रामानुजन स्वभाव से शरमीले थे। अपने सीधे-सरल व्यक्तित्व से वह सदा ही अन्य व्यक्तियों को प्रभावित कर लेते थे। अन्य व्यक्तियों से उनका व्यवहार सदैव मित्रवत् रहता था। हाई स्कूल के उनके सहपाठी एन. रघुनाथन के अनुसार, उनसे शत्रु-भाव रख पाना किसी के लिए संभव ही नहीं था। कुछ मोटाई लिये एवं मध्यम ऊँचाई के रामानुजन की आँखों में एक चमक सदा बनी रहती थी। उनके व्यक्तित्व में कुछ ऐसा विशेष था कि किसी व्यक्ति को उनपर अविश्वास होता ही नहीं था। उनसे मिलने पर प्रत्येक व्यक्ति उन्हें अनायास ही पसंद करने लगता था और उनके द्वारा कुछ न माँगने पर भी उनके लिए भरसक कुछ करने की इच्छा उसे होती थी।
जब वह गणित समझाने में रम जाते और समझाने वाले को कुछ समझ में नहीं आता, तब भी उनको बोलते हुए देखना बहुतों को मोहित-सा कर देता था।
प्रो. हार्डी के अनुसार, रामानुजन सरल प्रकृति के हँसमुख व्यक्ति थे। वह कहानियाँ तथा चुटकुले सुनाने में रुचि लेते थे। गणित के साथ अपने इंग्लैंड प्रवास के समय वह राजनीतिक विषयों पर भी रुचि से चर्चा करते थे। मद्रास में रामानुजन के संपर्क में आए अनेक व्यक्तियों का कहना था कि उन्हें हास्य विनोद बहुत प्रिय था। तमिल एवं अंग्रेजी के शब्दों को तोड़-मरोड़कर खिल्ली उड़ाना उनका प्रिय विषय था। समय-समय पर वह छोटी-बड़ी कहानी सुनाने लगते और कहानियाँ सुनाते-सुनाते वह स्वयं खिलखिलाकर हँसते-हँसते लोट-पोट हो जाते। ऐसी स्थिति में सिर पर बँधी उनकी चोटी भी बहुधा खुल जाती थी। वह किसी भी विषय पर खुलकर बोलने के अभ्यस्त थे।
कुछ व्यक्तियों को व्यर्थ ही में गणित के बारे में कुछ कहना शुरू कर देने से उनका झक्कीपन नजर आता था। परंतु सुनने वाले इससे परेशान नहीं होते थे। उनकी अटपटी बातों में सुननेवाले को एक सुख, एक रस मिलता था, जो नैसर्गिक आनंद जैसा था।
मनोरंजन के लिए कठपुतलियों का प्रदर्शन एवं गली-मोहल्ले के नाटक देखना उन्हें प्रिय था। यद्यपि जीवन में उनको पग-पग पर निराशा मिली; परंतु उन्होंने किसी से अपने संबंध नहीं बिगाड़े, वह निरुत्साह भी नहीं हुए। लंदन जाने के प्रयत्न और उसमें मिली सफलता से इसकी पुष्टि होती है।
विवाह एवं नौकरी की खोजस्कूल छोड़ने के पश्चात् लगभग छह वर्षों तक रामानुजन का जीवन सामान्य नहीं था। घरवालों के लिए वह चिंता का विषय बन गए थे। बेकारी और वित्तीय कठिनाइयों के बीच स्कूल से बाहर संसार की सब हलचलों से दूर घर पर स्लेट और खड़िया से गणित बनाने में रमे रामानुजन के माता-पिता ने विफलताओं में डूबते-उतरते अपने पुत्र को वास्तविकता के धरातल पर लाने की योजना बनाई और बीस वर्षीय रामानुजन को चतुष्पदी बनाने का निर्णय लिया। उनका विचार था कि विवाह करने पर रामानुजन को सांसारिकता के दायरे में लाने की संभावना बन सकती है। उनके जीवन में घर करती विषमताओं के उपचार के लिए आजमाया हुआ नुस्खा था—विवाह। उनकी धारणा थी कि रामानुजन पर गृहस्थी का भार पड़ेगा तो वह सीधे मार्ग पर बरबस चलने लगेगा।
