अमन कुमार त्यागी
सुधा को मुहल्ले भर के सभी बच्चे, जवान और बूढ़े जानते थे। सभी सुधा से बेहद लगाव रखते। सुधा भी तो सभी के दुःख दर्द में शरीक़ होती। वह कहती -दुःख बाँटना आत्मसंतुष्टि का परिचायक है।’ सौम्य, सुंदर, सुशील सुधा ने भले ही मायके में अमीरी के दिन देखे हों मगर ससुराल की ग़रीबी में भी वह अमीरों जैसी ख़ुश थी। यहाँ तक कि सुधा ने अपनी ससुराल की ग़रीबी को कभी अपने मायके में ज़ाहिर नहीं होने दिया। सुधा का पति राजेश नेक इंसान था। मुहल्ला या रिश्तेदार ही क्या पूरे नगर में कोई भी उसकी बुराई नहीं करता। वह सबके साथ हंसता बोलता और अपने काम से काम रखता। हर तरह से ख़ुश रहने वाली सुधा के चेहरे और हाव-भाव से नहीं लगता था कि वह कोई दुःख भी झेल रही है। जबकि वह ऐसा दुःख झेल रही थी कि अक्सर एकांत में रोया करती। उसे निःसंतान होने का दुःख था।
मुहल्ले के बहुत सारे बच्चे तो ऐसे भी थे जो पूरा दिन सुधा के पास गुजारते। सुधा भी बच्चों के खाने के लिए नित नए पकवान बनाती, उन्हें खिलौने दिलाती और उनके लिए अच्छे-अच्छे कपड़े भी सिलती। जब कभी उसकी सास बच्चों पर किए जाने वाले ख़र्च को फालतू कहकर सुधा को समझाने का प्रयास करती तो वह नम्रता के साथ कहती-‘माता जी! यदि हमारे अपने बच्चे होते तब भी तो ख़र्च करना ही था।’ परंतु सास को गुस्सा सिर्फ़ इसलिए आ जाता कि बहू ने उसे जवाब दिया है। क्रोध में भुनभुनाई सास कहती-‘बड़ी आई बच्चों वाली, तू मनहूस है, तूने ऐसे कर्म ही कहाँ किए हैं, जो एक लल्ला जन सके। मुझे लगता है अब तो बस वंशबेल भी यहीं रुक जाएगी।’ कहकर ज़ोर-ज़ोर से रोने लगती और फिर देर तक बड़बड़ाती रहती।
सास के मुँह से ताने सुनकर, सुधा अंदर तक सहम जाती। वह कुछ कहने के लिए मुँह खोलना चाहती मगर कुछ भी तो नहीं कह पाती। उसका दिल काँप उठता और आँखें सजल हो जातीं। बेबस, अपने कमरे में जाती और बैड पर औंधी लेट जाती। वो तब तक रोती जब तक कि उसकी आँखों का पानी सूख नहीं जाता।
सुधा के पिता जी शहर के जाने-माने वकील थे और माँ पढ़ी लिखी कुशल गृहिणी थी। सुधा उनकी इकलौती संतान थी। माँ बाप की मुँह लगी लाडली सुधा बचपन से ही ज़हीन थी। अपने विद्यालय में हमेशा प्रथम रहने वाली सुधा सादगी पसंद थी। इकलौती होने के बावजूद उसने कभी अपने माँ बाप से कोई उल्टी सीधी फ़रमाईश नहीं की। जबकि उसके पिता जी की गिनती शहर के जाने-माने धनाढ्य लोगों में शुमार थी। वह भी चाहते थे कि उनकी बेटी भी शहर की अन्य दूसरी लड़कियों की तरह आधुनिक बनकर रहे। उसे याद आ रहा था जब पिताजी वर्मा जी के बेटे की शादी के रिसेप्शन से आकर बोले थे- ‘सुधा! कभी-कभी तो तुम भी जींस शर्ट पहन सकती हो। कल बाज़ार से जाकर ले आना।’
-‘हाँ! मैं भी सोचती हूँ, जब दूसरी लड़कियाँ मुझे भी चहकती हुई अच्छी लगती हैं तो हमारी सुधा भी आधुनिक कपड़े क्यों नहीं पहन सकती।’ माँ ने भी अपनी मर्ज़ी व्यक्त कर दी।
सुधा सोच में पड़ गई। उसने कुछ देर सोचने के बाद कहा-‘पिता जी! आप अपनी बेटी को ख़ुश देखना चाहते हैं या सुंदर?’
