MATDAAN in Hindi Moral Stories by Aman Kumar books and stories PDF | मतदान

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मतदान


अमन कुमार त्यागी

 

अब तो हद हो गई है। बर्दाश्त की भी कोई सीमा होती है? बात सभी सीमाओं को लांघ चुकी है। पानी सिर से ऊपर नहीं बल्कि बांध के ऊपर से बहने लगा है। जिन्हें संभलना था वो तूफ़ान से पहले की शांति के साथ ही संभल गए जो नहीं संभले वो अब तूफ़ान से लड़ रहे हैं। मतलब साफ़ है, मजबूत लोग घरों में सुरक्षित हो गए और तूफ़ान के जाने का इंतजर देख रहे हैं जबकि कमज़ोर लोग तूफ़ान से जूझ रहे हैं और मजबूत लोगों से मदद की गुहार लगा रहे हैं। मगर मजबूत लोग हैं कि कमज़ोर को तूफ़ान के उड़ जाने का आनंद ही नहीं ले रहे हैं बल्कि उनके फंस जाने का इंतजार कर रहे हैं। ग़रीब है कि उसे अपने मिट जाने का दुःख नहीं है बल्कि इस बात से सुखी है कि अमीर के महल का शीशा तो टूटेगा ही। है न कमाल की बात। जिन्हें तूफ़ान से लड़ना चाहिए वो घरों में बैठे हैं और जो कमज़ोर हैं वो मर खपने के लिए लाईनों में छोड़ दिए गए हैंैै। लाईन की बात पर एक और बात याद आ रही है। राशन की लाईन, टिकिट की लाईन आदि अनेक तरह की लाईनें हमारे देश में होती हैं। एक उद्योगपति ने कहा -‘मैं सबसे लंबी लाईन लगा सकता हूँ।’ उसने सूचनातंत्र के नाम पर इतनी लंबी लाईन लगा दी कि पहले कभी नहीं लगी थी। हर कोई मुफ्त में एक सिम पाना चाहता था। हमारे प्रधानमंत्री जी की समझ में आ गया। वह उद्योगपति की लाईन को छोटा करने में जुट गए और इतनी लंबी लाईन लगा दी कि पचास दिन पूरे होने पर भी लाईन ख़त्म होने का नाम नहीं ले रही है। तमाम तरह की बातें लोगों में चर्चा का विषय थीं। कार्यक्रम अभी शुरू ही हुआ था कि तभी वहाँ आए एक व्यक्ति मूँछ सिंह ने बस इतना ही पूछा था -‘मेरा दोष क्या है?’ बस फिर क्या था? अपना असर दिखाने का अवसर बिना पूँछ वाले जिलाधिकारी को मिल गया। उन्होंने क्रोधियाते हुए नज़दीक खड़े कोतवाल को आदेश दिया - ‘तुम्हारा आज का काम यही है, इस आदमी की अक्ल ठिकाने लगा दो।’
आदेश का पालन हुआ। दो चार सिपाही तुरंत दौड़ पड़े। उन्होंने मूँछ सिंह को ऐसे कब्ज़ा लिया जैसे दड़बे से भागती मुर्गी को झपटकर पकड़ लिया जाता है। किसी ने हाथ पकड़े, किसी ने टांग पकड़ी और किसी ने सिर के बाल ही मुट्ठी में भींच लिए, कोई गाली देता रहा तो कोई लतियाता हुआ उसे भीड़ से बाहर ले जाने लगा। गोया कोई आतंकवादी हो। माफ़ करना, उसे आतंकवादी नहीं बल्कि आवारा कुत्ते से भी भयानक तरीके से पकड़ा गया था जिब्ह करने के लिए। आतंकवादी को तो छूने की भी हिम्मत नहीं होती है।
भीड़ में सभी लोग शांत थे। शांत इसलिए थे कि सभी सभ्रांत और शिक्षायाफ्ता थे और तो और कार्यक्रम में आए वो मंत्री भी ख़ामोश थे, जिन्होंने चुनाव से पूर्व ग़रीबी मिटा़ने के जमकर वादे किए थे, उस समय की सरकार को जड़ से उखाड़ फेंकने की बात की थी। मूँछ सिंह चिल्लाता रहा गिड़गिड़ाता रहा मगर उसकी बात सुनने वाला कोई नहीं था। सभी सभ्रांत लोग जो ठहरे। कोई ग़रीब या असभ्य वहाँ होता तो बात अलग थी। मूँछ सिंह की मूँछ के बाल बिना पूँछ वाले एक-एक कर उखाड़ रहे थे।
