भाग. 12
ज़ुहर की नमाज़ का वक्त हो गया था। शबीना और मुमताज खान दोनों ही पाँचों वक्त के नमाज़ी थे। शबीना ने दुपट्टा सिर से डाला और नमाज़ की तैयारी में लग गयी।
फिज़ा की समझ में नही आ रहा था कि क्या करे? चुपचाप कमरें में चली गयी। वह सोचने लगी अब्बू जान के घर में आने के बाद फिर से इस मुतालिक बातचीत होगी। 'पता नही अब्बूजान क्या फैसला लें? ये तो तय है वह जो भी फैसला लेंगें हमारे हक में ही होगा।' फिर भी वह डर रही थी।
फिज़ा को अब्बूजान का इंतजार था। उसका दिल आज किताबों में नही लग रहा था। उसने कई बार किताबों को बेहतरबी से उलटा-पुलटा था फिर किचिन में जाकर खाना लिया और बेसब्री में वह शलजम और चपाती के बड़े-बड़े लुक़में खाने लगी।
शबीना भी नमाज़ से फ़ारिग हो गई थी। उसने फिज़ा को बड़े-बड़े लुक़में खाते देखा तो टोक दिया- " उजलत में खाना मत खाया कर फिज़ा, आराम से खा। मैं जानती हूँ तू अपने अब्बू जान का इन्तजार कर रही है। सब्र कर कोई देर जा रही है वह आते ही होंगे।"
अम्मी जान की बात सुन कर उसे अपनी ख़ता का अहस़ास हुआ, उसने बात बदलते हुये कहा- "अम्मी जान, मैं सोच रही थी अगर अब्बूजान ने इन्कार कर दिया तो?"
"तू चिन्ता मत कर वह जो भी फैसला लेंगें तेरे ह़क में होगा। तू तो जानती है वह कितने अदीब किस्म के इन्सान हैं। दकियानूसी तो बिल्कुल नही हैं। फिर तुझे चिन्ता करने की क्या जरुरत?"
"या अल्लाह! हमें अब्बूजान के सामने शर्मसार होने से बचा ले।" फिज़ा ने अपनी हाथों की हथेलियों को रगड़ते हुये कहा।
"तूने क्या किया है बच्ची? तुझे शर्मसार होने की जरूरत नही है। शर्मशार तो उन ऐयाश इन्सानों को होना चाहिये जो अल्लाह पाक से तर्स नही खाते।" शबीना ने उसे अपने कलेजे से लगा लिया। उसने शिकायत की खुदा से - " या अल्लाह! ये दुनिया का कौन सा उसूल है जहाँ आसिम मर्दों के गुनाहों पर हम औरतों को ख़जालत उठानी पड़ती है। वह नापाक इरादें लिये बैखौफ घूमते हैं और औरतें गमज़दा रहती हैं। शर्मसार रहती हैं। मैं अपनी फिज़ा को कभी भी मजलूम लड़की नही बनने दूँगी। उसे हिम्मत और ताकत से नवाजूँगी।"
दोनों की बातें अभी चल ही रहीं थीं, कि गेट खुलने की आवाज आई। चूकि बाहर के दरवाजे पर लोहे का चैनल था जो हाथ लगाते ही आवाज के साथ बता देता था कोई आया है। एक तरह से डोर बैल का काम चैनल ही करता था। इस वक्त खान साहब के आने का वक्त था और अन्दाजा भी सही निकला। वह सीधे दालान में आ गये थे- "फिज़ा बेटा फ्रिज से ठड़ा पानी लाना जरा, प्यास से गला सूख रहा है। बाहर तो जैसे आग बरस रही है। हम मेहमान खाने में बैठे हैं। हमारे साथ अनीस भाईजान भी है।" इतना कहना ये ईशारा करना भर था कि पानी दो गिलासों में लाना है और दुपट्टा सिर से ओढ़ लेना।
