where... in Hindi Women Focused by Saroj Verma books and stories PDF | कोठेवाली...

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कोठेवाली...

दिल्ली मेरठ हाइवे पर एक औरत रहती थीं,अगल बगल कुछ खेत थे और उन खेतों के बीच में एक घर था ,जो उस औरत का था,कहते हैं कि वो खेत भी उसी के थे,जिनसे वो अपना गुजारा करती थी,हाइवें पर गुजरने वाले ट्रक वालों के लिए वो खाना बनाया करती थी और उन ट्रक वालों के लिए दिन में और रात-बिरात में उस औरत का घर ही मुसाफिर खाना था,सब कहते थे कि वो गोश्त बहुत अच्छा पकाती थी,जो भी पहली बार उसके हाथ का पका गोश्त खा लेता तो फिर खाना खाने वहीं पहुँचता था,कुछ शरीफ़ लोंग वहाँ जाना पसंद नहीं करते थे क्योंकि कहते हैं कि वो यहाँ रहने से पहले दिल्ली की किसी गौहरजान के कोठे पर धन्धा करती थी,इसलिए शरीफ लोग किसी कोठेवाली के हाथ का पका खाना नहीं खाना चाहते थे फिर वो चाहे कितना भी अच्छा पकाती हो,दुनिया ऐसी ही है ना जाने कितने शरीफ घराने के लोंग रात को चोरी छुपे कितने ही कोठेवालियों के सीने से लिपटकर सोते होगें लेकिन उनके हाथ का छुआ जल पीने में उन्हें परहेज हैं....
उसका घर ज्यादा बड़ा तो नहीं था, सिर्फ़ छोटी छोटी तीन कोठरियाँ थीं,लेकिन थीं साफ़ सुथरी,सामान भी सलीके से लगा था,पीछे वाले कमरें में वो अपने मेहमानों की रात को मेहमाननवाजी किया करती थी,जिसमें एक पीली रोशनी का बल्ब लगा था,उस औरत का नाम रसीलीबाई था,उसके साथ उसकी बेटी भी रहती थी,जिसका नाम सुनहरी था,कोई कहता था कि वो उसकी लड़की नहीं है अनाथ थी और उसने उसे पाल लिया था और कोई कहता था कि वो उसकी नाजायज़ औलाद थी,किसी जमींदार की देन थी,जिसने उसे और उस लड़की को अपनाने से इनकार कर दिया था,
रसीलीबाई तेरह साल की उम्र से ही धन्धे पर उतर आई थी,किसी गाँव से कोई उसे अगवाकर करके लाया था और गौहरजान के यहाँ बेच दिया था,रसीलीबाई की उम्र अभी पैतीस साल ही होगी और उसकी बेटी सुनहरी सोलह साल की रही होगी,रसीलीबाई को देखकर ऐसा लगता था कि वो अपने जमाने में बहुत खूबसूरत रही होगी,उसकी आँखों की ताजगी और गालों की रंगत अभी भी बरकरार थी, अब सुनहरी उसकी बेटी थी या नहीं लेकिन वो शबाब का बड़ा दिलकश नमूना थी,लेकिन उसकी माँ रसीलीबाई उससे धन्धा करवाती थी और दोनों माँ बेटी ये धन्धा करके खूब पैसा कमा रहीं थीं.....
