[ इंग्लैंड के लिए प्रस्थान ]
26 फरवरी, 1914 को समुद्री जहाज से रामानुजन के इंग्लैंड जाने का टिकट आ गया। उन्हें 17 मार्च को इंग्लैंड के लिए प्रस्थान करना था। परंतु किसी ने भी रामानुजन को यात्रा के लिए बहुत उल्लसित नहीं पाया। रामचंद्र राव ने लिखा है कि वह इस प्रकार कार्य कर रहे थे, मानो एक बुलावे पर जा रहे हैं। उनके जाने में कितने ही व्यक्तियों का हाथ था, सभी को उनके लिए कुछ-न-कुछ करने की उत्कंठा थी।
उनकी पत्नी ने उनके साथ चलने का प्रस्ताव रखा था। रामानुजन ने उन्हें समझाया कि यदि वहाँ उन्हें पत्नी का ध्यान रखना पड़ा तो वह अपना मन गणित में नहीं लगा पाएँगे। यह भी तय हुआ कि किराए का घर खाली करके पत्नी तथा माँ को वह जाने से तीन-चार दिन पहले कुंभकोणम भेज देंगे, जिससे विदाई का हृदय विदारक दृश्य उपस्थित ही न हो।
उनके मित्रों ने उन्हें पाश्चात्य आचार-व्यवहार की दीक्षा दी। रामचंद्र राव की सलाह पर उनके बाल पाश्चात्य ढंग से कटाए गए तथा शिखा को काट दिया गया। प्रो. लिटिलहेल की मोटरसाइकिल से जाकर उन्होंने पाश्चात्य कपड़े-कमीज, पैंट, टाई, मोजे, जूते आदि खरीदे। कुछ दिन वह रामचंद्र राव के घर रुके, जिनका रहन-सहन बहुत कुछ पाश्चात्य था। वहाँ उन्होंने छुरी-काँटे से खाने की भी दीक्षा ली, यद्यपि शाकाहारी भोजन के लिए उसकी कोई आवश्यकता नहीं थी।
11 मार्च को सर फ्रांसिस ने स्टीमर के एजेंट को रामानुजन के लिए मार्ग में शाकाहारी भोजन का उचित प्रबंध करने के लिए लिखा।
14 मार्च को वे अपनी माँ और पत्नी को कुंभकोणम भेजने के लिए स्टेशन तक पहुँचाने गए। गाड़ी में बिठाकर चलते समय सबकी आँखों से आँसू रुक नहीं पाए।
जाने से एक दिन पूर्व वह प्रेसीडेंसी कॉलेज के अध्यापक कक्ष में अपना सूटकेस लेकर पहुँचे। टाई बाँधने में वह लगभग उलझ गए। उन्होंने अपने पाश्चात्य परिवेश के बारे में काफी चुटकियाँ भी लीं। उस रात उनके मित्र के. नरसिंहा आयंगर उन्हें अपने घर ले गए। उनके सभी मित्र उस रात वहाँ उनके साथ रुके और उन्हें मार्ग के बारे में निर्देश देते रहे। श्री नारायण अय्यर, जो सदा उनके साथ गणित करने में लगे रहते थे, अपने पुत्र एन. सुबनारायण के साथ वहाँ रहे।
जाने के दिन प्रात: एडवोकेट जनरल श्री श्रीनिवास आयंगर ने उनके विदाई समारोह का आयोजन किया, जिसमें सर फ्रांसिस स्प्रिंग, प्रो. मिदिलमास्ट, कई गण्यमान्य न्यायाधीश, समाचार पत्र 'हिंदू' के संपादक श्री कस्तूरीरंगन आयंगर आदि सम्मिलित हुए। रामानुजन का सबसे परिचय कराया गया। श्री जे. एच. स्टोन ने बताया कि उन्होंने इंग्लैंड में अपने मित्रों को वहाँ उनका ध्यान रखने के लिए पत्र लिखे हैं।
जहाज पर साथ जाने वाले लगभग दो सौ यात्रियों में क्षय रोग विशेषज्ञ डॉ. मुथु भी थे। मित्र लोग प्रसन्न थे और हँसी-मजाक कर रहे थे, परंतु रामानुजन बहुत गुमसुम और गंभीर थे।
17 मार्च, 1914 को वह घड़ी आई जब सब पीछे रह गए और दिन के दस बजे ‘ब्रिटिश इंडिया लाइंसशिप एस.एस.नेवस’ जल में भारत-भूमि से दूर होता गया। तब रामानुजन की आँखों से आँसू बह रहे थे।
पहली समुद्र-यात्रा के कारण आरंभ में उनसे भोजन ग्रहण नहीं किया गया और तबीयत कुछ खराब रही। कुछ समय पश्चात् जहाज श्रीलंका की राजधानी कोलंबो पहुँचा। वहाँ उन्हें कुछ राहत मिली। बाद में उन्होंने समुद्र यात्रा का आनंद लिया। 19 मार्च को वहाँ से कन्याकुमारी की ओर निकलते हुए अरब सागर एक सप्ताह के पश्चात्व वह अदन पहुँचे। उसके बाद 2 अप्रैल को स्वेज नहर के मार्ग से पोर्ट सईद पहुँचे और फिर जेनेवा रुकते हुए जिब्राल्टर व स्पेन के किनारे वे ऑफ बिस्के होकर पहले प्लाइमथ, पुनः इंग्लिश चैनल से 14 अप्रैल को टेम्स के तट पर इंग्लैंड पहुँच गए।