जीवन सूत्र 504 भक्तों के साधनों की रक्षा करते हैं स्वयं प्रभु
गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने भक्तों को आश्वासन देते हुए कहा है:-
अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते।
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्।।9.22।।
इसका अर्थ है जो अनन्य प्रेमी भक्तजन मुझ परमेश्वर को निरंतर चिंतन करते हुए निष्काम भाव से भजते हैं,उन नित्य निरंतर मेरा चिंतन करने वाले पुरुषों का योग(अप्राप्त की प्राप्ति)क्षेम(प्राप्त की रक्षा) मैं स्वयं कर देता हूं।
भगवान कृष्ण अर्जुन के संरक्षक,मार्गदर्शक,संबंधी सभी थे।महाभारत का युद्ध शुरू होने के पूर्व जहां एक ओर दुर्योधन ने यादवों की शक्तिशाली सेना का चयन किया तो अर्जुन भगवान कृष्ण का साथ पाकर प्रसन्न हो उठे।अर्जुन आश्वस्त थे कि भगवान कृष्ण उनके साथ हैं।महाभारत के युद्ध में अनेक अवसरों पर अपनी सूझबूझ और चातुर्य से भगवान कृष्ण ने अर्जुन की रक्षा की। कहा जाता है कि एक बार तो कर्ण के बारह बाणों को अर्जुन को बचाने के लिए वे स्वयं झेल गए थे।
जीवन सूत्र 505 भगवान स्वीकारते हैं प्रेम की भेंट
गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है:-
पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति।
तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मनः।(9/26)।
इसका अर्थ है -भगवान कृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि जो कोई भक्त मेरे लिए प्रेम से पत्र,पुष्प,फल, जल अर्पण करता है, उस शुद्ध बुद्धि और निष्काम प्रेमी भक्तों की प्रेमपूर्वक अर्पण की हुई वह भेंट मैं प्रेमपूर्वक खाता हूं।
भगवान प्रेम के भूखे हैं इसलिए भगवान कृष्ण अपनी हस्तिनापुर यात्रा के दौरान दुर्योधन के महलों का आमंत्रण अस्वीकार कर विदुर की कुटिया में ठहरते हैं और शाक खाकर ही तृप्त हो जाते हैं। भगवान प्रेम के भूखे हैं इसलिए अपने वनवास की अवधि में भगवान राम शबरी के जूठे बेर खा कर ही तृप्त हो जाते हैं। श्रद्धापूर्वक भगवान को भेंट देना तो स्वाभाविक है।ईश्वर की दृष्टि में उनको चढ़ाई जाने वाली वस्तु, द्रव्य,राशि और पदार्थ का कोई भेद नहीं है। उनके लिए सभी भेंट एक बराबर हैं,बल्कि वे उस भेंट को अधिक पसंद करते हैं, जिसमें श्रद्धा भक्ति और समर्पण भाव हो। इसीलिए भगवान के श्री चरणों में चाहे सोने का आभूषण अर्पित किया जाए या एक फूल ही अर्पित किया जाए, जिसमें भक्तिभाव होगा वह भेंट उनके द्वारा स्वीकार की जाएगी। भगवान यह भी नहीं कहते कि कोई उन्हें भेंट और चढ़ावा अर्पित करेंगे,तभी वे प्रसन्न होंगे। स्वामी विवेकानंद जी ने कहा था कि नर की सेवा ही नारायण की सेवा है।दीन दुखी और पीड़ित मानवता की सेवा में भी साक्षात नारायण को भेंट अर्पित करने का पुण्य है।
हजारों वर्षों की गुलामी के बाद हमारे सेनानियों और पूर्वजों ने हमें स्वतंत्रता की भेंट दी। एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में संस्कारों, सद्गुणों और सांस्कृतिक परंपराओं के हस्तांतरण को भी एक अमूल्य भेंट माना जाएगा।कभी- कभी भेंट किसी के प्रति हमारी कृतज्ञता का प्रदर्शन भी होता है,लेकिन यह ध्यान रखना चाहिए कि यह किसी की सेवा का अपने पर कोई अहसान नहीं रखने के उद्देश्य से बदला चुकाने की तर्ज पर न हो। इसके स्थान पर हृदय की कृतज्ञता की स्वाभाविक अभिव्यक्ति हो,तो यह अवश्य स्वीकार की जाती है।
(मानव सभ्यता का इतिहास सृष्टि के उद्भव से ही प्रारंभ होता है,भले ही शुरू में उसे लिपिबद्ध ना किया गया हो।महर्षि वेदव्यास रचित श्रीमद्भागवत,महाभारत आदि अनेक ग्रंथों तथा अन्य लेखकों के उपलब्ध ग्रंथ उच्च कोटि का साहित्यग्रंथ होने के साथ-साथ भारत के इतिहास की प्रारंभिक घटनाओं को समझने में भी सहायक हैं।श्रीमद्भागवतगीता भगवान श्री कृष्ण द्वारा वीर अर्जुन को महाभारत के युद्ध के पूर्व कुरुक्षेत्र के मैदान में दी गई वह अद्भुत दृष्टि है, जिसने जीवन पथ पर अर्जुन के मन में उठने वाले प्रश्नों और शंकाओं का स्थाई निवारण कर दिया।इस स्तंभ में कथा,संवाद,आलेख आदि विधियों से श्रीमद्भागवत गीता के उन्हीं श्लोकों व उनके उपलब्ध अर्थों को मार्गदर्शन व प्रेरणा के रूप में लिया गया है।भगवान श्री कृष्ण की प्रेरक वाणी किसी भी व्याख्या और विवेचना से परे स्वयंसिद्ध और स्वत: स्पष्ट है। श्री कृष्ण की वाणी केवल युद्ध क्षेत्र में ही नहीं बल्कि आज के समय में भी मनुष्यों के सम्मुख उठने वाले विभिन्न प्रश्नों, जिज्ञासाओं, दुविधाओं और भ्रमों का निराकरण करने में सक्षम है।यह धारावाहिक उनकी प्रेरक वाणी से वर्तमान समय में जीवन सूत्र ग्रहण करने और सीखने का एक भावपूर्ण लेखकीय प्रयत्नमात्र है,जो सुधि पाठकों के समक्ष प्रस्तुत है।)
(अपने आराध्य श्री कृष्ण से संबंधित द्वापरयुगीन घटनाओं व श्रीमद्भागवत गीता के श्लोकों व उनके उपलब्ध अर्थों व संबंधित दार्शनिक मतों पर लेखक की कल्पना और भक्तिभावों से परिपूर्ण कथात्मक प्रस्तुति)
डॉ. योगेंद्र कुमार पांडेय