Geeta se Shree Krushn ke 555 Jivan Sutra - 178 in Hindi Motivational Stories by Dr Yogendra Kumar Pandey books and stories PDF | गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 178

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 178

जीवन सूत्र 554 किसी तीसरे पर न निकालें अपना क्रोध


भगवान श्री कृष्ण ने गीता के 16 वें अध्याय में दैवी संपदा को लेकर उत्पन्न हुए मनुष्य के लक्षण बताते हुए कहा है:- अहिंसा सत्यमक्रोधस्त्यागः शान्तिरपैशुनम्।

दया भूतेष्वलोलुप्त्वं मार्दवं ह्रीरचापलम्।(16/2)।

इसका अर्थ है- मन वाणी और शरीर से किसी भी प्रकार से किसी को कष्ट न देना, यथार्थ और प्रिय भाषण( अर्थात अंतःकरण और इंद्रियों के द्वारा जैसा निश्चय किया गया है,वैसा ही प्रिय शब्दों में कहने का नाम सत्य भाषण है।) अपना अपकार करने वाले पर भी क्रोध का न होना, कर्मों में कर्तापन के अभिमान का त्याग,अंतःकरण की उपरति अर्थात चित्त की चंचलता का अभाव, किसी की भी निंदा,चुगली आदि न करना, सब भूत प्राणियों में बिना प्रयोजन के दया,इंद्रियों का विषयों के साथ संयोग होने पर भी उनमें आसक्ति का न होना, कोमलता, लोक और शास्त्र से विरुद्ध आचरण में लज्जा और व्यर्थ चेष्टाओं का अभाव अर्थात बिना प्रयोजन हाथ, पैर, वाणी आदि की चेष्टाओं का अभाव ….. दैवी संपदा वाले मनुष्यों के लक्षण हैं।

भगवान कृष्ण की इस प्रेरक और मार्गदर्शक वाणी से हम 'अपना अपकार करने वाले पर भी क्रोध का न होना' इन शब्दों को एक सूत्र के रूप में लेते हैं। वैसे यह असंभव ही है कि स्वयं का अहित करने वाले किसी व्यक्ति पर क्रोध न आए। क्रोध आने पर व्यक्ति अपना आपा खो कर सामने वाले व्यक्ति को भला-बुरा कहता है।कभी अगर सामने वाला व्यक्ति,क्रोध करने वाले से अधिक प्रभाव या शक्ति वाला है तो उसका गुस्सा किसी तीसरे व्यक्ति पर निकलता है।अब यह कोई आवश्यक नहीं है कि जिस पर आपका गुस्सा उतर रहा है वह इस बात को सहज ही स्वीकार कर ले,क्योंकि उसकी भी परिस्थिति और मनोदशा कुछ अलग हो सकती है। ऐसे में उस तीसरे व्यक्ति से भी आपका संबंध बिगड़ जाएगा।सामने वाले व्यक्ति से तो आपके संबंध प्रभावित हो ही रहे हैं।

क्रोध कभी-कभी सकारण होता है और परिस्थितियों के कारण आवश्यक हो जाता है। उदाहरण के लिए अगर कोई अकारण किसी पर हमला करने जा रहा है तो विनम्रतापूर्वक अनुरोध करने पर भी वह नहीं रुकेगा।ऐसे आक्रांता के ऊपर क्रोध करना जायज है। ऐसी स्थिति में प्रतिकार करना आवश्यक हो जाता है।

क्रोध से बचना चाहिए और अगर बहुत आवश्यक हो तो भी इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि यह क्रोध सामने वाले व्यक्ति की अंतरात्मा को दुखी न कर दे। क्रोध में एक स्थिति यह भी रहती है कि हमेशा शांत रहने वाले व्यक्ति को सीधा समझकर लोग अनुचित व्यवहार करने लगते हैं।ऐसे में आवश्यक होने पर किसी समय विशेष में उसे भी क्रोध करना होता है केवल यह बताने के लिए कि उसमें भी आत्मसम्मान है।

क्रोध से स्वास्थ्य को हानि पहुंचती है।अकारण एक सीमा से अधिक क्रोध कर जाने पर आत्मग्लानि भी होती है। अव्वल तो क्रोध आने पर वहां से हट जाएं और एक गिलास पानी पीकर उस पूरे परिदृश्य से एक झटके में स्वयं को बाहर कर, किसी दूसरी ओर मोड़ने का प्रयास करें।

(मानव सभ्यता का इतिहास सृष्टि के उद्भव से ही प्रारंभ होता है,भले ही शुरू में उसे लिपिबद्ध ना किया गया हो।महर्षि वेदव्यास रचित श्रीमद्भागवत,महाभारत आदि अनेक ग्रंथों तथा अन्य लेखकों के उपलब्ध ग्रंथ उच्च कोटि का साहित्यग्रंथ होने के साथ-साथ भारत के इतिहास की प्रारंभिक घटनाओं को समझने में भी सहायक हैं।श्रीमद्भागवतगीता भगवान श्री कृष्ण द्वारा वीर अर्जुन को महाभारत के युद्ध के पूर्व कुरुक्षेत्र के मैदान में दी गई वह अद्भुत दृष्टि है, जिसने जीवन पथ पर अर्जुन के मन में उठने वाले प्रश्नों और शंकाओं का स्थाई निवारण कर दिया।इस स्तंभ में कथा,संवाद,आलेख आदि विधियों से श्रीमद्भागवत गीता के उन्हीं श्लोकों व उनके उपलब्ध अर्थों को मार्गदर्शन व प्रेरणा के रूप में लिया गया है।भगवान श्री कृष्ण की प्रेरक वाणी किसी भी व्याख्या और विवेचना से परे स्वयंसिद्ध और स्वत: स्पष्ट है। श्री कृष्ण की वाणी केवल युद्ध क्षेत्र में ही नहीं बल्कि आज के समय में भी मनुष्यों के सम्मुख उठने वाले विभिन्न प्रश्नों, जिज्ञासाओं, दुविधाओं और भ्रमों का निराकरण करने में सक्षम है।यह धारावाहिक उनकी प्रेरक वाणी से वर्तमान समय में जीवन सूत्र ग्रहण करने और सीखने का एक भावपूर्ण लेखकीय प्रयत्नमात्र है,जो सुधि पाठकों के समक्ष प्रस्तुत है।)

(अपने आराध्य श्री कृष्ण से संबंधित द्वापरयुगीन घटनाओं व श्रीमद्भागवत गीता के श्लोकों व उनके उपलब्ध अर्थों व संबंधित दार्शनिक मतों पर लेखक की कल्पना और भक्तिभावों से परिपूर्ण कथात्मक प्रस्तुति)



डॉ. योगेंद्र कुमार पांडेय