रसीलीबाई उसे शहर से दूर इसलिए पाल रही थी कि कहीं उसे बाहर की हवा ना लग जाएं और जब रसीलीबाई ने सुनहरी को पहली बार किसी मर्द के साथ सोने के लिए कहा तो उसे लगा कि ऐसा सबके साथ होगा,शायद औरत की जिन्दगी इसी तरह गुजरती होगी,वो ऐसा चरित्रहीन जीवन जी रही थी लेकिन उसे इस बात की खबर ही नहीं थी कि वो गुनाह कर रही है क्योंकि उसकी माँ रसीलीबाई ने उसे कभी ऐसा कुछ समझाया ही नहीं था,वो हर किसी मर्द को खुद को सौंप देती थी क्योंकि उसकी माँ ने उसे यही सिखाया था कि मेहमान की मेहमाननवाजी में कोई कमी ना आए...रसीलीबाई को अब यकीन हो चला था कि सुनहरी अब अपने ग्राहकों को सम्भाल सकती है,
जो भी ग्राहक वहाँ आता तो रसीलीबाई उससे अगली बार खुद का मुर्गा या गोश्त लाने को कहती,वो उनसे कहती कि शहर इतना दूर है ,इस घर में राशन पानी लाने वाला कोई मर्द नहीं है, हम दोनों माँ बेटी वहाँ क्या भटकेगीं तुम्ही ले आया करो,सो अगली बार से सब ट्रक ड्राइवर अपना अपना राशन लाकर ही खाना पकवाते थे ,फिर खाने के बाद सुनहरी के संग वक्त बिताते थे,ग्राहको से पैसे तो रसीलीबाई लेती थी लेकिन जो तोहफे आते थे वो सुनहरी के पास ही रहते,इस तरह सुनहरी के पास बहुत से जेवर इकट्ठे हो गए थे,सुनहरी बहुत खुश थी क्योंकि उस छोटे से घर में वो अपने मुताबिक जिन्दगी जी रही थी,उसके पास खुद का रेडियो भी था,जिसकी बैटरियाँ कोई ना कोई ग्राहक ला देता था,जिस रास्ते पर उसको डाल दिया गया था उसे उसने खुशी खुशी अपना लिया था,
वो बाहरी दुनिया के बारें में कुछ नहीं जानती थी,केवल उसे इतना पता था कि बाहर एक सड़क है और उस पर ट्रक रूकते हैं और उन ट्रकों से उतरने वाला उसका ग्राहक होता है और वो उसके लिए तोहफे लाता है,कुछ ही ऐसे ग्राहक थे जो ज्यादातर आते थे कुछ तो बस वहाँ खाना खाने के लिए ही रूकते थे लेकिन सुनहरी के शबाब का मज़ा भी लेकर जाते थे,रसीलीबाई ये काम एक डेढ़ बरस से कर रही थी,लेकिन पुलिस वालों को इसका कुछ भी पता ना था ,बस सिर्फ़ वही लोग जानते थे जो वहाँ आते थे,
फिर एक रोज़ एक खूबसूरत सा बाकाँ नौजवान आया,वो किसी ईटों के भट्ठे का मालिक था,वो वहाँ पहुँचा तो रसीलीबाई फौरन उसकी खिदमत में हाजिर होते हुए बोली...
"क्या पकाऊँ?,मुर्गा, बकरा,तीतर या बटेर"
तब वो जवान बोला...
"मैं तो यहाँ किसी और ही चींज का लुफ्त लेने आया था,लेकिन लगता है निराश होकर लौटना पड़ेगा क्योंकि जैसा लोगों ने बताया था तुम बिल्कुल भी वैसी नहीं हो"
तभ रसीलीबाई बोली...
"आप गलत समझे,आपकी मनपसंद चीज तो पीछे वाली कोठरी में बैठी है"
और फिर वो बाकाँ जवान भीतर पहुँचा और सुनहरी को देखकर पागल हो गया,वो अब सुनहरी के पास ज्यादातर आने लगा और आते ही रसीलीबाई के मुँह पर नोटों की गड्डियाँ फेंककर पीछे वाली कोठरी में सुनहरी के पास चला जाता,सुनहरी के दिल में उस नवयुवक ने जल्दी ही अपनी जगह बना ली,उसका नाम लल्लन था,सुनहरी को उसके नजदीक आकर अजब सा सुकून मिलता,लल्लन अच्छे क़द-काठी का था,उसका जिस्म गठा हुआ और वो बहुत ही ख़ूबसूरत था, उसकी बाँहों में सुनहरी को सुकून महसूस होता,जिस्मानी और रूहानी प्यार क्या होता है ये लल्लन ने सुनहरी को बताया ,इसलिए सुनहरी उसे चाहने लगी थी,जब वो कभी नहीं आता तो सुनहरी रेडियो पर दर्द भर गाने सुनती,उसके लिए आहें भरती,अब वो दूसरे ग्राहकों के पास जाने से घबराने लगी,उन लोगों से हमबिस्तर होने के लिए उसे घिन आने लगी,इस तरह अब दूसरे ग्राहक भी रसीलीबाई के यहाँ आने से कतराने लगे क्योंकि वें उससे कहते थे कि अब सुनहरी में वो बात नहीं रही,वो अब हमें खुश नहीं कर पाती,
अब जाड़े आ चुके थे,कड़ाके का जाड़ा पड़ रहा था और इसी तरह एक हफ़्ता गुज़र गया, लेकिन कोई भी ग्राहक रसीलीबाई के पास ना आया,उसी रास्ते से ना जाने कितने ही पहचान वाले ट्रक ऐसे ही उस रास्ते से गुजर जाते लेकिन कोई भी रसीलीबाई के घर के सामने ना रूकता,एक हफ्ते बाद लल्लन फिर से रसीलीबाई के घर आया,लेकिन इस बार उसने नोटों की गड्डी रसीलीबाई के मुँह पर ना फेंकी और सीधा पीछे वाली कोठरी में सुनहरी के पास चला गया,अब तो रसीलीबाई को बहुत गुस्सा आया क्योंकि ना तो ग्राहक ही आ रहे थे और लल्लन भी उसे कुछ नहीं दे रहा था,वो मुफ्त में मज़े लूट रहा था,उस रोज़ तो रसीलीबाई कुछ ना बोलीं चुप रह गई....
