Air ! slow down in Hindi Book Reviews by Pranava Bharti books and stories PDF | हवा ! ज़रा थमकर बहो

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हवा ! ज़रा थमकर बहो

हवा ! ज़रा थमकर बहो, मन की बयार में डूबते-उतरते अहसासों का स्निग्ध चित्र

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रोचक शीर्षक में बहती बयार में मन की गांठ का खुल खुल जाना और पन्नों में से शब्दों का निकलकर फड़फड़ाना मुझे न जाने क्यों अपने साथ रिलेट कर देता है | वैसे इस 'क्यों?' का उत्तर इतना कठिन भी नहीं होता क्योंकि हम कभी न कभी जाने-अनजाने में उस बयार में स्नान कर चुके होते हैं | लेकिन कमाल यह है कि चरित्र, परिस्थितियाँ यहाँ तक कि संवादों की छनक भी मुझे लगती है कि यह तो मैं जानती हूँ या फिर यह मेरे साथ घटित हो चुका है | 

इस 'क्यों? कैसे?' का उत्तर जहाँ तक मैं सोचती हूँ कि मुझसे होकर इसलिए गुज़रता है कि उन विषयों से मैं कहीं न कहीं जुड़ चुकी होती हूँ इसलिए वे सभी बातें, घटनाएँ मुझे बहुत चिर -परिचित सी लगने लगती हैं | प्रश्न यह भी उठ खड़ा होता है कि मैं ऐसी सर्वज्ञाता हो गई क्या कि हर चरित्र में, हर परिस्थिति में, हर संवाद में खुद को या अपने से जुड़े हुए किसी को पा ही लेती हूँ | कुछ घबराहट भी होती है क्या हम इस जगत में घटित होने वाली सभी घटनाओं से जुड़े रहते हैं?लेकिन ऐसा है और मुझे लगता है कि लेखन व पठन-पाठन के साथ जो लोग जुड़े रहते हैं, उन सभी को कभी न कभी, कोई न कोई ऐसा आभास होता होगा | इसमें मुझे कोई संदेह नहीं है और सच तो यह है कि यह कृति की बहुत बड़ी सफलता है | 

पिछले दिनों कुछ ऐसी घटनाएँ घटित हुईं कि मैं अपने मित्रों के साहित्य से बचने लगी क्योंकि मुझे उनके साहित्य में अपनी परछाई दिखने लगी थी यहाँ तक कि संवादों तक से मैं खुद से जुड़ जाती थी| मेरे नेत्रों के समक्ष वे सारे पात्र घूमने लगते थे और मुझे पीड़ा के दरीचे में खींचकर ले जाते थे | मैं अपने भीतर के झंझावात को निकाल देने, उससे दूर होने के स्थान पर उसी में रमने लगती | जिसका हश्र यह होता कि यदि किसी पुस्तक पर अपनी कुछ प्रतिक्रिया देने की शुरुआत भी करती तो वह बीच में ही रुक जाती और मेरे लैपटॉप के ड्राफ़्ट में पहुँच जाती | 

नीलम कुलश्रेष्ठ जी का मुझ पर बहुत विश्वास है लेकिन मैं कभी उनके विश्वास पर खरी नहीं उतर पाती | मुझे उनके उपन्यासों की थीम, वातावरण अपने भीतर उगती हुई असहजताओं के बवंडर का अहसास दे जाता है | 

'हवा! ज़रा थमकर बहो' में मुझे ऐसा कुछ अहसास तो नहीं हुआ लेकिन इसमें आदिवासियों का चित्रण, उनके बहुत से चरित्र मुझे अपने आस-पास के ही लगे जिसका कारण था मेरे 'अब झाबुआ जाग उठा'सीरियल के पात्रों का मुझ पर अत्यधिक प्रभाव !

हवा!ज़रा थमकर बहो ---मुझे अपने साथ बहाकर ले चली और मैं उसकी दिशा में, उसकी गंध साँसों में भरते हुए उसके पात्रों के साथ यात्रा करती रही | एक बात जो सबसे महत्वपूर्ण और स्वाभाविक भी लगती है मुझे, वह यह है कि बेशक बड़ौदा और अहमदाबाद अलग शहर हैं लेकिन गुजरात की सुगंध से सराबोर तो रहेंगे ही !हम गुजरात में रहते हैं इसलिए यहाँ की वेष-भूषा, कहाँ-पान, तौर-तरीके, भाषा, उत्सव आदि सभी से गुजरते हैं और उनका ही भाग बन चुके हैं | 

हमारे घरों में आने वाले 'हाऊस-हैल्प' भी हमें बहुत कुछ अनजाने में ही सिखला देते हैं और न जाने कितने विषय हमारे मस्तिष्क में डाल जाते हैं जिन पर कभी न कभी माँ वीणापाणि कलम थमा देती हैं और न जाने कैसे लेखन शुरू हो जाता है ?

