जीवन सूत्र 461 तेरा मेरा का भेद कैसा
गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है:-
सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि।
ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शनः।(6/29)।
इसका अर्थ है,सब जगह अपने स्वरूपको देखनेवाला उस सर्वव्यापी अनंत चेतना में एकी भाव से स्थितिरूप योग से युक्त आत्मा वाला और ध्यानयोगसे युक्त अन्तःकरणवाला योगी अपने स्वरूप को सम्पूर्ण प्राणियोंमें स्थित देखता है।साथ ही वह सम्पूर्ण प्राणियोंको अपने स्वरूप में देखता है।
भगवान कृष्ण की इस प्रेरक मार्गदर्शक वाणी से हम सभी प्राणियों और उनकी आत्मा में स्थित परमात्मा तत्व को देखने को एक सूत्र के रूप में लेते हैं। यह दृष्टिकोण हमारे जीवन के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है। समदर्शी होने की स्थिति साधना से मिलती है। ऐसा दृष्टिकोण एकाएक विकसित नहीं हो जाता। विशेषकर तब जब सामने वाला व्यक्ति हमारा हितैषी, शुभचिंतक न हो और अहित करने पर उतारू हो।
जीवन सूत्र 462 बुरा चाहने वाले से भी संयत व्यवहार
ऐसे व्यक्ति के प्रति मन में कड़वाहट का रहना स्वाभाविक है। इससे भी बढ़कर जब व्यक्ति स्वभाव से ही किसी के बनते काम को बिगाड़ने वाला, विघ्नसंतोषी हो, इस स्थिति में उपाय क्या है? अगर किसी व्यक्ति ने कोई अहित कर दिया हो, तो हृदय से उसे क्षमा कर पाना भी अत्यंत कठिन होता है।
जीवन सूत्र 463 समान व्यवहार के बदले पूर्वाग्रह रहित व्यवहार
सब लोगों से समान व्यवहार तो सचमुच संभव नहीं।जैसे एक सज्जन,ईमानदार, परिश्रमी व्यक्ति को समाज में विशेष सम्मान मिलता है।जो व्यक्ति बुरा है,उसे ऐसा सम्मान नहीं मिलता है। अगर ऐसे व्यक्ति से घात की संभावना हो तो इसलिए हाथ पर हाथ धरे नहीं बैठा जा सकता कि इस व्यक्ति में आत्म तत्व है और यह अपने भीतर स्थित परमात्मा की सूझ के अनुसार ऐसा कर रहा है।
जीवन सूत्र 464 आत्मरक्षा भी आवश्यक
ऐसी स्थिति में व्यक्ति को अपनी आत्मरक्षा के लिए वार को बचाने का उपक्रम अवश्य करना पड़ता है। कभी-कभी यह तैयारी भी करनी पड़ती है कि कोई दुष्ट व्यक्ति दोबारा न सताए।
संपूर्ण प्राणियों में परमात्मा तत्व को देखने का अर्थ यह है कि अपने लिए सुरक्षात्मक उपाय सुनिश्चित करते हुए और अपने आत्मसम्मान की रक्षा करते हुए भी पीड़ित करने वाले ऐसे व्यक्तियों के प्रति भी मन में घृणा का भाव रखने से बचें। समाज के एक अंग के रूप में उस व्यक्ति पर भी अन्य किसी कारण से मुसीबत आए तो मानवीय आधार पर उसकी सहायता का भी प्रयत्न करें।
जीवन सूत्र 465 सद्भावना से बढ़ती है सद्भावना
सद्भावना से सद्भावना बढ़ती है। 'शठे शाठ्यम समाचरेत' की नीति के साथ- साथ किसी व्यक्ति के हृदय परिवर्तन का माध्यम बनने के कठिन कार्य का एक बार प्रयास तो अवश्य किया जा सकता है। बहुत अधिक व्यावहारिक न दिखाई देने पर भी।
डॉ. योगेंद्र कुमार पांडेय
(मानव सभ्यता का इतिहास सृष्टि के उद्भव से ही प्रारंभ होता है,भले ही शुरू में उसे लिपिबद्ध ना किया गया हो।महर्षि वेदव्यास रचित श्रीमद्भागवत,महाभारत आदि अनेक ग्रंथों तथा अन्य लेखकों के उपलब्ध ग्रंथ उच्च कोटि का साहित्यग्रंथ होने के साथ-साथ भारत के इतिहास की प्रारंभिक घटनाओं को समझने में भी सहायक हैं।श्रीमद्भागवतगीता भगवान श्री कृष्ण द्वारा वीर अर्जुन को महाभारत के युद्ध के पूर्व कुरुक्षेत्र के मैदान में दी गई वह अद्भुत दृष्टि है, जिसने जीवन पथ पर अर्जुन के मन में उठने वाले प्रश्नों और शंकाओं का स्थाई निवारण कर दिया।इस स्तंभ में कथा,संवाद,आलेख आदि विधियों से श्रीमद्भागवत गीता के उन्हीं श्लोकों व उनके उपलब्ध अर्थों को मार्गदर्शन व प्रेरणा के रूप में लिया गया है।भगवान श्री कृष्ण की प्रेरक वाणी किसी भी व्याख्या और विवेचना से परे स्वयंसिद्ध और स्वत: स्पष्ट है। श्री कृष्ण की वाणी केवल युद्ध क्षेत्र में ही नहीं बल्कि आज के समय में भी मनुष्यों के सम्मुख उठने वाले विभिन्न प्रश्नों, जिज्ञासाओं, दुविधाओं और भ्रमों का निराकरण करने में सक्षम है।यह धारावाहिक उनकी प्रेरक वाणी से वर्तमान समय में जीवन सूत्र ग्रहण करने और सीखने का एक भावपूर्ण लेखकीय प्रयत्नमात्र है,जो सुधि पाठकों के समक्ष प्रस्तुत है।)
(अपने आराध्य श्री कृष्ण से संबंधित द्वापरयुगीन घटनाओं व श्रीमद्भागवत गीता के श्लोकों व उनके उपलब्ध अर्थों व संबंधित दार्शनिक मतों पर लेखक की कल्पना और भक्तिभावों से परिपूर्ण कथात्मक प्रस्तुति)
डॉ. योगेंद्र कुमार पांडेय