सन् 1908 में उनकी माता कुंभकोणम से लगभग सौ किलोमीटर दूर राजेंद्रम ग्राम में अपने एक मित्र परिवार में गई हुई थीं। वहाँ दूर के एक संबंधी परिवार में उन्हें जानकी नामक एक कन्या का पता लगा। वह स्वयं ज्योतिषी थीं ही। उन्होंने जानकी की जन्मपत्री लेकर रामानुजन की जन्मपत्री से मिलाया। इसके आधार पर उन्हें संबंध ठीक जँचा और उन्होंने बात आगे चलाई।
जानकी के पिता श्री रंगास्वामी की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी। आभूषण बनाने के सामान का छोटा सा व्यापार था उनका। पहले कुछ संपत्ति थी, लेकिन बाद में वह उन्हें बेचनी पड़ी थी। पाँच बेटियों और एक पुत्र के पिता श्री रंगास्वामी जानकी के विवाह पर बहुत ही सीमित धन व्यय करने की स्थिति में थे। इस कारण से किसी बहुत योग्य अथवा बड़े परिवार में जानकी के विवाह की बात वे सोच नहीं सकते थे। रामानुजन के लिए एक-दो अन्य संबंध आए अवश्य थे, परंतु रामानुजन विवाह की दृष्टि से अति साधारण व्यक्तियों की श्रेणी में थे— पढ़ाई एवं नौकरी दोनों में नितांत विफल रामानुजन की माताजी बड़ी दबंग महिला थीं। पिता श्रीनिवास पुत्र के विवाह की बात कहीं अन्य चलाना चाहते थे, परंतु जानकी से विवाह के पक्ष में माता कोमलताम्मल का मत निर्णयात्मक था।
14 जुलाई, 1909 को रामानुजन का विवाह जानकी से हो गया। कहा जाता है कि रात्रि में सप्तपदी द्वारा संपन्न इस विवाह में तीन अपशकुन हुए। विवाह स्थल पर एक कोने में आग लगी, जिसे तुरंत ही बुझा दिया गया। दुल्हन जानकी, जो वरमाला दूल्हे रामानुजन के गले में डालने वाली थीं, वह पहले ही उनके हाथ से पृथ्वी पर गिर पड़ी तथा जब रामानुजन एवं जानकी को झूले पर बिठाकर महिलाएँ मंगल-गीत गा रही थीं, तभी एक मंद बुद्धि लड़की की चीख सुनाई पड़ी। रामानुजन के पिता किसी कारणवश विवाह में सम्मिलित नहीं हो सके थे; परंतु उनकी माँ विवाह में पूरी तरह उल्लसित एवं प्रसन्न थीं।
विवाह के पश्चात् जानकी तुरंत ही तीन वर्ष के लिए मायके चली गईं। अतः बाह्य स्तर पर रामानुजन के जीवन पर विवाह का तुरंत कोई असर नहीं पड़ा। परंतु विवाह एक संस्कार है और संस्कारों का प्रभाव गहरा होता है। वह गृहस्थाश्रम में प्रवेश कर चुके थे। अब उन्हें जीवन-यापन के लिए साधनों को जुटाने की सुधि लेनी आवश्यक हो गई थी।
अब सबकुछ भुलाकर गणित में डूबे रहने का समय रामानुजन के लिए नहीं रह गया था। नौकरी की खोज आवश्यक थी। इस कार्य में उन्हें मद्रास तथा अन्य नगरों की रेल द्वारा यात्रा करनी पड़ी। यात्रा के किराए और ठहरने के स्थान के लिए भी उन्हें मित्रों की कृपा पर निर्भर रहना पड़ा।
सन् 1910 में कुछ समय वह मद्रास में श्री विश्वनाथ शास्त्री के साथ विक्टोरिया हॉस्टल में रहे। विश्वनाथ वहाँ प्रेसिडेंसी कॉलेज में अध्ययनरत थे तथा उन्हें रामानुजन ने पहले ट्यूशन पढ़ाया था। प्रातः ही रामानुजन ट्यूशनों की खोज में निकल जाते। परंतु गणित को जटिल बनाने की उनकी छवि इसमें आड़े आती थी। विश्वनाथ ने बाद में अपने संस्मरणों में बताया है कि तब रात्रि के समय बहुत उदास होकर रामानुजन अपने भाग्य को कोसते थे। शास्त्री उनसे कहते कि गणित की उनकी अप्रतिम प्रतिभा देर-सबेर एक दिन अवश्य उनके लिए वरदान बनेगी, तो वह कहते