-‘कौन बाप है जो अपनी बेटी को ख़ुश नहीं देखना चाहेगा।’ पिता जी ने उत्तर दिया।
-‘तब मैं जो कपड़े पहनती हूँ उन्हीं में ख़ुश हूँ, रही बात सुंदरता की तो आपकी बेटी इतनी बदसूरत भी नहीं है।’
-‘अब आया समझ में। मेरी बेटी किसी की सोच को अपने ऊपर हावी नहीं होने देना चाहती है।’ माँ ने गर्व के साथ कहा था।
-‘अच्छा भाई, मैं हार मानता हूँ दोनों माँ बेटियों से।’ पिता जी ने पूछा -‘और तुम आधुनिकता से क्यों चिढ़ती हो सुधा?’
-‘चिढ़ती नहीं हूँ पिता जी, बल्कि मैं तो आधुनिकता की पक्षधर हूँ। लेकिन क्या कम से कम कपड़े पहनना और अपनी संस्कृति को भूल जाना ही आधुनिकता है?’
-‘बेटे ग्लोबलाईजेशन का ज़माना है। हमें पूरी दुनिया के साथ मिलकर चलना ही होगा।’
-‘मानती हूँ पिता जी! लेकिन क्या हमारा कोई अस्तित्व ही नहीं है? हमें ही दुनिया के साथ मिलना है बाक़ी दुनिया को क्या हमारे साथ मिलकर नहीं चलना चाहिए?’
-‘सबको, सबके साथ मिलकर चलना चाहिए।’ पिता जी ने कहा।
-‘तब हमें अपनी संस्कृति को भी तो जीवित रखना होगा। सभी यूरोपियन सोच के हो जाएंगे तो भारतीयता कैसे जीवित रह पाएगी?
-‘ओह! तुम माँ बेटियों से कोई भी नहीं जीत सकता है। शहर का ये जाना-माना वकील भी नहीं। ठीक है बेटी! मेरे साथी ही नहीं बल्कि इस देश का हर व्यक्ति पहले भारतीय है बाद में कुछ और।’
-‘ऐसी बात भी नहीं है पिता जी! आधुनिकता की दौड़ में शामिल होने वाले अपनी सोच बदल ही नहीं रहे हैं बल्कि खोते जा रहे हैं। तथाकथित आधुनिकता के नाम पर जो हो रहा है, वहाँ कम से कम विवेक से काम नहीं लिया जा रहा है। बाहरी दिखावे के लिए नैतिकता पीछे छूटती जा रही है।’
सुनकर वकील पिता लाजवाब हो गए।
वकील साहब अपने परिचितों एवं रिश्तेदारों में भी सुधा की ख़ूब तारीफ़ करते, सुधा की माँ तो मानो साक्षात् देवी ही थीं। उन्होंने सुधा को जो संस्कार देने का प्रयास किया था, उसमें सफ़ल रही थीं। बेटी को गीता पाठ कराने के साथ-साथ, उसे आधुनिकता के संबंध में भी कम नहीं समझाया था। यों भी कहा जा सकता है कि माता जी ही सुधा की वास्तविक गुरु थीं।
सुधा को अच्छी तरह से याद है, जब उसने माँ से कहा था-‘माँ कितना अच्छा होता अगर मेरा भी एक भाई होता।’
माँ ने कहा-‘देखो बेटी! मनुष्य की प्रबल इच्छाएं होती हैं, वह सब कुछ चाहता है मगर एक मनुष्य को सब कुछ तो प्राप्त हो नहीं सकता। किसी को किसी चीज़ की कमी है तो किसी को किसी चीज़ की। जब इच्छाओं की पूर्ति नहीं होती है तब मनुष्य को दुःख घेर लेते हैं, वह उस का सुख भी नहीं भोग पाता है जो उसके पास मौजूद है। कर्म करते रहो और ईश्वर जो फल देता है उसी में संतोष करो।’
