Geeta se Shree Krushn ke 555 Jivan Sutra - 137 in Hindi Motivational Stories by Dr Yogendra Kumar Pandey books and stories PDF | गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 137

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 137


जीवन सूत्र 376 भीतर के सुख की खोज


(21 वें श्लोक से आगे का वार्तालाप)

बाह्य सुखों में आसक्ति का निषेध कर उसे अंतः सुख की ओर मोड़ने की चर्चा करने के बाद भगवान श्री कृष्ण अर्जुन से उन सुखों का विश्लेषण प्रारंभ करते हैं जो वास्तव में आनंद के नहीं बल्कि भोग के स्रोत हैं:-

ये हि संस्पर्शजा भोगा दुःखयोनय एव ते।

आद्यन्तवन्तः कौन्तेय न तेषु रमते बुधः।।5/22।।

इसका अर्थ है,क्योंकि हे कुंतीनंदन !जो इन्द्रियों और विषयोंके संयोग से पैदा होनेवाले भोग (सुख) हैं, वे आदि-अंत वाले और दुःख के ही कारण हैं। अतः बुद्धिमान मनुष्य उनमें लिप्त नहीं होता।



जीवन सूत्र 377 आकर्षण के बाह्य केंद्र बंधन के कारण

जिन सुखों को मनुष्य आनंद का कारण मानता है।वास्तव में वे हमारे बंधन के सबसे बड़े आधार हैं। जिन चीजों की प्राप्ति से हमें आनंद की प्राप्ति होती है, हम उन चीजों को स्थाई बनाकर हमेशा अपने पास संजोए रखना चाहते हैं।ईश्वर की बनाई इस सृष्टि में केवल ईश्वर ही आनंद के अक्षय स्रोत हैं।


जीवन सूत्र 378 ईश्वर है सबसे बड़े आकर्षण



ईश्वर का ही सौंदर्य अक्षय है,जिसका कभी ह्रास नहीं होता।ईश्वर अभिमुख होने पर जो आनंद प्राप्त होता है वह स्थाई होता है। इसके अतिरिक्त बाकी सभी आनंद अस्थाई हैं।एक अवधि के बाद समाप्त हो जाते हैं। ऐसे आनंद साथ में किसी दवा के साइड इफेक्ट की तरह अपना दुष्प्रभाव भी छोड़ जाते हैं।

आज की ज्ञान चर्चा में विवेक ने आचार्य सत्यव्रत से पूछा:-

विवेक: गुरुदेव अगर किसी चीज में आनंद थोड़े समय के लिए ही मिल रहा है तो क्या बुरा है? उस आनंद को वर्तमान में प्राप्त किया जाए। बाद का बाद में देखा जाएगा। उदाहरण के लिए अगर किसी विद्यार्थी को सिनेमा देखने में सुख मिल रहा है तो क्या यह उसे नहीं देखना चाहिए और कभी कभार सिनेमा देखने में नुकसान क्या है?

आचार्य सत्यव्रत: विवेक तुमने सिनेमा का उदाहरण लिया है तो चलिए इसी को एक विवेचना के रूप में ले लेते हैं। सिनेमा देखना तब आनंद का स्रोत है जब यह कभी-कभार देखा जाए और हमें इसकी आदत ना पड़ जाए। हमने कोई फिल्म देखी।

जीवन सूत्र 379 जैसा देखेंगे सोचेंगे वैसा ढलेंगे


इसका बहुत गहरा प्रभाव लेकर सिनेमा हाल से घर लौटे। हम अभिनय करने वाले पात्रों की नकल करने लगे। हम ऊलजलूल चीजें देखकर वैसा ही व्यवहार करने लगे।ये सब चीजें गलत हैं।

विवेक: आचार्य जी, जब इतनी सारी चीजें मनाही के रूप में हैं तो क्या सिनेमा देखना ही नहीं चाहिए?

आचार्य सत्यव्रत: दोष फिल्मों में नहीं है।दोष किसी फिल्म के सार्थक नहीं होने में है।दोष उस सिनेमा की (अगर हो तो)नकारात्मक बातों को स्थाई रूप से ग्रहण कर लेने में है।


जीवन सूत्र 380 आनंद को भोग ना बनने दें


अगर हमने नीर क्षीर विवेक की तरह किसी सिनेमा से अच्छी बातें और संदेश को ग्रहण कर लिया तो उसे देखने से आनंद मिलेगा।अगर उसी सिनेमा से(अगर हो तो) नकारात्मक और बेसिर पैर की बातों को ग्रहण कर लिया तो यह भोग है।हमें भोग और आनंद के बीच फर्क करना आना चाहिए। कभी-कभी अपने सीमित संतुलित रूप में कोई एक चीज आनंद रहती है,वही असीमित और अमर्यादित रूप में भोग बन जाती है।


(मानव सभ्यता का इतिहास सृष्टि के उद्भव से ही प्रारंभ होता है,भले ही शुरू में उसे लिपिबद्ध ना किया गया हो।महर्षि वेदव्यास रचित श्रीमद्भागवत,महाभारत आदि अनेक ग्रंथों तथा अन्य लेखकों के उपलब्ध ग्रंथ उच्च कोटि का साहित्यग्रंथ होने के साथ-साथ भारत के इतिहास की प्रारंभिक घटनाओं को समझने में भी सहायक हैं।श्रीमद्भागवतगीता भगवान श्री कृष्ण द्वारा वीर अर्जुन को महाभारत के युद्ध के पूर्व कुरुक्षेत्र के मैदान में दी गई वह अद्भुत दृष्टि है, जिसने जीवन पथ पर अर्जुन के मन में उठने वाले प्रश्नों और शंकाओं का स्थाई निवारण कर दिया।इस स्तंभ में कथा,संवाद,आलेख आदि विधियों से श्रीमद्भागवत गीता के उन्हीं श्लोकों व उनके उपलब्ध अर्थों को मार्गदर्शन व प्रेरणा के रूप में लिया गया है।भगवान श्री कृष्ण की प्रेरक वाणी किसी भी व्याख्या और विवेचना से परे स्वयंसिद्ध और स्वत: स्पष्ट है। श्री कृष्ण की वाणी केवल युद्ध क्षेत्र में ही नहीं बल्कि आज के समय में भी मनुष्यों के सम्मुख उठने वाले विभिन्न प्रश्नों, जिज्ञासाओं, दुविधाओं और भ्रमों का निराकरण करने में सक्षम है।यह धारावाहिक उनकी प्रेरक वाणी से वर्तमान समय में जीवन सूत्र ग्रहण करने और सीखने का एक भावपूर्ण लेखकीय प्रयत्नमात्र है,जो सुधि पाठकों के समक्ष प्रस्तुत है।)

(अपने आराध्य श्री कृष्ण से संबंधित द्वापरयुगीन घटनाओं व श्रीमद्भागवत गीता के श्लोकों व उनके उपलब्ध अर्थों व संबंधित दार्शनिक मतों पर लेखक की कल्पना और भक्तिभावों से परिपूर्ण कथात्मक प्रस्तुति)



डॉ. योगेंद्र कुमार पांडेय