KARZ in Hindi Moral Stories by Aman Kumar books and stories PDF | कर्ज़

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कर्ज़

अमन कुमार त्यागी 


सावन का महीना बीत चुका था। आम की फसल इस बार कम ही थी, सो आम का समय भी गया ही समझो। कोयल की कूक तो बस अब अगले साल ही सुनने को मिल पाएगी। गर्मी के मारे बुरा हाल है। उमस भरी इस गर्मी से ज़मीन फट पड़ी है। यूँ समझो कि वो रोना चाहती है मगर उसकी आँखों का पानी सूख चुका है। अगर ऐसा ही रहा तो अबकी बार धान की फसल भी चैपट ही समझो। गन्ने की हालत पहले से ही ख़राब है।
महेश साईकिल पर तेल की कैन लादे अभी गाँव में घुसा ही था कि उसका छोटा भाई दौड़कर उसके पास पहुँच हाँफते हुए बोला -‘तेल मैं ले जाऊँगा भैया! तुम साईकिल से निकल लो, दो सिपाहियों के साथ अमीन आया हुआ है। उसने छोटे और भूरे को पकड़ भी लिया है।’
सुनकर महेश की पिंडलियाँ काँप गईं। प्यास तो लग ही रही थी कि होंठों पर पपड़ी जम गई। पसीने की हालत यह थी कि मानो सोते फूटकर नदी बह निकली हो। उसने जल्दी-जल्दी तेल की कैन साईकिल के कैरियर से उतारी और साईकिल लेकर विपरीत दिशा की ओर तेज़-तेज़ पैंडल मारते हुए चला गया। कहाँ जाएगा? उसे पता नहीं। अमीन से बचने के लिए बैठ जाएगा किसी पेड़ की घुटन भरी छाँव में। कोई रिश्तेदार भी ऐसा नहीं कि रुपए उधार ले आए और मार दे अमीन के मुँह पर। साईकिल चलाते-चलाते उसकी आँखों के आगे छोटे का चेहरा दृश्यमान हो उठा मानो कह रहा हो -‘भागकर कहा जाओगे महेश। सरकारी पैसा है, देना तो पड़ेगा ही। मुझे देखो दो सालों से भागता रहा मगर अब पकड़ में आ ही गया।’
महेश के प्राण काँप उठे, वो जानता था कि अब छोटे को कम से कम चैदह दिन काल कोठरी में बिताने ही होंगे। मच्छरों और बदबूदार उस कोठरी की कल्पना भी किसी प्रताड़ना से कम नहीं है। मात्र पाँच हज़ार रुपए का कर्ज़ रह गया था छोटे पर। वो प्रतिवर्ष कुछ न कुछ रकम बैंक में जमा कर ही देता था लेकिन पिछले चार सालों से बेचारे पर आफ़त ही आफ़त थी। पहले भैंस मरी, फिर लड़की बीमार हो गई और अब बेचारे की पत्नी चल बसी। छोटे बैंक का कर्ज़ उतारना चाहता था लेकिन बेचारा उतार न सका जबकि भूरे कर्ज़ उतारने की स्थिति में था लेकिन उसकी नियत में बदी थी। वो ख़्वाब पाले बैठा था कि एक न एक दिन सरकार उसका कर्ज़ भी माफ़ कर देगी। गाँव में ऐसे कई लोगों के कर्ज़ माफ़ हो चुके थे। जिन्होंने सालों से बैंक को पाई भी न दी थी। महेश लगातार कर्ज़ दे रहा था परंतु उसका कर्ज़ माफ़ नहीं हो सका। वो व्यवस्था को कोसता हुआ समय व्यतीत कर रहा था। कर्ज़ माफ़ न होने की टीस उसे भी थी।
जब सरकार ने बकाएदार किसानों के कर्ज़माफ़ी की घोषणा की थी, उस समय महेश बैंक के कर्ज़ वाले खाते में कुछ रकम जमा कर देना चाहता था लेकिन भूरे ने ही उसे रोक लिया था। भूरे ने कहा था - ‘क्यों बेवकूफ बनता है महेश! जब सबका कर्ज़ माफ़ होगा तो क्या तेरा-मेरा नहीं होगा?’ बात महेश की समझ में आ गई। बैंक में जमा करने के लिए एकत्र की गई रकम चुटकर-फुटकर में ही ख़त्म हो गई। महेश को पछतावा भी हो रहा था परंतु कर भी क्या सकता था। इस बार तो वैसे भी अकाल पड़ रहा है। डीजल पानी की तरह ख़र्च हो रहा है और क़ीमत है कि आसमान छू रही हैं।
अचानक महेश की साईकिल का पहिया रास्ते में पड़े एक पत्थर के टुकड़े पर चढ़कर फिसल गया, साईकिल गिर गई और संभालने के चक्कर में महेश की कलाई में मोच आ गई। वो अभी उठ भी नहीं पाया था कि दूसरी ओर से साईकिल पर आ रहे मुन्नु ने उसे उठाया।
-‘क्या बात, बच्चों की तरह गिर पड़े महेश!’
