Kalvachi-Pretni Rahashy - 18 in Hindi Horror Stories by Saroj Verma books and stories PDF | कलवाची--प्रेतनी रहस्य - भाग(१८)

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कलवाची--प्रेतनी रहस्य - भाग(१८)

अन्ततः कौत्रेय उन दोनों पक्षियों के समीप वार्तालाप हेतु पहुँचा एवं उसी शाखा पर जाकर उन दोनों के समीप जाकर बैठ गया,तब उन दो पक्षियों में से एक ने पूछा....
मित्र!क्या तुम मार्ग भटक गए हो?
तब कौत्रेय बोला....
नहीं मित्र!मैं तो ये ज्ञात करना चाहता था कि अभी जो तुम दोनों के मध्य वार्तालाप हो रहा था क्या वो सत्य है? यदि ये सत्य है तो कृपया करके मुझे उस स्थान के विषय में कुछ बताओगे...
तब वो पक्षी बोला...
हाँ!मित्र!ये बिल्कुल सत्य है,कल रात्रि मैंने अपनी आँखों के समक्ष ये घटित होते देखा था...
तो वो स्थान किस दिशा की ओर है?कौत्रेय ने पूछा...
वो स्थान उत्तर दिशा की ओर है,वो पक्षी बोला...
तो क्या तुम वहाँ मेरे संग चल सकते हो?कौत्रेय बोला...
नहीं मित्र!मैं तुम्हारे संग वहाँ चलने हेतु असमर्थ हूँ,उस पक्षी ने कहा...
परन्तु क्यों मित्र? कौत्रेय ने पूछा...
क्योंकि मुझे उस स्थान से भय लगता है,वो पक्षी बोला...
तो अब मैं क्या करूँ? वहाँ तक कैसे पहुँचूँ?कौत्रेय बोला...
किन्तु तुम्हें वहाँ ऐसा क्या आवश्यक कार्य है जो तुम वहाँ जाने के लिए इतने व्याकुल हो,उस पक्षी ने पूछा...
क्योंकि!वो युवती मेरी मित्र है एवं उसकी रक्षा करना मेरा परम कर्तव्य है,कौत्रेय बोला....
ओह...तो ये बात है,मैं तुम्हारी सहायता करने हेतु तत्पर हूँ,चलो मैं तुम्हारे संग उस स्थान तक चलूँगा,किन्तु मैं उस वृक्ष तक नहीं जाऊँगा,तुम्हें उस स्थान तक छोड़कर वापस आ जाऊँगा,उस पक्षी ने कहा....
धन्यवाद मित्र!तुम मेरी सहायता हेतु तत्पर हो गए,कौत्रेय बोला....
इसके पश्चात दोनों उस स्थान की ओर उड़ चले,कुछ समय के पश्चात वें दोनों वहाँ पहुँच गए,तब उस पक्षी ने एक विशाल वृक्ष की ओर इंगित करते हुए कहा...
मित्र!वो जो विशाल वृक्ष तुम्हें दिखाई दे रहा है,उसी वृक्ष में तुम्हारी मित्र को उन सभी ने स्थापित कर दिया था,मेरा कार्य समाप्त हुआ,अब मैं चलता हूँ क्योंकि मैं इस स्थान पर और अधिक समय तक नहीं रुक सकता....
धन्यवाद मित्र! कभी भाग्य ने चाहा तो हम पुनः मिलेगें,कौत्रेय बोला...
अपना ध्यान रखना मित्र! और इतना कहकर वो पक्षी वहाँ से उड़ गया.....
उस पक्षी के जाते ही कौत्रेय उस विशाल वृक्ष की ओर उड़ चला एवं वो उस वृक्ष के समीप जाकर कालवाची को खोजने लगा,किन्तु अत्यधिक खोजने पर उसे कालवाची का कोई भी चिन्ह्र ना मिला,परन्तु उसने हार ना मानी एवं वो कई दिनों तक उसे खोजने का निरन्तर प्रयास करता रहा,तब एक दिन उसकी दृष्टि उस छिद्र पर पड़ी ,जहाँ से कालवाची की दशा देखी जा सकती थी,कौत्रेय ने शीघ्रता से उस छिद्र में झाँका तो उसे कालवाची दयनीय अवस्था में दिखाई दी,उसने उसे पुकारा भी...
कालवाची....कालवाची!देखो मैं कौत्रेय,कृपया इधर देखो....मैं आ गया हूँ...
किन्तु कालवाची ना कुछ सुन पाई और ना ही कोई उत्तर दे पाई,कालवाची की दशा देखकर कौत्रेय की आँखें द्रवित हो उठीं एवं उसके मस्तिष्क में एक विचार आया,उसने सोचा मैं तो एक कठफोड़वा हूँ तो क्यों ना इस वृक्ष को अपनी चंचु(चोंच) द्वारा फोड़ना प्रारम्भ कर दूँ,ये विशाल वृक्ष है तो क्या हुआ?किन्तु मैं साहस ना हारूँगा और एक ना एक दिन इस विशाल वृक्ष से कालवाची को मुक्त करवाकर रहूँगा,यही सब सोचकर कौत्रेय ने अपना कार्य प्रारम्भ कर दिया,उसने उस वृक्ष को फोड़ना अब आरम्भ कर दिया,जब वो थक जाता तो तनिक विश्राम कर लेता और जब भूख लगती तो कुछ खाकर पुनः अपने कार्य में लग जाता,उसे ये कार्य करते करते अब एक वर्ष व्यतीत हो चुका था,किन्तु वृक्ष का वो अभी कुछ ही भाग फोड़ पाया था.....
