Mahantam Ganitagya Shrinivas Ramanujan - 10 in Hindi Biography by Praveen kumrawat books and stories PDF | महानतम गणितज्ञ श्रीनिवास रामानुजन् - भाग 10

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महानतम गणितज्ञ श्रीनिवास रामानुजन् - भाग 10

[मद्रास पोर्ट ट्रस्ट में गणित करने का प्रोत्साहन]

रामानुजन के समय में भारत ब्रिटिश साम्राज्य का अंग था। प्रमुख और उच्च स्थानों पर अंग्रेज पदाधिकारी थे, जो भारतीयों से सामाजिक एवं वैचारिक स्तर पर बिलकुल अलग-थलग थे। उनसे भारतीयों के संपर्क बहुत सीमित थे तथा उनसे मिलने और अपनी समस्याओं को रखने में साधारणतः भारतीय बहुत सकुचाते थे। परंतु रामानुजन के बारे में प्रेसीडेंसी कॉलेज के कुछ अंग्रेज प्राध्यापक तथा सर फ्रांसिस स्प्रिंग आदि जानने लगे थे। इधर रामचंद्र राव, नारायण अय्यर आदि कुछ अन्य प्रभावशाली भारतीय भी उनमें रुचि ले रहे थे।
नारायण अय्यर, रामचंद्र राव तथा अन्य शुभचिंतक प्रयत्नशील थे कि पोर्ट ट्रस्ट में कार्य करते समय रामानुजन को गणित में कार्य करने के पूर्ण अवसर मिलते रहें तथा कुछ ऐसा संयोग भी बन जाए कि वह किसी अंग्रेज गणितज्ञ के साथ अपने शोध कार्य को समुचित रूप से आगे बढ़ा सकें।
रामचंद्र राव के कहने पर मद्रास इंजीनियरिंग कॉलेज में सिविल इंजीनियरिंग के प्रो. सी. एल.टी. ग्रीफिथ ने दो कार्य किए। उन्होंने यूनिवर्सिटी कॉलेज, लंदन विश्वविद्यालय के गणितज्ञ एम. जे. एम. हिल के पास रामानुजन के कुछ कार्य को भेजा और उसके आधार पर रामानुजन की प्रतिभा के विषय में उनकी सम्मति माँगी। प्रो. हिल ने श्री ग्रीफिथ को बीस वर्ष पहले पढ़ाया था। ग्रीफिथ ने 12 नवंबर, 1912 को सर फ्रांसिस को पत्र लिखा, जो इस प्रकार था—
“प्रिय सर फ्रांसिस, आपके कार्यालय में रामानुजन नाम का एक युवक, पच्चीस रुपए प्रतिमाह पर एकाउंटेंट है, जो बड़ा विलक्षण गणितज्ञ भी हैं। वह निर्धन है, परंतु मैं आशा करता हूँ कि आप उसे नौकरी में तब तक अवश्य प्रसन्न रखेंगे जब तक उसकी असाधारण क्षमता के उपयोग का कोई अन्य समुचित प्रबंध नहीं हो जाता। सही आकलन करके उसकी वास्तविक प्रतिभा के बारे में अपनी सम्मति देने के लिए मैंने एक गणितज्ञ लिखा है। उसे पुस्तकें खरीदने हेतु धन तथा कार्य चलाते रखने हेतु फुरसत की आवश्यकता है; परंतु जब तक घर से कोई बात नहीं पता लगती, मुझे उसे बहुत अधिक धन और समय देने के बारे में भी ठीक से निश्चित करने में संकोच हो रहा है।”
सर फ्रांसिस ने भी रामानुजन के कार्य को आँकने के अपने सूत्र निकाले। उन्होंने मद्रास के 'डायरेक्ट ऑफ पब्लिक इंस्ट्रक्शन' के श्री ए. जी. बोर्न से सलाह माँगी। श्री बोर्न ने दो व्यक्तियों के नाम भेजे और सलाह दी कि वह उनमें से एक अथवा दोनों से मिलने के लिए रामानुजन को भेजें। उनमें से एक नाम डब्ल्यू. ग्राहम का था, जो मद्रास में एकाउंटेंट जनरल थे। साथ ही उन्होंने अपनी ओर से लिखा— “यदि वह गणितज्ञ, कार्य न समझने पर भी, उसकी प्रशंसा न कर सके तो मुझे रामानुजन की प्रतिभा पर संदेह ही होगा।”
