जीवन सूत्र 140 आसक्ति क्रोध और डर ईश्वर प्राप्ति में बाधक
गीता में भगवान श्री कृष्ण ने कहा है -
वीतरागभयक्रोधा मन्मया मामुपाश्रिताः।
बहवो ज्ञानतपसा पूता मद्भावमागताः।।4/10।।
इसका अर्थ है, हे अर्जुन,जिनके राग,भय और क्रोध समाप्त हो गए हैं,जो मुझ में ही तल्लीन हैं, जो मेरे ही आश्रित हैं,वे ज्ञान रूपी तप से पवित्र होकर मेरे स्वरूप को प्राप्त हो चुके हैं।
इस श्लोक में भगवान कृष्ण ने उन उपायों पर चर्चा की है,जिनसे कोई व्यक्ति ईश्वर को प्राप्त कर सकता है।उन्होंने स्वयं कहा है कि अपनी आसक्ति,डर और क्रोध जैसी भावनाओं को दूर कर चुके अनेक साधक उन्हें अर्थात ईश्वर को प्राप्त कर चुके हैं। हमारा अंतर्मन अनेक बातों से सशंकित रहता है इनमें प्रमुख रूप से वस्तुओं, मान, पद- प्रतिष्ठा,पात्रता या आवश्यकता से अधिक प्राप्त करने की ललक तथा इन सभी के प्राप्त होने पर उन्हें स्थाई बनाकर रखने तथा इनमें और वृद्धि की कामना है।जिन चीजों को हम प्राप्त करते हैं, उन्हें स्थाई मानकर चलते हैं।
जीवन सूत्र 141 सराय जैसी दुनिया में कुछ भी स्थाई नहीं
इस सराय जैसी दुनिया में मनुष्य अपने लिए एक सुरक्षित जगह रखना चाहता है जिस पर केवल और केवल उसका अधिकार हो।उसके भीतर इस स्थान को और ऐसी चीजों को खो देने का डर भी बना रहता है।
जीवन सूत्र 142 कुछ खो देने का डर त्याग दें
ये चीजें हैं भी ऐसी कि नहीं मिले तो इन्हें पाने की छटपटाहट और मिल जाने पर इन्हें खो देने का डर।मुख्यत: मनुष्य अपनी असुरक्षा बोध और असुविधा के कारण ही सुख के साधनों का संग्रह करता चलता है।जब हमारे इस कार्य में विघ्न पड़ता है,या जब हमारी योजना के अनुसार कार्य नहीं होता या फिर एक योजना के असफल होने पर उसके आगे संचालन हेतु बनाया गया प्लान बी भी असफल हो जाता है,तो हम क्रोध से भर उठते हैं।हम असफल नहीं होना चाहते और हमारी खीझ तथा झुंझलाहट किसी न किसी रूप में व्यक्त होती है।
जीवन सूत्र 143 ईश्वर से मन के तार जोड़ें
अगर इन सब के स्थान पर हमने अपना मुख्य फोकस ईश्वर से अपने मन के तार जोड़ने पर केंद्रित रखा तो जीवन के कर्म क्षेत्र में अनेक कार्यों को करते हुए,चीजों को प्राप्त करते हुए और विक्षोभकारी घटनाएं होते हुए भी हमारा मन अस्थिर और अशांत नहीं होगा। हम संपूर्ण प्रयास के बाद भी असफल हो जाने की स्थिति में चीजों को सहज भाव से स्वीकार करना स्वतः ही सीख जाएंगे।(क्रमशः)
(मानव सभ्यता का इतिहास सृष्टि के उद्भव से ही प्रारंभ होता है,भले ही शुरू में उसे लिपिबद्ध ना किया गया हो।महर्षि वेदव्यास रचित श्रीमद्भागवत,महाभारत आदि अनेक ग्रंथों तथा अन्य लेखकों के उपलब्ध ग्रंथ उच्च कोटि का साहित्यग्रंथ होने के साथ-साथ भारत के इतिहास की प्रारंभिक घटनाओं को समझने में भी सहायक हैं।श्रीमद्भागवतगीता भगवान श्री कृष्ण द्वारा वीर अर्जुन को महाभारत के युद्ध के पूर्व कुरुक्षेत्र के मैदान में दी गई वह अद्भुत दृष्टि है, जिसने जीवन पथ पर अर्जुन के मन में उठने वाले प्रश्नों और शंकाओं का स्थाई निवारण कर दिया।इस स्तंभ में कथा,संवाद,आलेख आदि विधियों से श्रीमद्भागवत गीता के उन्हीं श्लोकों व उनके उपलब्ध अर्थों को मार्गदर्शन व प्रेरणा के रूप में लिया गया है।भगवान श्री कृष्ण की प्रेरक वाणी किसी भी व्याख्या और विवेचना से परे स्वयंसिद्ध और स्वत: स्पष्ट है। श्री कृष्ण की वाणी केवल युद्ध क्षेत्र में ही नहीं बल्कि आज के समय में भी मनुष्यों के सम्मुख उठने वाले विभिन्न प्रश्नों, जिज्ञासाओं, दुविधाओं और भ्रमों का निराकरण करने में सक्षम है।यह धारावाहिक उनकी प्रेरक वाणी से वर्तमान समय में जीवन सूत्र ग्रहण करने और सीखने का एक भावपूर्ण लेखकीय प्रयत्नमात्र है,जो सुधि पाठकों के समक्ष प्रस्तुत है।)
(अपने आराध्य श्री कृष्ण से संबंधित द्वापरयुगीन घटनाओं व श्रीमद्भागवत गीता के श्लोकों व उनके उपलब्ध अर्थों व संबंधित दार्शनिक मतों पर लेखक की कल्पना और भक्तिभावों से परिपूर्ण कथात्मक प्रस्तुति)
डॉ. योगेंद्र कुमार पांडेय