जीवन सूत्र 481 मन को रोकने का अभ्यास है जरूरी
भगवान कृष्ण ने समभाव की चर्चा की। अर्जुन इसके विषय में और अधिक जानने को उत्सुक थे। इस उद्देश्य से अर्जुन ने भगवान श्रीकृष्ण से पूछा।
अर्जुन: हे मधुसूदन आपने योग की चर्चा की।आपने इसके लिए समभाव को उपयोगी बताया है। मन का स्वभाव चंचल है। चंचल मन के इस स्वभाव के होते हुए समभाव वाली स्थिति कहां संभव है प्रभु?
मुस्कुराते हुए श्री कृष्ण ने कहा।
श्री कृष्ण: मैं सहमत हूं अर्जुन। युद्ध भूमि में श्रेष्ठ योद्धाओं को पराजित करने वाले महाबाहु अर्जुन अगर चंचल मन को वश में रखने का प्रश्न पूछ रहे हैं तो यह अत्यंत महत्वपूर्ण है।
जीवन सूत्र 482 बड़े से बड़े योद्धा के लिए भी अभ्यास आवश्यक
अर्जुन मुस्कुरा उठे।श्रीकृष्ण की ओर देखते हुए उन्होंने कहा।
अर्जुन: हां श्री कृष्ण! यह मन न सिर्फ चंचल है बल्कि मनुष्य को विचारों के गहरे मंथन में डाल देता है। भ्रमित कर देता है।यह यहां वहां दौड़ता है। दृढ़ और बलवान है। हे केशव!जिस तरह से वायु को रोकना मुश्किल है, उसी तरह से इस चंचल मन को वश में करना भी अत्यंत दुष्कर कार्य है।
श्री कृष्ण ने अर्जुन की इस जिज्ञासा का समाधान करने के लिए कहा।
श्री कृष्ण: हे महाबाहु अर्जुन यह सच है कि मन बड़ा चंचल है और कठिनाई से ही वश में होने वाला है परंतु इसे नियंत्रण में करने का उपाय भी है।
अर्जुन: वह क्या है प्रभु?
जीवन सूत्र 483 मन अभ्यास और वैराग्यभाव से वश में
श्री कृष्ण: यह मन अभ्यास और वैराग्यभाव से वश में होता है अर्जुन! मन को साधने का अभ्यास आवश्यक है जिस तरह तुमने धनुर्विद्या सीखी है। याद करो जब तुम ने पहली बार धनुष उठाया था तो एक बालक ही थे।
अर्जुन:जी भगवान!
श्री कृष्ण: क्या पहली बार में ही तुमने धनुष से अचूक बाण छोड़े थे अर्जुन?
अर्जुन: नहीं प्रभु वास्तविकता तो यह है कि मैंने पहले धनुष सही तरह से पकड़ने का ही कई दिनों तक अभ्यास किया। उसके बाद धीरे से गुरुदेव ने मुझे धनुष की प्रत्यंचा के संबंध में जानकारी दी और फिर बाण रखने की जगह और हाथों की सही स्थिति की जानकारी दी। यह सच है कि महीनों अभ्यास के बाद मैंने थोड़ी सफलता प्राप्त की थी।
जीवन सूत्र 484 विरक्ति के भाव और अभ्यास दोनों एक साथ आवश्यक
श्री कृष्ण: मन पर नियंत्रण के लिए भी यही अभ्यास चाहिए अर्जुन।इस अभ्यास के साथ-साथ सांसारिक चीजों के प्रति विकर्षण और वैराग्य भाव का होना भी आवश्यक है।
जीवन सूत्र 485 एक काम पर ध्यान लगाएं
अन्यथा मनुष्य एक काम करता रहता है पर उसका ध्यान कहीं और अटका होता है, इसलिए दृढ़ता से अपने मन को खींचकर वर्तमान कर्तव्य पथ पर संकेंद्रित रखना अनिवार्य हो जाता है।
अर्जुन:जी प्रभु!
आज का प्रसंग श्रीमद्भागवत गीता के अध्याय 6 के श्लोक 33 से 34 में अर्जुन की जिज्ञासा और निम्नलिखित पैंतीसवें श्लोक में भगवान श्री कृष्ण के द्वारा दिए गए समाधान पर आधारित है:-
असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलं।
अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते।।6/35।।
हे महाबाहो मन चंचल है। इस बात में संदेह नहीं कि यह कठिनतासे वशमें होनेवाला है। अभ्यास से व वैराग्य से चित्त के विक्षोभ या चंचलता को रोका जा सकता है।
(मानव सभ्यता का इतिहास सृष्टि के उद्भव से ही प्रारंभ होता है,भले ही शुरू में उसे लिपिबद्ध ना किया गया हो।महर्षि वेदव्यास रचित श्रीमद्भागवत,महाभारत आदि अनेक ग्रंथों तथा अन्य लेखकों के उपलब्ध ग्रंथ उच्च कोटि का साहित्यग्रंथ होने के साथ-साथ भारत के इतिहास की प्रारंभिक घटनाओं को समझने में भी सहायक हैं।श्रीमद्भागवतगीता भगवान श्री कृष्ण द्वारा वीर अर्जुन को महाभारत के युद्ध के पूर्व कुरुक्षेत्र के मैदान में दी गई वह अद्भुत दृष्टि है, जिसने जीवन पथ पर अर्जुन के मन में उठने वाले प्रश्नों और शंकाओं का स्थाई निवारण कर दिया।इस स्तंभ में कथा,संवाद,आलेख आदि विधियों से श्रीमद्भागवत गीता के उन्हीं श्लोकों व उनके उपलब्ध अर्थों को मार्गदर्शन व प्रेरणा के रूप में लिया गया है।भगवान श्री कृष्ण की प्रेरक वाणी किसी भी व्याख्या और विवेचना से परे स्वयंसिद्ध और स्वत: स्पष्ट है। श्री कृष्ण की वाणी केवल युद्ध क्षेत्र में ही नहीं बल्कि आज के समय में भी मनुष्यों के सम्मुख उठने वाले विभिन्न प्रश्नों, जिज्ञासाओं, दुविधाओं और भ्रमों का निराकरण करने में सक्षम है।यह धारावाहिक उनकी प्रेरक वाणी से वर्तमान समय में जीवन सूत्र ग्रहण करने और सीखने का एक भावपूर्ण लेखकीय प्रयत्नमात्र है,जो सुधि पाठकों के समक्ष प्रस्तुत है।)
(अपने आराध्य श्री कृष्ण से संबंधित द्वापरयुगीन घटनाओं व श्रीमद्भागवत गीता के श्लोकों व उनके उपलब्ध अर्थों व संबंधित दार्शनिक मतों पर लेखक की कल्पना और भक्तिभावों से परिपूर्ण कथात्मक प्रस्तुति)
डॉ. योगेंद्र कुमार पांडेय