Geeta se Shree Krushn ke 555 Jivan Sutra - 113 in Hindi Motivational Stories by Dr Yogendra Kumar Pandey books and stories PDF | गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 113

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 113


जीवन सूत्र 264 क्रियमाण कर्म - हमारे वर्तमान कार्य एवं उसके फल


भगवान श्री कृष्ण ने गीता में कहा है: -

यथैधांसि समिद्धोऽग्निर्भस्मसात्कुरुतेऽर्जुन।

ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा।।4/37।।

इसका अर्थ है,हे अर्जुन!जैसे प्रज्वलित अग्नि ईंधनों को सर्वथा भस्म कर देती है, ऐसे ही ज्ञानरूपी अग्नि सम्पूर्ण कर्मों (के फल)को सर्वथा भस्म कर देती है।

इस श्लोक में भगवान श्री कृष्ण ने संपूर्ण कर्मों के फल के ज्ञान की अग्नि में भस्म हो जाने की बात कही है।वास्तव में कर्मों के फल ही हमारी आसक्ति और बंधन का कारण बनते हैं। अगर कर्म करते समय आसक्ति और कर्तापन का त्याग हो गया तो फिर ये कर्म सहज होते जाते हैं।भगवान कृष्ण ने जब संपूर्ण कर्मों को भस्म कर देने की बात कही है,तो इसका अर्थ यह है कि वे कर्म जो हमें प्रसन्नता प्रदान करते हैं और वे कर्म जो हमें दुख प्रदान करते हैं,दोनों में आसक्ति का त्याग।

जैसा पूर्व के आलेखों में चर्चा की गई है कि कर्म फल भोगने और परिणाम के आधार पर तीन प्रकार के होते हैं- संचित, प्रारब्ध और क्रियमाण।संचित वे कर्म हैं,जिनका फल अभी भोगना है।इन कर्मों के फल वर्तमान में प्राप्त नहीं होते बल्कि संचित रहकर आगे चलकर भोगने होते हैं।प्रारब्ध वे कर्म हैं,जो संचित कर्म इस जन्म के पूर्व के हैं और अब प्रारब्ध कर्म बनकर इस जन्म में भोगने के लिए मिले हैं।क्रियमाण ऐसे कर्म जो अब हम कर रहे हैं और जिनका फल हम वर्तमान समय में ही देख लेते हैं।



जीवन सूत्र 265 हमारे कर्म हों संतुलित


कर्मों के फल का अग्नि में समर्पित हो जाने का अर्थ है-मनुष्य का ज्ञान प्राप्त कर लेना। यह ज्ञान ही मुक्ति का मार्ग है।जन्म मृत्यु के चक्र से मुक्त हो जाना है।उस आनंद लोक की साम्यावस्था का नाम है,जिसे हम ज्ञान प्राप्ति के बाद स्वयं में अनुभूत करने लगते हैं।इसे उस परमसत्ता की अनुभूति भी कहते हैं।संचित कर्म के प्रभाव के नाश के लिए ज्ञानयोग उचित है। अपने स्वरूप और ईश्वर तत्व से उसके संपर्कों और संबंध का ज्ञान।इसका अर्थ है,ज्ञान प्राप्त हो जाने के बाद हमारे कर्मफल अब आगे भोगने के लिए जमा नहीं होंगे।प्रारब्ध कर्म के विपरीत प्रभाव से मुक्ति के लिए परोपकार,सेवा और भक्ति आवश्यक है।क्रियमाण कर्म के विपरीत परिणाम होंगे ही नहीं,अगर हम वर्तमान कर्मों को कर्तापन और आसक्ति के त्याग के साथ करते चलें।

अगर हम इस जन्म में ही कर्मों को संतुलित करना सीखें और ज्ञान की अग्नि में उन्हें समर्पित करते जाएं तो हमारे इन कर्म फलों के आधार पर आगे हमारे अनेक भावी जन्मों और मृत्यु के चक्र का इस जन्म में ही समापन हो जाए।जीवन मिला है तो नेक काम करते चलें का सूत्र वाक्य भी इसीलिए है।



(मानव सभ्यता का इतिहास सृष्टि के उद्भव से ही प्रारंभ होता है,भले ही शुरू में उसे लिपिबद्ध ना किया गया हो।महर्षि वेदव्यास रचित श्रीमद्भागवत,महाभारत आदि अनेक ग्रंथों तथा अन्य लेखकों के उपलब्ध ग्रंथ उच्च कोटि का साहित्यग्रंथ होने के साथ-साथ भारत के इतिहास की प्रारंभिक घटनाओं को समझने में भी सहायक हैं।श्रीमद्भागवतगीता भगवान श्री कृष्ण द्वारा वीर अर्जुन को महाभारत के युद्ध के पूर्व कुरुक्षेत्र के मैदान में दी गई वह अद्भुत दृष्टि है, जिसने जीवन पथ पर अर्जुन के मन में उठने वाले प्रश्नों और शंकाओं का स्थाई निवारण कर दिया।इस स्तंभ में कथा,संवाद,आलेख आदि विधियों से श्रीमद्भागवत गीता के उन्हीं श्लोकों व उनके उपलब्ध अर्थों को मार्गदर्शन व प्रेरणा के रूप में लिया गया है।भगवान श्री कृष्ण की प्रेरक वाणी किसी भी व्याख्या और विवेचना से परे स्वयंसिद्ध और स्वत: स्पष्ट है। श्री कृष्ण की वाणी केवल युद्ध क्षेत्र में ही नहीं बल्कि आज के समय में भी मनुष्यों के सम्मुख उठने वाले विभिन्न प्रश्नों, जिज्ञासाओं, दुविधाओं और भ्रमों का निराकरण करने में सक्षम है।यह धारावाहिक उनकी प्रेरक वाणी से वर्तमान समय में जीवन सूत्र ग्रहण करने और सीखने का एक भावपूर्ण लेखकीय प्रयत्नमात्र है,जो सुधि पाठकों के समक्ष प्रस्तुत है।)

(अपने आराध्य श्री कृष्ण से संबंधित द्वापरयुगीन घटनाओं व श्रीमद्भागवत गीता के श्लोकों व उनके उपलब्ध अर्थों व संबंधित दार्शनिक मतों पर लेखक की कल्पना और भक्तिभावों से परिपूर्ण कथात्मक प्रस्तुति)



डॉ. योगेंद्र कुमार पांडेय