अचानक यमदूत से विश्व भर में पसरे कोरोना का प्रभाव सभी पर पड़ा है और लेखक अथवा कवि का मन उन दृश्यों को देखकर जहाँ चीत्कार करता रहा है, वहीं घर में बंद जैसे सलाखों में से झाँकते हुए कितने ही चित्र लेखकों की उनींदी आँखों में नमूदार हो गए हैं और वे 'हाऊस-हैल्प' के बिना भी झींकते हुए, घर के कामों में लगकर चकनाचूर होते हुए, घबराते हुए भी अपने को खाली करने से रोक नहीं पाए हैं | 

हवा ! ज़रा थमकर बहो की लेखिका किसी परिचय की मोहताज नहीं हैं | मुझे वर्षों पूर्व का वह दिन आज भी याद है जब किसी कार्यक्रम के बाद डिनर पर हम दोनों साथ बैठे थे | उन दिनों नीलम जी पत्रकारिता के क्षेत्र में सर्वोच्च शिखर पहुँच चुकी थीं, उनके विभिन्न क्षेत्रों से संबंधित साक्षात्कार, कहानियाँ बाकायदा श्रेष्ठ पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो रहे थे उन्होंने स्वयं लिखा है ;पादरा कॉलेज की प्रिंसिपल से जब उनकी मुलाकात हुई तो उन्होंने कहा कि बड़ौदा इतना एक्टिव शहर है लेकिन इसका हिन्दी बैल्ट की पत्रिकाओं में नाम नहीं दिखाई देता !

जिसे कलम भी ठीक से पकड़नी नहीं आती थी, ऐसी मैंने ठसक से कहा ;"अब मैं आ गई हूँ, सब जगह आप इस शहर का नाम देखेंगी --"

वे इस बात की स्वीकारोक्ति करती हैं ;

'ऊपर वाले ने मेरे इस कथन की इतनी लाज रखी कि साहित्य जगत में सब बड़ौदा वाली कुलश्रेष्ठ से पहचानने लगे | सच है, वह ऊपर वाला कौन है?केवल महसूसते हुए हम उस मार्ग पर चलने लगते हैं जो हमारे समक्ष किसी द्वार सा आ खुलता है | 

बड़ौदा के किसी कार्यक्रम के बाद हम किसी खूबसूरत से होटल की छत पर डिनर के लिए बैठे थे | नीलम जी मेरे पास आ बैठीं, तब तक हमारा बहुत अधिक परिचय नहीं था लेकिन महिलाओं को परिचय करते देर कहाँ लगती है !!स्वाभाविक रूप से हमारी बातचीत शुरू हो गई | हम महिलाएं बातचीत करने में माहिर होती ही हैं फिर उस दिन तो हम बड़ौदा के अतिथि थे | जहाँ तक मुझे याद है पहली बार उनसे इतने करीब से मुलाकात हुई थी | मुझे उनके साथ वार्तालाप के कुछ अंश खूब याद हैं और अब जब मैं उनके उपन्यासों को लगातार प्रकाशित होते देखती हूँ तब वह वार्तालाप मुझे पीछे ले जाता है | 

उन्होंने पूछा था;"प्रणव जी !कहानियाँ तक तो ठीक लेकिन इतने बड़े-बड़े उपन्यास आप कैसे लिख लेती हैं?" मुझे यह तो याद नहीं कि मैंने उन्हें क्या उत्तर दिया होगा | शायद उसके बाद अधिक बार मिलना भी नहीं हुआ था | यह भी मालूम नहीं था कि वे अहमदाबाद में आ बसेंगीं लेकिन हम कहाँ जानते हैं कि भविष्य हमें किन गलियों, किन चौराहों, किन मार्गों पर ले जाता है ? नीलम जी अहमदाबाद आ बसीं और हम उनकी स्थापित की गई 'अस्मिता'बहुभाषी संस्था से जुड़कर फिर से समीप होते गए | 

हवा!ज़रा थमकर बहो उपन्यास से पूर्व उनकी विभिन्न विधाओं में कितनी ही पुस्तकें आ चुकी हैं जिनमें कई कहानी-संग्रह, पत्रकारिता के अनेक महत्वपूर्ण कार्य व बहुमूल्य संपादन साहित्य की भूमि पर अपना उच्च स्थान बना चुके हैं | उनके विषयों के चयन का एक अपना ही तरीका व सलीका मुझे लगा है इसका श्रेय, मैं समझती हूँ कि पत्रकारिता को जाता है जिसके माध्यम से उन्हें विभिन्न लोगों से मिलने के व उन्हें समझने के अवसर प्राप्त होते रहे, किसी भी चीज़ को जानने की एक शोध-परक जिज्ञासा रही | नारी अस्मिता की बात वे उस समय शुरू कर चुकी थीं जब 'अस्मिता' के बालपन के दिन थे | 