"लाती हूँ अब्बू जान, फिज़ा ने फौरन उठ कर अन्दर से ही कहा और हाथ में ट्रे लेकर अब्बूजान के पास पहुँची। जैसे ही वह मेहमान खाने में पहुँची बुरी तरह घबरा गयी। उसे लगा जैसे उसके पैरों के नीचें से जमीन निकल गयी हो। वह क्या देख रही थी? सामने वाले सोफे पर वही नामुराद, गलीच बुढ़ढ़ा बैठा था। जो आज सुबह कोचिंग से लौटते वक्त, उसके सामने नाली के कीड़े के माफिक गिचगिचा रहा था। वह पानी की ट्रे रख कर उल्टे पैरों वापस लौट पड़ी। तभी खान साहब ने पीछे से आवाज़ दी- "फिज़ा ये अनीस मियाँ हैं। तेरे कोचिंग के रास्तें में ही इनकी टायरों की दुकान है कभी कोई जरूरत हो तो इन्हे याद कर लेना और अनीस मियाँ यही फिज़ा है मेरी बेटी, सी. ए. कर रही है। जैसा कि मैंने आपको बताया था।" वह ये सब एक साँस में ही बोल गये। उनका मकसद तो फिज़ा का उससे ताररुख कराना था।
वह नामुराद बुढ़ढ़ा एक साँस में सारा पानी गटक गया था और फिज़ा को चोर नजरों से घूर भी लिया था। उसके चेहरे पर थोड़ा सा खौफ दिखाई दिया और वह उसके आने से सकपका गया था। थोड़ा मुतमईन होने के लिये उसने बैठे-बैठे ही पैतरा बदला। दर असल वह नही जानता था कि फिज़ा मुमताज खान की बेटी है। अगर पता होता तो शायद यहाँ आने से कतराता।
इन सब बातों से बेखबर खान साहब मुस्करा रहे थे जैसे मेहमानों के आने पर अक्सर किया जाता है।
फिज़ा ने बगैर आवाज के आदाब किया था। उसके मुँह में जुवान नही थी। क्यों कि उसके पैर बुरी तरह काँप रहे थे। सुबह वाली बात उसकी आँखों के सामने एक डरावनी फिल्म की तरह घूम गयी। कभी वह उन तीनों लफंगों को याद कर काँप जाती तो कभी इस बुढ़ढ़े की नापाक जुम्बिश पर। 'पर अब तो ये घर तक आ धमका था? अब्बूजान से क्या पहचान हो सकती है इसकी? अगर एक बार आया है तो बार-बार आयेगा? मगर पहले तो कभी नही देखा इसको?' वह मेहमानखाने से बाहर तो जरुर आ गयी थी। मगर ऐसे तमाम सवाल फिज़ा के दिमाग को झकझोर रहे थे और उसे वहाँ खड़े होना मुश्किल हो गया था।
वह भी उसके बाद ज्यादा देर नही रूका। जल्दी ही चला गया। शायद फिज़ा को देख कर वह डर गया था या फिर ये कि उसकी मंशा को भाँप कर उस पर ऊँगली न उठ जाये? अगर अभी के अभी इस लड़की ने कुछ भी बता दिया तो उसकी इज्जत का जनाजा ही निकल जायेगा।
अब मुश्किल इस बात की थी खान साहब को कौन सी बात पहले बताई जाये? यानि कि शुरुआत सुबह वाली घटना से की जाये या फिर ये पूछा जाये अभी आने वाला आदमी कौन था? क्यों आया था? बगैहरा- बगैहरा शायद सीधे यहाँ से शुरू करना सही नही होगा। पहले सुबह वाली घटना ही बतानी होगी।
फिज़ा ने शबीना को पहले ही आगाह कर दिया था। 'मेहमान खाने में वही बुढ़ढ़ा आ धमका है।' सुनते ही शबीना पहले तो चौंक गई फिर अगले ही पल उसका खून एक बार फिर से खौलने लगा। उसका तो दिल चाह रहा था कि अभी जाकर उसका मुँह नोच ले और बता दे उसको नापाक इरादों का नतीजा क्या होता है? मगर फिर उसने यही सोच कर सब्र कर लिया खामखाहँ बात का बतंगड़ बनाने से कोई फायदा नही, पहले फिज़ा के अब्बू को बताया जाये, उसके बाद ही कोई फैसला लिया जायेगा।