-‘क्या हो रहा है?’ एक मंत्री जी के हवलदार से बेटे ने कुछ कहना चाहा तो बलशाली मंत्री जी ने उसे कंधा दबाकर शांतिया दिया। बाद में बेटे ने मंत्री जी से पूछा - आप सरकार हैं तो एक डीएम आपसे ज़्यादा असरकार कैसे हो सकता है? काहे नहीं बचावत है निर्दोसिया को।’
मंत्री जी ने असमंजसता के साथ जवाब दिया- ‘वो डीएम है बिटवा...। हम मंत्री कुछ दिन के हैं कृ...वो सदा डीएम ही रहेगा ना..., कल हमें भी बाल पकड़कर घसीटिया सकत है।’
मंत्री जी की बात सुनकर पुत्र चकित था। उसने तो तमाम फिल्मों में देखा था कि नेता जी किसी को भी पिटवाने या मरवाने के लिए डीएम को डांटते हैं, एसपी को डांटते हैं, यहाँ उल्टा हो रहा है। मंत्री जी कुछ बोलना तो दूर मुँह फेरकर खड़े हो गए हैं। वह कुछ सोचने के बाद बोला- ‘धत्ततेरे की, फिर नाहक ही हम पर नेतिया बनने का दबाव डाल रहे हैं, हमें भी डीएमवा ही बनवाइए ना..., दुई-चार ठौ नेताओं को घसीटिया देंगे तो साला रूआब जम जाई।’
-‘आठवीं पास डीएमवा कतई न बनवा करे। उ के वास्ते पढ़ाई चाहिए।’ मंत्री जी ने अपने होनहार पुत्र को समझाने का प्रयास किया।
-‘तब काहे नहीं पढ़ने दिया हमें। हमसे दुई-चार लोगों को मरवा दिया कि तुम्हें नेता बनावत हैं, ... जेल की हवा खाई सो अलग, पढ़ लिए होते तो डीएम ही होते ना, हमें किसी भी तरह से डीएम बनना है, नेता नहीं। ...नेतिया बनो ...बैठे रहो चुप्प, देखते रहो लोगों को पिटता हुआ।’ मंत्रीपुत्र ने कहते हुए नाराज़गी में गरदन घुमाई तो नेता जी ने भी उसे मनाने का कोई प्रयास नहीं किया।
भाषणबाजी शुरू हो गई थी, मंत्री जी ने डीएम ए टू जैड की तारीफ़ों के ऐसे पुल बनाए कि नदियां वहाँ से गुज़रते हुए शर्माने लगीं और डीएम ने मंत्री जी की वो तारीफ़ की कि उन्हें भी धोख़ा होने लगा था कि इस देश की जनता का मसीहा वही है। उस जगह का उद्घाटन हो रहा था जहाँ लोग हक पाने की चाह में पहुँचतेे हैं और लतियाकर भगा दिया जाता है। अंग्रेज शासन में भी यही होता था और आज भी यही होता है। ग़रीब आदमी सपना देखता है कि देश आजाद हो गया है जबकि कुछ लोग सपना तोड़ देते हैं कि देश आजाद नहीं हुआ है बल्कि सत्ता परिवर्तन हुआ है।
मूँँछ सिंह की ग़लती बस यही थी कि वह समझना चाहता था कि आख़िर उसकी ग़लती है क्या? आम आदमी की क्या बात करें? जब आम आदमी कहा जाता है तो उसमें से भी राजनीति की बू आने लगती है। एक बूढ़ा सपना देखा था कि भ्रष्टाचर दूर होगा मगर जवानी में नींद खुल गई। सत्तापरिवर्तन हुआ मगर कल्चर वही रहा, एक मफलर वाले ने सपने चकनाचूर कर दिए, राजनीति से दूर रहने की बात करने वाले राजनीति सिखाने की बात करने लगे और इतनी राजनीति सीख गए कि उनका जन्म कब हुआ था और कहा हुआ था? इसकी कोई सुध ही नहीं रही। सच तो यह है कि जब से सपने की चोरी हुई है, तब से सपना देखने में भी डर लगने लगा है।
कार्यक्रम संपन्न हो गया। नेता जी अपने घरों को चले गए और अधिकारी अपने घरों को। पुलिस ने मूँछ सिंह को सबक सिखा दिया। सबकुछ यथावत लग रहा था मगर कहीं किसी कोने में अभी कोई चिंगारी सुलग रही थी। अगले ही दिन मुँह पर काली पट्टी बांधे कुछ नौजवान सड़कों पर उतर आए। हर ओर चर्चा होने लगी। ये लोग मूँछ सिंह को छोड़ देने की बात कर रहे थे। मंत्री जी के पुत्र ने पूछा-‘ये लोगन कौन हैं?’ मंत्री जी ने जवाब दिया - ‘आंदोलनकारी हैं बिटवा।’
मंत्री पुत्र ने पुनः पूछा- ‘क्या करना चाहते हैं?’
