय उसकी आयु पच्चीस वर्ष है। अमीषा अपने साथ मेडिकल कोलेज में पढ़ने वाले एक विजातीय लड़के के साथ प्रेम विवाह करना चाहती है।

लड़का अच्छा है। उसे भी पसन्द है। किन्तु समीर को उस लड़के से अमीषा के मेलजोल बढ़ाने पर आपत्ति है। वह लड़का चिकित्सा के क्षेत्र में आगे बढ़ना चाहता है। वह भी एक अच्छे मेडिकल कोलेज से पी0 जी0 कर रहा है। समृद्ध घर का लड़का है, तथा गाँव से सम्बन्ध रखता है। जमीन, धन-सम्पदा, खेती सब कुछ है उसके परिवार में। अनीता इस तथ्य से वाकिफ है कि ऐसा योग्य लड़का अमीषा के लिए वह ढूँढना चाहेगी, तब भी नही ढूँढ पायेगी। फिर भी समीर को वह ठीक नही लगता।

उसे स्मरण है जब अमीषा का एम0बी0बी0एस का अन्तिम वर्ष पूरा होने वाला था। अन्तिम वर्ष उसका कोलेज के हाॅस्टल में रूकना आवश्यक था। क्यों कि इस वर्ष उसकी ड्यूटी डाॅक्टर के साथ वार्ड में लगती थी। जो आवश्यकतानुसार कभी दिन तो कभी रात की पारी में होती है। तब वह रविवार को ही घर आ पाती थी।

’’ आज इतनी देर क्यों हो गयी घर आने में? ’’ एक रविवार अवकाश में शाम के नौ बजे अमीषा के घर में प्रवेश करते ही समीर ने पूछा था।

’’ पापा इस रविवार हमारी इमर्जेंसी ड्यूटी थी। आज का अवकाश मिलने वाला ही नही था। अन्तिम समय लगभग आठ बजे अवकाश की सूचना हमें मिली। ’’ अमीषा ने घबराते हुए कहा।

’’ मेडिकल कोलेज से घर की दूरी आधे घंटे की है। तुम्हे डेढ़ घंटे लग गये घर आने में? ’’ समीर ने उसके आने वाले समय को और बढ़ते हुए पूछा।

अमीषा ने उनकी बात का कोई उत्तर नही दिया। चुपचाप कमरे में चली गयी और अमन से बातें करने लगी।

जब से समीर को यह ज्ञात हुआ है कि अमीषा अपने साथ पढ़ने वाले लड़के को पसन्द करती है तथा उसके साथ ही विवाह करना चाहती है तब से उसके किंचित मात्र भी विलम्ब से आने पर संदेह करने लगते हैं। उन्हंे यह डर लगा रहता है कि अमीषा कहीं उस लड़के के साथ घूम तो नही रही। एक पिता के दृष्टिकोण से उनकी चिन्ता अपने स्थान पर सही है। किन्तु वह चाहती है कि इन सब दायित्वों के निर्वहन में बच्चों की भावनाएँ आहत न हों। माता-पिता के प्रति बच्चों के मन में सम्मान की भावना में कमी न होेने पाये। इसलिए वह उसे ऐसा करने से रोकती है।

वह समीर की सोच में भी परिवर्तन करना चाहती है। उसे यह विश्वास दिलाना चाहती है कि अमीषा ऐसी लड़की नही है। यदि ऐसी होती तो वह मेडिकल की कठिन पढ़ाई कैसे करती? उसका मन अध्ययन में कैसे लगता? उसने कठिन परिश्रम से मेडिकल की पढ़ाई उत्तीर्ण की है। समीर के उल्टे-सीधे प्रश्नों से बहुधा घर का माहौल तनाव पूर्ण हो जाता है।

समझदार, उच्चशिक्षा प्राप्त लड़की से समीर का इस प्रकार के प्रश्न पूछना उसे अच्छा नही लगता। किन्तु उसके समझाने पर भी समीर नही समझते। अमीषा भली लड़की है। यह तो अच्छा है कि अपने पापा की बातों का बुरा नही मानती। हँसती रहती है। अपने काम में व्यस्त रहती है।

घर में सब कुछ सामान्य चल रहा है। समय के साथ अमीषा ने भी पी0 जी0 पूरी कर लिया। अमीषा ने जिस लड़के को पसन्द किया था उसने गोल्ड मैडल प्राप्त करते हुए पी0 जी0 पूरा किया था। वह लड़का अब समीर को भी अच्छा लगने लगा है। बल्कि समीर भी कभी-कभी यही बात कहने लगे हैं कि ऐसा लड़का हम ढूँढते तो भी नही मिलता।

