soi takdeer ki malikayen - 53 in Hindi Fiction Stories by Sneh Goswami books and stories PDF | सोई तकदीर की मलिकाएँ - 53

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सोई तकदीर की मलिकाएँ - 53

सोई तकदीर की मलिकाएँ 

 

53

 

सुबह सुबह भाई को आया देख कर सुभाष खुश होने की बजाय चिंता से भर गया । घर में खैर सुख तो है न । सारे सकुशल हों हे भगवान । बिना कोई मजबूत कारण के भाई ऐसे कैसे आधी रात को ही घर से चल दिया वह भी बिना कोई सूचना दिए । पर शक्ल से तो सब ठीक लग रहा है । उदास या घबराया हुआ तो दिख नहीं रहा फिर यों अचानक इस तरह चला क्यों आया ।
सोचों में डूबा डूबा सुभाष हाथ मुँह धोकर आया और रमेश के पास आकर चारपाई पर बैठ गया ।
तू कैसा है सुभाष ? – रमेश ने सुभाष के कंधे के चारों ओर अपनी बाँह लपेटी और प्रेम से पूछा ।
“ ठीक हूँ , एकदम भला चंगा । घर पर सब कैसे हैं माँ , भाभी सब ?
सब ठीक हैं पर दोनों तुम्हारी चिंता में घुली जा रही हैं । हर समय तुझे याद करती हैं । मैं तुम्हें लेने आया हूँ ।
जयकौर का दिल पहले से ही बुरी तरह से धङक रहा था । रमेंश इतनी सुबह सुबह अकारण तो नहीं आ सकता था । जब उसने हवेली की दहलीज पर अपना पाँव रखा था , तभी से उसकी बायीं आँख फङक रही थी । अब ले जाने की बात सुनते ही उसे लगा कि दिल उछल कर हथेली में ही आ जाएगा - ये अभी ऐसे कैसे जा सकता है भइया । खेतों में इतना काम पङा है और इसने सारा काम निपटवाने की जिम्मेदारी ली है ।
जी भाईसाहब , मैं अभी नहीं जा सकता । थोङा काम खत्म होते ही मैं खुद गाँव आ जाऊँगा । आप माँ और भाभी को समझा दीजिएगा कि वे मेरी चिंता न करें । मैं यहाँ बिल्कुल ठीक हूँ ।
सामने से बसंत कौर आती दिखाई दी तो रमेश चारपाई छोङ कर उठ गया और दोनों हाथ जोङ सिर झुका कर कहा – सत श्री अकाल सरदारनी जी ।
सरदारनी ने उत्सुकता से आगंतुक को देखा ।
सुभाष ने आगे बढ कर कहा – सरदारनी जी , ये मेरे बङे भाई हैं । गाँव से मेरा हाल जानने के लिए आए है ।
आओ भाई , जम जम आओ । बैठो , कोई चाय शाय पूछी के नहीं इनको ।
रमेश ने दोबारा हाथ जोङ लिए – चाय तो मैं पी चुका । अब चलता हूँ । आप इसे जल्दी भेज देना । इसकी भाभी और माँ इसे देखने के लिए बेचैन हो रही हैं ।
इतनी दूर से आए हो , एक दो दिन तो रुको । परसों चले जाना ।
माफी चाहता हूँ , मैं रुक नहीं सकता । वहाँ घर पर बहुत काम है और करने वाला कोई नहीं है ।
रमेश चल पङा । सुभाष बुत बना हुआ उसे जाते हुए देखता रहा । जब वह दिखना बंद हो गया तो जैसे उसकी तंद्रा भंग हुई । उसने तुरंत कार निकाली और रमेश के पीछे ले जाकर रोक दी – भाई . बैठो मैं तुम्हें बस में बैठा आता हूँ ।
रमेश ने कार में बैठते हुए कहा – इसकी क्या जरूरत थी । हमें तो पैदल चलने का अभ्यास है । मैं आराम से टहलता हुआ चला जाता । बाकी तू अपना ध्यान रखना और एक बात हमेशा याद रखना कि जयकौर अब सरदार की बीबी है । कोई ऐसा काम न करना जिससे मुसीबत में पङ जाओ और हमें भी मुसीबत में डाल दो ।
जी भाई जी ।
बस अड्डा आ गया था । रमेश कार से उतर गया । सुभाष ने उसके पाँव छुए और वापिस हो लिया ।
