जीवन सूत्र 291 कर्म योग और कर्म संन्यास दोनों महत्वपूर्ण
गीता में भगवान श्रीकृष्ण के सम्मुख अपनी जिज्ञासा रखते हुए अर्जुन ने कहा -सन्न्यासं कर्मणां कृष्ण पुनर्योगं च शंससि ।
यच्छ्रेय एतयोरेकं तन्मे ब्रूहि सुनिश्चितम्।5/1।
अर्जुन बोले- हे श्री कृष्ण!आप कर्मोंके संन्यास की और फिर कर्मयोग की प्रशंसा करते हैं।इन दोनों में से जो मेरे लिए श्रेष्ठ साधन हो, उस को निश्चितरुप से कहिए।
श्री कृष्ण ने उत्तर दिया: -
संन्यासः कर्मयोगश्च निःश्रेयसकरावुभौ ।
तयोस्तु कर्मसंन्यासात्कर्मयोगो विशिष्यते।5/2।
भगवान ने कहा कि कर्म संन्यास और कर्मयोग दोनों मार्ग परम लक्ष्य की ओर ले जाते हैं,लेकिन कर्मयोग कर्म संन्यास से श्रेष्ठ है।
जब साधक के सामने कर्म संन्यास और कर्म योग में से एक को चुनने की स्थिति आती है, तो दुविधा उत्पन्न होती है।
जीवन सूत्र 292 कर्म संन्यास अर्थात अनेक दूषित कर्मों से स्वत: बचाव
कर्मों से संन्यास लेने का यह लाभ होता है कि मनुष्य अनेक प्रकार के कर्मों के विपरीत परिणामों से अछूता रह सकता है और वह ईश्वर अभिमुख होकर ज्ञान मार्ग का अनुसरण कर अपने जीवन के परमध्येय को सहज ही प्राप्त कर सकता है।
जीवन सूत्र 293 कर्मों का पूरी तरह त्याग किसी भी स्थिति में संभव नहीं
यह निवृत्ति की स्थिति है। हालांकि यह भी सच है कि पूरी तरह से किसी भी तरह कर्मों से निवृत्त नहीं हुआ जा सकता है और संसार में रहने की स्थिति में जीवन संचालन के लिए कुछ न कुछ न्यूनतम आवश्यक कार्य तो करना ही होता है।
जीवन सूत्र 294 कर्मों का श्रेष्ठ चयन हो
अब चर्चा कर्म योग की करें।कर्म का मार्ग प्रवृत्ति का मार्ग है। अब यहां भी चयन की समस्या है।अच्छे कार्य,श्रेष्ठ कार्य,समाज के हित के कार्य, मानवता की रक्षा के लिए किए जाने वाले साहस और पुरुषार्थ के कार्य।ये कार्य अपने उद्देश्य में पूरी तरह से सार्थक होने के कारण साधक को ईश्वर के अभिमुख करने वाले हैं। अब इन कर्मों में राग तभी पैदा होता है, जब मनुष्य स्वयं को इन कर्मों का कर्ता मान लेता है ।साथ ही अभीष्ट फल और सुनिश्चित परिणाम की ही प्रत्याशा में रहता है।अगर ये चीजें हट जाए तो हमारे नियमित कर्म भी यज्ञ रूप में होंगे।
जीवन सूत्र 295 कर्मयोग है अपेक्षाकृत अधिक सुगम
ऐसे कर्मों को करते हुए भी जीवन का ध्येय प्राप्त किया जा सकता है। हम साधारण मनुष्यों के लिए कर्म संन्यास की अपेक्षा कर्मयोग का यह आचरण सरल सुविधाजनक भी है। संसार में रहते हुए भी अपने दायित्वों का श्रेष्ठ निर्वहन करने का प्रयत्न।
(मानव सभ्यता का इतिहास सृष्टि के उद्भव से ही प्रारंभ होता है,भले ही शुरू में उसे लिपिबद्ध ना किया गया हो।महर्षि वेदव्यास रचित श्रीमद्भागवत,महाभारत आदि अनेक ग्रंथों तथा अन्य लेखकों के उपलब्ध ग्रंथ उच्च कोटि का साहित्यग्रंथ होने के साथ-साथ भारत के इतिहास की प्रारंभिक घटनाओं को समझने में भी सहायक हैं।श्रीमद्भागवतगीता भगवान श्री कृष्ण द्वारा वीर अर्जुन को महाभारत के युद्ध के पूर्व कुरुक्षेत्र के मैदान में दी गई वह अद्भुत दृष्टि है, जिसने जीवन पथ पर अर्जुन के मन में उठने वाले प्रश्नों और शंकाओं का स्थाई निवारण कर दिया।इस स्तंभ में कथा,संवाद,आलेख आदि विधियों से श्रीमद्भागवत गीता के उन्हीं श्लोकों व उनके उपलब्ध अर्थों को मार्गदर्शन व प्रेरणा के रूप में लिया गया है।भगवान श्री कृष्ण की प्रेरक वाणी किसी भी व्याख्या और विवेचना से परे स्वयंसिद्ध और स्वत: स्पष्ट है। श्री कृष्ण की वाणी केवल युद्ध क्षेत्र में ही नहीं बल्कि आज के समय में भी मनुष्यों के सम्मुख उठने वाले विभिन्न प्रश्नों, जिज्ञासाओं, दुविधाओं और भ्रमों का निराकरण करने में सक्षम है।यह धारावाहिक उनकी प्रेरक वाणी से वर्तमान समय में जीवन सूत्र ग्रहण करने और सीखने का एक भावपूर्ण लेखकीय प्रयत्नमात्र है,जो सुधि पाठकों के समक्ष प्रस्तुत है।)
(अपने आराध्य श्री कृष्ण से संबंधित द्वापरयुगीन घटनाओं व श्रीमद्भागवत गीता के श्लोकों व उनके उपलब्ध अर्थों व संबंधित दार्शनिक मतों पर लेखक की कल्पना और भक्तिभावों से परिपूर्ण कथात्मक प्रस्तुति)
डॉ. योगेंद्र कुमार पांडेय