जीवन सूत्र 371 यह धारणा गलत कि सुख हमारे अनुकूल होता है और दुख प्रतिकूल
अर्जुन के प्रश्नों का उत्तर देते हुए भगवान श्री कृष्ण ने कहा कि न सुख स्थाई है,न दुख स्थाई है।हम इन सुखों और दुखों को अपने अनुकूल और प्रतिकूल मानकर व्यवहार कर बैठते हैं। इन्हें देख कर मन में स्वाभाविक संवेग उत्पन्न होने पर भी बहुत जल्दी ही संतुलन स्थापित कर अपने कार्य को आगे संचालित करना आवश्यक होता है। हमारे सुख और दुखों का निर्धारण हम स्वयं नहीं करते, बल्कि बाह्य परिस्थितियों को हमने इनका कर्ताधर्ता मान लिया है।
जीवन सूत्र 372 आत्मा की अनुभूति में ही सुख और दुख है
गीता में इसे और स्पष्ट करते हुए भगवान श्रीकृष्ण ने वीर अर्जुन से कहा है: -
बाह्यस्पर्शेष्वसक्तात्मा विन्दत्यात्मनि यत्सुखम्।
स ब्रह्मयोगयुक्तात्मा सुखमक्षयमश्नुते।।5/21।।
इसका अर्थ है,बाह्य विषयों में आसक्ति रहित अन्त:करण वाला व्यक्ति आत्मा में ही सुख प्राप्त करता है;ऐसा परमात्मा के ध्यान में लीन व्यक्ति अक्षय आनंद प्राप्त करता है।
सूत्र 373 जरा भीतर भी झांकें
हमारी आसक्ति बाह्य विषयों में है, हम अपने मूल स्वभाव में अंतर्मुखी होते हुए भी बहिर्मुखी बनकर यहां-वहां भटकते रहते हैं। यहां संत कबीर के कहे हुए कस्तूरी कुंडली बसै का सिद्धांत लागू होता है कि हमारे स्वयं के भीतर ईश्वर का वास होने के बाद भी हम कस्तूरी मृग के समान उसे वन -वन ढूंढते फिरते हैं।
आज की ज्ञान चर्चा में इस श्लोक का अर्थ बताने के बाद विवेक ने आचार्य सत्यव्रत से प्रश्न किया: -
विवेक: गुरुदेव आप कहते हैं कि बहिर्मुखी नहीं होना है।तो इसका अर्थ तो यह हुआ कि हम अपना कर्म करना छोड़ दें और बस एक कक्ष में ध्यान लगा कर बैठ जाएं।यह तो कोई समाधान नहीं हुआ।
जीवन सूत्र 374 चकाचौंध में भूल ना जाएं ईश्वर को
आचार्य सत्यव्रत: बहिर्मुखी नहीं होने का तात्पर्य है कि दुनिया के चमक-दमक और चकाचौंध से प्रभावित होकर और किसी को दिखाने के लिए कोई व्यवहार करने के स्थान पर अपनी आत्मा के मूल स्वरूप को स्मरण रखते हुए कार्य करना। अच्छा विवेक,यह बताओ कि क्या तुम्हें मेला देखने पसंद है?
विवेक: जी गुरुदेव!
आचार्य सत्यव्रत: तो मेले में कई तरह के खिलौने, झूले,जादूगर के खेल, मिठाइयां, अन्य चीजें इन सब को देखने के बाद और मेले में आनंदपूर्वक विचरण करने के बाद क्या तुम वहीं रह जाते हो?
जीवन सूत्र 375 आत्मा हमारा वास्तविक घर
विवेक: नहीं गुरुदेव, शाम को घर लौट आता हूं। मैं कहीं भी जाऊं लेकिन शाम को वापस घर लौटकर ही अच्छा लगता है।
आचार्य सत्यव्रत: यह आत्मा ही हमारा वास्तविक घर है विवेक। इसी में डूबने से सच्चा आनंद है लेकिन पलायन करते हुए नहीं बल्कि अपना कर्तव्य निभाते हुए।
(मानव सभ्यता का इतिहास सृष्टि के उद्भव से ही प्रारंभ होता है,भले ही शुरू में उसे लिपिबद्ध ना किया गया हो।महर्षि वेदव्यास रचित श्रीमद्भागवत,महाभारत आदि अनेक ग्रंथों तथा अन्य लेखकों के उपलब्ध ग्रंथ उच्च कोटि का साहित्यग्रंथ होने के साथ-साथ भारत के इतिहास की प्रारंभिक घटनाओं को समझने में भी सहायक हैं।श्रीमद्भागवतगीता भगवान श्री कृष्ण द्वारा वीर अर्जुन को महाभारत के युद्ध के पूर्व कुरुक्षेत्र के मैदान में दी गई वह अद्भुत दृष्टि है, जिसने जीवन पथ पर अर्जुन के मन में उठने वाले प्रश्नों और शंकाओं का स्थाई निवारण कर दिया।इस स्तंभ में कथा,संवाद,आलेख आदि विधियों से श्रीमद्भागवत गीता के उन्हीं श्लोकों व उनके उपलब्ध अर्थों को मार्गदर्शन व प्रेरणा के रूप में लिया गया है।भगवान श्री कृष्ण की प्रेरक वाणी किसी भी व्याख्या और विवेचना से परे स्वयंसिद्ध और स्वत: स्पष्ट है। श्री कृष्ण की वाणी केवल युद्ध क्षेत्र में ही नहीं बल्कि आज के समय में भी मनुष्यों के सम्मुख उठने वाले विभिन्न प्रश्नों, जिज्ञासाओं, दुविधाओं और भ्रमों का निराकरण करने में सक्षम है।यह धारावाहिक उनकी प्रेरक वाणी से वर्तमान समय में जीवन सूत्र ग्रहण करने और सीखने का एक भावपूर्ण लेखकीय प्रयत्नमात्र है,जो सुधि पाठकों के समक्ष प्रस्तुत है।)
(अपने आराध्य श्री कृष्ण से संबंधित द्वापरयुगीन घटनाओं व श्रीमद्भागवत गीता के श्लोकों व उनके उपलब्ध अर्थों व संबंधित दार्शनिक मतों पर लेखक की कल्पना और भक्तिभावों से परिपूर्ण कथात्मक प्रस्तुति)
डॉ. योगेंद्र कुमार पांडेय