Kalvachi-Pretni Rahashy - 17 in Hindi Horror Stories by Saroj Verma books and stories PDF | कलवाची--प्रेतनी रहस्य - भाग(१७)

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कलवाची--प्रेतनी रहस्य - भाग(१७)

अब कालवाची कक्ष के पटल से नींचे उतर कर आई और अचेत होकर धरती पर गिर पड़ी,क्योंकि वो कक्ष के पटल पर चिपके चिपके निढ़ाल हो चुकी थीं,थकान ने उसके शरीर को मंद कर दिया था,कालवाची की ऐसी दशा देखकर महाराज कुशाग्रसेन बोले....
कालवाची! क्या हुआ तुम्हें?
किन्तु कालवाची ने कोई उत्तर ना दिया,तब महाराज कुशाग्रसेन ने कालवाची के समीप जाकर उसके हाथ को स्पर्श करके डुलाया,तब जाकर कालवाची कराहते हुए बोली....
महाराज!मैं अत्यधिक दयनीय अवस्था में हूँ,जब तक मुझे मेरा भोजन नहीं मिलेगा तो मैं ऐसे ही मृतप्राय सी रहूँगी,मैं बिना भोजन के कई वर्षों तक जीवित तो रह सकती हूँ किन्तु मैं अपनी शक्तियों का प्रयोग नहीं कर पाऊँगी,मुझ पर दया करें महाराज!मुझे दण्डित ना करें,मैं मानवों की हत्या करने को विवश हूँ क्योंकि उनका हृदय ही मेरा भोजन है,मैं अपनी प्रसन्नता हेतु किसी की हत्या नहीं करती,केवल अपने जीवनयापन हेतु विवश होकर मुझे निर्दोष प्राणियों की हत्या करनी पड़ती है,कृपया मेरी विवशता को समझने का प्रयास करें,मैं आपसे अत्यधिक प्रेम करती हूँ,कृपया कर मुझे क्षमा करें....
तभी महाराज कुशाग्रसेन बोले....
किन्तु तुमने राजनर्तकी मत्स्यगन्धा की हत्या अपने भोजन हेतु नहीं की थी,उसका तो कोई और ही कारण था,इसलिए मैं तुमसे झूठ नहीं कह सकता कालवाची! तुमने निर्दोष प्राणियों की हत्या की है,इसका दण्ड तो तुम्हें भुगतना ही होगा...
नहीं!महाराज!आप मुझे दण्डित नहीं करेगें,ऐसा आपने कहा था,अब आप अपने कथन से पीछे हट रहे हैं,कालवाची बोली....
मैनें तुम्हें ऐसा कोई वचन तो नहीं दिया था,महाराज कुशाग्रसेन बोले....
आपने मुझसे असत्य क्यों कहा महाराज?कालवाची ने पूछा...
यदि मैं ऐसा ना कहता तो तुम कक्ष के पटल से नीचे ना आती,महाराज कुशाग्रसेन बोले....
तो आपने मुझसे विश्वासघात किया,कालवाची बोली...
तुमने भी तो मेरा विश्वास तोड़ा है,हम सबके समक्ष तुम कालिन्दी बनकर शीशमहल में रह रही थी,क्या ये विश्वासघात नहीं?महाराज कुशाग्रसेन ने पूछा...
महाराज! मैं ऐसा विचार लेकर शीशमहल में नहीं आई थी,मैं तो स्वप्न में भी आपसे विश्वासघात करने का नहीं सोच सकती,कदापि मेरा ऐसा कोई संकल्प नहीं था,मैं तो केवल आपसे प्रेम करती थी,आपके प्रेम में वशीभूत होकर मैंने ऐसा कार्य किया,कालवाची बोली....
कालवाची और महाराज कुशाग्रसेन के मध्य वार्तालाप चल ही रहा था कि तभी वहाँ पर सेनापति व्योमकेश ,बाबा कालभुजंग के संग आ पहुँचें,बाबा कालभुजंग को वहाँ उपस्थित देखकर महाराज कुशाग्रसेन ने उन्हें प्रणाम किया,बाबा कालभुजंग ने जैसे ही कालवाची की दयनीय अवस्था देखी तो वें महाराज कुशाग्रसेन से बोले....
महाराज!अब बिलम्ब मत कीजिए,इसे किसी पिजरें में डालकर वन की ओर प्रस्थान कीजिए,यदि रात्रि बीत गई तो मैं अपना कार्य पूर्ण नहीं कर पाऊँगा....
जी!बाबा!मैं शीघ्र ही सैनिकों को आदेश देता हूँ कि वें कालवाची को वन की ओर ले जाने में बिलम्ब ना करें,महाराज कुशाग्रसेन बोलें...
अन्ततः महाराज कुशाग्रसेन के आदेश पर कालवाची को पिंजरे में डालकर वन ले जाया गया,वहाँ बाबा कालभुजंग एवं सेनापति व्योमकेश भी पहुँचे,तब वहाँ बाबा कालभुजंग ने मंत्रों का उच्चारण प्रारम्भ किया एवं अपनी तंत्रविद्या के माध्यम से कुछ ही समय पश्चात कालवाची को एक अत्यधिक विशाल वृक्ष के तने में बंदी बना दिया,उस तने में केवल इतना स्थान दिया कि बाहर से कोई कालवाची की दशा को देख पाएं, कालवाची रोती रही,गिड़गिड़ाती रही,दया की भीख माँगती रही,महाराज कुशाग्रसेन को अपने प्रेम की दुहाई देती रही, किन्तु उसकी विनती किसी ने ना सुनी,उस पर किसी को भी दया ना आई...