इस उपन्यास में लगभग सभी चरित्र मुझे अपने से बतियाते लगे और जैसा मैंने ऊपर लिखा है मैं इनके साथ सफ़र में रही | आर्किटेक्ट तनु, उसका मित्र प्रेमी सनी, श्री वल्लभ भाई जो आदिवासियों के लिए अदालत चलाते हैं, गुँथा (जिससे मैं कई रूपों में अपने झाबुआ क्षेत्र के आदिवासी सीरियल के माध्यम से मिली हूँ )और सबसे महत्वपूर्ण वे सन्यासिनी व उनका मूक प्रेमी जिनके माध्यम से योग और भोग की स्थिति कितनी सहजता से स्पष्ट हो जाती है, यकायक ही आचार्य रजनीश की याद दिलाती है | 

आश्चर्य व कमाल की बात है कि यह सन्यासी वाला चरित्र मेरे उपन्यास 'प्रेम गली अति साँकरी'में बेशक किसी और रूप में साकार हो रहा है जो आजकल 'मातृभारती 'के डिज़ीटल प्लेटफ़ॉर्म पर चल रही है लेकिन उसकी भूमि वही है | इस उपन्यास से गुजरते हुए आकर्षण व प्रेम की तह तक पहुंचते हुए मुझे लगा, मैंने यह विषय कहीं इनसे ही तो नहीं चुरा लिया ?

उपन्यास में उत्सवों के रंग-रँगीले प्रदेश की झाँकी, यहाँ के खान -पान की सुगंध, भाषा की मिठास, साथ ही हमारे भोजन के सबसे महत्वपूर्ण नमक के बारे में बहुत सी नई जानकारियाँ प्राप्त होती हैं | 

नीलम कुलश्रेष्ठ के कार्य की संजीदगी उनके शोध में स्पष्ट रूप से दिखाई देती है | वे अपने पाठकों से कहती हैं कि --

"गुजरात की बहुत सी सच्चाइयों के परिचय देने के मेरे लोभ के कारण आपका इसे पढ़ते समय रसभंग हो जाए तो मैं क्षमाप्रार्थी हूँ---"

एक पाठक की हैसियत से मैं यह बहुत ईमानदारी से कहना चाहती हूँ कि बेशक इस उपन्यास में बहुत सी नई जानकारियाँ प्राप्त हुई हैं लेकिन कहानी का सिरा कहीं से भी न टूटता है, न ही उसमें ऐसा लगता है कि कहीं से इसको गांठ लगाकर ज़बरदस्ती जोड़ा गया है | इसके लिए लेखिका नीलम कुलश्रेष्ठ का खूब-खूब अभिनंदन !

सन्यासिन की निम्न पंक्तियों से मैं अपनी बात को विराम देना चाहती हूँ जिसने योग और भोग को सहज ही समझा दिया और जो अंतर में उतरते चले गए यह सोचने, समझने की संवेदना के साथ कि जीवन का हर पल, हर अवस्था प्रकृति का आशीर्वाद है | बेशक भक्तों, पूजा-पाठ, भजन-कीर्तन में निमग्न क्यों न हो जाएँ किन्तु मन की बेचैनी पीछा नहीं छोड़ती | आखिर हम धरती के एक आम मानव हैं जिसके साथ भौतिक की यात्रा भी उतनी ही महत्वपूर्ण है जितनी आध्यात्म तक पहुँचने का मार्ग, यह मार्ग इसी भौतिकता से ही तो गुजरकर जाता है | 

इस भरी दुनिया में सब कुछ है

फिर क्यों तड़पता है ये दिल ?

किसकी बात जोहता है दिल?

क्या दिल का सहारा कोई नहीं ??

वनिका प्रकाशन की प्रिय नीरज सुधांशु शर्मा द्वारा बड़े प्रेम व खूबसूरती से प्रकाशित इस उपन्यास को पढ़कर अवश्य बिना रस-भंग के बहुत सी नवीन, रोचक बातों की जानकारी होगी | इसमें कोई संदेह नहीं है | इस उपन्यास के लिए एक बार पुन: लेखिका नीलम कुलश्रेष्ठ जी को तहेदिल से अभिनंदन !

 

स्नेह सहित

डॉ. प्रणव भारती

अहमदाबाद