माँ का उपदेश सुनने के बाद सुधा ख़ामोश हो गई थी। फिर उसने कभी भाई न होने का दुःख प्रकट नहीं किया। न ही बाद में उसे यह लगा कि भाई के बिना उसका जीवन अधूरा है। वह अपनी माँ के काम में ही हाथ नहीं बटाती थी बल्कि अपने पिता जी की भी मदद करती थी।
सुधा उस वक़्त स्नातक की छात्रा थी जब उसकी जिंदगी में राजेश आया था। एक दिन पिता जी थके हुए घर आए। उनके साथ एक ख़ूबसूरत युवक भी था। पिता जी सीधे स्टडीरूम में पहुँचे। सुधा उन्हें पानी देने गई।
-‘ये राजेश है बेटी! कानून की डिग्री लेने के बाद अब प्रैक्टिस करना चाहता है। इसकी इच्छा है कि मैं इसे वकालत के गुर सिखाऊँ, राजेश ये मेरी बेटी है सुधा।’
सुधा कुछ बोली नहीं। पानी के खाली गिलास लेकर चली आई। बाद में चाय और फिर खाना भी पिता जी ने राजेश के साथ ही खाया। राजेश का पिताजी के पास आना-जाना शुरू हो गया था। पिता जी के लिए राजेश अच्छा शागिर्द सिद्ध हुआ। राजेश की मेहनत और लगन का ही नतीजा था कि वह अदालत और सुधा के पिताजी के दिल में जगह बनाता गया। राजेश जितनी चतुराई अदालत में दिखाता था, उतनी ही सादगी से वह अदालत के बाहर व्यवहार करता था। राजेश भी अपने माता-पिता की इकलौती संतान था। उसके परिवार की माली हालत अच्छी नहीं थी। मगर उसकी मेहनत और लगन से सुधा के पिता अत्यधिक प्रभावित थे।
वह जवान हो रही सुधा के विवाह के लिए चिंतित तो थे ही सो उनकी चिंता राजेश के रूप में समाप्त हो गई। राजेश सर्वगुण संपन्न था। यदि उसके पास किसी चीज़ की कमी थी तो वह था धन।
एक रात्रि सुधा को सोते-सोते अहसास हुआ कि माँ-पिता जी कुछ बातें कर रहे हैं। उसने आँखें खोले बिना ही उनकी बातें सुनी। पिता जी कह रहे थे-‘मुझे तो नहीं लगता कि राजेश में कोई कमी है।’
-‘मैंने यह बात कब कही कि उसमें कोई कमी है, लेकिन उसे कुछ कमा तो लेने दो, ससुराल में जाकर मेरी बेटी को कोई कमी रहे यह भी तो हम नहीं देख सकते।’ माँ ने गंभीर होते हुए कहा।
-‘अरे बाबली! हमारे पास जो कुछ भी है वो भी तो सुधा का ही है।’ पिता जी ने समझाया।
-‘एक बात कहूँ जी! हमारी बेटी पूरी तरह संस्कारिक है और कोई भी संस्कारिक लड़की यही चाहती है कि वो अपने पति की कमाई में ही ख़र्च चलाए।’
-‘कैसी बात कर रही हो? हमारा सुधा के अलावा है ही कौन?’ पिता जी ने खीझते हुए कहा।