फिर ऐसे ही एक हफ्ता गुजरा रसीलीबाई के यहाँ कोई ग्राहक ना आया और फिर अगले हफ्ते लल्लन फिर से आया और रसीलीबाई को बिना कुछ दिए ही सुनहरी के पास पिछली वाली कोठरी में चला गया,अब तो रसीलीबाई गुस्से से आगबबूला हो गई,जब बहुत देर बाद लल्लन भीतर से आया तो रसीलीबाई से बोला....
"रसीलीबाई मैं सुनहरी से ब्याह करना चाहता हूंँ"
अब तो रसीलीबाई सकपका गई, क्योंकि सुनहरी तो उसकी रोजी रोटी थी अगर वो ब्याहकर चली गई तो फिर वो तो भूखों मरने लगेगी,लेकिन वो लल्लन को भी सबक सिखाना चाहती थी,उसे सुनहरी से भी कोई प्यार नहीं था वो तो बस उससे इसलिए प्यार दिखाया करती थी कि वो उसकी रोजी रोटी का जरिया था,लेकिन फिर भी रसीलीबाई ने सब्र से काम लेते हुए लल्लन से पूछा....
"कब तक करना चाहते हो सुनहरी से ब्याह?"
"जब तुम कहो तब कर लूँगा",लल्लन बोला.....
"तो ठीक है मुझे भी कुछ मौहलत देदो,इस महीने की पन्द्रह तारीख को तुम आ जाना ,सुनहरी को मैं तुम्हारे सुपुर्द कर दूँगीं, इतने दिन मैं सुनहरी के साथ हँसी खुशी बिताना चाहती हूँ,फिर तुम उसे शहर ले जाकर वहीं उससे ब्याह कर लेना",रसीलीबाई बोली...
"ठीक है रसीलीबाई !बहुत बहुत शुक्रिया!मुझे यकीन नहीं होता कि तुम इस ब्याह के लिए मान गई हो" , लल्लन बोला....
"कैसें ना मानती,मैं भी तो सुनहरी की खुशी चाहती हूँ",रसीलीबाई बोली....
और इस बात से सुनहरी भी बहुत खुश हुई जो दरवाजे के पीछे खड़ी दोनों की बातें सुन रही थी,इसके बाद लल्लन चला गया और इधर माँ बेटी साथ रहकर अपने दिन खुशी खुशी बिताने लगे,पन्द्रह तारीख को शाम के वक्त लल्लन आ पहुँचा,तब उसने रसीलीबाई से सुनहरी के बारें में पूछा तो रसीलीबाई बोली....
"पिछली कोठरी में बैठी तैयार हो रही है, पहले तुम खाना खा लो,फिर वो तो अब तुम्हारी ही है"
ये सुनकर लल्लन खुश हुआ और रसीलीबाई से बोला....
"हाँ!भूख तो लग रही है, पहले खाना खा लेता हूँ,"
फिर रसीलीबाई ने कलेजी के साथ पहले लल्लन को शराब परोसी फिर खाना परोसा,लल्लन ने खाना खाया तो बोला.....
"रसीलीबाई !क्या बात है, आज का गोश्त बड़ा ही नरम और रसीला है, बड़ा लजीज है, बहुत अच्छा बना है और मिलेगा क्या?
तब रसीलीबाई डेचकी में से और गोश्त परोसते हुए बोली....
"हाँ...हाँ....और लो,सब तुम्हारे लिए ही है"
और फिर उस रात लल्लन ने जीभर के गोश्त खाया और खाना खाने के बाद उसने रसीलीबाई से कहा.....
" अब मैं सुनहरी के पास जाऊँ,अब तक तो वो तैयार हो चुकी होगी"
तब रसीलीबाई बोली....
"हाँ!वो तो कब की तैयार होकर डेचकी में पड़ी है और तुम उसे डकार भी गए"
रसीलीबाई की बात सुनकर लल्लन के होश उड़ गए और फिर रसीलीबाई ने हँसिया उठाकर लल्लन की गरदन पर वार किया और फिर दूसरे दिन उसने सभी ट्रक वालों को मुफ्त में गोश्त खिलाया जो कि लल्लन का था और सबसे कह दिया कि सुनहरी को लल्लन ना जाने कहाँ भगाकर ले गया है,ये थी कोठेवाली रसीलीबाई की कहानी......

समाप्त.....
सरोज वर्मा......