अरुण एक दिन पहले ही टूर से वापस लौटा था और आज अपने लोकल ऑफिस से लौट कर आने के बाद नताशा और सूरज से मिलने वृद्धाश्रम जाने वाला था। अब उसे समझ नहीं आ रहा था कि वह अपनी माँ से यह सब कैसे कह पाएगा।
वह तुरंत ही उठ कर खड़ा हो गया और अर्पिता से कहा, "चलो कार में चल कर बैठो।"
अर्पिता बिना कुछ बोले चुपचाप उठकर कार में जाकर बैठ गई। वह दोनों चुपचाप थे, कार रोड का सीना चीरते हुए अपनी तीव्र गति से आगे बढ़ती जा रही थी। 'आसरा' वृद्धाश्रम पर जाकर उनकी कार रुकी।
अरुण सीधे अंदर की तरफ़ जाने लगा। जाते हुए उसने अर्पिता से कहा, "तुम आराम से धीरे-धीरे चल कर आओ।"
रिसेप्शन पर आकर अरुण ने रिसेप्शन पर बैठी लड़की दिव्या से कहा, "दिव्या मेरे माँ पापा को बुला दीजिए।"
"अरुण जी वह देखो वे उस पेड़ के नीचे सब के साथ बैठे हैं। आप वहीं जाकर मिल लीजिए।"
अरुण और अर्पिता पेड़ के पास पहुँचे तो ज़ोर से खिलखिला कर हंसने की और बातें करने की आवाज़ें आ रही थीं।
अरुण ने अर्पिता से कहा, "अर्पिता देखो कैसे खिलखिला कर हंसने की आवाज़ आ रही है माँ और पापा की, जो मैंने तुम्हारे आने के बाद घर पर कभी भी नहीं सुनी। हमेशा तनाव में ही दिखते थे। अब उनकी यह ख़ुशी उनके जीवन के यह सुकून के हंसते हुए पल मैं उनसे नहीं छीन सकता। मैं जानता हूँ यदि तुम्हारी प्रेगनेंसी की बात कह कर मैं उन्हें वापस घर बुलाऊंगा तो वह ख़ुशी-ख़ुशी लौट आएंगे; अपनी एक और जवाबदारी पूरी करने पर मैं स्वार्थी बनकर यह नहीं कर पाऊंगा। तुम्हें यह सब पहले सोचना चाहिए था। मैं तो वह अभागा हूँ कि जिसके जीते जी उसके माँ पापा को वृद्धाश्रम में रहना पड़ रहा है। क्या पता भविष्य हमें भी यही दिन दिखाए क्योंकि तुम भी तो अपने गर्भ में संतान लेकर बैठी हो। माँ बनने की तुम्हारी यह ख़ुशी देख कर मुझे यह एहसास हो रहा है कि जब मैं माँ के गर्भ में रहा होऊंगा तब माँ भी कितनी ख़ुश रही होंगी। उस समय उन्हें यह ख़्याल भी नहीं होगा कि उन्हें जीवन में ऐसे दिन भी देखने पड़ेंगे।"
अर्पिता निःशब्द थी लेकिन जो समय बीत चुका था उसे वापस लाकर सब कुछ ठीक कर देना अब असंभव था।
नताशा और सूरज की नज़र जैसे ही अरुण और अर्पिता पर पड़ी वह तुरंत ही उठकर आए। अर्पिता को देख कर ख़ुश होते हुए नताशा ने कहा, "अरे अर्पिता तुम भी आई हो? कैसी हो बेटा?"
अर्पिता ने झुक कर नताशा और सूरज के पांव छूते हुए कहा, "माँ पापा मुझे माफ़ कर दो।"
नताशा ने कहा, "अर्पिता बेटा हम लोग यहाँ बहुत ख़ुश हैं और तुम दोनों भी बिना झगड़ा किए ख़ुश रहना। जब भी इच्छा हो मिलने आ जाना। तुम आईं बेटा, तो बहुत अच्छा लगा।"
उसके बाद अरुण और अर्पिता वापस लौट गए। कार में बैठकर अर्पिता अपने दोनों हाथों को देख रही थी जो उसे आज बिल्कुल खाली लग रहे थे; ना माँ-बाप ख़ुश थे ना सास-ससुर और ना ही जीवन साथी। वह अपने खाली हाथ लेकर जब वापस घर पहुँची तब उसे अपना घर भी बिल्कुल खाली लग रहा था; जिसे यदि वह चाहती तो रौनक और खुशियों से भर सकती थी जो वह कर न सकी।
रत्ना पांडे, वडोदरा (गुजरात)
स्वरचित और मौलिक
समाप्त