“लगता है कि जैसे गैलीलियो ‘इंक्वीजीशन’ में मर गए उसी प्रकार वह कोई मान्यता पाए बिना ही गरीबी में समाप्त हो जाएँगे।” विश्वनाथ शास्त्री उनका उत्साहवर्धन लगातार करते रहते थे।
सन् 1910 में रामानुजन केंद्रीय रेलवे स्टेशन के निकट ‘पार्क टाउन’ में वेंकटलेन पर चले गए। यहाँ वह कुंभकोणम के अपने पुराने मित्र श्री के. नरसिम्हा आयंगर और उनके भाई सारंगपाणि के अतिथि बनकर रहे। आयंगर मद्रास क्रिश्चियन कॉलेज में पढ़ते थे और रामानुजन गणित में उनकी सहायता कर देते थे।
शिक्षा की कमी के कारण वह कोई भी नौकरी पाने में विफल ही रहे। इस बीच वह बीमारी की दशा में पचयिप्पा कॉलेज के अपने पुराने सहपाठी श्री राधाकृष्ण अय्यर के पास पहुँचे। उनकी अस्वस्थता को देखकर राधाकृष्ण को भारी ठेस लगी। वह घबराकर रामानुजन को डॉक्टर के पास ले गए। डॉक्टर को उनकी स्थिति ठीक नहीं लगी। उन्होंने रामानुजन को अपने परिवार के पास कुंभकोणम जाने की सलाह दी।
रामानुजन का स्वास्थ्य गिरने के साथ-साथ मनोबल भी टूट चुका था। रेल से कुंभकोणम के लिए जाने के समय उन्होंने अपनी दो नोट-बुक्स, जिसमें उनके निकाले सूत्र और साध्य लिखे थे, राधाकृष्ण को देकर कहा था
“यदि मेरी मृत्यु हो जाए तो यह नोट बुक पचयिप्पा कॉलेज के गणित के अध्यापक प्रो. सिंगरावेलु मुदालियर अथवा मद्रास क्रिश्चियन कॉलेज के प्राध्यापक प्रो. एडवर्ड बी. रॉस को दे देना।”रुग्णावस्था में ही वह कुंभकोणम पहुँचे। वहाँ रहकर उन्होंने स्वास्थ्य लाभ किया। उसके बाद नौकरी की खोजमें वह पुनः मद्रास के लिए चले।
अब उनकी नौकरी की खोज का तरीका बदला। उन्होंने ट्यूशन ढूँढ़ने के बजाय कार्यालयों में कार्य की खोज आरंभ करने का निश्चय किया। इसके लिए वह कई प्रभावशाली व्यक्तियों से भी मिले। ऐसे व्यक्तियों से मिलने के समय वह अपनी नोट-बुक साथ रखते थे। यही उनकी सबसे बड़ी पहचान बन गई थी। एक दिन मद्रास जाते-जाते वह पांडिचेरी के निकट विल्लूपुरम में रुक गए और वहाँ से गाड़ी बदलकर तिरुकोइलूर पहुँचे। वहाँ वह श्री वी. रामास्वामी अय्यर से मिले। श्री अय्यर वहाँ डिप्टी कलक्टर थे, यद्यपि वह किसी विश्वविद्यालय में पढ़ाते नहीं थे, परंतु उन्हें लोग 'प्रोफेसर' कहकर संबोधित करते थे। गणित, विशेष रूप से ज्यामिति में उनकी विशेष रुचि थी और उन्होंने प्रेसिडेंसी कॉलेज के अपने विद्यार्थी काल में इंग्लैंड से प्रकाशित पत्रिका 'एजुकेशनल टाइम्स' में गणित पर एक लेख प्रकाशनार्थ भेजा था। कुछ समय पूर्व उन्होंने 'इंडियन मैथेमेटिकल सोसाइटी की स्थापना में भी सक्रिय भूमिका निभाई थी। रामानुजन ने अपनी नोट-बुक्स उन्हें दिखाई। श्री रामास्वामी की समझ में तो शायद ही कुछ आया, परंतु वह उनसे प्रभावित अवश्य हुए। वह रामानुजन को शायद कर-कार्यालय में कार्य दे सकते थे, परंतु उन्होंने अपने बाद के संस्मरणों में बताया है कि ऐसा करके वह रामानुजन की प्रतिभा पर पानी नहीं फेरना चाहते थे। उक्त भेंट में हुई वार्ता का उल्लेख डॉ. एस. रंगानाथन द्वारा रामानुजन पर लिखी पुस्तक में इस प्रकार किया गया है—
रामानुजन— मेरी रुचि गणित में है।
रामास्वामी अय्यर— अभी तक तुमने गणित में क्या-क्या किया है?