उसका सबसे छोटा बेटा अमन है। सब कुछ ठीक होते हुए भी अमन का स्वास्थ्य सबके लिए चिन्ता का कारण बना रहता है। बचपन में अमन भी उसके दोनोें बच्चों की तरह बिलकुल ठीक था। इण्टरमीडियट तक पढने में भी अच्छा था। उसे स्मरण है वो समय जब प्रथम प्रयास में ही उसके बड़े बेटे का चयन आई0आई0टी में हो गया था। उसे एक अच्छा सरकारी कोलेज मिला और वह बाहर पढ़ने चला गया। दूसरे वर्ष अमीषा ने भी सी0पी0एम0टी0 की परीक्षा उत्तीर्ण की और उसकी भी मेडिकल की क्लासेज शुरू हो गयी थीं।

घर में और सभी नाते-रिश्तेदारों में इस बात की चर्चा और प्रसन्नता थी कि मेरे दो बच्चों का चयन इन्जीनियरिंग और चिकित्सा के क्षेत्र में हो गया। वह भी प्रथम प्रयास में। आज के प्रतिस्पर्धा के दौर में माता-पिता का सपना होता है कि उनका बच्चा पढ-़लिख कर डाॅक्टर या इंजीनियर बने। मेरे दोनों बच्चों ने हमारा सम्मान बढ़ाया था। अतः घर में उत्सव-सा माहौल था। रहा सबसे छोटा अमन वह भी मेडिकल के क्षेत्र में जाना चाहता था। पढ़-लिखकर डाॅक्टर बनना चाहता था। वह भी परिश्रम व लगन से पढ़ाई करने लगा था। उसका उत्साह बढ़ाने के लिए उसके दोनों बड़े भाई-बहनों का दृष्टान्त समक्ष था। वह भी उन जैसा ही सफल हो कर सबकी प्रशंसा का पात्र बनना चाहता था।

समय आया और उसने मेडिकल की परीक्षा दी। अति उत्साह में यहीं पर उससे और हमसे भी चूक हो गयी। हम समझने और अमन को यह समझाने में असफल हो गये कि किसी भी कार्य को करने में सफलता और असफलता दोनों की संभावना रहती है तथा यह भी कि असफलता ही सफलता की प्रथम सीढ़ी है। प्रथम प्रयास में वह असफल हो गया। हम भी सफलता के अभ्यस्त हो गये थे। उस समय हमने अमन की भावनाओं को सम्हालने का प्रयत्न नही किया। उसके मन में निराशा भरती चली गयी। बाद में जब उसका व्यवहार असामान्य होने लगा तब हमने प्रयास अवश्य किया।

कदाचित् तब तक देर हो चुकी थी। शाम को जब पूरा घर एक साथ बैठ कर टी0वी0 देखता, हँसता, बातें करता तब अमन वहाँ चला जाता और बालकनी में जा कर चुपचाप खड़ा हो जाता। हम समझते कि मेडिकल में चयन न हो पाने के कारण वह कुछ व्याकुल है। धीरे-धीरे पुनः प्रयास करेगा और सब कुछ ठीक हो जायेगा। हम ग़लत थे। उसके भीतर एक प्रकार की निराशा के साथ, भाई बहन की तुलना में स्वय को कम समझना व असफलता का डर बैठ गया था। साथ ही यह भी कि हम सब उसे कम प्यार करते हैं और उसके बड़े भाई व बहन को सफल होने के कारण अधिक प्यार करते हैं।

किसी मेहमान के घर आने पर वह सामने नही जाता। चुपचाप अपना कमरा बन्द कर अन्दर बैठा रहता। कभी-कभी वह मुझसे बताता कि रात भर उसे नींद नही आती। अपने पापा से वह कम बात करता। नींद न आने से उसकी मानसिक उलझने बढ़ने लगीं। रात भर बैठा रहता। वह अवसादग्रस्त रहने लगा। चिकित्सक को दिखया गया। उन्होंने कहा कि ठीक हो जायेगा। किन्तु कब? हम सब उसके ठीक होने की प्रतीक्षा कर रहे हैं। अब तो नींद की दवाओं से ही उसे नींद आती है।