ऐसे ही पाँच वर्ष बीत गए किन्तु कौत्रेय अपने कार्य में सफल ना हो सका एवं इसी मध्य वैतालिक राज्य पर किसी राजा ने आक्रमण कर दिया एवं उस आक्रमण में रानी कुमुदिनी और तेरह वर्षीय राजकुमारी भैरवी भाग निकले क्योंकि उन्हें महाराज कुशाग्रसेन ने भागने को कहा था ,लेकिन शत्रुओं ने महाराज कुशाग्रसेन की हत्या कर दी,सेनापति व्योमकेश ने उस युद्ध में बड़े साहस के साथ युद्ध किया किन्तु वें भी घायल हो गए एवं तब उनका पन्द्रह वर्षीय पुत्र अचलराज उन्हें बचाकर किसी सुरक्षित स्थान पर ले गया ,इस आक्रमण में सेनापति व्योमकेश की पत्नी देवसेना भी नहीं बची थी,इधर पिता और पुत्र अपने प्राणों की रक्षा हेतु किसी गाँव में जाकर छुप गए और उधर रानी कुमुदिनी और उनकी तेरह वर्षीय पुत्री भैरवी ने भी किसी गाँव में शरण ली,इस प्रकार रानी कुमुदिनी का सम्पूर्ण राज्य और सुहाग नष्ट हो गया,रानी कुमुदिनी को जब लगा कि अब शत्रुओं से उन्हें संकट नहीं तो वें अपने पिता के राज्य पहुँची एवं वहीं रहने लगीं,कुछ दिनों बाद उनके वृद्ध पिता का भी स्वर्गवास हो गया,कुमुदिनी के पिता कोई राजा तो थे नहीं ,जो उनके पास अचल सम्पत्ति और राज्य होता ,वें तो साधारण से कृषक थे, महाराज कुशाग्रसेन ने रानी कुमुदिनी से प्रेमविवाह किया था,वो तो कुमुदिनी का भाग्य था जो महाराज कुशाग्रसेन ने उसे अपनी अर्धांगिनी बनाया था,किन्तु अब तो कुछ भी शेष ना बचा था, ना ही सुहाग और ना ही सम्पत्ति,रह गया तो केवल उनका एक ही स्मृतिचिन्ह् और वो थी राजकुमारी भैरवी...
अब रानी कुमुदिनी के पास कोई मार्ग शेष ना बचा था इसलिए जैसे तैसे वो भैरवी का पालन करने लगी, रानी कुमुदिनी जो कभी महलों में निवास किया करती थी,जो कभी छप्पनभोग ग्रहण किया करती आज उसे अब दो समय का भोजन भी ना मिलता था,जैसे तैसे वो दूसरों के घरों में दासी का काम करके अपना जीवनयापन कर रही थी,इतनी दरिद्रता उसने पहले कभी नहीं देखी थी,वो कभी कभी सोचती कि कदाचित ये सब कालवाची के कारण हुआ ,उसने ही श्राप दिया होगा तभी ये सब हुआ है,किन्तु अब तो कुछ भी नहीं हो सकता था एवं इधर सेनापति व्योमकेश भी अब स्वस्थ हो चुके थे और उनकी सेवा में अचलराज सदैव तत्पर रहता ,संग संग रानी कुमुदिनी और भैरवी की खोज भी करता रहता,किन्तु अत्यधिक खोजने पर उसे कहीं भी वें दोनों ना मिलीं थीं....
जीवन यापन के लिए अचलराज अश्वों के व्यापारी के संग कार्य करने लगा था तथा उनसे व्यापार भी सीखता रहता,जीवन निर्धारित रूप से चल रहा था किन्तु भैरवी की याद उसे कभी कभी विचलित कर जाती,किन्तु कहते हैं ना कि समय किसी के लिए नहीं रूकता और समय सच में आगें की ओर बढ़ रहा था,ऐसे पाँच वर्ष और व्यतीत हो गए,अब अचलराज बीस वर्ष का हो चुका था और राजकुमारी भैरवी अठारह वर्ष की,किन्तु अब भी दोनों के मध्य अत्यधिक दूरियाँ थी...
और इधर कौत्रेय भी अपने कार्य में निरन्तर लगा हुआ था,उसे उस विशाल वृक्ष को फोड़ते हुए दस वर्ष बीत गए थे किन्तु अब भी कालवाची को मुक्त करवाने में सफल ना हो पाया था....

क्रमशः....
सरोज वर्मा....