-‘नाराज़ क्यों होते हो जी। मैंने इंकार तो नहीं किया है। बस मेरा कहना यही है कि राजेश को और कमा लेने दो ताकि वो अपने घर की माली हालत सुधार सके।
-‘अच्छा ये बताओ, राजेश तुम्हें पसंद है या नहीं?’ पिता जी ने खीझकर पूछा।
-‘हाँ, लेकिन मैं पहले सुधा से भी बात करूँगी। सुधा को पसंद नहीं होगा तो बात आगे नहीं बढाएंगे।’ माँ ने भी खीझकर ही उत्तर दिया।
फिर उनके बीच चुप्पी छा गई। सुधा को उस रात नींद नहीं आई। वो रात भर सोचती रही कि माँ को क्या जवाब देगी। हालांकि राजेश में कोई कमी नहीं थी, उसे वह अच्छा भी लगने लगा था मगर फिर भी एकाएक कैसे कह दे राजेश उसे पसंद है।
सुबह जब पिता जी अदालत चले गए तब माँ ने सुधा को अपने पास बैठाकर पूछा-‘सुधा! अब तुम्हारे पिता जी तुम्हारी शादी करना चाहते हैं। क्या तुम्हें कोई लड़का पसंद है।’
-‘माँ! कैसी बात कर रही हो। क्या आप को अपनी बेटी पर इतना भरोसा भी नहीं है। क्या सोचकर मैं किसी लड़के को पसंद करूँ। मुझे अपने पिता जी और माँ पर पूरा भरोसा है। आप से ज़्यादा मेरे सुख-दुःख का ख़याल और कौन रख सकता है।’
-‘राजेश तुझे कैसा लगता है?’
-‘माँ! आप और पिता जी ने क्या वाक़ई मुझे अपने से दूर भेजने का मन बना लिया है?’
-‘मैंने सिर्फ़ यह पूछा है कि राजेश तुझे कैसा लगता है?’
-‘मुझे उससे क्या लेना-देना जो आपको अच्छा लगे उसी के साथ जाने को तैयार हूँ।’
माँ की आँखों में पानी भर आया। उन्होंने सुधा को बाहों में भर लिया। उनके मुँह से अनायास ही निकला -‘मेरी बच्ची, औरत ही तो प्रकृति की प्रतिमूर्ति है और प्रकृति सदा विकास के लिए सोचती है। क्या तुझे ससुराल जाते हुए ख़ुशी नहीं होगी?’
जवाब में सुधा ने हाँ में सिर हिला दिया।
-‘तेरे पिता जी राजेश के साथ तेरे रिश्ते की बात पक्की करना चाहते हैं। लड़का तो ठीक है, तुझे पसंद है ना?’
-‘माँ, आप अपनी बेटी को बच्छी तरह जानती हैं। आपकी पसंद ही मेरी पसंद है।’
दोनों के बीच काफ़ी बातें होती रहीं। माँ को बेटी के चले जाने का ग़म सताने लगा था और बेटी को माँ-पिता जी दोनों से दूर जाने का।
शाम को पिता जी लौटे। सबकुछ सामान्य था। रात को सुधा को नींद नहीं आ रही थी। उसके हृदय में शादी के लड्डू फूट रहे थे। वो ख़ुश थी। राजेश की तस्वीर उसकी आँखों के सामने तैर रही थी। उसने सोने का बहाना बनाया। जब पिता जी को लगा कि सुधा सो गई है तब उन्होंने पूछा-‘सुधा से बात हुई?’
-‘हाँ।’
-‘क्या?’