एक दिन हमने धूमधाम से अमीषा का विवाह कर दिया। विवाहोपरान्त वह भी एक निजी अस्पताल में डाक्टर में पद पर कार्य करने लगी है। बड़े बेटे के बंगलौर व विवाहोपरान्त अमीषा के अलग शिफ्ट हो जाने से घर में सूनापन व्याप्त रहने लगा। मैं और समीर दिन भर अपनी-अपनी नौकरी पर चले जाते। इस बीच अमन घर पर अकेला रहता। इस अकेलेपन से बचने के लिए ही मैंने व समीर ने उसेे आगे कोई अन्य व्यवसायिक कोर्स कर लेने के लिए कहा। उसने होटल मैनेजमेन्ट करने के लिए कोलेज में दाखिला ले लिया।

जैसे-जैसे उसका कोर्स पूरा होता जा रहा था, मुझे ऐसा प्रतीत हो रहा था कि उसका मन पढ़ने में नही लग रहा है। किसी प्रकार उसने होटल मैनेजमेन्ट का कोर्स पूरा किया। तत्पश्चात् वो पूरे समय घर में रहने लगा। बाहर कीे दुनिया, मित्रों, रिश्तेदारों से अलग वह अपनी दुनिया में कैद रहने लगा। रात में उसे नींद नही आती तो अक्सर बालकनी में खड़ा हो जाता। दोपहर में भी उसे नींद नही आती। खाने में भी अरूचि हो गयी थी। जब मन होता थोड़ा-बहुत कुछ खा लेता। परिणाम स्वरूप उसका स्वास्थ्य खराब रहने लगा। इधर कुछ और परिवर्तन उसमें आये। वह अपना कक्ष व बिस्तर छोड़कर मेरे व समीर के साथ सोने लगा। कदाचित् कोई भय समाहित हो गया था उसके हृदय में। अन्ततः हमें उसे मनोचिकित्सक के पास ले जाना पड़ा।

आज चार वर्ष हो गये। अभी तक अमन का स्वास्थ्य ठीक नही हो पा रहा है। उसके स्वास्थ्य की चिन्ता में सभी परेशान रहते हैं। होटल प्रबन्धन का कोर्स पूरा कर लेने के पश्चात् भी वह नौकरी की मनःस्थित में नही है। आज मेरा अवकाश है। घर के प्रतिदिन के सभी कार्य समाप्त हो गये हैं। इस समय दोपहर केे एक बज रहे हैं। अमन सो रहा है। चिकित्सीय परामर्श के अनुसार उसे जो दवा दी जाती है उसके प्रभाव से वह देर तक सोता है। दोपहर एक बजे से पूर्व वह कभी उठ नही पाता। कभी-कभी और देर तक सोना चाहता है। मेरा मन उदिग्न हो रहा है। घर के अन्दर मन नही लग रहा है। मैं बालकनी में कुर्सी डाल कर बैठ जाती हूँ। बालकनी में बैठ कर भी मन में विचारों का उथल-पुथल जारी है........क्या जीवन इतना दुरूह होता है? उसे जीना लेना क्यों किसी चुनौती की भाँति प्रतीत होने लगता है.....? जीवन बचपन-सा सरल क्यों नही होता? मेरी स्मृतियों में बचपन के दिन किसी चलचित्र की भाँति सजीव होने लगे.....

.........उसका जन्म गाँव में हुआ था। थोड़ा विकसित व कुछ बड़ा गाँव। बड़े-से घर के बाहरी हिस्से में बड़ा-सा दालान था। जिसमें लगे फलों के वृक्ष प्राकृतिक व स्वस्थ वातावरण का सृजन करते थे। आम, अमरूद, करौंदे, नींबू आदि के वृक्ष ऋतुओं के अनुसार फलों से भर जाते। हमारा संयुक्त परिवार एक साथ रहता था और सबके लिए था एक रसोई घर। गाँव के सरकारी इण्टर कोलेज से मैंने दसवीं तक की परीक्षा पूर्ण की थी। गाँव का खुला वातावरण....जहाँ पेड़-पौधे, जंगल अधिक थे। कंक्रीट के जंगल अर्थात मकानों की संख्या कम थी। हम सब भाई बहन व गाँव के बच्चे पढ़ाई करने के पश्चात् मिले खाली समय में सब मिलजुल कर खूब खेलते थे।