हाँ ये जरुर था उसने परदे की आड़ से उसको देखने की कोशिश की थी और जैसे ही उसकी आधी ही सूरत दिखाई दी, थू करके वापस लौट आई थी। वह नही चाहती थी घर में कोई हंगामा हो शोर शराबा हो। आजकल तो वैसे भी तमाशवीन लोगों की कमी नही है। न जाने क्या-क्या बातें बनायेंगे। एक बार ये लफँगा चला जाये फिर खाँ साहब से बात होगी।
उसके जाने के बाद मुमताज खान अन्दर आये।
अज़र की नमाज़ का वक्त हो गया था। खान साहब ने अन्दर आकर बुज़ू किया और फिर नमाज़ अदा की। शबीना ने भी नमाज़ पढ़ी, तब तक सब खामोश थे किसी ने किसी से कुछ नही कहा था।
खान साहब जैसे ही नमाज़ से फारिग हुये, शबीना तो बेसब्र बैठी थी उसने एक-एक लब्ज उनके सामने उड़ेल दिया और साथ में ये भी- "अब तो फिज़ा को अकेले भेजना ठीक नही होगा। तामील भी रोकी नही जा सकती आप को ही कुछ सोचना होगा।"
" लाहोलबकूबत, शबीना आप ये क्या कह रहीं हैं? मुझे तो बिल्कुल भी यकीन नही होता अनीस ऐसा कर सकता है? मेरी पहचान उससे कोई नयी नही है। बहुत पहले से जानता हूँ उसे, हाँ ये जरुर है कभी घर आना -जाना नही हुआ। कभी उसके बारे में ऐसी बातें सुनने में नही आईं। फु़हश और ऐयाश लोग दूर से नजर आ जाते हैं। कहीँ ऐसा तो नही फिज़ा की आँखों ने धोखा खाया हो? या कोई गलतफहमी हो गयी हो? पर समझ में नही आ रहा है मैं कैसे कहूँ.? वह तो अपने साहबजादे अकरम का रिश्ता लेके आया था अपनी फिज़ा के लिये। अब आप ने इस तरह की बातें करके मुझे वहम में डाल दिया। वहम में क्या? बल्कि हमें तो लग रहा है अगर ये सच है तो अभी जाकर उसको सबक सिखा दूँ।
" ये कोई वहम नही है फिज़ा के अब्बू, घिनौनी हकीकत है। अगर यही होता रहा तो शरीफ खानदान की लड़कियों का सड़क पर निकलना ही मुहाल हो जायेगा, मुहाल हो क्या जायेगा? हो ही गया है।" शबीना तिलमिलाहट से फुके हुये लब्ज बोल रही थी।
मुमताज खान अब वाकई सकते में आ गये थे। कोई भी बाप अपनी बेटी की इज्जत से हमझौता नही करेगा। मगर शबीना ने बात को दबाने में ही भलाई समझी। उसने हौले से फिज़ा की शादी की बात छेड़ दी ये कह कर- "फिज़ा भी अब शादी लायक हो गयी है इतनी छोटी नही रही। उसकी सहेलियों की भी शादी होने लगी है। देखो न, उसकी सहेली शमायरा को कितना अच्छा खानदान मिला है? हमारी फिज़ा को भी जरुर मिलेगा। आप जरा इधर गौर फरमाइये।"
"आप ठीक कह रही हैं बेगम, फिज़ा के लिये अच्छा खानदान तलाश करना पड़ेगा अब, जहाँ हमारी बेटी अपनी खुशहाल जिन्दगी जिये। आप चिन्ता न करें, कल ही बात करता हूँ। अभी तक हमनें उसके निकाह की सोची ही नही थी, वरना तो आये दिन कोई -न -कोई उसे माँग ही लेता है। हमारी फिज़ा के लिये रिश्तों की कोई कमी नही है। बस अब सोचना ये है कि उसके लिये कौन सा खानदान चुना जाये, जहाँ उसे सुकून की जिन्दगी और खुशियाँ मिले।"
शबीना और फिज़ा दोनों ही सुकून महसूस कर रहे थे। फिज़ा को भी अपनी शादी से कोई एतराज नही था बस यही सोच रही थी कि ससुराल ऐसी मिले जहाँ उसकी खुशिओं की परवाह करने वाले हों। उसका शौहर शरीफ हो। बस वह आगे की तालीम सुकून से कर सके, जिस पर किसी तरह की रोक-टोक न हो।
इस बात को एक महीना गुज़र गया।
क्रमश: