Khel Khauff Ka - 1 in Hindi Horror Stories by Puja Kumari books and stories PDF | खेल खौफ का - 1

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खेल खौफ का - 1

6...7...8...9...10... रेडी????

मेरे 8 साल के भाई ने अपनी तुतलाती सी आवाज में पूछा.

"नहीं आशु ...मैंने कहा था न कम से कम 20 तक काउंट करो."

आशीष - ओके दी...11..12...13....

आशीष की काउंटिंग जारी थी और मैं छुपने के लिए कोई परफेक्ट जगह खोज रही थी. मगर समझ ही नहीं आ रहा था छुपने के लिए कौन सी जगह परफेक्ट होगी. यही प्रॉब्लम होती है हमारे जैसे मिडिल क्लास फैमिली के बच्चों के साथ. 2 कमरे के छोटे से मकान में इतनी जगह तो बिल्कुल नहीं होती कि आप कोई भी फिजिकल एक्टिविटी वाले गेम खेल सकें. ज्यादा से ज्यादा आप लूडो, कैरम, चेस या स्क्रैबल खेल सकते हैं. स्क्रैबल में भी मेरी और मेरे भाई की कम और हमारे पैरेंट्स की खुशी ज्यादा रहती है. माइंड एक्सरसाइजिंग गेम्स यू नो....

मैं आलमारी के पीछे छुपने की सोच ही रही थी कि लिया ने मेरा हाथ पकड़ लिया और मेरे कान में फुसफुसाई, कहाँ छुपने जा रही है?

मैंने आलमारी की तरफ इशारा कर दिया. उसने न में गर्दन हिलाई और धीमे से बोली, वो जगह तो आशीष देख चुका है, झट से खोज लेगा हमे.

"तो फिर क्या करें?"

लिया (मुस्कुराते हुए) - चलो आज एक नई जगह छुपते हैं.

मैंने हैरानी से उससे इशारे में पूछा, ऐसी कौन सी जगह है. क्योंकि इस छोटे से घर में ऐसी कोई जगह थी ही नहीं जो मेरे या आशु के लिए नई हो.

लिया ने मुस्कराते हुए मेरा हाथ पकड़ा और मुझे अंदर बेडरूम में ले आयी. उसने फर्श पर से कालीन हटा दी. नीचे वुडन फ्लोर था. उसने फर्श को पैर से दबाया और एक जगह से फर्श जरा सा ऊपर उठा. उसने फौरन उसे पकड़ कर खींचा और फर्श पर बना एक छोटा सा दरवाजा खुल गया. मैंने हैरानी से लिया को देखा.

आशीष - दी रेडी??? दी.... मैं आ रहा हूँ.

लिया ने झट से मेरा हाथ पकड़ा और मेरे न न करने के बावजूद मुझे अंदर खींच लिया. और दरवाजा बंद कर दिया. नीचे बेहद अंधेरा था. दरअसल यह स्टोर रूम था. घर का सारा कबाड़ वहां बेतरतीब तरीके से इकट्ठा किया हुआ था. जगह जगह धूल और मकड़ी के जाले इकट्ठा हो गए थे. लंबे अरसे से इस जगह की सफाई भी नहीं हुई थी. कैसे होती? मां पापा दोनो ही घर चलाने के लिए काम करते थे. किसी के पास इतना वक़्त ही नहीं कि घर का ही सारा काम कर सकें फिर भला इस स्टोर रूम में कौन झांकने आएगा. इनफैक्ट, इतने सालों से यह कमरा बंद था कि मैं तो भूल भी चुकी थी यहां कोई ऐसा कमरा भी है.

"तुझे इस रूम के बारे में कैसे पता?"

लिया - क्योंकि मैं यहां पहले भी आ चुकी हूं.

"तू कब..." मगर मेरी बात अधूरी रह गयी क्योंकि लिया ने मेरा मुंह दबा दिया था.

ऊपर से आशु की आवाज आ रही थी.

आशीष - दी...कहाँ हो आप?

मुझे उसके कदमों की आहट वुडन फ्लोर पर क्लियरली महसूस हो रही थी. स्टोर रूम के अंधेरे में अचानक से मुझे एक सरकती हुई सी परछाई महसूस हुई. मुझे वैसे ही अंधेरे से बेहद डर लगता था. अगले ही पल मेरी पीठ पर कुछ रेंगने लगा. मैं पूरी तरह पसीने से भीग चुकी थी. वो जो कुछ भी था रेंगता हुआ अब मेरे गले के पास आ चुका था. डर इस कदर मुझ पर हावी हो गया कि मैं चिल्लाना भी भूल गयी. मेरी पकड़ लिया पर मजबूत हो गयी. उसने चौंक कर मेरी तरफ देखा.

लिया (धीरे से) - शशशश.... हिलना मत.

मैं कांपती हुई सी खुद को किसी तरह काबू किये चुपचाप बैठी रही. और उसी वक्त एक झटके से लिया ने मेरे गले पर बैठी उस चीज को नीचे फेंक दिया. सामने देख कर मेरा कलेजा मुंह को आ गया.

"बिच्छू...?" बड़ी मुश्किल से मेरे मुंह से आवाज आई.

लिया (दूसरी तरफ देखती हुई) - चला गया.

"थैंक्स लिया. मैं ये कभी नहीं भूलूंगी." मैंने उसका हाथ पकड़ कर कहा.

लिया ( हंसते हुए) - मैं कभी भूलने भी नहीं दूंगी.

"मतलब??"

आशीष (परेशान होते हुए) - दी कहाँ हो आप??? ओके मैं सरेंडर करता हूँ.. आप प्लीज बाहर आ जाओ.

लिया ( मेरा हाथ पकड़ते हुए) - चलो बाहर चलते हैं.

उसने धीरे से दरवाजा खोला. और बाहर आ गयी. मैं भी उसके पीछे पीछे बाहर आई और आशीष के पीछे खड़े होकर जोर से चिल्लाई, "धप्पा..!"

आशीष घबरा कर मुझसे लिपट गया.

आशीष - दी आप कहाँ चली गयी थी. मैं तो डर ही गया था.

शाम के 7 बज चुके थे. मां पापा बस अब कभी भी घर आ सकते थे.

मां - अवनी...?

बाहर से मां की तेज आवाज आई. और सिर्फ आवाज सुनकर ही मैं इमेजिन कर सकती थी कि वो कितने गुस्से में थीं.

लिया - ओके बाबा...मैं तो चली यहां से वो अपनी बुक्स उठाते हुए बोली.

"अरे रुक न..."

मगर तब तक मां अंदर आ चुकी थी. अंदर की हालत बेहद बुरी थी. फर्श पर से कालीन हटा एक तरफ पड़ा था. बेडशीट बिल्कुल अस्त व्यस्त थी. बाहर सोफे पर बुक्स बिखरी पड़ी थी.

मां - एई सब की अवनी? की कोरछि तुमि दुनों?

मां ने तिरछी नजर से गुस्से में लिया को देखते हुए पूछा. जाहिर है माँ उसे बिल्कुल पसंद नहीं करती थी.

लिया (जाते हुए) - ओके अवनी मैं जाती हूँ.

मैं चाह कर भी उसे रोक नहीं पाई. यही होता है जब आपके पास खेलने की जगह न हो और ऊपर से पैरेंट्स इतने स्ट्रिक्ट हों. मां के पास घर के लिए बेहद कम वक्त होता था. इसलिए घर की चीजे जरा भी इधर उधर होती तो माँ बेहद गुस्सा हो जाया करती थीं. और पापा??? उनके बारे में कुछ न ही बोलूं तो बेहतर. वो मां से कहीं ज्यादा सफाई पसंद थे.

हमारा घर पंजाब के सीमावर्ती इलाके में पड़ता था. जहां अक्सर बर्फबारी होती रहती थी. हमारा घर काफी पुराने तरीके से बना हुआ था जिसमें लकड़ी का इस्तेमाल भी अच्छा खासा हुआ था. सबसे खास बात यह थी कि मेरी माँ बंगाली थीं और पापा पंजाबी. घर भले ही हमारा छोटा सा हो लेकिन अगर भारत की असल सांस्कृतिक विविधता आपको देखनी हो तो आपको हमारे घर जरूर आना चाहिए.

मैं चुपचाप सारा सामान वापस से अपनी जगह पर जमाने लगी. जब तक मां फ्रेश होकर आयी तब तक मैं सब समान सही कर चुकी थी.

लिया और मेरी दोस्ती साल भर पहले ही हुई थी. लिया के बारे में पहले दिन ही मां की ये राय बन गयी थी कि वो लड़की अनडिसिप्लिन्ड है. मगर मेरे हिसाब से तो वो उनके सामने हमेशा डिसिप्लिन में ही रहती थी. उसकी असल हरकतें देखने के बाद तो शायद मां उसको घर में घुसने ही नहीं देती. वो मुझसे 2 साल बड़ी थी या शायद 3. हां...मैं 16 की हूँ इसमें कोई डाउट नहीं है. कई बार मां लिया के सामने भी उसे काफी कुछ कह देती थीं. मगर वो कभी पलट कर जवाब नहीं देती थी. मगर उसके चेहरे के भावों को देखकर ऐसा लगता था मानो उसके अंदर कोई तूफान उठा हो, जिसे वो दबाने की कोशिश कर रही हो.

रात को सोते समय भी मुझे यही बात खटक रही थी कि लिया को मेरे घर में मौजूद स्टोर रूम के बारे में कैसे पता चला? उसे तो क्या मैंने आज तक ये बात अपने किसी दोस्त को नहीं बताई थी. मगर उसने तो कहा था वो वहां पहले भी जा चुकी है..

मैंने टीवी ऑन किया. टीवी पर न्यूज आ रही थी. कुछ टेरेरिस्ट सुरक्षबलों से बचने के लिए रिहायशी इलाकों में छुपने की कोशिश कर रहे हैं. उन्हें लगातार पकड़ने की कोशिश जारी है. लोगों से अपील की गई थी कि वे घर की खिड़कियां दरवाजे अच्छे तरीके से बंद रखें और किसी भी संदिग्ध गतिविधि की सूचना तुरंत पुलिस को दें.

तभी आशीष ने आकर मेरा हाथ खींचा और मेरा ध्यान टूटा.

आशीष - दी... आप प्लीज मेरे साथ खेलो न.. कहते हुए उसने अपने खिलौने मेरे सामने रख दिये.

"नहीं ...अभी मेरा मन नहीं है. तुम जाकर खेलो." मैंने मुस्कुराते हुए कहा और टीवी का चैनल बदलने लगी.

आशीष मायूस सा होकर वही जमीन पर बैठकर अपने खिलौनों से खेलने लगा. टीवी पर कोई हॉरर मूवी आ रही थी. मैंने वही लगा दी. ठीक उसी वक्त पापा रूम में आ गए.

पापा - इन्नी रात गए टीवी...हम्म?

पीछे से मां भी आ गयी थी.

मां (धीरे से मुस्कुराई) - बोंद कोरूना अवनी. इतनी देर रात तक टीवी मत देखो.

"मां प्लीज... प्लीज ...प्लीज ... अमा के एई सिनेमा देखते पारी.."

पापा (टीवी के तरफ देखते हुए हैरानी से) - हॉरर मूवी?? ओ भी इन्नी रात गए ? तेनु डर नी लगया सी?

मां (हंसते हुए) - एकातु? एई अंधकारे खुबे भय लागेशचे. इतना कि रात को लाइट ऑन रखकर सोती है.

पापा (परेशान होते हुए) - तेनु किन्नी वारी दसया है..हिंदी विच गल्लां किया कर मेरे नाल. तुहाडी बंगाली मैं नी समझ सकदा.

मां (आंखें तरेरते हुए) - हां... मुझे तो जैसे आपकी पंजाबी खूब समझ आती है.

मुझे हंसी आ रही थी. उनकी यही नोक झोंक तो घर को जैसे जिंदा रखती थी.

"ओके ओके...हमारी मातृभाषा हिंदी है. और आप दोनों मुझसे उसमें बात कर सकते हैं."

पापा (मुस्कुराते हुए) - ऐ सही है. ओके देख लो मगर ज्यादा देर नई जागना... गुड नाईट.

मां (मेरा सिर सहलाते हुए) - गुड नाईट शोना.

मुझे ऐसा लगा जैसे वो कुछ परेशान से थे. मां ने बेहद धीमी आवाज में पापा से पूछा. आपने अच्छे से चेक कर लिया है न... सारे खिड़की दरवाजे अच्छी तरह बंद हैं ना?

उन्होंने हां में सिर हिलाया और दोनों चुपचाप बाहर निकल गए. मैंने रूम का दरवाजा बंद कर लिया और आशीष को गोद में उठा कर बेड पर ले आयी. वो खेलते खेलते अपने खिलौनों के साथ ही सो गया था.

उसके बाद मैं वो मूवी देखने लगी. उसकी कहानी मुझे बेहद पसंद आई. कहानी कुछ ऐसी थी कि कुछ दोस्त एक जंगल में पिकनिक के लिए जाते हैं, और वहीं रास्ता भटक जाते हैं. वहां जंगल में रहने वाले कुछ आदिवासी जो शैतान को पूजते थे उन्हें अपने कब्जे में ले लेते हैं. वे उनके साथ एक अजीब सा खेल खेलते हैं. जिसमें अगर एक भी रूल किसी ने तोड़ा तो वो उन्हें पकड़ कर शैतान को भेंट कर देते थे. बदले में शैतान उन्हें असीमित शक्तियों का मालिक बना देता था.

मूवी खत्म होने के बाद भी मुझे नींद नहीं आ रही थी. उसमें कुछ तो ऐसा था जो मुझे एक्साइटमेंट दे रहा था. मैं भी ऐसा ही कोई गेम खेलना चाहती थी शायद हमेशा से. मेरे लिए डर हमेशा से एक नशे की तरह रहा था. अगर मैं ये कहूँ की मुझे डरना अच्छा लगता था, तो शायद गलत नहीं होगा.

मुझे बचपन से ही लुका छुपी खेलने का बहुत शौक था. वो भी रात के अंधेरे में. मैं इमेजिन करने लगी कि मैं किसी ऐसे भूतिया हवेली में हूँ जहां चारों तरफ सिवा सन्नाटे और अंधेरे के और कुछ नहीं है. वहां मैं, लिया और आशीष साथ में लुका छुपी खेल रहे हैं. मगर ये कभी पॉसिबल ही नहीं था. क्योंकि मेरे मां पापा मुझे शायद ही कभी घर से बाहर जाकर खेलने की परमिशन देते. मैं कभी अपने किसी फ्रेंड के घर भी नहीं जा सकती थी. तो मेरा ये ख्वाब बस एक ही सूरत में पूरा हो सकता था या तो माँ पापा कुछ दिन के लिए कहीं बाहर चले जाएं, या फिर मैं ही कहीं और चली जाऊं.

सोचते सोचते मुझे नींद आ गयी.

To be continued...