खुशियाँ मनाने का अवसर जल्द ही मिल गया। रश्मि का पहला जन्म दिन आ गया था। जन्म दिन को धूमधाम से मनाने का फैसला किया गया, जिसमें सभी रिश्तेदारों को बुलाया जाएगा। रश्मि के जन्म प्रमाण पत्र पर माँ-बाप के कॉलम में रमन-यादवेंद्र का नाम था। यूँ तो बच्चे का जन्म प्रमाण पत्र उसी समय तैयार हो जाता है, जब बच्चे का जन्म होता है, लेकिन उस समय यादवेंद्र सत्ताधारी दल का प्रमुख वर्कर था, ऐसे में जन्मपत्री को रमन से हरी झंडी मिलने के बाद ही फाइनल किया गया। इसके बावजूद रिश्तेदार तो जानते ही थे कि बच्ची गोद ली हुई है। हम रिश्तेदारों के घर जाते हैं या उन्हें बुलाते हैं, तो हमारा मकसद खुशियों को दुगुना-तिगुना करना होता है, लेकिन अक्सर इसके उलट ही होता है। इकट्ठे हुए रिश्तेदारों में अक्सर कोई-न-कोई ऐसी बात कर जाता है, जो माहौल को खराब कर देती है। कुछ रिश्तेदार तो ऐसी बातें जान-बूझकर करते हैं और कुछ सिर्फ बात करने के उद्देश्य से ही कुछ ऐसा कह देते हैं, जिससे सारा मजा किरकिरा हो जाता है। रश्मि के जन्मदिन पर आए रिश्तेदार भी सब प्रकार के हैं। खाने-पीने के साथ बातें तो करनी ही हैं और बात क्या करनी है, यह किसी ने सोचा नहीं होता। बस एक को छोड़ा, दूसरे को पकड़ा। बुलाए गए रिश्तेदारों में यादवेंद्र की मौसी भी है। बात को बना सँवारकर कहने का उसे बड़ा तजुर्बा है। सामने वाला समझ ही नहीं पाता कि उसने सहानुभूति जताई है या तंज कसा है। विदाई से पूर्व जब वह यादवेंद्र से मिलने आई तो उसने उसे बेटी के जन्मदिन की बधाई दी और साथ ही जोड़ा, "है तो सब भगवान की मर्जी पर बेटा जब से तेरे घर यह लड़की आई है तब से तेरा बुरा वक्त शुरू हो गया। पहले तुम्हारी पार्टी हारी, फिर तुम पर आरोप लगे। आरोप तो झूठे ही होंगे पर तुम किस-किस को समझाओगे। जितने लोग होते हैं, उतनी बातें करते हैं।"
"बुरे वक्त वाली बात तो ठीक है पर इसमें इस बेचारी नन्हीं-सी जान का क्या कसूर।"
"बेटा! तुम मानो-न-मानो, पर ऐसा होता है। कई बच्चे माँ-बाप पर भारी होते हैं, फिर यह कौन सा तेरा खून है। पर तू चिंता न कर। हर मर्ज का इलाज़ होता है। तू हमारे पास आना कभी। हमारे बाबा जी बहुत पहुँचे हुए हैं, वे सब ठीक कर देंगे।"
इतना कहकर, आशीर्वाद देकर वह चली गई, लेकिन जाने से पहले वह चिंगारी फैंक गई। रमन को यह कहने वाला कि माँ-बाप नाजायज होते हैं, बच्चे नहीं अब यह सोच रहा है कि कहीं सच में ही उसकी बेटी उसके लिए अशुभ न हो। आम आदमी का व्यवहार ऐसा ही तो होता है। कभी जिसे अंधविश्वास कहता है, अगले पल उसी को मान लेता है। एक तरफ उनकी पूजा करता है, जो अंधविश्वास से दूर करते हैं और दूसरी तरफ हर प्रकार के धागे-ताबीजों में विश्वास रखता है। हालांकि उसका दिल इसका विरोध करता है, लेकिन वह भी इन बातों को सिरे से खारिज करने की बजाए यह तर्क देता है कि मौसी ने तो ऐसा इसलिए भी कहा हो सकता है कि यह बेटी गोद ली हुई है, जबकि यह बेटी उसका अपना खून है। दिमाग फिर तर्क देता है कि अपने बच्चे कौन से अशुभ होते नहीं। वह पूर्ण भगत का उदाहरण देता है कि उसे भी इसलिए माँ-बाप से दूर कर दिया गया था कि वह उन पर भारी है।
जब सब रिश्तेदार चले जाते हैं, तो वह रमन से बात करता है। रमन इस पर चौंक जाती है, "आप भी कमाल करते हैं। ऐसा कुछ नहीं होता। फिर आपकी वह मौसी तो है ही ऐसी। मुझे नहीं जाना इसे लेकर कहीं। मेरी बेटी अशुभ नहीं शुभ है। इसके आने के बाद तो घर में खुशियाँ लौटी हैं।"
"बेशक खुशियाँ तो आईं हैं, पर जो मौसी ने कहा, वह भी तो झूठ नहीं।
"झूठ तो नहीं, मगर ऐसा कुछ भी नहीं, जिसे अशुभ कहें। राजनीति में सत्ता परिवर्तन तो होता ही रहता है। आपकी पार्टी हार गई तो कौन सा अजूबा हो गया।"
"मगर अपना धंधा भी चौपट हो गया।"
"तो अच्छा ही हुआ। मैं तो कब से कहती थी कि आप इसे छोड़ दें, आपने मेरी बात नहीं मानी। अगर आपकी मौसी के हिसाब से देखें कि यह काम रश्मि के आने से बंद हुआ है, तो अच्छा ही है। अब आप बुरा काम छोड़कर अच्छे काम की सोच रहे हैं, यह तो शुभ हुआ। मेरी बेटी परिवर्तन की बयार लेकर आई है। घर में आते ही घर का बुरा काम बंद हो गया। जब बड़ी होगी तो देश के बुरे काम भी बंद करवाएगी। यह तो युगान्तरकारिणी बनेगी।
