जीवन सूत्र 176 ईश्वर को कर्म नहीं बांधते, उनसे लें प्रेरणा
गीता में भगवान श्री कृष्ण ने कहा है: -
न मां कर्माणि लिम्पन्ति न मे कर्मफले स्पृहा।
इति मां योऽभिजानाति कर्मभिर्न स बध्यते।।4/14।।
इसका अर्थ है,हे अर्जुन!कर्म के फलों को प्राप्त करने और भोगने की मेरी इच्छा नहीं है।यही कारण है कि ये कर्म मुझे लिप्त नहीं करते। इस प्रकार मुझे जो(वास्तविक स्वरूप में)जानता है, वह भी कर्मों से नहीं बंधता है।
जीवन सूत्र 177 आसक्ति और कर्तापन का त्याग कर्मों में तल्लीनता हेतु आवश्यक
वास्तव में ईश्वर सभी तरह के द्वंद्वों से परे हैं।सभी तरह के कारण- कार्यों के स्रोत होने के कारण ईश्वर को कर्म के फल नहीं बांधते और न वे साधारण मनुष्य की तरह उससे सम्मोहित होते हैं।यह भी संभव नहीं है कि ईश्वर के मन में कोई कर्ता भाव इस तरह से आ पाए कि उनके भीतर किसी तरह का अहंकार जन्म ले पाए।जब भगवान कृष्ण जैसे दैवीय गुण संपन्न लेकिन फिर भी मानवीय शक्तियों का अधिकाधिक प्रयोग करने वाले श्रेष्ठ अनुकरणीय पुरुष के रूप में कर्म संचालित होते हैं,तब भी वे एक आदर्श की स्थिति में कर्मों के फल से अप्रभावित होकर ही कर्म करते हुए दिखाई देते हैं।
जीवन सूत्र 178 लक्ष्य प्राप्ति के दबाव से बचें
यही स्थिति ईश्वर का अनुकरण करने वाले उन साधकों के लिए भी होती है कि वे कर्मों के फल से अप्रभावित रहकर कार्य करें तो वे किसी दबाव का अनुभव नहीं करेंगे।इससे न सिर्फ उनके वर्तमान जारी कर्म श्रेष्ठ रूप में निष्पादित होंगे बल्कि जब फल प्राप्त करने की बारी आएगी तो वे कहीं अधिक बेहतर परिणाम के साथ होंगे।
यहां यह स्वभाविक जिज्ञासा उत्पन्न होती है कि ईश्वर के इस गुण को समझ लेने वाला मनुष्य किस तरह कर्मों के बंधन से नहीं बंधेगा। वास्तव में यह ईश्वर का दिखाया हुआ एक मार्ग है।
जीवन सूत्र 179 हममें भी उसी अपार क्षमता वाले ईश्वर का अंश
हमारे भीतर ईश्वर का अंश होते हुए भी हम उस ईश तत्व की क्षमता और अपारशक्ति से अपरिचित ही रह जाते हैं।केवल सोच लेने से कि मैंने यह रहस्य जान लिया है यदि कोई कर्म फल के बंधनों से नहीं बंधे,तो उसे मुक्ति मिल जाने वाली है,संभव नहीं है।ईश्वर के ये गुण भी मनुष्य की समझ में तब आएंगे जब वे आचरण में इनका अनुसरण करेंगे।
जीवन सूत्र 180 संकल्प शुभ होना आवश्यक
शुभ संकल्प लेकर अच्छे कार्यों को करने और फलों की चिंता से खुद को दूर रखने का धीरे-धीरे अभ्यास करते चलेंगे। ऐसा होने पर एक दिन वह स्थिति भी आएगी,जब चीजों को स्वाभाविक रूप से ग्रहण करते हुए भी मनुष्य उसके दोषों और नकारात्मक प्रभावों से मुक्त रहे।अप्रभावित रहे।
(मानव सभ्यता का इतिहास सृष्टि के उद्भव से ही प्रारंभ होता है,भले ही शुरू में उसे लिपिबद्ध ना किया गया हो।महर्षि वेदव्यास रचित श्रीमद्भागवत,महाभारत आदि अनेक ग्रंथों तथा अन्य लेखकों के उपलब्ध ग्रंथ उच्च कोटि का साहित्यग्रंथ होने के साथ-साथ भारत के इतिहास की प्रारंभिक घटनाओं को समझने में भी सहायक हैं।श्रीमद्भागवतगीता भगवान श्री कृष्ण द्वारा वीर अर्जुन को महाभारत के युद्ध के पूर्व कुरुक्षेत्र के मैदान में दी गई वह अद्भुत दृष्टि है, जिसने जीवन पथ पर अर्जुन के मन में उठने वाले प्रश्नों और शंकाओं का स्थाई निवारण कर दिया।इस स्तंभ में कथा,संवाद,आलेख आदि विधियों से श्रीमद्भागवत गीता के उन्हीं श्लोकों व उनके उपलब्ध अर्थों को मार्गदर्शन व प्रेरणा के रूप में लिया गया है।भगवान श्री कृष्ण की प्रेरक वाणी किसी भी व्याख्या और विवेचना से परे स्वयंसिद्ध और स्वत: स्पष्ट है। श्री कृष्ण की वाणी केवल युद्ध क्षेत्र में ही नहीं बल्कि आज के समय में भी मनुष्यों के सम्मुख उठने वाले विभिन्न प्रश्नों, जिज्ञासाओं, दुविधाओं और भ्रमों का निराकरण करने में सक्षम है।यह धारावाहिक उनकी प्रेरक वाणी से वर्तमान समय में जीवन सूत्र ग्रहण करने और सीखने का एक भावपूर्ण लेखकीय प्रयत्नमात्र है,जो सुधि पाठकों के समक्ष प्रस्तुत है।)
(अपने आराध्य श्री कृष्ण से संबंधित द्वापरयुगीन घटनाओं व श्रीमद्भागवत गीता के श्लोकों व उनके उपलब्ध अर्थों व संबंधित दार्शनिक मतों पर लेखक की कल्पना और भक्तिभावों से परिपूर्ण कथात्मक प्रस्तुति)
डॉ. योगेंद्र कुमार पांडेय