Geeta se Shree Krushn ke 555 Jivan Sutra - 85 in Hindi Motivational Stories by Dr Yogendra Kumar Pandey books and stories PDF | गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 85

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 85

जीवन सूत्र 128 कल्पों के प्रारंभ में भी रहते हैं ईश्वर तत्व


गीता में भगवान श्री कृष्ण ने कहा है:-

अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन्।

प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय संभवाम्यात्ममायया।।4/6।।

इसका अर्थ है -मैं अजन्मा और अविनाशी-स्वरूप होते हुए भी तथा सम्पूर्ण प्राणियों का ईश्वर होते हुए भी अपनी प्रकृति को अधीन करके अपनी योगमाया से प्रकट होता हूँ।

भगवान कृष्ण अर्जुन द्वारा उनके (भगवान कृष्ण के) कल्पों के प्रारंभ में भी उपस्थित रहने के संबंध में जिज्ञासा करने पर समाधान प्रस्तुत करते हैं। भगवान श्री कृष्ण को ईश्वर के रूप में अपने पूर्व जन्मों का ज्ञान है और अर्जुन को नहीं है। इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण सृष्टि के प्रारंभ और इसके विकास के संबंध में संकेत करते हैं।सांख्य दर्शन के अनुसार वास्तव में संसार में दो मूल तत्व आत्म तत्व पुरुष और दूसरी संसार का कारण प्रकृति है।प्रकृति मूल रूप में सत्व,रजस्,रजस् तमस की साम्यावस्था है।बुद्धि संसार का पहला अविभाज्य तत्व है,जो इस साम्यावस्था में विक्षोभ या असंतुलन से जन्मा है। इससे अहंकार (मैं पन) का चेतना के रूप में अगणित अहंकारों में विभाजन होता है।अहंकार से मन और ज्ञानेंद्रियां (आंख, कान, नाक, जीभ और त्वचा),पांच कर्मेंद्रियां(हाथ, पैर, मुंह, गुदा और लिंग)पाँच तन्मात्राएँ (रूप,रस,गंध, स्पर्श और शब्द) और पाँच महाभूत(अग्नि,जल,पृथ्वी,वायु,आकाश) उत्पन्न या विकसित होते हैं।प्रकृति जड़ एवं पुरूष चेतन तत्व है। प्रकृति से यह संसार उत्पन्न होता है।पुरूष चेतना युक्त और आत्मा तत्व है।यह 25वां तत्व उक्त 24 कहे गए(संयुक्त रूप से गुण विभाग कहे जाने वाले)तत्वों की सक्रियता का प्रज्वलन स्रोत है।प्रकृति और पुरुष के सहयोग से ही सृष्टि का क्रम प्रारंभ होता है।



जीवन सूत्र 129 कुछ पाने की होड़ ईश्वर को समर्पित हो

यहां एक प्रश्न उपस्थित होता है कि अगर पुरुष और प्रकृति तत्व निर्लिप्त असंयुक्त रहें तो फिर सृष्टि का क्रम ही आगे न बढ़ता और दुनिया आज के इस भौतिकतावादी युग में भी नहीं पहुंच पाती।अगर पुरुष और प्रकृति की यह साम्यावस्था टूटती है तो इसके पीछे कारण इस साम्यावस्था के पुरुष और प्रकृति में एकाकार होने और स्थाई संतुलन अवस्था का प्रयत्न है, इसीलिए समुद्र में भी लहरें उठती रहती हैं।


जीवन सूत्र 130 धनात्मक और ऋणात्मक शक्तियों में संतुलन आवश्यक



इसे यूं कहें कि धनात्मक और ऋणात्मक प्रकृति में सहअस्तित्व से बढ़कर संतुलन की स्थिति के लिए एकाकार होना आवश्यक होता है।सृष्टि के प्रारंभ से ऐसी लहरें उठती आ रही हैं।


जीवन सूत्र 131 जीवन में संतुलन लाने में सहायक हैं ईश्वर


मानव सभ्यता के विकास के क्रम में ऐसे असंतुलन के मध्य संतुलन लाने के लिए भगवान धरती पर बार-बार अवतरित होते रहते हैं। इस श्लोक में वे स्वयं कहते हैं कि वे अपनी योग माया से बार-बार प्रकट होते रहते हैं।

(मानव सभ्यता का इतिहास सृष्टि के उद्भव से ही प्रारंभ होता है,भले ही शुरू में उसे लिपिबद्ध ना किया गया हो।महर्षि वेदव्यास रचित श्रीमद्भागवत,महाभारत आदि अनेक ग्रंथों तथा अन्य लेखकों के उपलब्ध ग्रंथ उच्च कोटि का साहित्यग्रंथ होने के साथ-साथ भारत के इतिहास की प्रारंभिक घटनाओं को समझने में भी सहायक हैं।श्रीमद्भागवतगीता भगवान श्री कृष्ण द्वारा वीर अर्जुन को महाभारत के युद्ध के पूर्व कुरुक्षेत्र के मैदान में दी गई वह अद्भुत दृष्टि है, जिसने जीवन पथ पर अर्जुन के मन में उठने वाले प्रश्नों और शंकाओं का स्थाई निवारण कर दिया।इस स्तंभ में कथा,संवाद,आलेख आदि विधियों से श्रीमद्भागवत गीता के उन्हीं श्लोकों व उनके उपलब्ध अर्थों को मार्गदर्शन व प्रेरणा के रूप में लिया गया है।भगवान श्री कृष्ण की प्रेरक वाणी किसी भी व्याख्या और विवेचना से परे स्वयंसिद्ध और स्वत: स्पष्ट है। श्री कृष्ण की वाणी केवल युद्ध क्षेत्र में ही नहीं बल्कि आज के समय में भी मनुष्यों के सम्मुख उठने वाले विभिन्न प्रश्नों, जिज्ञासाओं, दुविधाओं और भ्रमों का निराकरण करने में सक्षम है।यह धारावाहिक उनकी प्रेरक वाणी से वर्तमान समय में जीवन सूत्र ग्रहण करने और सीखने का एक भावपूर्ण लेखकीय प्रयत्नमात्र है,जो सुधि पाठकों के समक्ष प्रस्तुत है।)

(अपने आराध्य श्री कृष्ण से संबंधित द्वापरयुगीन घटनाओं व श्रीमद्भागवत गीता के श्लोकों व उनके उपलब्ध अर्थों व संबंधित दार्शनिक मतों पर लेखक की कल्पना और भक्तिभावों से परिपूर्ण कथात्मक प्रस्तुति)



डॉ. योगेंद्र कुमार पांडेय