अकेलेपन व निराशा से उत्पन्न अवसाद जैसी बीमारियों का नाम गाँव में कोई नही जानता था। मुझे मेरे बचपन का पसंदीदा एक खेल अब भी स्मरण है और वो है गाँव में किसी भी निर्माणाधीन मकान की छत से नीचे पड़े बालू के ढेर पर छलांग लगाने की प्रतियोगिता। जिसमें मैं बहुधा विजयी होती। अथवा वृक्षों की शाखाओं को पकड़कर झूला झूलना.....खेतों की पगडंडियों पर दौडना। प्रथम, द्वितीय,तृतीय स्थान प्राप्त कर खूब प्रसन्न होना जैसे कितने सारे खेल खेलते थे हम सब बच्चे। किसी भी खेल में वह प्रथम आने का प्रयत्न करती, बहुधा प्रथम आती भी। वह लड़कियों वाले खेल कम खेलती। सदैव लड़कों से टक्कर लेती। हाॅकी हो या गिल्ली डंडा लड़कों की टीम में वह बहुधा अकेली लड़की होती।

देखते-देखते उसने दसवीं की परीक्षा उत्तीर्ण कर ली थी। घर में उसके विवाह की बातें होने लगी थीं। उस उम्र में वह विवाह शब्द से परिचित अवश्य थी किन्तु अर्थ से नही। अपने विवाह की चर्चा सुनकर मुझमें कोई विशेष उत्सुकता जाग्रत नही होती जैसी की उस उम्र की अन्य लड़कियों में होती होगी। उस समय मेरा सपना था कि पढ़लिख कर अलग व सबसे अच्छा कुछ बनना। खेतों में, बागों में भाई-बहनों के साथ खेलना, कच्चे आम, कच्चे-पक्के अमरूद तोड़ना व बड़े चाव से खाना। मानो यही जीवन है। माँ की कई डाँट खाने के उपरान्त घर के कुछ कार्यों में उनका हाथ बँटाना तथा पुनः उनकी दृष्टि बचाकर खेलने भाग जाना। तब यही जीवन था। जीवन का यही अर्थ समझ में आता था।

एक दिन मुझे पता चला, मेरा विवाह तय हो गया है। मै दसवी कक्षा में थी। लड़का ग्रेजुएशन कर रहा है। वो जौनपुर के एक छोटे-से गाँव का रहने वाला था। विवाह के उपरान्त मैं ससुराल आ गयी। इतने वर्षों के पश्चात् भी ससुराल की स्मृतियाँ अभी तक मेरे मन-मस्तिष्क में ताजा हैं। दिनभर घूँघट में रहना, घूँघट में रहते हुए ही घर के आवश्यक कार्य करना, शौच के लिए खेतों में जाना....वह भी प्रातः भोर हाने से पहले और शाम के धुँधलके में अँधेरा होने से पूर्व। कितनी दुर्दशा हुई थी मेरी ससुराल के गाँव में!

कहाँ बचपन का वो उन्मुक्त जीवन और कहाँ ये जीवन जिसमें बचपन कहीं विला गया था। कदापि मेरे भीतर कुछ साहस शेष रह गया था। अतः आगे पढ़ने के लिए मैंने विद्रोह के स्वर को मुखर किया। ससुराल से माँ के घर आकर किसी प्रकार बारहवीं की परीक्षा उत्तीर्ण कर ली। तत्पश्चात् आगे स्नातक की शिक्षा के लिए अपनी इच्छा प्रकट की। माँ के घर में शिक्षा का वातावरण था ही, ससुराल पक्ष के लोग भी शिक्षित थे, किन्तु बहू की शिक्षा के प्रति उदासीन व कुछ-कुछ विरोधी भी। अतः मैंने दृढ़ता से अपनी बात रखी। किसी प्रकार स्नातक में माँ के घर से प्रवेश दिलाया गया। मैं पढ़ने के लिए अधिकतर माँ के घर रहने लगी थी।

उन दिनों और आज के समय में कितना फ़र्क आ गया है। आज अमीषा अपनी पसन्द के लड़के से व्याह की बात बेबाक हो कर कह सकती है। उन दिनों मैं समीर से व्याह के पश्चात् भी खुलकर बात नही कर सकती थी। ससुराल तो ससुराल माँ के घर भी नही। उस समय न जाने शर्म या कह सकते हैं बड़ों के सम्मान का एक आवरण -सा बना रहता था। जिसे पार करने की इच्छा नही होती थी।

