काली धार -महेश कटारे का उपन्यास
राजनारायण बोहरे
काली धार उपन्यास अमरसत्य प्रकाशन दिल्ली से प्रकाशित हुआ है। 'काली धार ' यानी चंबल (काले रँग के पानी के कारण और खरी वानी के कारण दुनिया भर में प्रसिद्ध चंबल) के इर्द-गिर्द के जीवन पर लिखा गया यह उपन्यास इस इलाके के नामी और चर्चित लेखक महेश कटारे ने लिखा है । आजादी और विभाजन के काल से आरंभ हुआ यह उपन्यास लगभग पचास वर्ष तक की दास्तान समेटे हुए है। इस उपन्यास में चंबल घाटी में रहने वाले ब्राह्मण, ठाकुर और अन्य वर्गों की मानसिकता,आर्थिक स्थिति एवं सामाजिक हैसियत के बारे में बड़े विस्तार से लिखा गया है । तत्कालीन नवाब, महाराजा और अंग्रेजों के बारे में भी सहज रूप से इस उपन्यास में खूब किस्से और किवदंतियां आती हैं । सेंधमारी और ठगी के बारे में भी कई दास्तान है। जिस तरह प्राचीन ग्रंथों में चलती हुई कथा के बीच में कोई नया नाम आता था और लेखक क्षेपक कथा के रूप में उस नाम से जुड़ी कथा लिखता था, उसी प्राचीन शिल्प को बड़े खूबसूरत ढंग से महेश कटारे ने इस उपन्यास में भी प्रयोग किया है । ऐसे अनेक किस्से किवदंती या पुराण कथा और गप्पे हैं जो इस तरह से क्षेपक कथा या किस्सा के रूप में लेखक ने पाठकों से साझा की है। यद्यपि उपन्यास का आरंभ पंचू या पंचम नाम के चोर द्वारा अपने बेटे गज्जू यानी गजराज को सिखाई जा रही 'चौर्य कला' के पहले दिन के विवरण से होता है, लेकिन जल्दी ही वह पात्र समय और समाज में विलुप्त होकर दूरसरे नए पात्र पाठक के सामने आ जाते हैं। मिश्रजी जो कोटा गांव के थे और बघर्रा गांव में आ बसे थे उनका प्रसंग इस उपन्यास में टुकड़ों- टुकड़ों में अलग-अलग अध्याय में बिखरा हुआ है। केंद्रीय कथा के रूप में मिसुर जी और उनके साडू सुकुल जी के बीच इकलौती संतान विद्या की कथा है। विद्या अपने मौसा जी के यहां रह कर पढ़ रही है। पिता को बताए बिना वह एमबीबीएस का एंट्रेंस एग्जाम देती है और उसमें पास भी हो जाती है। पिता जब उसकी शादी की चिंता में घिरा हुआ है, तो उसे डॉक्टरी की पढ़ने की सूझी है। उसके विवाह के लिए इकट्ठा किया पैसा, मां के जेवर और पहले की तुलना में अधिक मेहनत करके बटोरी हुई दक्षिणा पण्डित मिश्र बेटी को खर्च के वास्ते भेजता रहता है। ग्वालियर में हॉस्टल में रहकर पढ़ रही बेटी संभल कर रहती है । जल्दी ही उसकी दोस्ती सारिका से हो जाती है। सारिका सारस्वत एक डॉक्टर की बेटी है और स्थानीय है यानि ग्वालियर की ही रहने वाली है, जो विद्या को न केवल आत्मबल प्रदान करती है, बल्कि उसे घर जैसा माहौल भी देती है। मजे की बात यह है कि अपने स्थानीय होने के बाद भी सारिका भी हॉस्टल में रहती है और विद्या की रूमपार्टनर वही है। नवाब ठाकुर की कथा सन सैंतालीस के विभाजन से शुरू होती है । नबाब की मां अपने पति की तीसरी पत्नी थी। बूढ़े नवाब साहब यानी नवाब ठाकुर के पिता देश के बंटवारे के समय अपनी दो पत्नियों व संतानों को लेकर पाकिस्तान चले गए थे। छोटे नबाब ठाकुर की माँ ने जो नवाब की तीसरी पत्नी थी, पाकिस्तान जाने से मना कर दिया था। छोड़े गए संयुक्तप्रदेश के गांव में हिंसा की आशंका थी, तो वे नदी पार करके अपनी डोली के चार कहारों और कुछ एलचीओ यानी सेवकों ( बढ़ई, केवट आदि) के साथ और अपने दूध पीते बेटे के साथ वह मध्यप्रदेश की सीमा में आ गई थीं। जहां उनकी दो सौ छप्पन बीघा खेती की जमीन नदी