दिन - रात इसी तरह मौज से गुजरते रहे । घर में खाने पीने की तो कोई कमी नहीं थी । दूध दही लस्सी सब प्रचूर मात्रा में उपलब्ध था और ध्यान रखने के लिए जयकौर । बसंत कौर अलग से खाने पीने का ध्यान रखती । आठ दिन बीते । गेहूं की फसल कट कर घर आ गय़ी । खेत में अब काम न के बराबर रह गया था ।
अगले दिन नाश्ता करने के समय बसंत कौर ने सुभाष को टोका – सुन, तुझे घर से आए हुए एक महीना होने वाला है । ऐसा कर जब तक काम नहीं है , घर जाकर मिल आ । पिछले हफ्ते तेरा भाई भी आ कर गया है । माँ का मन है । उदास हो रही होगी । तू जाकर मिल लेगा तो उसे थोङी तसल्ली हो जाएगी । दिल जुङा आएगा ।
जी मैं आज ही चला जाता हूँ । तीन चार दिन में लौट आऊँगा ।
ठीक है , जाते हुए गेहूँ भी लेते जाना ।
इस बार नहीं , अगली बार जाऊँगा तो ले जाऊँगा ।
जैसा तुझे ठीक लगे – बसंत कौर ने फिर कोई हठ नहीं किया ।
सुभाष ने बर्तन धोने के लिए नल पर रखे और खुद तैयार होने के लिए चल पङा । सरदारनी भी चौबारे जाने के लिए उठी । अब तक असमंजस में खङी जयकौर अचानक बोल उठी – बहन जी , अगर आप कहो तो मैं भी मायके जा आऊँ । ढाई महीने हो गये भतीजों को देखे हुए । मन करता है उन्हें देखने के लिए । कहने के साथ ही वह भीतर तक डर गयी । पता नहीं उसकी इस बात का क्या मतलब लिया जाय । भय से उसका रंग उङ गया पर बसंत कौर का ध्यान इस ओर नहीं गया -
ले इसमें पूछने की क्या बात है । तेरा मन है तो जा आ । हो जा तैयार ।
जयकौर कमल के फूल की तरह खिल उठी । वह भाग कर कमरे में गयी । जल्दी जल्दी दो चार जोङे थैले में डाले । कपङे पहन कर चोटी बनाई और थैले समेत आँगन में आ गयी । सुभाष जाने से पहले किसी की इजाजत के इंतजार में वहीं खङा था । जयकौर को यूं तैयार होकर आते हुए देख कर बुरी तरह से चौंक गया ।
ये तू झोला उठा कर कहाँ चल पङी ।
मैं भी कम्मेआने जा रही हूँ तेरे साथ । एक दो दिन रह कर इकट्ठे लौट आएंगे ।
सुभाष ने कुछ कहने के लिए मुँह खोला ही था कि सामने से सीढियां उतरती बसंत कौर दिखाई दी । सुभाष को चुप रहना पङा ।
हाँ भई , हो गये तैयार तुम दोनों । ले ये पैसे रख ले । घर वालों को दे देना । बाकी बस का किराया भी लगना है तुम दोनों का । बसंत कौर ने नोटों की गड्डी सुभाष की ओर बढा दी । सुभाष ने नोट पकङे । ङाथ में लेते ही वह चौंक गया - ये पूरे दस हजार थे । इतने सारे नोट । सरदारनी मैं इतने सारे पैसों का क्या करूँगा । कमेआना का किराया तो चालीस रुपए से ज्यादा नहीं है ।
ऱख ले रख ले । कहा न माँ को दे देना ।
सुभाष का मन उस देवी के लिए श्रद्धा से भर उठा । उसने सरदारनी के पैर छुए और बाहर चल पङा । जयकौर ने उसे जाते देखा तो वह भी चली ।
सुन जयकौरे , हम न लोगों के साथ ठीक नहीं कर रहे ।
जयकौर ने तङप कर सुभाष को देखा पर कुछ नहीं बोली । दोनों चुपचाप कच्ची पगडंडी पर चलते रहे । थोङी देर में ही सामने अड्डा दिखाई देने लगा था । काफी लोग शहर जाने के लिए वहाँ बस का इंतजार कर रहे थे । ये लोग भी वहाँ जाकर उस भीङ का हिस्सा हो गये ।

बाकी फिर ...