-‘वो तो हमारी ख़ुशी में ही ख़ुश है।’
-‘हम उसका बुरा तो नहीं चाहेंगे।’
-‘ठीक है कल राजेश के घर जाकर बात पक्की कर आओ।’
और अगले दिन, राजेश के घर जाकर उसकी माता जी से अपनी इच्छा व्यक्त की। राजेश, वकील साहब व उनके परिवार के तमाम क़िस्से अपनी माँ को सुनाता ही रहता था। वकील साहब की इच्छा से तो राजेश की माँ की ख़ुशी का ठिकाना ही न रहा, उन्हें लगा कि उनके सभी सपने साकार हो उठे हैं। इतना अच्छा रिश्ता भला कौन अपनाना नहीं चाहेगा। राजेश की माँ ने भी तुरंत हाँ कर दी।
विवाह की बात पक्की हो गई तो फिर तैयारियाँ भी होने लगीं। सादगीपूर्ण तरीके से राजेश व सुधा का विवाह संपन्न हो गया। राजेश को पति रूप में पाकर सुधा बेहद ख़ुश थी। राजेश की माँ ने आशीर्वाद देते हुए कहा था-‘ दूधो नहाओ पूतो फलो।’
दोनों परिवारों के बीच हंसी ख़ुशी का माहौल बन गया था। राजेश की माँ की ख़ुशी उस वक़्त और भी अधिक बढ़ गई, जब उसे पता चला कि वह दादी बनने वाली है। माँ ने राजेश से कहा-‘बेटा! बहू का ख़याल रखना, उसे जिस चीज़ की आवश्यकता हो पूरी करते रहना, ईश्वर हमें पोता देने वाला है।’
इसी दौरान मुहल्ले की एक और महिला को कन्या उत्पन्न हुई थी। यह उसकी पांचवीं कन्या थी। तब मुहल्ले में उसकी किस्मत की चर्चा होने लग गई। कोई कहती-‘देखा, बेचारी! एक लल्ला के चक्कर में लल्लियों की लाईन लग गई।’ कोई कहती-‘क्या पता, बेचारी की किस्मत में क्या है?’ तभी राजेश की माँ ने भी कहा-‘अब तो अल्ट्रासाउंड से पता चल जाता है, अगर कोख़ में लल्ली है तो गर्भपात कराया जा सकता है।’ राजेश की माँ की बात सुनकर किसी महिला ने कहा था-‘तुम्हारे घर में भी तो मेहमान आने वाला है, जरा पता तो कराओ कि लल्ला है या लल्ली। लल्लियों का ज़ोर चल रहा है। हो सकता है कि तुम्हारे घर में भी लल्ली ही आने वाली हो।’
सुनकर राजेश की माँ को ऐसे झटका लगा जैसे किसी ने करंट लगा दिया हो। उनका चेहरा उतर गया। वह घर पहुँची और राजेश के घर आते ही फ़रमान सुना दिया-‘बेटा! बहू का अल्ट्रासाउंड करा ला, देखना बच्चा स्वस्थ भी है कि नहीं, कहीं बहू को परेशानी न उठानी पड़े।’ माँ ने प्यार से कहा तो राजेश और सुधा सहर्ष तैयार हो गए। अगले दिन, सुधा का अल्ट्रासाउंड कराने के लिए राजेश तैयार हो रहा था कि तभी माँ ने सुधा के सिर पर प्यार से हाथ फेरते हुए कहा-‘तू रहने दे बेटा! बहू के साथ मैं चली जाऊँगी। औरतों की बीमारी का वैसे भी आदमियों को कोई पता नहीं होता है।’ राजेश क्या कहता, उसने एक बार सुधा की ओर देखा। फिर बोला-‘ठीक है माँ, जैसी तुम्हारी मर्ज़ी।’