किनारे बची हुई थी। रहने के लिए उनके धर्म भाई भभूति नाथ जमादारिन की गढ़ी में उनके रहने का बंदोबस्त करा देते हैं। जमादारिन का भी अपना किस्सा था, जिनके बच्चे अपना देश छोड़कर आगरा जा बसे थे। खाली पड़ी हवेली में नवाबिन रहने लगी थी । उनका बेटा बड़ा होने लगा था । उधर उनके सेवक उनकी गढ़ी के आसपास और कुछ हवेली के ही कैंपस में बस गए थे। एलची और सेवादार जो उनके साथ नदी के उस पार से इस पार यानी भिण्ड की दिशा में आए थे वे नबाबिन के आसरे थे। अपनी दो सौ छप्पन बीघा जमीन में से दो दो बीघा जमीन अपने सब सेवकों को नबाबिन ने दे दी थी और बाकी तो इनाम इकराम में उनका परिवार पल ही जाता था। इस परिवार के भी बढ़ने की कथा इस ऊपन्यास में है। गुर्जर वे ठाकुर हैं जो श्रम व वीरता से भरे हुए हैं और वाद-विवाद मारपीट से लेकर गोली चलाने के लिए सदा तैयार रहते हैं। ऐसे बलवान सिंह, महेंद्र सिं,ह पृथ्वी सिंह जैसे अनेक ठाकुरों के किस्से इस उपन्यास में आए हैं। बीहड़ में डाकुओं का ही बोलबाला था, जिस जाति का डाकू बीहड़ में होता था, उस जाति के लोग सीना तान कर घूमते थे, चंबल घाटी के इस सत्य को इस उपन्यास में जगह-जगह देखा जा सकता है ।ठाकुरों के निर्धन होने पर भी उनकी अकड़ में कमी नहीं आती, तो पैसे वाला होने के बाद भी बनिया ठाकुरों के सामने डरता है। ब्राह्मण भले ही आशीर्वाद देने लायक समझा जाता है, लेकिन धीरे-धीरे उसका भी महत्व कम हुआ है और बेबी एलचीयो में (सेवकों में) गिने जाने लगे हैं।
लगभग पचास साल के लंबे समय में हर जाति का बदलता मनोविज्ञान, बदलती आर्थिक स्थिति, समाज में रोजी-रोजगार की समस्या, नई शिक्षा और राजनीतिक परिस्थितियों का विस्तृत विवरण लेखक ने इस उपन्यास में किया है । ग्वालियर के ही अधीन तथा चंबल का मुरैना वाला क्षेत्र था, और ग्वालियर के महाराज थे सिंधिया। इस वंश के पहले महाराज थे महादजी सिंधिया। जिन की लड़ाई गोहद के जाट राजा से हुई और उन्होंने मौका देखकर जाट राजा को हराकर उसकी पचास टुकड़ियों को नष्ट किया था । छोटी-मोटी बात पर बीहड़ में कूद जाने वाले डाकुओं के किस्से, बीहड़ में भटक रहे, परेशान हाल भूखे मर रहे डाकुओं के हाल, उनके समर्पण और इस बीच महिला डकैत के तौर पर उभरी फूलन देवी के किस्से कभी अखबार की कटिंग के रूप में कभी क्षेपक कथा के रूप में, तो कभी सामने घटते हुए, कभी डॉक्टर लड़कियों द्वारा सायास की गई भेंट के रूप में उपन्यास में आए हैं।
इस उपन्यास में पात्रों की अच्छी खासी भीड़ है, लेकिन लेखक की कुशलता है यह भीड़ अव्यवस्था नहीं फैलाती । लेखक ने अध्याय बाय अध्याय अपनी कथा को आगे बढ़ाया है। पंचम यानी पंचू और गज्जू यानी गजराज से शुरू हुई यह कथा शुक्ल जी, मिश्रा जी, मंशा राम शुक्ल, महेंद्र सिंह, लाखन डाकू, रूपा डाकू, मान सिंह डाकू, मलखान सिंह, मोहर सिंह डाकू, नवाब ठाकुर, शहजाद, भभूति नाथ पटवारी, रेशम जान, सिहोनिया के व्यास और वेश्याएं आदि अगणित पात्र इस उपन्यास में मौजूद है ।स्वाभाविक है कि नायक भी इस कथा में समय और स्थान ही होगा कोई व्यक्ति नही। (यानी चंबल अंचल के जनजीवन पर उपन्यास लिखा जाएगा तो ऐसे नामी बेनामी अनेकों पात्र इस उपन्यास में आना लाजमी होगा।। ठाकुरों की ऐंठ और बनियों की चतुराई, और ठाकुरों के बीच दबकर रहने की मजबूरियां, ब्राह्मणों की किसी युग में ऐंठ तो किसी युग में परेशानियां इस उपन्यास में खुलकर आई है ।फूलन देवी, सिंधिया जी जैसे चरित्र इस उपन्यास की कथा को प्रमाणिकता प्रदान करते हैं और उनके नाम देश,काल यानि कथा के समय विशेष का परिचय भी देते हैं। यह चरित्र कथा की विश्वसनीयता को बढ़ाते हैं।