मुझे स्मरण है एक बार माँ के घर समीर मुझसे मिलने आये। माँ ने उनकी खूब आवभगत की। समीर की इच्छा थी कि कोई फिल्म देखी जाय। इच्छा मेरी भी थी। क्यों कि विवाह से पूर्व मूवी देखने की इच्छा प्रकट करने पर माँ कहा करती थी कि ’’ शादी के बाद अपने पति के साथ सिनेमा देखने जाना। ’’ अर्थात मेरी सभी इच्छायें विवाह के उपरान्त ही पूरी होनी थी। विवाह ऐसा हुआ और ससुराल ऐसी मिली कि वहाँ ये असम्भव था। अतः माँ ने समीर के साथ मूवी देखने जाने की आज्ञा दे दी। मैं मन ही मन प्रसन्न थी सुबह से ही जाने की तैयारियों में व्यस्त थी। घर के आवश्यक कार्यों में मैंने माँ का हाथ बँटाया।

मन में प्रसन्नता की लहरें प्रवाहित हो रही थीं। आज ये पहनूँगी.....इस प्रकार तैयार होऊँगी आदि....आदि। आर्कषक लगने की पूर्ण तैयारी थी। जैसा कि प्रत्येक युवती के मन के नयी-नयी शादी के पश्चात् ऐसी इच्छा होती है। मैं और समीर दोनों तैयार हो गये। हाॅल घर से अधिक दूर नही था। वहाँ तक जाने के लिए पापा ने अपनी सायकिल दी जिस के पीछे के करियर पर मुझे बैठना था। मैं बैठ गयी। समीर ने साईकिल आगे बढ़ाई। मैंने मन ही मन सोचा घर से कुछ दूर जा कर स्थान बदल कर मैं सायकिल के आगे लोहे की राड पर बैठ जाऊँगी। अभी ये विचार मन में उठ ही रहा था कि मैंने देखा कि मेरा छोटा भाई राहुल अपनी सायकिल से हमारे साथ ही चल रहा है। माँ ने हम लोगों के साथ उसे भी लगा दिया था।

छोटे कस्बों में व्याहता लड़की भी अपने पति के साथ अकेले नही आ-जा सकती थी। जब राहुल साथ ही साथ चल रहा था तो सायकिल पर आगे आकर बैठने का प्रश्न ही नही था। संस्कारों व अदब भरा जीवन हुआ करता था उस समय। हम सब शिष्टाचारों से बँधे थे। कभी कभी मैं सोचती हूँ कि वो सारे बन्धन, सारी बन्दिशें बिलकुल सही थीं। कम से कम समाज में नैतिकता व रिश्तों की मान-मर्यादा बड़े- छोटे का अदब, सम्मान था। इसी कारण गाँव की बेटी सबकी बेटी हुआ करती थी। आज वो सब मर्यादायें उच्छृंखलता भरे वातावरण व दुनियावी भीड़-भाड़ में न जाने कहाँ बिला गयी है?

पुराने दिन अब मात्र स्मृतियों में शेष रह गये हैं। किन्तु स्मृतियों में कब तक रहा जा सकता है? इनसे निकल कर वर्तमान में, यथार्थ के धरातल पर आना ही पड़ता है। मेरा वर्तमान यही है कि मुझे अब अमन की चिन्ता होने लगी है। मैं सोचती हूँ कि अभी तो समीर के माता-पिता हमारे साथ रहते हैं । मेरे और समीर के काम पर चले जाने के पश्चात् समीर की देखभाल करते हैं। किन्तु कब तक? उम्र के अन्तिम पड़ाव पर उनकी सक्रियता क्षीण होती जा रही है। अभी तो उनका बहुत बड़ा सम्बल यही है कि घर में अमन को अकेले नही रहना पड़ता।

ऋतुयें परिवर्तित हो रही हैं। चारों तरफ का परिदृश्य परिवर्तित हो रहा है। पाँच वर्ष पूरे हो जायेंगे, अमन का स्वास्थ्य ठीक नही हो पा रहा है। नाते-रिश्तेदारों और समीर के अम्माँ-बाबू जी का विचार है कि यदि अमन का विवाह कर दिया जाये तो कदाचित् उसकी दशा और स्वास्थ्य में सुधार हो जाये। समीर भी यही चाहते हैं। किन्तु कैसे? कौन देगा अपनी पुत्री?