सुधा को लेकर माँ जाँच केंद्र पहुँची। डाॅक्टर से अल्ट्रासाउंड कराने के लिए कहा और पर्चा बनवाकर फीस जमा करा दी। सुधा की सास काफ़ी देर तक सुधा से प्यार भरी बातें करती रही। फिर एकाएक उठी और डाॅक्टर के कमरे में घुस गई। जब वापिस आई तो उनके चेहरे पर संतुष्टिजनक भाव थे। -‘बस अभी होने वाला है, मेरी डाॅक्टर से बात हो गई है।’ उन्होंने सुधा से कहा और बराबर वाली कुर्सी पर बैठ गई। थोड़ी देर बाद सुधा की अल्ट्रासोनिक जाँच हो गई। कुछ देर इंतजार करने के बाद उसकी सास पुनः डाॅक्टर के पास पहुँची -‘क्या आया डाॅक्टर साहब?’ डाॅक्टर ने उसके चेहरे के भावों को पढ़ते हुए कहा-‘लड़की है।’ सुधा की सास का चेहरा लटक गया। वो चेहरे पर कठोर भाव लाते हुए बोली-‘मुझे इससे छुटकारा चाहिए।’
-‘मिल जाएगा परंतु बीस हज़ार रुपए लगेंगे।’
-‘मैं तैयार हूँ मगर बहू को पता नहीं चलना चाहिए।’
-‘यह तो मुश्किल होगा।’
-‘आप मेरे ऊपर छोड़ दीजिए, बहुत जल्द मैं बहू को आपके पास लेकर आऊँगी, बस आप तैयार रहना, पैसे की फ़िक्र मत करना। बच्चे के कमज़ोर होने की रिपोर्ट बना कर दे दीजिए तो मुझे आसानी होगी।’
-‘ठीक है।’
डाॅक्टर का जवाब सुने बिना ही वो बाहर निकल गई। उसने सुधा से कहा -‘रिपोर्ट शाम को राजेश आकर ले जाएगा। हम चलते हैं।
सुधा असमंजस में थी। उसकी सास के चेहरे पर अब संतुष्टिजनक भाव नहीं थे। उसने सास से कुछ नहीं पूछा और घर चली आई। शाम को रिपोर्ट आई तो उसमें बच्चे के कमज़ोर होने के संकेत थे। सास ने सुधा का ध्यान रखना शुरू कर दिया। सुधा सास की ख़ातिर और सेवा से बेहद ख़ुश थी।
एक दिन अचानक सुधा का पैर फिसल गया और वह गिर गई। सास ने तुरंत रिक्शा बुलाई और डाॅक्टर के पास पहुँच गई। वो डाॅक्टर से मिली और रुपए पकड़ाती हुई बोली-‘सुधा को पता नहीं चलना चाहिए, भले ही उसे बेहोश करना पड़े।’ रुपए लेने के बाद डाॅक्टर ने मुस्कुराते हुए कहा-‘आप बेफ़िक्र रहिए। आपकी बहू को एडमिट कर रहे हैं। दवाइयों के पैसे बाहर जमा करा देना।’
सुधा को एडमिट कर लिया गया। उसे दवाइयाँ और जाँच के नाम पर बेहोश कर दिया गया। तीन महीने का गर्भ था। वह जल्दी ही मातृत्व सुख प्राप्त करना चाहती थी परंतु जब उसे होश आया तो उसकी सारी ख़ुशी काफ़ूर हो गई थी। राजेश उसके सामने आँखों में पानी लिए खड़ा था और सास उसके सिर पर हाथ फिराते हुए कह रही थी, बेटी घबराने की ज़रूरत नहीं है। ऊपर वाले की मर्ज़ी के सामने भला किसकी चली है।’
बेचारी सुधा, उसके साथ यह घटना प्रथम तो थी परंतु अंतिम नहीं। एक-एक कर सास ने सुधा का चार बार गर्भपात कराया। पोते की इच्छा ने दादी को शैतान बना दिया। बगिया को सींचने वाले ने ही पौधों को उखाड़ कर फेंक डाला। अंतिम बार डाॅक्टर ने ऐलान कर दिया कि अब सुधा कभी माँ नहीं बन सकती। सुनकर सुधा की सास घबरा गई, उसने अपनी करनी को सुधा की कमज़ोरी के रूप में बदल दिया।
सुधा भले ही कितनी भी समझदार थी मगर माँ बनने की चाह तो हर स्त्री को होती है। सुधा अब मातृत्व सुख से वंचित थी। सो उसने दूसरे बच्चों में सुख तलाशना शुरू कर दिया था। वह ख़ुश रहती थी। परंतु सास से जब कोई महिला बच्चों की बात करती तब वो कसमसाकर रह जाती। भले ही वो सुधा को ताने देती मगर सच्चाई ये है कि अपनी लगाई आग में वो स्वयं ही जल रही थी।