रामानुजन— इस नोट-बुक में मेरे द्वारा खोजे गए कुछ साध्य एवं सूत्र हैं।
रामास्वामी अय्यर— यह नोट बुक मुझे दो। (नोट-बुक के पृष्ठों को देखते हुए आश्चर्य से) इसमें अधिकतर काम तो
नया ही लगता है। (कुछ और पृष्ठ देखने के पश्चात्) जिस पृष्ठ को भी देखता हूँ, उसी में नए सूत्रों और साध्यों की खान दिखाई देती है। क्या आनंद की बात है! तुम कहाँ काम करते हो?
रामानुजन— मैं नौकरी की खोज में हूँ।
रामास्वामी अय्यर— (फिर पृष्ठों को उलटते-पलटते हुए) मुझे लगता है कि तुम्हारे पास काफी संपत्ति है।
रामानुजन— नहीं, श्रीमान! मैं तो एक गरीब परिवार से हूँ। मेरे पिता कुंभकोणम में कपड़े की एक दुकान पर मुनीम हैं। उन्होंने पिछले वर्ष मेरा विवाह करके मुझे गृहस्थ भी बना दिया है।
रामास्वामी अय्यर— (फिर पृष्ठों को उलटते-पलटते हुए) अच्छा तो ऐसा है।
रामानुजन— श्रीमान, कृपा करके मुझे अपने कार्यालय में या फिर तालुक-बोर्ड में किसी क्लर्क की नौकरी दिला दीजिए, ताकि मैं अपना जीवन निर्वाह कर सकूँ।
रामास्वामी अय्यर— ऐसा करना मेरे लिए उचित नहीं होगा। यदि तुम मेरे कार्यालय में या कहीं और क्लर्क बन गए तो तुम्हारे पास जो गणित में शोध करने की क्षमता है, वह समाप्त हो जाएगी। अतः तुम्हें क्लर्क की नौकरी में लगाकर मैं ऐसा पाप नहीं करना चाहूँगा।
रामानुजन— श्रीमान, ऐसा न कहें। यदि आप मेरी सहायता नहीं करेंगे तो कौन करेगा?
रामास्वामी अय्यर— ऐसा मत सोचो कि मैं तुम्हें निराश करना चाहता हूँ। तुम्हें कुछ निश्चित सहायता मिलेगी। जरा कुछ मिनटों के लिए प्रतीक्षा भर करो। (तब रामास्वामी अय्यर ने प्रेसीडेंसी कॉलेज, मद्रास में गणित के प्राध्यापक श्री पी. वी. अय्यर को एक अच्छा सा पत्र लिखा।)
रामास्वामी अय्यर— रामानुजन, यह पत्र लो और जाकर प्रो. पी. वी. शेषु अय्यर से मिलो। उन्हें यह पत्र दो। क्या तुम उन्हें थोड़ा-बहुत जानते हो?
रामानुजन— जी हाँ, मैं राजकीय कॉलेज, कुंभकोणम का विद्यार्थी रहा हूँ।
रामास्वामी अय्यर— तब तो उनसे मिलना तुम्हारे लिए आसान होगा।
प्रो. शेषु अय्यर पहले राजकीय कॉलेज में अध्यापक थे और चार वर्ष पहले प्रेसीडेंसी कॉलेज में पहुँच गए थे। उस समय वह कुछ वर्ष पूर्व संस्थापित ‘इंडियन मैथेमेटिकल सोसाइटी’ की कार्यकारिणी के सदस्य थे।
उनसे मिलने के बाद रामानुजन को कोई नौकरी तो नहीं मिली, मगर हाँ, प्रो. अय्यर की सिफारिश से नैलोर के जिलाधीश श्री आर. रामचंद्र राव, जो इंडियन मैथेमेटिकल सोसाइटी के अध्यक्ष भी थे, ने कोई एहसान किए बिना ही रामानुजन को पच्चीस रुपए प्रतिमाह का प्रबंध कर दिया।