’’ हम किसी निर्धन घर की लड़की का चुनाव करेंगे। ’’ यह प्रश्न सामने आते ही मेरी सास सुभद्रा देवी ने अपने विचार रखे।

’’ हाँ.....हाँ.....ऐसी ही लड़की सही रहेगी। ’’ मेरे पति ने उनकी बातों का समर्थन करते हुए कहा।

’’ कम पढ़ी-लिखी लड़की क्यों? अमन तो शिक्षित है। उसका उपचार चल रहा है। ईश्वर ने चाहा तो उसका स्वास्थ्य भी ठीक हो जायेगा। ’’ मैंने अपनी बात रखी।

मेरी बात सुन कर सब चुप हो गये। घर में सन्नाटा पसर गया। कदाचित् उन्हें मेरी बात ठीक नही लगी।

’’ अमन अभी नौकरी करने की स्थिति में नही है। हमें प्रतीक्षा करनी चाहिए। ’’ मैंने अपनी बात पूरी की।

’’ हमारी अर्थिक स्थिति इतनी कमजोर नही है कि हम अमन व उसकी पत्नी का उत्तरदायित्व न उठा सकें, उन पर चार पैसे खर्च न कर सकें। मैंने अपना प्लाट जो मैरिज लाॅन बनवाने के लिए रख छोड़ा है उसे अमन के नाम कर दूँगा। ’’ सकारात्मक प्रतिक्रिया की उम्मीद में हमारी ओर देखते हुए मेरे श्वसुर अमरनाथ ने कहा।

’’ उससे प्राप्त आमदनी पर्याप्त होगी अमन व उसके परिवार के लिए। ’’ उन्होंने अपनी बात पूरी करते हुए कहा।

घर में सबको उनकी बात उचित लगी। मैं वहाँ से बिना कुछ बोले चली आयी। कुछ न बोलना सहमति मानी जाती है। अमन के लिए वधू की तलाश प्रारम्भ हो गयी। अमन को देखकर मैं यही सोचती कि न जाने किस भावनात्मक आघात के कारण अमन की मनःस्थिति इस प्रकार हो गयी है। न जाने किस कारणवश मानसिक रूप से दुर्बल हो गया। अपने बड़े भाई व बहन की सफलता देखकर उन जैसा सफल न हो पाने की पीड़ा व हीन भावना तो इसका कारण नही है? अब वह मुझसे अपने मन की बातें नही बताता। किन्तु पहले जब वह अपने मन की बातें बताता था तब वह अक्सर मुझसे कहा करता था कि, ’’ आपने मुझे डाॅक्टार बनने नही दिया। मुझे होटल मैनेजमेन्ट का कोर्स करवा दिया। मैं ये नौकरी कभी नही करूंगा। मुझ पर आप लोगों ने ध्यान नही दिया है। ’’ मैंने उसे समझाते हुए कहती कि नही बेटा ऐसा नही है। हम सब ने प्रयत्न किया कि तुम्हारा भी चयन मेडिकल में हो जाये, किन्तु ऐसा नही हो पाया।

मैं उससे कैसे कहती कि तुम्हारे नम्बर कम थे इसलिए चयन नही हो पाया। उसकी स्थिति ऐसी नही थी कि उससे ऐसी बातें की जायें, और उसकी समस्या को और बढ़या जाये।

अमन के लिए लड़की देखी जाने लगी। सजातीय व निर्धन परिवार की लड़की प्राथमिकता पर थी। एक परिचित के माध्यम से ऐसी लड़की मिल भी गयी। निर्धन परिवार की लड़की। उसकी अविवाहित तीन बहनें भी थीं। परिवार इतना निर्धन कि साधारण विवाह का खर्च भी वहन न कर सके।

हम सब लड़की देखने गये। सभी को पसन्द थी वह लड़की।

’’ तुमने कहाँ तक पढ़ाई की है। ’’ मैंने पूछा।

’’ जी, दसवीं तक। ’’ उसने सकुचाते हुए कहा।

’’ आगे क्यों नही की पढ़ाई? ’’

’’ तब हम गाँव में रहते थे। स्कूल गाँव से दूर था। बापू के पास इतने पैसे नही थे कि वो इतनी दूर हमें भेज सकें। ’’ मेरे प्रश्न पर उसने तत्काल उत्तर दिया।