रमन की बात सुनकर वह चुप कर गया। रमन ने जब उसे गंभीर देखा तो कहा, "लोगों की बातों पर यकीन नहीं करना चाहिए। कहने को तो कई मुझसे कहा रही थी कि तुमने बेटी को तो गोद लिया है, लेकिन इसकी आँखें बिल्कुल भाई साहब जैसी हैं। कहीं यह भाईसाहब का ही कारनामा तो नहीं।"
रमन शक करने वाली औरत नहीं, इसलिए उसने उसकी बात न सिर्फ हँसी में उड़ा दी, अपितु यह भी कहा, "फिर तो और भी अच्छा है। मेरे पति का खून है फिर तो यह।"
उनमें से किसी एक ने नया तीर छोड़ा, "मगर तेरे पेट से तो पैदा नहीं हुई।"
इस पर भी रमन अविचलित रही और उसने कहा, "आजकल यह बड़ी बात नहीं। जिनके अपने बच्चे नहीं होते वे सेरोगेट मदर के जरिए बच्चे पैदा करते ही हैं।"
पता नहीं यह बात उन अनपढ़ औरतों को समझ आई या नहीं, लेकिन इससे फायदा यह हुआ कि यह विषय उसी समय बंद हो गया। पति-पत्नी में तकरार करवाने में सिद्धहस्त ये औरतें आज असफल रहीं क्योंकि कोई दूसरा तभी तक चिंगारियाँ फैंक सकता है, जब तक हम उसे मौका देते हैं। रमन ने उन्हें मौका नहीं दिया। न ही उसके मन में शक पैदा हुआ। अगर शक पैदा होने की लेशमात्र भी संभावना होती, तो उन औरतों ने इसका खूब फायदा उठाना था। रमन ने अब भी बात इसलिए नहीं की थी कि वह सच जान सके, अपितु बात का विषय बदलने के लिए की थी।
पहले से ही परेशान यादवेंद्र इससे और बौखला गया क्योंकि उसे लगा कि उसकी चोरी पकड़ी गई, लेकिन किसी तरीके से खुद को शांत करते हुए बोला,"उनकी छोड़ा, क्या तुम्हें भी लगता है कि मैं ऐसा हूँ?"
"मर्दों पर भरोसा तो कुछ किया नहीं जा सकता। जहाँ औरत देखी लार वहीं लार टपकानी शुरू कर देते हैं। फिर आपके पास तो बहुत आती होंगी ऐसी औरतें, जिनकी मजबूरी का फायदा उठाया जा सकता हो।"
यादवेंद्र सहम गया। रमन ने उसकी तरफ ध्यान नहीं दिया और सोचते हुए बोली, "जो इसको संभाल रही थी, वो भी तो इसकी माँ हो ही सकती है, जवान भी थी और सुंदर भी।" - रमन ने फिर छेड़ा।
"तुम मुझ पर शक कर रही हो..." - यादवेंद्र ने उदास होते हुए कहा।
बात को बिगड़ते देख रमन ने प्यार से अपना सिर यादवेंद्र के कंधे पर रख दिया और बोली, "मुझे न शक करना है और न यह सोचना है कि यह किसकी बेटी है। अगर यह आपकी बेटी है तो भी इसे नाजायज तो कह नहीं सकते क्योंकि आप ही तो कहते हो कि बच्चे नाजायज नहीं होते। अगर यह आपका खून हुई तो और भी अच्छा है कि मैं अपने ही पति की औलाद को पाल रही हूँ।"
"मतलब तुम यह मानने को तैयार हो कि यह मेरी बेटी हो सकती है।" - यादवेंद्र को यह सवाल करना ज़रूरी लगा, क्योंकि बिना निष्कर्ष निकले बात को बीच में छोड़ देना रमन को मनमर्जी के निष्कर्ष निकालने की इजाजत देगा। यादवेंद्र सच को झूठ साबित करके उठना चाहता था।
"कुछ नहीं मानती, सोचती मैं। मैंने तो सिर्फ इतना कहा था कि लोग तो कुछ-न-कुछ कहते रहते हैं। भगवान ने हमें इस योग्य समझा कि हम इस बच्ची का अच्छे से पालन-पोषण कर सकते हैं, तभी उसने इसे हमारे यहाँ भेजा। अब यह हमारी बेटी है और यह किसी के कहने से अशुभ नहीं होगी।"
"यह तो तूने सही कहा। लोगों की बातों की परवाह नहीं करनी चाहिए।"
"बिल्कुल। अच्छा यह बताओ चाय पीओगे, मेरा मन कर रहा है, चाय पीने का।"
"हाँ, बना लाओ।"
रमन चाय बनाने चली गई। यादवेंद्र रमन की बात से सहमत होने की कोशिश कर रहा है। अक्सर लोग कहते हैं कि हमें किसी की परवाह नहीं, लेकिन इस पर खरा उतरने वाले इक्का-दुक्का लोग ही होते हैं। जो सच में परवाह नहीं करते, वे किसी बात को लेकर दुखी नहीं होते। रमन उन इक्का-दुक्का लोगों में थी, जबकि यादवेंद्र भी अक्सर यह कहता था कि मुझे किसी की परवाह नहीं, लेकिन लोगों का उसके बारे में सोचना, उसके बारे में कुछ कहना उसे विचलित कर देता था। मौसी की बात भी उसके मस्तिष्क के किसी कोने में दुबककर बैठ गई थी।
क्रमशः