अन्ततः कालवाची को उस विशाल वृक्ष के तने में बन्दी बनाने के पश्चात,उस कार्य को पूर्ण करके सभी राजमहल वापस आ गए एवं जो सैनिक इस कार्य हेतु वन में उपस्थित थे तो उन्हें आदेश दिया गया कि ये बात वें स्वयं तक सीमित रखें किसी से भी ना कहें,इधर कौत्रेय भी कालवाची का भोजन लाने हेतु असमर्थ रहा वो किसी प्राणी का हृदय ना ला सका कालवाची के लिए एवं जब वो शीशमहल पहुँचा तो उसने देखा कि कालवाची अपने कक्ष से अनुपस्थित है,तब उसे कालवाची की अत्यधिक चिन्ता हुई और वो उसे शीशमहल के हर एक स्थान पर खोजने लगा किन्तु इतना खोजने पर भी उसे कालवाची कहीं ना मिली,तब उसे आशंका हुई कि कहीं महाराज कुशाग्रसेन ने उसे बंदीगृह में तो नहीं डाल दिया,तो वो उसे खोजने बंदीगृह पहुँचा किन्तु कालवाची उसे वहाँ भी ना मिली,अब तो कौत्रेय की चिन्ता अत्यधिक बढ़ चुकी थी,वो उदास होकर शीशमहल के उस स्थान पर पहुँचा जहाँ बहुत से पक्षी पले हुए थे,वो भी उन पंक्षियों के मध्य उपस्थित हो गया,वहाँ हीरामन तोता भी उपस्थित था,कौत्रेय हीरामन तोते से छुपकर कहीं दूसरी ओर बैठा था,कौत्रेय ने सुना कि हीरामन तोता दूसरे पक्षियों से कह रहा था कि कालवाची को महाराज ने पहले बंदीगृह में बंद किया,इसके पश्चात उसे वन ले जाया गया,वन में उसके साथ क्या हुआ ये तो मुझे भी ज्ञात नहीं....
जब ये बात कौत्रेय ने सुनी तो उसने शीघ्रता से वन की ओर प्रस्थान किया,उसे वन पहुँचते पहुँचते प्रातःकाल हो चुका था,वो उदास सा वन में कालवाची को खोजने लगा किन्तु उसे कालवाची कहीं ना मिली,वो रात्रि से कालवाची को खोज रहा था और अब दोपहर होने को आई थी,वो उदास सा किसी वृक्ष पर जाकर बैठ गया,वो जिस वृक्ष पर बैठा था तो वहाँ पर दो पक्षी आपस में वार्तालाप कर रहे थे,उन दोनों के मध्य हो रहे वार्तालाप को कौत्रेय ने ध्यान से सुना....
उनमे से एक पक्षी कह रहा था....
तुम्हें ज्ञात है कल रात्रि इस वन में क्या हुआ?
मुझे नहीं ज्ञात कि क्या हुआ था कल रात्रि,दूसरे पक्षी ने पूछा....
तब पहला पक्षी बोला.....
कल रात्रि मैं अपने कोटर में सोया हुआ था,तभी मुझे कुछ स्वर सुनाई दिया,जिससे मेरी निंद्रा टूट गई एवं मैंने अपने कोटर में से झाँककर देखा कि कुछ अग्निशलाकाओं का प्रकाश उस स्थान को प्रकाशमान कर रहा था,मैंने उस प्रकाश में वैतालिक राज्य के राजा कुशाग्रसेन को देखा एवं उनके संग उनके सेनापति थे साथ में कोई तान्त्रिक बाबा भी थे,कदाचित जिनका नाम कालभुजंग था,मैने देखा कि सैनिकों ने किसी वृद्ध एवं असहाय स्त्री को पिंजरे में बंदी बना रखा था,उसके हाथों और पैरों में मोटी मोटी बेड़ियाँ थीं,तब महाराज के आदेश पर उस स्त्री को उस पिंजरे से बाहर निकाला गया,इसके पश्चात बाबा कालभुजंग ने एक स्थान पर अग्नि प्रज्जवलित करके मंत्रोच्चारण प्रारम्भ कर दिया,कार्य पूर्ण होने के पश्चात वो स्त्री अत्यधिक दयनीय अवस्था में आ गई एवं वहाँ उपस्थित विशाल वृक्ष के तने में उस असहाय स्त्री को सदैव के लिए स्थापित कर दिया,वो उस तने में इस प्रकार विलीन हो गई जैसे कि दुग्ध में जल,उस तने को देखकर कोई नहीं कह सकता था कि वो स्त्री उसके भीतर उपस्थित है,वो स्त्री निरन्तर दया की भीख माँगती रही किन्तु उसकी विनती किसी ने ना सुनी,उस स्त्री को उस वृक्ष के तने में स्थापित करके वें सभी वहाँ से चले गए,इसलिए भयभीत होकर मैने भी उस स्थान को छोड़ दिया,बड़ा ही सुन्दर स्थान था वो किन्तु मेरे भाग्य में कदाचित वहाँ रहना नहीं लिखा था....
तब उस पक्षी की बात सुनकर दूसरा पक्षी बोला....
ये तो अत्यधिक चिन्ता का विषय है कि तुम्हें अपना प्रिय स्थान त्यागना पड़ा...
हाँ!मित्र!इसलिए अपने लिए नया स्थान खोज रहा हूँ....
उन दोनों की बात सुनकर कौत्रेय ने उन दोनों से वार्तालाप करने का निश्चय किया....

क्रमशः....
सरोज वर्मा....