मैं समझ गयी कि यह लड़की बुद्धिमान है। उसे आगे बढ़ने का अवसर नही मिला।

’’ यहाँ...शहर में माँ व बापू दोनो को काम मिल गया है। इसलिए मेरे छोटे भाई-बहन पढ़ने जा रहे हैं। ’’ उसने कहा।

’’ अभी तुम्हारी उम्र अधिक नही है। तुम्हे आगे पढ़ने का अवसर मिले तो क्या तुम पढ़ना चाहोगी? ’’ मैंने पूछा।

’’ मैं दसवीं पास हूँ। इसके आगे यदि कोई व्यवसायिक कोर्स करने का अवसर मिलेगा तो अवश्य करूँगी। जैसे टेलरिंग, कुकिंग, टाइपिंग आदि। यही ठीक रहेगा मेरे लिए। इनमें ही मेरी रूचि है। ’’ उसने कहा।

उसकी बातें सुनकर मुझे प्रसन्नता हुई। मैंने मन ही मन सोचा कि अमन के लिए इतनी समझदार लड़की पुनः नही मिलेगी। यही अमन के लिए सही जीवन साथी होगी......उसके सुख-दुख में उसका संबल होगी। उसकी बातों से मेरी सास, मेरे पति भी संतुष्ट दिखे। वह लड़की जिसका नाम सुरभि था उसके माता-पिता से अपनी पसंद-नापसंद की सूचना फोन द्वारा देने की बात कह कर हम घर आ गये। जब कि वास्तविकता यह थी कि सुरभि मुझे बहुत अच्छी लगी। अमन अब तक सो रहा था। वह देर रात तक जगता है। उसकी अनभिज्ञता में उसे नींद की दवा दी जाती है, तब जाकर उसे कहीं नींद आती है।

घर में सबकी बातचीत के स्वर सुनकर वह कुछ ही देर में उठ गया। हमने पहले से ही उसे बता दिया था कि उसके विवाह की बात चल रही है। एक दो अन्य लड़कियों की तस्वीरें भी हमारे पास थीं। आज हमने सुरभि की तस्वीर दिखाते हुए उसे बताया कि इस लड़की से उसका विवाह तय करने की हम सबने सोची है। उसका चेहरा भावशून्य था। अमन ने न जाने क्या समझा या हमने उसे अपनी बात समझाने में कोई कमी कर दी थी।

’’ माँ! मैं सभी लड़कियों से विवाह करूँगा क्या? मैं इन सबसे विवाह कैसे कर सकता हूँ? ’’ लड़कियों की सभी तस्वीरों की ओर संकेत करते हुए उसने कहा। उसका उत्तर सुनकर मैं सदमें में हूँ।

मेरे मन-मस्तिष्क में विचारों का प्रवाह जारी है। सुरभि के घर वालों को मैं क्या उत्तर दँू? उनकी निर्घनता का लाभ उठाते हुए अमन की अस्वस्थता बता कर भी यदि सुरभि से अमन का विवाह करा देती हूँ तो सुरभि के हृदय पर क्या बीतेगी? कैसे वह पूरा जीवन अमन के साथ व्यतीत करेगी? क्या यह सुरभि जैसी लड़की के साथ अन्याय नही होगा? मुझे सुरभि में अपना प्रतिबिम्ब दिख रहा है। किसी के जीवन से नही खेल सकती मैं।

सुरभि बुद्धिमान लड़की है। भविष्य में वह बहुत कुछ करना चाहती है। आगे बढ़ने व कुछ बनने का माद्दा है उसमें। अवसर उसे मिलना ही चाहिए। अमन के साथ विवाह हो जाने के पश्चात् उसकी प्रखरता की धार अवश्य कुंद हो जायेगी। जटिलताओं में घिर जायेगी वह। अपने लाभ के लिए मैं ऐसा नही होने दूँगी। मैंने निर्णय ले लिया है। अमन के भाग्य में जो लिखा होगा वह उसे अवश्य होगा। किन्तु सुरभि के जीवन को जटिलताओं में उलझाने का मुझे कोई अधिकार नही है। मैंने ये भी सोच लिया है कि सुरभि के घर वालों से मैं ये नही कहूँगी कि सुरभि मुझे पसन्द नही है बल्कि ये कहूँगी कि मेरा बेटा सुरभि के योग्य नही है। मैं अपने मोबाइल फोन में से सुरभि के पिता का नम्बर निकाल रही हूँ।

नीरजा हेमेन्द्र