दो सप्ताह पश्चात् रामानुजन श्री ग्राहम से मिले। मिलने के पश्चात् श्री ग्राहम ने बहुत ही अस्पष्ट शब्दों में लिखा–
“वह एक बड़ा गणितज्ञ बनने की क्षमता रखता है अथवा नहीं, यह तो मैं नहीं कह सकता। उसमें मस्तिष्क है, ऐसा मुझे अवश्य लगा है। संभव है कि उसका मस्तिष्क गणना में निपुण एक लड़के जैसा भर हो।”
कुछ प्रतीक्षा के पश्चात् प्रो. हिल का लंदन से एक पत्र आया। उन्होंने रामानुजन के भेजे गए कार्य को सरसरी दृष्टि से देखा था और उनका ध्यान विशेष रूप से रामानुजन की प्रस्तुतीकरण की कमियों की ओर गया था। उन्होंने रामानुजन के लिए लिखा था— “उसे लिखने में बहुत ध्यान देना चाहिए। ऐसे प्रतीकों (symbols) का प्रयोग नहीं करना चाहिए, जिनका विवरण न दिया हो। उसके कार्य से कुछ अर्थ निकाले तो जा सकते हैं। यदि उसे अपने कार्य की कमियों को ठीक करना है तो ब्राउनविच की पुस्तक ‘थ्योरी ऑफ इनफाइनाइट सीरीज’ का अध्ययन करना चाहिए।” इस प्रकार श्री ग्रीफिथ के मूल प्रश्न कि रामानुजन में कुछ असाधारण प्रतिभा है या नहीं, का उत्तर प्रो.हिल ने अपने इस पत्र में स्पष्ट रूप से नहीं दिया था।
कुछ दिनों के पश्चात् प्रो. हिल का दूसरा पत्र प्रो. ग्रीफिथ को मिला। इसमें भी कोई निश्चित धारणा तो नहीं दी गई थी, परंतु वह पहले पत्र की तुलना में अधिक उत्साहवर्धक था। उन्होंने लिखा था— “रामानुजन ने बर्नोली नंबरस के कतिपय गुणों (properties) को बिना उनको सिद्ध किए लिख दिया है। इस कारण तथा कुछ अन्य कमियों के
कारण, मुझे विश्वास है कि लंदन मैथेमेटिकल सोसाइटी वाले अपनी प्रोसीडिंग्स में उसका यह शोधपत्र प्रकाशित करने के लिए तैयार नहीं होंगे।”
साथ ही उन्होंने यह भी लिखा— “रामानुजन को निस्संदेह गणित का अच्छा ज्ञान है और उसमें इसकी कुछ क्षमता भी लगती है परंतु वह गलत दिशा में लगा हुआ है। उसको पता नहीं है कि अनंत श्रेणियों के अध्ययन में बहुत सतर्कता की आवश्यकता है, नहीं तो वह आपके द्वारा भेजे निम्नलिखित त्रुटिपूर्ण निष्कर्ष कैसे प्राप्त करता—
1 2 3 .. .. = -1/12
1² 2² 3² .. .. = 0
1³ 2³ 3³ .. .. = 1/240
‘‘इन सारणियों के n पदों का योग क्रमशः n (n 1)/2, n (n 1) (2 n 1)/6 तथा n² (n 1)2/4 है। n के अनंत होने पर सभी अनंत हो जाते हैं। मेरे विचारानुसार, इससे अच्छी दूसरी बात नहीं हो सकती कि आप उसे ब्राउनविच की पुस्तक ‘थ्योरी ऑफ इनफिनिट सीरीज’ की एक प्रति उपलब्ध करा दें।”
