जीवन सूत्र 326 संसार में रहकर भी बुराइयों से रहे अप्रभावित
गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने वीर अर्जुन से कहा है:-
ब्रह्मण्याधाय कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा करोति यः।
लिप्यते न स पापेन पद्मपत्रमिवाम्भसा।।5/10।।
इसका अर्थ है,"हे अर्जुन!जो सब कर्मों को ईश्वर में अर्पण करके और आसक्ति को त्यागकर कर्म करता है,वह व्यक्ति कमल के पत्ते की तरह जल में रहकर भी उससे लिप्त नहीं होता,वैसे ही मनुष्य पापोंसे लिप्त नहीं होता।"
इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण ने संसार में रहते हुए भी संसार की बुराइयों से लिप्त नहीं होने के लिए कमल के पत्ते का उदाहरण दिया है।मनुष्य को संसार में रहकर ही अपने कर्तव्यों का निर्वहन करना है सामने उपस्थित होने वाली चुनौतियों का सामना करना है।
जीवन सूत्र 327 चुनौती के पथ पर भी आत्म कल्याण संभव
जीवन में कठिनाई बनकर आने वाली समस्याओं का समाधान करना है और एक सुनिश्चित लक्ष्य लेकर आत्म कल्याण के साथ-साथ पर कल्याण के मार्ग पर आगे बढ़ना है।
जीवन सूत्र 328 घर वन एक समान
संत कवि तुलसी ने कहा है,
घर कीन्हे घर जात है, घर छोड़े घर जाई।
तुलसी घर वन बीच ही, राम प्रेम पुर छाइ।।
अर्थात मनुष्य का कर्तव्य अपना घर (घर के दायित्व)छोड़कर स्थाई घर अर्थात ईश्वर के घर को प्राप्त करने के अतिरेक प्रयास करते रहने या सांसारिक मोह माया में भटकते हुए घर में ही खोए रहने से नहीं है।रास्ता मध्य का है,जहां घर और वन के बीच संतुलन है और इसी संतुलन में जीवन जीने की कला है और ईश्वर की ओर बढ़ने का एक जिम्मेदारी भरा कदम है।
कमल का पत्ता पानी के ठहरे हुए जल और मिट्टी की मोटी परत या कीचड़ में खिलता है। वह अपनी जीवन शक्ति पानी में रहकर ही प्राप्त करता है लेकिन उसका सौंदर्य जल की सतह के ऊपर है,जहां वह अलग से दिखाई देता है। वहां पानी की एक बूंद भी पड़े तो फिसल कर नीचे गिर जाए और कमल का पत्ता निर्लिप्त रहे।
जीवन सूत्र 329 दामन में न लगे दाग
यही मनुष्य की स्थिति संसार में रहकर भी स्वयं को कमल के पत्ते की तरह पाप कर्मों से निर्लिप्त रहते हुए अपना श्रेष्ठ कार्य करने की है।
कमल के पत्ते के मन में उस सरोवर और जहां उसकी जड़े हैं,उस कीचड़युक्त परिवेश के प्रति कोई द्वेष या घृणा भाव भी नहीं है। कमल का पत्ता मनुष्य के अहंकार का विसर्जन करने का भी संदेश देता है कि मनुष्य किसी दूसरी दुनिया का प्राणी नहीं है।
जीवन सूत्र 330 संसार के प्रति घृणा भाव ना रखें
संसार के लोग उसके अपने हैं। बस उसे मोहमाया नहीं पा लेना है और अपने मुख्य ध्येय अर्थात हर घड़ी ईश्वर का ध्यान और अपने सभी कर्मों को उन्हें ही समर्पित कर आगे बढ़ने का भाव रखना है।
(मानव सभ्यता का इतिहास सृष्टि के उद्भव से ही प्रारंभ होता है,भले ही शुरू में उसे लिपिबद्ध ना किया गया हो।महर्षि वेदव्यास रचित श्रीमद्भागवत,महाभारत आदि अनेक ग्रंथों तथा अन्य लेखकों के उपलब्ध ग्रंथ उच्च कोटि का साहित्यग्रंथ होने के साथ-साथ भारत के इतिहास की प्रारंभिक घटनाओं को समझने में भी सहायक हैं।श्रीमद्भागवतगीता भगवान श्री कृष्ण द्वारा वीर अर्जुन को महाभारत के युद्ध के पूर्व कुरुक्षेत्र के मैदान में दी गई वह अद्भुत दृष्टि है, जिसने जीवन पथ पर अर्जुन के मन में उठने वाले प्रश्नों और शंकाओं का स्थाई निवारण कर दिया।इस स्तंभ में कथा,संवाद,आलेख आदि विधियों से श्रीमद्भागवत गीता के उन्हीं श्लोकों व उनके उपलब्ध अर्थों को मार्गदर्शन व प्रेरणा के रूप में लिया गया है।भगवान श्री कृष्ण की प्रेरक वाणी किसी भी व्याख्या और विवेचना से परे स्वयंसिद्ध और स्वत: स्पष्ट है। श्री कृष्ण की वाणी केवल युद्ध क्षेत्र में ही नहीं बल्कि आज के समय में भी मनुष्यों के सम्मुख उठने वाले विभिन्न प्रश्नों, जिज्ञासाओं, दुविधाओं और भ्रमों का निराकरण करने में सक्षम है।यह धारावाहिक उनकी प्रेरक वाणी से वर्तमान समय में जीवन सूत्र ग्रहण करने और सीखने का एक भावपूर्ण लेखकीय प्रयत्नमात्र है,जो सुधि पाठकों के समक्ष प्रस्तुत है।)
(अपने आराध्य श्री कृष्ण से संबंधित द्वापरयुगीन घटनाओं व श्रीमद्भागवत गीता के श्लोकों व उनके उपलब्ध अर्थों व संबंधित दार्शनिक मतों पर लेखक की कल्पना और भक्तिभावों से परिपूर्ण कथात्मक प्रस्तुति)
डॉ. योगेंद्र कुमार पांडेय