-‘ओह, मुन्नु।’ हंसने का असफल प्रयास करते हुए बोला -कहो कहाँ जा रहे थे?’
-‘मैं तो तुम्हारे पास ही आ रहा था।’
-‘मेरे।’ चैंकते हुए महेश ने पूछा। -बताओ क्या बात है।’
-‘अरे यार बात कुछ ख़ास भी नहीं है और है भी।’ जैसे पूरी ताक़त के साथ कहने का प्रयास कर रहा था। -‘व...वो, दरअसल बात ये है कि....अगर तुम मुझे एक हज़ार रुपए दे देते तो मैं बैंक की किश्त जमा कर देता। कल ही मैनेजर कह रहा था, अगर समय पर किश्त जमा नहीं हुई तो आरसी कट जाएगी। फिर अमीन चक्कर लगाएगा।’
महेश के तो जैसे होंठ सिल गए।
-‘ख़ामोश क्यों हो गए महेश।’ मुन्नु ने उसके कंधों पर हाथ रखते हुए पूछा क्या कोई परेशानी है।
-‘अब तुमसे क्या छिपाना? मुन्नु मेरी भी आरसी कटी हुई है और अमीन लगातार चक्कर काट रहा है। आज तो उसके साथ दो सिपाही भी हैं।’
-‘ये तो होना ही था मेरे दोस्त! तुमने भूरे के कहने में आकर जो ग़लती की है उसका ख़ामियाजा तो भुगताना ही होगा। कर्ज़ माफ़ी के चक्कर में आकर तुमने अपनी आँखों पर लालच की पट्टी जो बांध ली थी।’ मुन्नु ने उसे उलहाना देते हुए कहा।
-‘तुम मेरी मज़ाक बना रहे हो, मित्र!’ महेश ने मुन्नु की ओर आश्चर्य से देखते हुए पूछा।
-‘सच और मज़ाक में अंतर होता है मित्र! मैं सच कह रहा हूँ, वो सच जो अक्सर कड़वा ही होता है।’ मुन्नु ने दो टूक कह दिया।
-‘लेकिन लोगों के कर्ज़ माफ़ भी तो हुए हैं और वो सभी डिफाल्टर थे मैं तो फिर भी समय पर कर्ज़ चुका रहा था मगर उन्हें देखो जिन्होंने कर्ज़ लेने के बाद, बैंक की ओर रुख ही नहीं किया। उन लोगों के कर्ज़े तो सरकार ने माफ़ कर दिए हैं।’ महेश ने शिक़ायती लहज़े में कहा।
-‘यही तो मैं कह रहा हूँ। कर्ज़ न देने के लिए तुमने कितना अच्छा तर्क खोज निकाला है। क्या लेते वक़्त तुमने यह सोचा था कि कर्ज़ माफ़ हो जाएगा।
-‘नहीं तो।’
-‘मेरे दोस्त बुजुर्गों की कहावतें बुरी नहीं हैं।’ मुन्नु ने कहा
-‘कौन सी कहावत?’