मंत्री ने जवाब दिया- ‘मूँछ सिंह को छुड़ाना चाहते हैं।’
मंत्री पुत्र ने पुनः पूछा - ‘तो क्या मूँछ सिंह को छोड़ दिया जाएगा?’
मंत्री ने जवाब दिया- ‘बिल्कुल छोड़ना पड़ेगा।’
मंत्री का जवाब सुनकर मंत्रीपुत्र हैरान था। उसने पूछा- ‘क्यों छोड़ना पड़ेगा?’
मंत्री ने जवाब दिया- ‘जनता जनार्दन न होती है। डीएम को जनता की बात माननी ही पड़ेगी। हम लोगन भी दबाव बनाएंगे। नहीं छोड़बा करे तो आवाज़ न उठाएं ... विधानसभा में।’
-‘अब आप लोगन क्यों दबाव बनालन। आपको कल नहीं बोलना चाहिए था..., ...कल चुप रहे और आज दबाव बनान को सरकार में जान आवत..., क्या बात है...?’ मंत्रीपुत्र ने ताना मारा। तो मंत्री जी खिसियाकर समझाते हुए बोले- ‘अरे इन्हीं लोगन के वास्ते हम मंत्री हैं ... इन्हीं ने हमें मत दान किए हैं, अब इनकी बात ना करी? कल डीएम गुस्से में थे आज गुस्सा उतर गईल बा। जनता को आवत देख घबरा ना जाई। ऐसे अवसरन पर मध्यस्थता हम ही करन भई।’
-‘मध्यस्थता... मतलब बीच-बचाव।’ मंत्रीपुत्र ने जानना चाहा तो मंत्री जी ने हाँ में गर्दन हिला दी।
मतलब साफ़ होते ही मंत्रीपुत्र ने कुछ याद करते हुए कहा- ‘ठीक कहवत ... मध्यस्थता होवे करे। एक बार कोठे पर एक रंडी से हमार झगड़ा भएल, ... साली पैसवा एडवांस लेकर मुकर गईल, तब एक दल्ला मध्यस्थता कर हमार आधा पैसा दिलाई। ...आधा पैसा!’
बेटे की यह बात सुनकर मंत्री जी सन्न रह गए।
बेटे ने फिर पूछा- ‘इ का मतलब जनता डीएम से अधिक मजबूत होई?’
-‘हां।’ मंत्री ने जवाब दिया।
-‘तब हमें जनता बनने दीजिए। हम आज ही जनता बनई।’ मंत्रीपुत्र ने कहा।
-‘कैसन बात करत हो जी? हम तुम्हें राजा बनाना चाहत हैं।’
-‘किस पर राज करन वास्ते?’
-‘जनता पर।’
-‘किसलिए?’
-‘अगला मंत्री बनना है।’
-‘और डीएम से डरना है।’
-‘छोड़ो अब अपना काम करो।’
-‘जनता किसी से डरत है क्या?’
-‘नहीं।’
-‘क्यों?’
-‘जनता के पास होवत ही क्या? सिवाय मत के।’
-‘तब हम कही... डीएम से डरे लोगन को मत न देईब करे।’ कहते हुए मंत्री-पुत्र जनता के मध्य शामिल हो गया। नेता जी रह गए टुकुर-टुकुर देखते हुए।