चंबल घाटी के जनजीवन पर। उपन्यास में खूब लिखा गया है, तो स्वाभाविक रूप से वहां के जीवन से जुड़ी तमाम चीजें बड़े विस्तार से आई हैं। इस क्षेत्र में भदावरी-बोली बोली जाती है। भदावरी, भदावर महाराज के क्षेत्र की होने से भदावरी कहलाई हालांकि उसमें कई बोली कि धाराओं की, कालीधार की बोलियों के बीच छोटे-छोटे प्रयाग हैं। ब्रज से बनी इस बोली की अपनी विशेषताएं व अपने मुहावरे हैं ।उपन्यास के केंद्र में चंबल नदी है, लेकिन लेखक ने चंबल के उद्गम से विलय तक की कहानी को केंद्र नहीं बनाया है, बल्कि चंबल के तट पर रहने वाले लोगों के जनजीवन और इलाके की वीरता भरी नम्रता, दंभ को लेखक ने भली प्रकार चित्रित किया है। उपन्यास के सारे पात्र न केवल गहरे मनोविश्लेषण में रहते हैं, बल्कि आपसी संवादों में भी वे समाज, जाति और भविष्य को लेकर सवाल जवाब करते हैं। छुआछूत, पूजा , रक्षा ,अस्पताल ,कथा, यज्ञ, सड़कों का अभाव , घोड़ों और छकड़ों का प्रचलन, घोड़ों का गर्भधारण, भैंस और गायों का गर्भधारण, स्थान- स्थान पर सहज रूप से आया है ।
इस उपन्यास में इस अंचल के आम व्यक्ति की मनोवैज्ञानिकता को विस्तार से उतारा गया है । किसी से दब कर न रहने और क्रिया की प्रतिक्रिया करने या दुश्मन को जवाब देने की चंबल की नीति को घटनाओं, संवादों और अनकही स्थितियों से लेखक ने प्रकट किया है ।
इस इलाके में तेजी से सामाजिक समीकरण बदल रहे हैं, पुराने राजा महाराजाओं के साथ आए सेवक बूढ़े होने लगे हैं, तो उनकी संतानें अपना नए पेशा, रोजगार ,व नौकरियां करते हुए खुद मुख्तार हो गए हैं । वे अब ना किसी पुराने सामंत को कुछ समझते हैं और न ऐसे लोगों के सामने झुकना पसंद करते हैं ।खुद मुख्तार होकर निर्णय लेना उनके व्यवहार में आने लगा है। नई पीढ़ी पुरानी को बेवकूफ समझती है तो पुराने सामंतों व नेताओं से भी वह दुर्व्यवहार करती है ।हालांकि हद पार कर लेने के बाद भी किसी की बदतमीजी का बदला गोली मार देने और बीहड़ में कूद जाने की प्रथा अभी भी इलाके में चल रही है।
उपन्यास में कहानी ठीक नदी की तरह बहती हुई चलती है। नदी है तो हर घाट में और इलाके में बेखौफ चलेगी, जिसमें आसपास के समाज के लोग, जातियों के व्यक्ति, उनके निजी सुख-दुख उपन्यास में विस्तार से आएगे ।ऊपर से बिखरी हुई सी लगती यह कथा भीतर-भीतर चंबल के तट के अदृश्य से तागे से जुड़ी है ।
रंतिदेव के यज्ञ में मारे जाने वाले जानवरों के चमड़े से रिसते हुए काले पानी से चर्मणवती के रूप में बहने वाली चंबल को इंदौर के पास जानापाव नामक स्थान से निकलना पाया जाता है। किवदंती है कि जानापाव का मूल शब्द है- ज्ञान पाठ। ज्ञान पाठ नामक आश्रम में ज्ञान की चर्चाएं होती हैं । चंबल वहां से निकली है। ज्ञान पाठ मुनि भार्गव जी का आश्रम कहा जाता है। सत्य काम जावाली जैसे पौराणिक मुनियों की कथाएं क्षेपक कथाओं के रूप में ईस उपन्यास में आती हैं तो बैल के द्वारा मनुष्य की भाषा में दिया गया ज्ञान और ब्रह्म ज्ञान का एक पद भी दर्शन के रूप में किसी पुराण के अंश की तरह क्षेपक कथा बंन कर इस ऊपन्यास में आया है।