प्रो. हिल के पत्रों में रामानुजन के लिए कार्य को ढंग से करने की अच्छी सलाह तो थी, परंतु ऐसा कुछ नहीं था जिसके सहारे वह गणित के क्षेत्र में शोध करने के लिए आगे बढ़ सकें। इन पत्रों से उनके शुभचिंतकों ने उन्हें पश्चिम के गणितज्ञों से संपर्क करने के लिए उत्साहित किया और सहायता भी दी। उनके इन शुभचिंतकों में प्रमुख थे— कॉलेज के पुराने अध्यापक सिंगरवेलु मुदालियर, कुंभकोणम कॉलेज के भवानीस्वामी राव, पुराने मित्र नरसिंहा, श्री रामचंद्र राव, श्री नारायण अय्यर, सर फ्रांसिस स्पिंग, प्रो. शेषु अय्यर आदि।
रामानुजन ने कैंब्रिज विश्वविद्यालय के प्रमुख गणितज्ञों को पत्र लिखना आरंभ किया और पत्रों के साथ अपने कार्य के नमूने भी लगाए। उन्होंने क्रमशः प्रो. एच. एफ. बेकर तथा प्रो. ई. डब्ल्यू., प्रो. हॉब्सन को पत्र लिखे। प्रो. बेकर की आयु तब अड़तालीस वर्ष रही होगी। वह बत्तीस वर्ष की आयु में रॉयल सोसाइटी के फेलो चुन लिये गए थे। सन् 1910 में स्याल्वेस्टर पदक उन्हें मिला था। एक वर्ष पहले वह लंदन मैथेमेटिकल सोसाइटी के अध्यक्ष रहे थे। उनकी जीवनी लिखने वाले ने उन्हें पुरानी पीढ़ी के उन विद्वानों की श्रेणी में रखा है, जो नए विचारों का आदर एवं स्वागत नहीं करते। प्रो. हॉब्सन वरिष्ठ रैंगलर रहे थे तब वे लगभग साठ वर्ष के थे। उन्होंने एक पुस्तक लिखी थी, जिसे बहुत ही सुव्यवस्थित एवं विशद माना जाता था। वे महिलाओं को डिग्रियाँ देने के कट्टर विरोधी थे। शोध को साधारणतया महत्त्व नहीं देते थे। दोनों ने ही सरल शब्दों में रामानुजन के कार्य को महत्त्व नहीं दिया और शोध करने के लिए अपने साथ बुलाने से मना कर दिया। यह उल्लेखनीय है कि बाद में, सन् 1914 में जब रामानुजन कैंब्रिज गए तब इन्हीं दोनों महानुभावों से उनकी भेंट हुई। केवल इतना ही नहीं, जब दिसंबर 1917 में रामानुजन को रॉयल सोसाइटी का फेलो बनाने का प्रस्ताव बारह गणितज्ञों ने विधिवत् दिया तब उनमें भी ये दोनों सम्मिलित थे।
इसी बीच जब रामानुजन ने प्रो. शेषु अय्यर को 'नंबर थ्योरी' पर अपने कुछ नए सूत्र दिखाए तो उन्होंने रामानुजन का ध्यान हार्डी की कैंब्रिज टेक्स्ट 'ऑर्डर्स ऑफ इनफिनिटी' की ओर दिलाया। उसमें हार्डी ने लिखा था— ‘अभी तक ऐसी कोई राशि (expression) नहीं मिली है, जो यह बता सके कि किसी पूर्णांक से कम कितने रूढ़ पूर्णांक (prime numbers) होंगे।’ इस पर रामानुजन ने कहा कि उन्होंने वह राशि निकाल ली है, जिसके बारे में हार्डी ने कहा है कि ज्ञात नहीं है। रामानुजन के ऐसा कहने पर प्रो. शेषु अय्यर ने उनको प्रो. हार्डी को पत्र लिखने की सलाह दी। 16 जनवरी, 1913 को रामानुजन ने प्रो. जी. एच. हार्डी को लिखा। तब प्रो. हार्डी पैंतीस वर्ष के थे और वह ब्रिटेन में गणित में नई विचारधारा के प्रवर्तक के रूप में जाने जाते थे।