-‘यही कि औरत का ख़सम आदमी और आदमी का ख़सम कर्ज़ होता है।’ मुन्नु ने मुस्कराते हुए कहा।
-‘क्या बात कर रहे हो मुन्नु। क्या इस बात को मैं नहीं जानता।’
-‘तुम्हें यह भी समझ लेना चाहिए मित्र कि कर्ज़ और मर्ज़ कभी कम नहीं होते हैं।’
-‘तुम यह भी जानते हो मुन्नु कि जिन लोगों ने सरकारी कर्ज़ कभी जमा ही नहीं किया है, वो कर्ज़ माफ़ी के बाद मस्त नजर आ रहे हैं। यही नहीं उन्होंने बैंकों से दोबारा कर्ज़ लेना शुरू कर दिया है।’
-‘क्यों बच्चों वाली बातें कर रहे हो महेश! हमने कर्ज़ लिया अपनी ज़रूरतों को पूरा करने के लिए। हमारी ज़रूरतें पूरी होने के बाद हमें कर्ज़ वापिस करने में हर्ज़ ही क्या है।’
-‘लेकिन हमारी समस्याएं भी तो हैं। सूखा पड़ रहा है और महंगाई ने कमर तोड़ रखी है।’ महेश ने अपनी समस्याएं गिनानी शुरू की ही थीं कि मुन्नु ने उसे बीच में ही रोककर कहा- क्यों इधर-उधर के बहाने बना रहे हो? जब बैंक से समय पर कर्ज़ नहीं मिल पा रहा था तब तुम ही कह रहे थे कि चारों ओर भ्रष्टाचार व्याप्त है। अब कर्ज़ अदा नहीं करना चाह रहे। क्या ये भ्रष्टाचार नहीं है।’
-‘मैं उपदेश सुनना नहीं चाहता मुन्नु!’ महेश ने खिसियाते हुए कहा- तुमसे एक हज़ार रुपए क्या ले लिए, समझ रहे हो कि तुम्हारा दास ही बन गया हूँ। कुछ भी कहोगे मैं मानता रहूँगा।’
-‘मत मानो और भागते रहो अमीन से बचकर और करते रहो कर्ज़ माफ़ी का इंतज़ार। बेहतर होगा कि भीख मांगनी शुरू कर दो।’ मुन्नु को भी क्रोध आ गया था- ‘जिसे देखो आम आदमी से लेकर बड़े से बड़े नेता तक सभी सरकारी पैसे को हड़पने की योजनाएं बनाते रहते हैं।’
महेश ने मुन्नु की बात को अनसुना करते हुए अपनी साईकिल उठाई और बिना कुछ बोले ही चलता बना। तभी महेश का छोटा भाई सुरेश वहाँ पहुँच गया। वो मुन्नु के पास रुका और उसने महेश को आवाज़़ लगाई। महेश पलटकर उनके पास पहुँचा।
-‘क्या वो लोग जा चुके, सुरेश!’
-‘हाँ भैया। परंतु साहुकार आया है और वो हमारी ज़मीन कुर्क करने की धमकी दे रहा है।’
-‘क्या?’