उपन्यास की भाषा अपने संवादों और शैली व व्यंग भरे तीखे जवाब की वजह से प्रभावित करती है। समाज में प्रचलित दो पत्नी प्रथा या रक्षिता को रखने की रीति को भी सामने लाती है जब भभूतिनाथ का प्रसङ्ग आता है। समाज में रूड़ियों को लेकर, कोढ़ रोग को लेकर फैली भ्रांतियों तथा कोढ़ रोग से ग्रसित पीड़तों के कारण परिवार का हुक्का पानी बंद कर देने की कु प्रथा को भी उपन्यास में एक अध्याय में स्थान मिला है । जहां कोढ़ी रोग से ग्रसित व्यक्ति को किसी ना किसी बहाने 'गंगावास' कराने की प्रथा का परिचय मिलता है- गंगावास यानी हरिद्वार जाकर गंगा पूजा के बहाने गंगा में धक्का दे देना! जिससे उसके रोगी का कोई निजी संबंधी ही संपन्न करता है। भले ही वह अपनी मदद के लिए मित्रों या कुलगोत्र में से कुछ लोगों को साथ में ले जाए। रणवीर अपने दद्दू को ऐसे ही धक्का मारकर आता है । हालांकि जन जीवन की कथा है तो इसमें अपनाए जाने वाली रीति , त्यौहार ,लोक नृत्य और लोक गीत भी होने चाहिए थे, लेकिन लेखक जानबूझकर इन सब से बच निकले हैं । उन्होंने रामचरितमानस की चौपाइयों का उपयोग किया है। जो कि उपन्यास के पात्र बोलते चलते हुए सहज रूप से अपनी बात के समर्थन में उपयोग करते हैं। पर किसी लोकगीत अथवा लोक रीति-रिवाजों का इस उपन्यास में कोई जिक्र नहीं है ।पंचम से शुरू हुई कथा में बाद में पंचम का यहां वहां दिखाई देना तो मिलता है पर उस तरह से नहीं दिखाई देता जैसा कि पहले अध्याय में उसकी एक-एक हरकत को बयान किया गया था ।
उपन्यास की कथा जमादारिन की कोठी पर ही खत्म होती है । सारस्वत यानी सारिका सारस्वत अपना प्रेम विवाह जिस राकेश कुमार सिंह चौहान से करती है, वह आगरा का ही निकलता है।
वे दोनों पति-पत्नी की तरह ग्वालियर में रह रहे होते हैं कि अचानक एक दिन अस्पताल में एक महिला आती है इसके साथ आठ- नौ साल की एक बच्ची है। वह महिला सारिका को बताती है कि वह राकेश कुमार सिंह की विवाहिता पत्नी है जिसे सुनकर सारिका को झटका लगता है । यहीं उसे पता लगता है कि यह राकेश कुमार सिंह और कोई नहीं बल्कि जमादारिन की कोठी वाले जमादारिन के परिवार से हैं।जमादारिन इस इलाके में कभी सफाई कर्मी को कहा जाता था।
लेखक उपन्यास का आरंभ भी सहज रूप से चलते जीवन में से कोई घटना उठाकर करते हैं, तो अंत भी ऐसे ही चलती हुई कहानी मैसेज कर देते हैं । किसी प्रचलित परंपरा की तरह कहानी का अंत घोषित उपसंहार की तरह नहीं होता है।
महेश कटारे की खास शैली, खास भाषा और उनके जनपदीय मुहावरे पूरे उपन्यास में यहां-वहां बिखरे पड़े हैं।
विभिन्न विषयों पर उपन्यास लिख चुके महेश कटारे से पाठकों को अपेक्षा थी कि वह अपने आसपास के उस परिवेश पर कोई बड़ी रचना रखें जो उनसे बेहतर कोई नहीं जानता है । वे इस समाज के, एक किसान होने के नाते, तमाम जातियों के पुरोहित होने के नाते सुविज्ञ हैं और उनके छोटे भाई हाईकोर्ट वकील होने के नाते उनके पास आने वाले इलाके के विभिन्न वर्गों के पक्षकार गणों से कथाएं सुनते रहते हैं , इसलिए उनसे बेहतर इस विषय पर कोई उपन्यास नहीं लिख सकता था। बरसों की पाठकों की प्रतीक्षा और जन्मभूमि का अपना दाय इस उपन्यास के द्वारा महेश कटारे ने प्रस्तुत किया है।
यह उपन्यास उनके अन्य उंपन्यासों की तरह यश प्राप्त करेगा और जब भी चंबल तथा विभाजन काल के समाजगत प्रभाव की बात चलेगी 'काली धार' को लोग याद करेंगे।
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