-‘हाँ भैया। अब उसके पच्चीस हज़ार से बढ़कर पिछहत्तर हज़ार रुपए हो गए हैं।’
-‘ओह, मैं क्या करूँ। कर्ज़ है कि बढ़ता ही जा रहा है। कुछ भी तो समझ में नहीं आ रहा है।’ महेश परेशान होते हुए बोला। तभी मुन्नु ने धीरे से कहा- कर्ज़ माफ़ी का इंतज़ार करो और इन बिन बुलाई परेशानियों को झेलो।’
-‘एक बात कहूँ मुन्नु?’ अबकी बार महेश आक्रोश भरे लहजे में बोला।
- ‘हाँ, बिल्कुल कहो।’ मुन्नु ने उसकी ओर सवालिया निगाहों से देखा।
- ‘उपदेश देना अलग बात है और किसी की मदद करना अलग बात। .... सुनो जो किसी की मदद नहीं कर सकते वह सिर्फ़ उपदेश ही दे सकते हैं, जैसे कि तुम।’ महेश ने मुन्नु को घूरते हुए कहा।
- ‘कहना क्या चाहते हो?’ मुन्नु ने पूछा।
- तुमने मुझे एक हज़ार रुपए उधार दिए और मेरे बुरे वक़्त की परवाह न करते हुए लगातार माँग रहे हो। ..... शर्म नहीं आती तुम्हें?’
- ‘इसमें शर्म की क्या बात है? लिए का पाप तो दिए से ही कटता है।’ मुन्नु ने स्पष्ट किया -‘साहुकार का कर्ज़ तो माफ़ होने से रहा।’
सुनकर महेश के चेहरे पर बेचैनी के भाव आ गए थे। वह अजीब सी कशमकश में था। हाथों को आपस में मलता हुआ बोला- ‘सुनने का साहस नहीं है तुममें।’
- ‘सुनाओ, मैं भी तो सुनूँ कौन सी ख़ास बात है।’ मुन्नु ने व्यंग्यात्मक लहजे में कहा।
- ‘तो सुन .... और जो कह रहा हूँ उसकी तस्दीक अपनी पत्नी से कर लेना।’ कहते हुए महेश ने गहरी सांस ली और फिर बोला-‘तेरी बेटी के ससुराल वाले तेरी बेटी को छोड़ देना चाहते थे। पचास हज़ार की माँग थी उनकी और शादी के बाद तेरे पास एक भी धेला नहीं था, तो तूने अपनी पत्नी को उसके मायके भेज दिया था, पैसों का इंतजाम करने के लिए?’ महेश न चाहने के बावजूद कह रहा था।
- ‘तो इसमें क्या बात हो गई? मेरी पत्नी और मेरी ससुराल ....... तुम्हें क्यों दर्द हो रहा है?’ मुन्नु ने ताना मारा।
- ‘मुन्नु! तुम्हारी पत्नी ने कसम दी थी न बताने की .... मगर तुमने एक हज़ार रुपए के लिए मेरा इतना अपमान किया है कि मुझे कहना ही पड़ रहा है।’ महेश बोले जा रहा था-‘तेरी ससुराल वालों के पास जो था वो भात में दे दिया था, उनके पास कुछ भी नहीं था .... तब तेरी पत्नी मेरे पास आई थी और बेटी का हवाला देते हुए रुपए मांगे। ...... मुझ पर आज जो कर्ज़ा चढ़ा हुआ है ना .... वो वही है जो मैंने तेरी पत्नी को इस उम्मीद पर दे दिए थे कि वो अपने भाईयों का पैसा बताकर चुपचाप मुझे दे देगी और तुझे पता भी नहीं चलेगा कि मैंने तेरी मदद की है। मगर अब अफ़सोस हो रहा है मुझे, तुझ जैसे कुपात्रों की मदद नहीं करनी चाहिए।’ महेश कहते-कहते रोने लगा था-‘आज मैं उलझन में हूँ तो मेरी मज़ाक वह आदमी बना रहा है जिसकी इज्ज़त मैंने चुपचाप बचाई थी।’
सुनकर मुन्नु और सुरेश दोनों हैरान और अवाक थे। महेश पुनः अपनी साईकिल पर बैठा और वहाँ से चला गया। वह मन ही मन बुदबुदा रहा था-‘कर्ज़ा बढ़ गया है तो मेहनत भी बढ़ानी पड़ेगी, शहर चलता हूँ मजदूरी करके पहले कर्ज़ उतारूँगा फिर दूसरा कोई काम देखूंगा।’